कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, March 28, 2009

तुम ही बताओ...क्या हो गए हम

कभी गुल थे हम, चमन भी खुद / खुद हौसले की ज़ुबान थे / वही बुत बने पत्थर हुए /
तुम ही बताओ क्यों आज, अपने से लगते नहीं, जो कभी दिल के इतने क़रीब थे


तेरी दीद की है आरज़ू / बस सुस्त सी खुद से गुफ्तगू / न उम्मीद के चराग़ हैं / न मोहब्बतों के दीए जले / हम सुस्त-सुस्त से बैठे हैं / बस आह की हैं रवायतें / अब ढल गए तारे सभी / जिन्हें छूने की थीं कभी कोशिशें
यूं ही वक़्त पे हम रो रहे / जैसे दीया बन के जल रहे / जो हालात खुद पैदा किए / उन्हें दफ्न होने तक ढो रहे

यूं आह में ग़ुम हुई चाह है / भटकी जैसे ज़िंदगी की राह है / जो साथ तुम थे रोशनी थी / अब हर पल लगे जैसे स्याह है

राहे जुनून में यूं भटकन है / ये हमको कहां मालूम था / शौक-ए-मोहब्बत की चाह का / ये हस्र कहां मालूम था

Friday, March 27, 2009

शेर के नाम पर कुछ ढेर...

मज़े की बात...
जब ताज़ा-ताज़ा जवान होने लगा था, तब भी हमउम्रों का मज़ाक उड़ाता था--मियां, आजकल इश्क फ़रमा रहे हैं, जल्द ही शायर हो जाएंगे। उम्र ढली, अब तो शक्ल से भी पता चल जाता है कि मियां ढेर हो रहे हैं, अब क्या करें दिल का, जो इस उम्र में शायराना हो रहा है। ख़ैर, इन दिनों शायरी के नाम पर कुछ भी अल्लम-गल्लम तान दे रहा हूं। चूंकि, ब्लॉग पर कितनी भी गुंडागर्दी, अदब का सत्यानाश, काफिए-बहर की दुर्दशा की जा सकती है, इसलिए यहां चेंप भी दे रहा हूं। वैसे, भगवान जिलाए रखे शुभचिंतकों को, वो तो अब भी कह देंगे--कोई बात नहीं म्यां...लिखते रहो, कभी न कभी शायर भी बन जाओगे...वैसे सच्ची-सच्ची बोलूं...मुझे पता है, ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि ग़ज़लें लिखने, शेर गढ़ने में जिस कदर अनुशासन नाम की चीज की ज़रूरत होती है, वो हमारी तबीयत से सिरे से ही गायब है...ख़ैर, जितने ज्यादा शेर के नाम पर ढेर नहीं, उनसे ज्यादा तो भूमिका ही हो गई...अब डायरेक्ट शेर



अब रात भी चुकी तमाम, न सहर का है नामोनिशां...
रुक जाएं अब हों हमक़दम, फिर बन सकें जान-ए-जां



तिरे होंठों पे छाए दर्द का है मुझको भी ग़िला
...चलो हो चुकीं शिकायतें, अब खत्म हो ये सिलसिला


तेरी आंख में जो अश्क हैं, उन्हें तू यूं ही जार-जार बहने दे...
मेरे सीने में भी है आग खूब, ये भी यूं ही तो बुझ पाएगी

जो जख़्म दिए हैं सीने पे, उन्हें सोच के तू ये भूल जा...
मेरी निगाह से खिले थे ग़ुल, जो झुलस गए, तो झुलस गए

Thursday, March 26, 2009

दो और दो लाइनां...

दूरी...
जख्म रूहों से इस क़दर बावस्ता हैं, आंख से अश्क की जगह खूं निकलने लगा
लाख चाहा भुलाना तुम्हें मगर ना हुआ, जब भी आहट सुनी तो मचलने लगा

दूर हमसे तू चला, दूर है तेरा गांव
मन भी बस में नहीं, मिले कहां से छांव



बेगारी...
दफ्तर-दफ्तर, पीसी-पीसी, उफउफउफउफ सीसीसीसी
कहां क्रिएटिविटी, कहां है पैशन, कीबोर्ड पे चटनी पीसी

Monday, March 23, 2009

चंद लाइनें...

इस बीच चौराहा पर नहीं आया...मनःस्थिति ही कुछ ऐसी थी...हालत अब भी वही है, फिर भी बेशर्मी के साथ फेसबुक पर स्टेट्स मैसेज के रूप में कुछ लाइनें ज़रूर लिखता रहा.

वही पेश हैं...सबसे पहले वो, जो मुझे पसंद है...


फ़ाकामस्ती का आलम नहीं देखा हमने /
फिर भी मुफ़लिसी का डर सताता है /
दिल तो बंजारा है /
सुख में भी आवारगी के गीत गाता है...





1.
क़सक यूं दिल पे तारी हुई,
ज़िंदगी महज बेचारी हुई,
आंखें जिनमें पनपता था राग प्यार का,
सुरमई न रहीं, सिर्फ खारी हुईं

2.
आज तनहा हुए हम कुछ इस तरह,
जैसे दिल के सारे तार चटक गए
तुम्हें पाने की आरज़ू में
चले तो संग थे फिर भी राह भटक गए

3.
जब साथ बिन दिल रोता है और मन जलते हैं
महबूब हमारे तब कांच के टुकड़ों पर चलते हैं

4.
दिल की लगी ऐसी बढ़ी चेहरे का नूर छिन गया /
आहों में यूं उदासी बसी सांसों से चंदन छिन गया

5.
वो दिन भी क्या थ, जब कबूतर की चोंच पर टिके रहते थे प्यार के संदेश /
अब फोन पल को नहीं मिलता, तो लगता है छूट गया है देश

6.
दिन गुज़रा उनकी याद में, शाम तनहा ही रही
रात महकी साथ से, ज़िंदगी फिर बढ़ती गई
ये मोहब्बत भी क्या, इल्लत मिली हमको
दिल तो हाथ से गया ही, जान भी जाती रही