कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, October 17, 2008

टेराकोटा, काली बंगा, चूड़ियां और प्रेम

पंद्रह सौ साल पहले
अनजान कबीले की उस औरत ने
पहनी होगी कलाई में चूड़ी
टेराकोटा से बनी

टेराकोटा, जो होती है लाल और काली
उससे बुनीचूड़ी का एक टुकड़ा
जो न बताओ तो नहीं लगता
श्रृंगार का जरिया

वो चूड़ी पहनकर वो औरत हंसी होगी
होंठों को एक दांत से दबाकर
पर तुम्हारी तो आंख से काजल बहने लगता है
तुम थर्राए होंठों से
पूछती हो
जिन हाथों में रही होगी ये चूड़ी
उन्हें किसी ने चूमा होगा ना

तुम सिहर उठती हो ये सोचकर
वक्त में घुल गई होगी वो औरत
मिट गया होगा उसका अस्तित्व
पर सुनो...चूड़ी कहां घुली?
नहीं नायकीन मानो
मिट्टी कभी नष्ट नहीं होती
चूड़ी टुकड़ा-टुकड़ा टूटी
लेकिन खत्म नहीं हुई
तुमने ही तो मुझे बताया था वसंतलता
ऐसे ही प्रेमियों और प्रेमिकाओं के तन नष्ट हो जाते हैं
पर कहां छीजता है प्रेम?

काली बंगा से लौटते वक्त
तुम बीन लाईं कहीं से चूड़ी का वो टुकड़ा
और मुझसे पूछती रही,
क्या होता है टेराकोटा
और ये भी
पंद्रहवी सदी में किस कबीले की औरत ने पहनी होगी
टेराकोटा से बनी ये चूड़ी
मेरे पास नहीं है कोई जवाब
बस, तुम्हारी लाई चूड़ी का वो टुकड़ा रखा है मेरे पास
सदा रहेगा शायद
मैं नहीं जानता काली बंगा के बारे में
न ही उन औरतों के बारे में
बस पता है प्रेम
जो पता नहीं कहां,
पेट में, दिल में, मन में या फिर आंसुओं में
पीर पैदा करता है
यकीन मानो
वो नष्ट नहीं होता कभी

Monday, October 13, 2008

तेज रफ्तार सिनेमा जैसा साहित्य : चेतन भगत

चौराहा के पाठकों के लिए एक और पोस्ट जागरण.कॉम से साभार...हालांकि लिखी ये भी मैंने ही है...


बदन पर जींस और टी-शर्ट, आंखों पर गॉगल्स और हाथ में चेतन भगत की ताजा किताब..ये नजारा आप कनॉट प्लेस में टहलते वक्त या मेट्रो में सफर करते हुए देख सकते हैं। यकीनन न्यूयार्क टाइम्स की जुबान में भारतीय इतिहास में सर्वाधिक बिकने वाले उपन्यासकार चेतन भगत युवाओं के पसंदीदा लेखक बन चुके हैं। उनके उपन्यासों की कथा और बुनावट बहुत हद तक फिल्मी है और प्रारंभ का अंदाज भी। शुरुआत अक्सर फ्लैशबैक के साथ होती है। किशोरवय और कई बार युवावस्था का प्रेम, चुंबन, रतिदृश्य और छिटपुट हिंसा..उनके उपन्यासों के फार्मूले-मसाले हैं। चेतन तेजरफ्तार क्लाइमेक्स बुनते हैं, जिनके बाद हैप्पी एंडिंग होती है।

नई खबर ये है कि अब तक अंग्रेजी में हॉटकेक बने रहे चेतन भगत की फिलवक्त तक रिलीज तीनों किताबें हिंदी में भी उपलब्ध हो गई हैं। प्रभात प्रकाशन ने चेतन की दो किताबें- 5 प्वाइंट समवन और वन नाइट @ कॉल सेंटर का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है, जबकि डायमंड पॉकेट बुक्स ने द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ का रूपांतरण पेश किया है।

वन नाइट @ कॉल सेंटर वही किताब है जिस पर बनी फिल्म हेलो हाल में ही रिलीज हुई है और साथ में फ्लॉप भी। ये गुडगांव के एक कॉल सेंटर में काम करने वालों की एक रात की कहानी है जिसका अंत तेजरफ्तार क्लाइमेक्स और भगवान की फोन कॉल के साथ होता है। इसमें फ्लर्ट, डेटिंग और चौराहे पर चुंबन के दृश्य हैं, जो यकीनन युवाओं को लुभा लेते हैं।

फाइव प्वाइंट समवन में आईआईटी, पवई के तीन छात्रों की कथा सुनाई गई है। यहां रैगिंग, स्वप्न और संघर्ष का मिश्रण मिलता है। चेतन की सबसे ताजा किताब द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ में पाठक अहमदाबाद के तीन दोस्तों से परिचित हो पाते हैं। ये दोस्त बहुत-सी उम्मीदों के साथ अहमदाबाद में मौजूद हैं, जहां दंगे होते हैं। इन सबके बीच हम एक छोटे-से बच्चे और उभरते क्रिकेटर अली को दंगाइयों से बचाने की कोशिशों का नजारा भी कर पाते हैं।

चेतन की कृतियों को कोई न कोई सूत्रधार पेश करता है। 3 मिस्टेक्स.. में ये जिम्मेदारी उपन्यास के नायक गोविंद ने संभाली है। इस कृति में चेतन अपने जाने-पहचाने मसालों के साथ हाजिर होते हैं, लेकिन इनके साथ राजनीतिक चेतना की झलक भी है जिसमें गोधरा और धर्मनिरपेक्षता को लेकर लेखक ने कुछ कहने की कोशिश की है।

चेतन की खासियत है उनकी सहज-सरल भाषा। किसी कृति का अनुवाद करते वक्त मूल लेखक की भाषा को बचाए-बनाए रखना बडी जिम्मेदारी बन जाती है। कुशल है कि तीनों कृतियों के अनुवादक इसे संजोए रख सके हैं। तेजरफ्तार हिंदी फिल्म की तरह बुने गए ये उपन्यास अंग्रेजी की तरह हिंदी में सराहे जाएंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा।

पुस्तक : द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ
लेखक संपादक: चेतन भगत
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स प्रा. लि
समीक्षक: चण्डीदत्त शुक्ल

Wednesday, October 8, 2008

इंग्लैंड में हिंदी

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चौराहा के पाठकों के लिए आजकल मैं मौलिक पोस्ट नहीं लिख पा रहा हूँ...पहले चवन्नी से पोस्ट साभार ली और अब जागरण.कॉम से...हाँ...मूल रूप से यह पोस्ट लिखी मैंने ही हैं...
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फिल्म 'लगान' याद है आपको? हां! तो भुवन भी याद होगा। गंवई भुवन, जिसे न बैट पता, न बाल पर बल्लेबाजी करने उतरा, तो अंग्रेजों के छक्के छूट गए। भुवन के पास थी बस एक ताकत-अपने समाज को 'लगान' की जंजीरों से मुक्त कराने का संकल्प।
लंदन में इन दिनों भारतीय साहित्यकार कुछ ऐसी ही बल्लेबाजी कर रहे हैं। फर्क इतना भर कि वे भुवन जैसे अनगढ़ नहीं, न हिंदी उनके लिए अबूझ-अनजानी भाषा है। वैसे, वे अंग्रेजी या अंग्रेजीयत को जवाब देने के लिए साहित्य नहीं रच रहे। उनके मन में भुवन जैसा इरादा है, तो इसलिए कि सात समंदर पार लंदन में भी हिंदी की धाक हो।
इसके लिए प्रवासी भारतीयों ने इंग्लैंड से हिंदी में पत्रिकाएं निकालीं। लगातार कवि सम्मेलन आयोजित किए और भारत-ब्रिटेन के बीच की दूरी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये कम कर दी। दिल्ली में नीपा जैसे थिएटर ग्रुप के साथ अंतरराष्ट्रीय बाल रंग महोत्सव की बात करें, या 'अक्षरम' के सालाना भव्य आयोजन पर नजर डालें, लंदन के प्रवासी भारतीयों की अकुलाहट और लगन की गवाही मिल जाएगी।
बीबीसी से जुड़े रहे डा. ओंकारनाथ श्रीवास्तव [2004 में निधन] और कुछ अरसा पहले ही दिवंगत हुई 'तीसरा सप्तक' की कवयित्री कीर्ति चौधरी की जोड़ी हिंदी के प्रचार-प्रसार में तन-मन-धन से जुटी रही। सनराइज रेडियो के प्रसारक रवि शर्मा, फिल्मकार डा. निखिल कौशिक, पूर्णिमा वर्मन, कवयित्री दिव्या माथुर और भारतीय उच्चायोग के हिंदी अधिकारी राकेश दुबे जैसे कार्यकर्ता हिंदी को सम्मानित करने की मुहिम में जुटे हैं।
वैसे, यह सब कुछ दो-चार दिन में नहीं हुआ। जहां भी किसी भाषा के मुरीद रहते हैं, उसे स्थापित करने की कोशिश करते ही हैं। उल्लेखनीय इतना भर कि ब्रिटेन और खासकर लंदन में ये कोशिश खासी असरदार साबित हो रही है।
अब एक नजर चर्चित लेखिका-अनुवादक युट्टा आस्टिन के बयान पर। युट्टा मानती हैं कि हिंदी के लेखक जो कहानी-कविता लिखते हैं, वे भारतीय या पाश्चात्य के समीकरणों से कहीं ऊपर हैं। युट्टा आस्टिन बताती हैं कि लंदन में हिंदी कोई अपरिचित भाषा नहीं रही। यहां के लोग हिंदी में रचा गया साहित्य पसंद करते हैं और हिंदी लिखने वालों को भी। युट्टा के कथन को प्रमाणित करती हैं जून के आखिरी हफ्ते में घटी दो घटनाएं--
लंदन के नेहरू सेंटर सभागार में कहानीकार उषा राजे सक्सेना के कथा संग्रह 'वह रात और अन्य कहानियां' का लोकार्पण हुआ। समारोह में बीबीसी की निदेशक अचला शर्मा, नेहरू सेंटर की निदेशक मोनिका मोहता, आलोचक प्राण शर्मा और प्रकाशक महेश भारद्वाज खास तौर पर मौजूद थे। कार्यक्रम में लंदन में रह रहे हिंदी के लेखक तो आए ही, दर्जन भर से ज्यादा ब्रिटिश हिंदी प्रेमी भी हाजिर हुए।
चंद रोज बाद ब्रिटिश संसद के उच्च सदन हाउस आफ ला‌र्ड्स में हिंदी का गुणगान हुआ। यहां नासिरा शर्मा को उपन्यास 'कुइयांजान' के लिए 14वां अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया। इस मौके पर ब्रिटिश सरकार के आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री टोनी मैक्नलटी ने हिंदी में ही अपने भाषण की शुरुआत की।
हिंदी को लगातार ऊंचाई पर चढ़ते देखकर क्या खुलकर हंसा जा सकता है? इसका जवाब जानने से पहले घुमक्कड़ सांस्कृतिक लेखक अजित राय [जो इनमें से एक बड़े आयोजन के सहभागी रहे] की बात सुन लीजिए, 'हिंदी लंदन के माथे की बिंदी बन चुकी है। हमारी भाषा के आराधक अब अंग्रेजों के सबसे बड़े सदन में पुष्पहार पहनते हैं।' वे 'जागरण' से बातचीत में कहते हैं, 'लंदन में जल्द ही भारतीय प्रकाशकों के सहयोग से ब्रिटेन की प्रमुख साहित्यिक संस्था 'कथा यूके' एक बुक क्लब शुरू करने जा रही है। ऐसे में ब्रिटेनवासी हिंदी साहित्य को और मजे के साथ पढ़ सकेंगे।' वे खासे विश्वास के साथ बताते हैं, 'खुलकर हंसने जैसा वक्त आना अभी बाकी है, लेकिन हम देर तक मुस्करा जरूर सकते हैं।'