कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, March 13, 2011

मौत की गुज़ारिश!


सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक तौर पर इच्छामृत्यु का कानूनी अधिकार दे दिया है...फिर भी, नैतिकतावादियों का मानना है कि जीवन जैसा भी हो, जिस भी परिस्थिति में हो, उसका अंत नहीं होना चाहिए। पाप-पुण्य और जंग-ए-ज़िंदगी की जद्दोज़हद के सवालों से जूझती हुई ये स्टोरी आपके फ़ैसले के लिए पेश है... 


- चण्डीदत्त शुक्ल

हर तरफ अंधेरा है...उसकी आंखों से रोशनी गैरहाज़िर है, इसलिए काले रंग से उसे कोई शिकायत नहीं। दिल धड़कता है, सांसें चलती हैं, जान बाकी है, वो औरत है और आप कह सकते हैं—है तो ज़िंदगी, क्योंकर हो शिकवा...। फिर भी, उसकी सहेली पिंकी वीरानी चाहती थी कि उसे मौत नसीब हो...जल्द से जल्द मिले मर जाने की दुआ। मौत, यहां सज़ा नहीं थी, दवा थी। अरुणा शानबाग के लिए सबसे बड़ी दवा।
1973 की बात है। कोई सैंतीस साल पहले का वाकया, जिसके बाद अरुणा पत्थर बन गई। वो मुंबई के अस्पताल में नर्स थी, दुखियारों के घावों पर मरहम लगाती थी, अब बिस्तर पर पड़ी है। हिल नहीं सकती, सोच नहीं सकती, बोल नहीं पाती। अरुणा मर चुकी है, महज दिमाग ज़िंदा है। तीन दशक से अरुणा कोमा में है। उसके साथ अस्पताल के ही एक वार्ड ब्वाय ने कुकर्म किया और इस कोशिश में अरुणा के गले में जंजीर डालकर उसे बिस्तर से बांध दिया। आरोपी फरार है और अरुणा कैद रह गई है। इस हादसे में होशोहवाश जाते रहे और वो हमेशा के लिए ज़िंदा लाश में तब्दील हो गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने ताज़ा फैसले में कहा है—अरुणा के साथ नाइंसाफ़ी हुई, पर उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त नहीं दी जा सकती। कारण महज इतना कि अरुणा के लिए ऐसे निर्देश देने की याचिका मित्र पिंकी वीरानी ने दायर की थी। ख़ैर, बात अरुणा की नहीं, इस मुद्दे की है। इस सवाल की है कि इच्छामृत्यु का हक़ मिलना चाहिए या नहीं। या फिर ऐसी इच्छा पलायन है, ज़िंदगी से भागने की कोशिश है, कमज़ोरी की निशानी है।
जवाब में भी एक सवाल ही पैदा होता है—क्या जीवन का नाम महज सांस है...धड़कनें हैं...लाश जैसा ही सही, रक्तसंचार से गर्माया हुआ शरीर भर है।
सवाल यह भी है कि जीवन के लिए ज़रूरी चेतना, खुशी, सुख, उपलब्धियां और माहौल नहीं है, तो ऐसी ज़िंदगी के क्या मायने हैं? माना, अरुणा के अस्पताल की नर्सें उसे जी-जान से प्यार करती हैं, इतनी सेवा करती हैं कि उसके बदन पर कभी घाव तक नहीं होने दिए, लेकिन इन सबका क्या फायदा? अरुणा तो हमेशा के लिए बेहोश हो चुकी है। कभी होश में आएगी भी, तो उसके हाथ वेदना से भरा खाली जीवन ही होगा। ना परिवार, ना खुशी का एक भी क़तरा।
बहुतेरे लोग इस बात से इत्तिफाक़ नहीं रखते। वो कहते हैं—जीवन ईश्वर की देन है। जीवहत्या पाप है। हमें भी इत्तिफाक़ है उनकी बात से...लेकिन अरुणा के जीवन में जीवन जैसा कुछ भी था ही कहां? 
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद इच्छामृत्यु को लेकर बहस फिर गरमा गई है। कुछ अरसा पहले रिलीज़ फ़िल्म गुज़ारिश को लेकर भी विवाद हुआ था। जैसे, अरुणा प्यार भरी छुअन से तन-मन की हर तकलीफ़ दूर कर देती थी, ठीक वैसे ही तो गुज़ारिश का जादूगर अपने करतबों से सबके चेहरे पर मुस्कान खिला देता था। जैसे सबकी ज़िंदगी खुशियों के फूल से हरदम नहीं महकती, उसी तरह हर फ़िल्म सुखांत नहीं होती...सो गुज़ारिश का जादूगर भी लकवे का शिकार हो जाता है। चल नहीं पाता...महज बैठे-सोते-सिसकते हुए घिसटती ज़िंदगी की गाड़ी को रेंगते हुए देखता है। तभी तो कहता है--मुझे मृत्यु चाहिए।
... तब भी नैतिकता-मानवतावादियों ने खूब शोर मचाया था, कहा गया था—गुज़ारिश अनैतिक पाठ पढ़ाती है...लेकिन क्या हमें उस जादूगर के दर्द की परवाह नहीं होनी चाहिए थी? अरुणा भी तो ऐसे ही दर्द से भरपूर है। वो चीख सके, इतनी समझ भी नहीं है उसके पास...क्या मौत के बाद उसका जीवन खत्म हो जाएगा...? पुनर्जन्म जैसी आध्यात्मिक सोच को स्वीकार करें, तब तो कह सकते हैं--एक नया जीवन ही उसे मिलेगा।
  अरुणा पहली इंसान नहीं, जिसके लिए इच्छामृत्यु की गुहार लगाई गई। अपनी मर्जी से दुनिया को अलविदा कह देने की आरज़ू बहुतों की रही है। दो-तीन साल पहले ही उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति ने दस से सोलह साल की उम्र के अपने बच्चों के लिए इच्छामृत्यु मांगी थी। ये बच्चे पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे। 2008 में हिमाचल प्रदेश की एक इंजीनियर सीमा ने भी इसकी इजाज़त चाही थी। वो आर्थराइटिस से परेशान थी और तेरह साल से एक कमरे के अंधेरे में क़ैद रही। शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश ने जीवन रक्षक व्यवस्था के तहत ज़िंदगी बिताने की बहुत जद्दोज़हद की। जब डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, तो उसकी मां ने गुहार लगाई—अब मेरे बेटे को मौत ही मिल जाए।
उत्तर प्रदेश के बांदा के बबेरू कस्बे में हृदय रोग से पीड़ित एक दलित छात्रा ने इच्छामृत्यु की इजाज़त ना मिलने के बाद आमरण अनशन शुरू कर दिया, तो झारखंड का दिलीप मचुआ इच्छामृत्यु की मांग करते-करते मर ही गया। बैतूल में सेवा से बेदखल एक कर्मचारी ने बीवी और पांच बेटियों के साथ इच्छामृत्यु की अनुमति मांगी, वहीं इलाहाबाद में 14 वर्षो से ज्यादा समय से जेल में बंद उम्रकैद की सजा पाए 97 कैदियों की गुहार भी यही थी। एचआईवी ग्रस्त लोगों, भुखमरी के शिकार किसानों, अत्याचार से पीड़ित लड़कियों ने भी इच्छामृत्यु की आरज़ू बार-बार दोहराई है। पटना के तारकेश्वर सिन्हा की याचिका चर्चा में रही है, जिसमें उन्होंने पांच साल से बेहोश पत्नी कंचनदेवी को इस पीड़ा से मुक्त कराने की गुज़ारिश की थी।
इन याचनाओं और याचिकाओं के हवाले से बात साफ़ है कि फ़िल्म `मदर इंडिया’ में भले ही नायिका गुनगुनाती रहे—जीवन है अगर ज़हर, तो जीना ही पड़ेगा, लेकिन हर इंसान विष पीने वाला शिव नहीं बन पाता। यह बात एकदम सही है कि कंटकों से जूझकर गुलाब तक पहुंचने वाला ही असली योद्धा होता है, लेकिन इसे भी कैसे गलत कहें कि जब सांस-सांस में शीशा घुल जाए, आंख-आंख में यह बात झलकने लगे कि दुनिया अपने काम की नहीं रही, तो कोई कैसे ज़िंदा रहने की ठान पाए।
   मुद्दा मौजूं है...सोचने को मज़बूर करता है। इसे महज भावुक होकर, धार्मिकता के हवाले से हवा में उड़ाया नहीं जा सकता। बहुतेरे डॉक्टर मानते हैं कि वो अपने प्रोफेशन में ऐसे कदम उठा चुके हैं, जब उन्होंने मरीज की तकलीफ़ की इंतिहां देखकर उसके इलाज में ढील बरती और उसे चैन की आखिरी सांस लेकर दुनिया छोड़ने का मौका दे दिया। रायपुर के मेडिकल कॉलेज में इस बारे में ज़बर्दस्त बहस भी हो चुकी है। 2010 में भावी डॉक्टरों ने तर्क दिया था कि देश के अस्पतालों में कुछ निश्चित बेड उपलब्ध हैं। डॉक्टरों की बेहद कमी है। ऐसे में कोई व्यक्ति जीवन की इच्छा और संभावना, दोनों खो चुका है, तो उसे मरने देना चाहिए।
  मुद्दा यह नहीं कि अरुणा या उसके जैसे अनेकों लोगों को इच्छामृत्यु की इजाज़त मिले या नहीं...या फिर इच्छामृत्यु आत्महत्या की ही एक किस्म है और इससे बाज आना चाहिए। चिंतन के बिंदु और हैं, जो खास हैं। अहम बात ये है कि कष्ट, संत्रास और खोखलेपन के अहसास के बीच यदि कोई जीवन की लड़ाई से चले ही जाना चाहे, तो उसे क्यों मज़बूर किया जाए—नहीं जियो, तुम्हें जीना ही होगा। कहा जा रहा है कि इच्छामृत्यु को अनुमति मिल गई, तो लोग अपने छुटकारे के लिए इसका गलत फायदा उठाएंगे, लेकिन इसका भी हल है। सरकार, समाज और परिवार की सतर्क निगाह से ऐसे किसी भी दुरुपयोग पर रोक लगाई जा सकती है।
यूं भी, देश की संस्कृति में इच्छामृत्यु का इतिहास रचा-बसा है। भीष्म पितामह ने तीरों की शैया पर लेटकर मृत्यु की प्रतीक्षा की। राम-लखन ने जलसमाधि ली। बहुत से साधु-संतों, खासकर जैन धर्मावलंबियों ने जीवन को निस्सार मानकर स्वतः प्राण त्यागे। ध्यान देने की बात ये कि इनमें से किसी ने आत्महत्या नहीं की, विधिवत मृत्यु को ग्रहण किया। उन्हें कष्ट नहीं था, लेकिन वह जान चुके थे कि जीवन संपूर्ण हो चुका है और अब महज निस्सारता शेष है।
इस सबके बावज़ूद यह सवाल अब भी जवाब के इंतज़ार में है—जीवन से तंग आकर इच्छामृत्यु चुनने का अधिकार मिले या फिर ज़िंदगी से जंग जारी रखी जाए...। इसका उत्तर तलाशते हुए मुझे 
`सॉरो ऑफ बेल्जियम’ के रचनाकार ह्यूगो क्लॉस की एक बात याद आती है। उन्होंने कहा था—`मैं एक ऐसा आदमी हूं, जो जैसा चल रहा है, उससे नाखुश है। दुनिया जैसी है, उसे उसी रूप में हम स्वीकार नहीं कर सकते। जिस तरह से अन्याय हो रहे हैं, उसे देखते हुए हमें हर सुबह एक नाराज़ इंसान के तौर पर आंखें खोलनी चाहिए।‘ ह्यूगो की नाराज़गी जब हद से गुज़र गई, तो उन्होंने 78 साल की उम्र में एल्जाइमर्स से मिली तकलीफ़ ना झेलने की ठानी और इच्छामृत्यु चुन ली। वहां निराशा नहीं थी, पलायन नहीं था। वो जान चुके थे—ऐसी ज़िंदगी के कोई मायने नहीं।
  कमोबेश, मैं भी यही सोचता हूं। ज़िंदगी अगर सचमुच ज़िंदा है...जीवन की शर्तों को पूरी करती है, आनंद-उपलब्धि और संतोष के साथ, तब ही उसका मतलब है। हो सकता है, आपको यह बात पलायन से भरी लगे। खिन्नता और कुंठा से सनी हुई नज़र आए, लेकिन ऐसी सोच ना बने, इसकी ज़िम्मेदारी भी तो हमें ही उठानी होगी। क्यों ना हम, फिर किसी अरुणा को बलत्कृत ना होने दें। कोई किसान भूखा ना मरे, इसके लिए रोटी, अनाज और बीज का इंतज़ाम करें। अगर हम ऐसा कर पाए, तो फिर इच्छामृत्यु की ज़रूरत ही ना होगी। दुनिया खूबसूरत बनेगी और उसमें हमारा योगदान भी होगा। ऐसा होगा ना?



Friday, March 11, 2011

अहा! प्रेम...

प्रेम में बिताए गए समय और उस याद से रची-बसी कविताओं को भास्कर समूह की उल्लेखनीय पत्रिका अहा ज़िंदगी में सेंटर स्प्रेड में, दो पन्नों का विस्तार मिला है...मार्च अंक में सचित्र परिचय और कविताएं छपना अच्छा लगा। पन्नों की ये झलक ज़रा पुरानी है, यानी छपे हुए से काफी अलग है...

ये सब कविताएं चौराहे पर पहले से उपलब्ध हैं। लिंक रहे यहां...