tag:blogger.com,1999:blog-77931529725869170662024-03-14T07:43:01.968+14:00चौराहाचण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.comBlogger162125tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-17531615286645004722013-07-27T04:20:00.001+14:002013-07-27T04:20:56.266+14:00करोड़पति बेस्टसेलर लेखक - अमीश त्रिपाठी से चण्डीदत्त शुक्ल की बातचीत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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यह साक्षात्कार <b>अहा! ज़िंदगी</b> के <b>साहित्य महाविशेषांक </b>में छपा है, तब मैं <b>अहा! </b>का फीचर संपादक हुआ करता था :) पिछले दिनों इंटरनेट के पन्ने पलटते हुए मैंने देखा कि <b>रचनाकार</b> पर यह साक्षात्कार अपलोड किया गया है। वहीं से <b>चौराहा</b> के पाठकों के लिए पुनःप्रस्तुत कर रहा हूं। नीचे दी गई टिप्पणी रचनाकार के मॉडरेटर की है। यह अविकल साक्षात्कार नहीं है। कुछ अंश संभवतः वेबसाइट संचालक ने छोड़ दिए हैं। उन्हें पढ़ने के लिए अहा! ज़िंदगी का साहित्य महाविशेषांक खरीदकर पढ़ सकते हैं...<br />
- <b>चण्डीदत्त शुक्ल</b><br />
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<b>रचनाकार की टिप्पणी</b><br />
<b></b><br />
(अमीश त्रिपाठी को उनके नए, अनाम उपन्यास, जिनके लिए उन्होंने अभी विषय भी नहीं सोचा है, पांच करोड़ रुपए का एडवांस प्रकाशक की ओर से मिला है. किसी भी लेखक के लिए इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है भला! इन्हीं अमीश त्रिपाठी से अहा! जिंदगी के फ़ीचर संपादक चण्डीदत्त शुक्ल ने लंबी बातचीत की और उसे अहा! जिंदगी के साहित्य महाविशेषांक {जी हाँ, अब विशेषांकों का जमाना खत्म हो गया, महा-विशेषांक आने लगे हैं और शायद जल्द ही अति-महा-विषेशांक भी देखने को मिलें!} में छापा है. रचनाकार के पाठकों के लिए उनकी यह विचारोत्तेजक, मनोरंजक बातचीत साभार प्रस्तुत है.लगे हाथों बता दें कि अहा! जिंदगी का 100 रुपए कीमत का यह साहित्य महाविषेशांक पूरा पैसा वसूल है - 10 हंस+वागर्थ+वर्तमान साहित्य इत्यादि पत्रिकाओं से भी वजन में ज्यादा. मंटो पर भी कुछ बेहतरीन पन्ने हैं, तो विश्व स्त्री साहित्य पर विशेष खंड. साथ ही विदेशी कविताएं भी खूब हैं, जिनसे देसी कवियों को विषय-वस्तु-ज्ञान मिल सकता है.)<br />
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<b>पांच करोड़ रुपए का एडवांस - वह भी ऐसी किताब के लिए जिसका विषय तक नहीं सोचा.. खुश तो बहुत होंगे आप?</b><br />
खुश हूं पर करोड़ों का एडवांस पाने की वजह से नहीं, बल्कि अपने विश्वास की पुष्टि होने पर! मैं हमेशा सोचता था कि अच्छे मन से कुछ किया जाए तो ईश्वर साथ देते हैं और अब वह यकीन और ज्यादा मजबूत हो गया है। जहां तक उपलब्धियों की बात है तो यह बेहद अस्थायी वस्तु है। कभी भी आपके हाथ से फिसलकर गिर सकती है। आज कामयाब हूं तो प्रकाशक पीठ थपथपा रहे हैं। कल को असफल हो गया तो कोई मुड़कर भी नहीं देखेगा, इसलिए व्यर्थ का अहंकार या प्रसन्नता का भाव मन में नहीं पालना चाहिए।<br />
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<b>. ... पर प्रसिद्ध तो हो गए हैं आप!</b><br />
मैं ऐसा नहीं सोचता। रास्ते से निकलता हूं तो भीड़ इकट्ठी नहीं होती। खं, कुछ लोग पहचान लेते हैं, लेकिन किताबों की वजह से ।<br />
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<b>अब, आप विनम्र हो रहे हैं..</b><br />
मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर रहा हूं! असल प्रसिद्धि पुस्तकों को मिली है। मुझसे वह दूर ही है। सच को जितनी जल्दी समझ लिया जाए बेहतर होता है और मैंने यह हकीकत समझ ली है।<br />
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<b>खैर, बड़ी कंपनी में ऊंची तनख्वाह की नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक लेखक बनने का फैसला करना छोटी-मोटी बात नहीं होती!</b><br />
लंबे संघर्ष के बाद ऐसा हुआ है। वैसे भी, आप जानते हैं कि मैं मैनेजमेंट की फील्ड से हूं (हंसते हैं) । पहली दो किताबें जॉब में रहते हुए लिखी हैं जब देखा कि रायल्टी के चेक की रकम तनख्वाह से ज्यादा हो रही है तब नौकरी छोड़ी। आखिरकार, मेरा एक परिवार है। उसका भविष्य सुरक्षित किए बिना जॉब कैसे छोड़ सकता था? बाबा कहते थे - दो तरह की भाषा होती है एक - पेट की भाषा और दूसरी दिल की । पहले पेट की जबान सुनी और अब दिल के रास्ते पर चलने लगा हूं।<br />
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<b>किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?</b><br />
हर स्तर पर संघर्ष। पल्ले तो यही कि लिखना कैसे है। जब वह हुनर आ गया तो प्रकाशन का। पस्ती किताब - 'द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' बहुत-से प्रकाशकों ने रिजेक्ट कर दी थी, लेकिन आप संख्या न पूछिएगा, क्योंकि बीस प्रकाशकों की ओर से मना किए जाने के बाद मैंने गिनती करनी बंद कर दी थी। बाद में खुद ही चुनौती मोल ली और पाठकों ने इसे पसंद किया।<br />
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<b>क्या ऐसा फैसला करने के लिए नैतिक साहस देने वाला, सही समय आ चुका था?</b><br />
यकीनन, बदलती आर्थिक परिस्थितियों में सबकी हिम्मत बढ़ी है। लोग जोखिम ले सकते हैं। मैं मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं जहां पढ़ाई-लिखाई का पूरा जोर करिअँर बनाने पर होता है। मेरे सामने इंजीनियरिंग, बैंकिंग, एमबीए जैसे विकल्प ही थे, इसलिए इतिहासकार बनने की इच्छा कहीं दबा दी थी । यह वह समय था, जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी । अब, हालात बदले हैं और अवसर बढ़े हैं।<br />
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<b>एक व्यक्ति के रूप में, दबाव से बाहर आकर, बेहतर प्रदर्शन कर सकता हूं जब यह लगा तो लेखन करने की ठान ली।</b><br />
यूं भी, इन दिनों बैंकिंग, फाइनेंस के क्षेत्र से कई लेखक बाहर आ रहे हैं..बात महज इन तकनीकी क्षेत्रों की नहीं है। बदलाव हर जगह आया है। आम भारतीय में आत्मविश्वास बढ़ा है और यकीनन, जब खुद पर भरोसा बढ़ेगा तो वह रचनात्मक तरीके से बाहर आएगा।<br />
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<b>आत्मविश्वास में, इजाफा क्या नई बात है? भारत तो सोने की चिड़िया था ही...</b><br />
हम सैकड़ों साल गुलामी से जूझते रहे हैं। गुलामी भी तरह-तरह की। आर्थिक, वैचारिक... सब। इसकी वजह से इतने पीछे आ गए थे कि सोने की चिड़िया वाली बात महज इतिहास में ही दर्ज होकर रह गई। हमारे महान अतीत का रहस्य यही है कि समाज नई चीजों को स्वीकार करता था। बाद में हम खुले तो थोड़े और, लेकिन पश्चिम के प्रभाव में अपनी मौलिकता खो बैठे।<br />
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<b>वैसे, आधुनिक जमाने में, ज्यादातर अंग्रेजी पाठक युवा हैं ऐसे में मिथकों पर लिखना कितना चुनौतीपूर्ण था?</b><br />
यह सोचना गलत है कि युवा पाठकों की मिथक, धर्म या अध्यात्म में रुचि नहीं है। धारणा हमने बना ली है, वह भी मजेदार बात बिना आधार के। नौजवान अपनी जड़ों के बारे में जानना चाहते हैं। हां, उन्हें उबाऊ तरीके से सब कुछ बताया जाता है, इसलिए उनकी रुचि नहीं बन पाती। युवा तार्किक तौर पर चीजें परखना चाहते हैं। हम जहां पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाते, वह वहीं पर सवालिया निशान लगा देता है। इसके अलावा, जातिवाद और महिलाओं के लिए अपमानजनक प्रसंगों को भी वे पसंद नहीं करते । खैर, मैं जितने नौजवानों को जानता हूं वे सब अपनी संस्कृति से जुड़े हैं। कुछ जरूर बेहद वेस्टर्न हैं, खुद को इलीट समझते हैं - वे जानकर भी धार्मिकता और संस्कृति की बात नहीं करना चाहते।<br />
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<b>फिर भी, पॉपुलर लिटरेचर में मिथक..!</b><br />
इतनी हैरत की जरूरत नहीं है। भारत में मिथक-आधारित कथा लेखन नया नहीं है। बुजुर्गों से हमने बार-बार कथाएं सुनी हैं और उनमें हो रहा बदलाव देखा है। अलग-अलग इलाकों में एक ही कथा के परिवर्तित रूप सुनने को मिलते हैं। वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसी का रामचरित मानस बदलाव साफ नजर आता है। उत्तर भारत के श्रीराम अलग हैं और आदिवासियों के समाज के राम अलग । दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र की रामकथाएं हों और उत्तर प्रदेश व बिहार की रामगाथा, कबा रामायण, गोंड कथा आप विभिन्नता महसूस कर सकेंगे। जैसा समाज, जिस तरह का सामाजिक-आर्थिक स्तर, कथाओं में वैसा ही अंतर! कहानी सुनाना और सुनना हमारे डीएनए का हिस्सा रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मिथक कथा की परंपरा है। नरेंद्र कोहली ने अपने तरीके से श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया। अंग्रेजी में अशोक बैंकर ने। दीपक चोपड़ा ने कामिक्स का माध्यम अपनाया। अमर चित्रकथा आदि ने तो महापुरुषों से परिचित कराया ही। अंग्रेजी भाषा में इसे मैंने आगे बढ़ाने की कोशिश की है लेकिन नया कम नहीं कर रहा हूं। खाली जगह बन गई थी, जिसे भरने में जुटा हूं। एक और तथ्य स्पष्ट कर दूं - लिखने से पहले मैंने इस बात को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की थी कि किसे पसंद आएगा और किसे नहीं ।<br />
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<b>आप प्रभु को ही सब श्रेय देते हैं। ऐसा श्रद्धा के कारण है या तार्किक ढंग से मानते हैं?</b><br />
मेरा स्वभाव बेहद चंचल था, शायद खेलकूद से प्रेम करने की वजह से। ईश-कृपा न होती तो संयत और स्थिर होकर लिख ही नहीं सकता था।<br />
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<b>हमेशा इतने ही आस्तिक थे?</b><br />
बचपन में तो था, पर बाद में भक्ति का भाव कुछ डगमगा गया था। खैर, पहले बचपन की बात करूं। उस समय घर में भक्ति-भाव की बयार बहती थी। पूरा समय मंत्रपाठ होता रहता। पूजा-आरती, घटियों की ध्वनि शंख का नाद - दादा और पिताजी के पास देवी-देवताओं से जुडे किस्से-कहानियों का भंडार था। हालांकि थोड़ा-सा बड़ा होने पर मुझे कर्मकांड और इससे जुड़ी सांप्रदायिक सोच से काफी उलझन हो गई थी । मुंबई में आए दिन दंगे होते, आतंकी हमलों की खबर भी सुनाई देती। पर पिताजी ने मन में आस्तिकता की ली बुझने नहीं दी। उन्होंने गीता का ही उपदेश सुनाया कि सब प्रभु इच्छा से होता है। हम अपना कर्म न भुलाएं ये आवश्यक है। लगातार अंतर्द्वंद्व में रहा पर पहली किताब लिखने से पहले फिर से पूर्ण आस्तिक हो चुका था।<br />
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<b>पिता ने धार्मिकता की ओर लौटाया और पत्नी ने? मान्यता है कि एक सफल व्यक्ति के पीछे पत्नी का बड़ा हाथ होता है। आपकी क्या राय है?</b><br />
प्रीति से मेरी मुलाकात 1990 में हुई थी। उनसे मिलने से पहले मैं एकदम उबाऊ इंसान था। लोगों को अब जितना विनम्र दिखता हूँ उसकी तुलना में बेहद चीखने-चिल्लाने वाला आदमी था। जरा-सी बात में धैर्य खो देता था। प्रीति ने जीवन को जीना और इसका आनंद उठाना सिखाया है। पेश उपलब्धियों के पीछे इनका जो हाथ है, वह मैँ शब्दों में व्याख्यायित नहीं कर सकता। मुश्किल समय में वे अचूक और सटीक सलाह देती हैं। उनके जैसी मार्केटिंग मुझे भी नहीं आती। हम दोनों साथ में खुश हैं। हां, कई बार वे चुटकी लेते हुए कहती हैं कि एक सक्सेस फुल राइटर से शादी करके ज़िंदगी का चैन गायब हो गया है। जिस वक्त उन्हें टेलीविजन पर एक्शन शो देखना होता है, वे मेरे लिए रिसर्च कर रही होती हैं या फिर मार्केटिगं की योजनाओं में व्यस्त होती हैं।<br />
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<b>पत्नी धर्म की बात तो हुई, लेकिन अब बात करते हैं भारत में धर्म और समाज के अंतर्संबंध की। यह तो अब भी मजबूत है पर हम पाते हैं कि साहित्य और समाज के बीच दूरी बढ़ गई है..</b><br />
थोड़ी दूरी जरूर आ गई थी, लेकिन कुछ अरसे में ये खाई पटी है। आर्थिक परिस्थितियां सब कुछ बदल देती हैं रिश्तों और समाज पर भी असर डालती हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है, भविष्य में सबंध निश्चित तौर पर और मजबूत होंगे - आपसी रिश्तों और साहित्य के साथ समाज के भी।<br />
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<b>आम आरोप है कि साहित्य में जो कुछ बयान हो रहा है हकीकत में वह कहीं रहता ही नहीं, यानी लिटरेचर से 'सच' गायब हो चुका है..</b><br />
कुछ मायनों में यह बात सही हो सकती है पर धीरे-धीरे लोग यथार्थ की मांग जोर-शोर से करने लगे हैं। पढ़ना-लिखना केवल अपने सुख के लिए नहीं रह गया है। नए दौर के लेखक स्वांत: सुखाय या कुछ महान कर रहे हैं - के भाव में नहीं लिखते रह सकते। बुक पब्लिशिंग बड़ा व्यवसाय है। पहले प्रकाशक दस-बीस हजार प्रतियों की बिक्री को बड़ा आंकड़ा मानते थे, लेकिन वे भी जोर देकर कहने लगे हैं कि एक लाख से अधिक प्रतियां जिस किताब की बिकेंगी, वही बेस्टसेलर होगी। लेखकों को तय करना पड़ रहा है कि वे पाठकों की रुचि के मुताबिक रचे। प्रकाशक ऐसी ही कृतियां प्रकाशित करें। पाठक समझते हैं कि उन्हें क्या पढ़ना चाहिए। सही मायने में इलीट राइटिंग का कॉन्सेप्ट खत्म हो रहा है। सबके लिए लिखना ही होगा । ऐसी हजारों किताबें हैं, जिन्हें बेस्टसेलर होना चाहिए था, लेकिन उनका किसी ने नाम तक नहीं सुना। सुनेंगे ही नहीं तो खरीदेंगे कैसे? अब वक्त आ गया है जब लेखक बाजार को समझें और खुद में सिमटे रहने की अंधेरी दुनिया से बाहर आएं।<br />
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<b>अच्छा! लिटरेचर फेस्टिवल्स की बढ़ती संख्या से भी साहित्य को कुछ लाभ पहुंचेगा?</b>यकीनन। जितने लोग लिखने-पढ़ने की बातें करेंगे, उनमें से कुछ तो किताबों तक पहुंचेंगे ही। हमारी सोच में परिवर्तन लाना लाजिमी हो गया है। हम बुक और लिटरेचर फेस्टिवल्स को संदेह की निगाह से देखते हैं, जबकि बाजार कोई बुरी चीज कभी थी ही नहीं। अतीत में झांककर देखिए - पुराने जमाने में भी हाट-बाज़ार के बिना जीवन एक कदम भी आगे नहीं खिसकता था।<br />
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<b>लोग यह भी कहते हैं - अपनी किताबें बेचने के लिए अमीश कोई भी दांव आजमाने से नहीं चूकते।</b>बुरा क्या है? आप कुछ भी लिखें, अगर वह किसी तक पहुँचे नहीं तो उसका क्या लाभ होगा। मैं सोशल कम्यूनिटीज के जरिए युवाओं से जुड़ा हूं। जरूरत के हिसाब से प्रमोशन करता हूं और इसमें कुछ भी खराब है ऐसा नहीं समझता।<br />
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<b>वैसे, यह विचार कैसे जन्मा कि धर्म-अध्यात्म-संस्कृति से जुड़े किसी विषय पर उपन्यास लिखा जाए?</b>विचार बस लिखने का था... वह उपन्यास होगा या शोध, तब तक पता भी नहीं था। यूं लेखन का इरादा भी एक घटना से जुझ है। एक दिन शाम के वक्त हम सब घर पर खाना खाते हुए टीवी देख रहे थे। तभी ईरानी संस्कृति से संबंधित एक कार्यक्रम आने लगा और फिर उस पर चर्चा शुरू हो गई। जोरदार बहस। सही कौन और गलत कौन? बात फिर भारतीय संस्कृति तक पहुंची। सारे यहां सबके देवता अलग-अलग हैं। कोई आपको प्रिय होगा, पर दूसरे को नापसंद हो सकता है। स्वाभाविक तौर पर सवाल खड़ा हुआ कि उचित कौन है? शायद दोनों पक्ष? कुछ अच्छ या बुरा है ही नहीं। प्रश्न महज सोच का है। देवता और दानव, खराब और सही - यह नज़रिए का सवाल है लेकिन सब तो यह बात नहीं समझते। चर्चा इतनी आगे तक गई कि मैंने सोच लिया इस विषय पर कुछ लिखूंगा। ऐसा, जिससे अच्छे बुरे, देवता-दानव की कुछ परिभाषा स्पष्ट हो सके।<br />
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<b>चलिए, इरादा बना... इसके बाद?</b>भाई-बहन को बताया कि मैं अच्छाई और बुराई के कोण पर कुछ लिखना चाहता हूं तो उन्होंने सुझाव दिया कि जो कुछ लिखे, वह दार्शनिकता से इतना न भर जाए कि उबाऊ लगने लगे। आप अपने विचार व्यक्त कीजिए लेकिन कहानी की शैली में। ऐसा होने पर ही पाठकों के साथ बेहतर संवाद स्थापित हो सकेगा। मैंने उनके सुझावों पर गौर किया और लिखना शुरू कर दिया, लेकिन कहानी की भाषा में विचार और शोध करना आसान नहीं था।<br />
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<b>किस तरह की मुश्किलें सामने आई?</b>मैंने पहले कुछ भी नहीं लिखा था । स्कूल में भी छोटी-सी कहानी तक नहीं । विस्तार से पढ़ने जैसा काम नहीं किया था। अपने प्रोफेशन से संबंधित ई-मेल्स लिखने के अलावा! हां, जब सोच लिया कि अच्छाई-बुराई के बारे में एक विचार परक पुस्तक लिखनी है तब 'सेल्फ हेल्प' जैसी कुछ किताबें जरूर खरीदीं। लंबी-चौड़ी तैयारी के साथ, लिखना शुरू किया। ठीक वैसे ही, जैसे कोई एमबीए पर्सन प्रोजेक्ट तैयार करे, लेकिन पता नहीं कितनी बार, लिखा और फाड़कर फेंक दिया। कुछ रुचता ही नहीं था। आखिरकार, पत्नी ने मार्के की सलाह दी - तुम इसलिए अच्छ नहीं लिख पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे मन में 'क्रिएटर' होने का दंभ पल रहा है। उसे त्याग दो। खुद को गवाह मानो और सोचो - भगवान विचारों की गंगा को तुम्हारे मन की धरती के लिए मुक्त कर रहे हैं। उस प्रवाह को रोको नहीं, पन्नों पर बिखर जाने दो। मैंने ऐसा ही किया और फिर देखते ही देखते किताब पूरी हो गई।<br />
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<b>आपकी रचनाओं में प्रमुख तत्व क्या है - शोध, विचार या कहानी?</b>एक ही शब्द में कहूंगा - आशीर्वाद। ये किताबें वरदान हैं। वैसे भी, यदि कोई लेखक यह सोचता है कि वह अपने मन से कुछ कर सकेगा तो यह संभव नहीं है। कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं । खुद को निर्माता मान लेना अहंकार है। जहां तक आपका प्रश्न है, मेरी प्राथमिकताओं में विचार और कहानी एक-दूसरे के पूरक हैं। बाकी लिखते समय बहुत-सी चीजें बिना कोशिश के होती हैं और उनकी खूबसूरती का कोई सानी नहीं होता। आपके विचार एक संदेश के रूप में सामने आते हैँ और कहानी उस प्रवाह को बनाए रखने में मदद करती है।<br />
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<b>इतिहास की पुनर्व्याख्या में बहुत-से खतरे होते हैं। वह भी तब, जब इतिहास धर्म से जुड़ा हो। इसके मद्देनज़र अपनी पहली किताब के लिए आपने कितना शोध किया?</b>मैं स्पष्ट कर दूं कि हिंदू धर्मावलंबी, बल्कि ज्यादातर भारतीय, बहुत सहिष्णु हैं। धर्म की बात होने पर या उसकी किसी भी तरह की आलोचना सुनते ही संयम खो देने वाले और लोग होंगे कम से कम भारत में ऐसा नहीं है। शोध की बात पर जवाब दोहराना चाहूंगा - सोच-समझकर, योजना बनाकर कभी पढ़ाई नहीं की । ऐसा नहीं है कि मैं किताब लिखने के लिए महादेव से संबंधित जगहों की यात्रा पर गया हूं। हां, पूरे देश का भ्रमण और बहुत-सी चीजों को समझने का 25 साल से जारी है। पर वह पढ़ना-समझना और घूमना बेइरादा था। परिवार में पठन-पाठन और धार्मिकता का माहौल शुरू से था । मेरे दादा वाराणसी के हैं। वे पूजा-पाठ में खासी रुचि लेते थे । हमेशा धार्मिक प्रतीकों, कथाओं की बातें करते । तो वह एक बीज था, जो मन में पड़ गया था । धार्मिकता का यह अंकुर ही बाद में विचार यात्रा में परिणत हुआ, जिसके कुछ अंश आप ‘द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' जैसी किताबों में देख सकते हैं।<br />
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<b>दादाजी के बारे में कुछ और बताइए..</b>वे धर्म की जीती-जागती किताब थे । धार्मिकता से भरपूर, पांडित्यपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक भी रहे। मेरे माता-पिता ने भी धर्म में विश्वास के गुण उनसे ही प्राप्त किए हैं। उनसे मैंने प्रचुर मात्रा में पौराणिक कथाएं सुनीं । धार्मिकता का भाव समझा । हालांकि उनके व्यक्तित्व की एक और खासियत थी उदार होना । घर में सभी आस्तिक हैं, लेकिन उतने ही लोकतांत्रिक भी । वे दूसरों के विचारों का भरपूर सम्मान करते हैं। हम अक्सर दिलचस्प बहसें करते । अलग-अलग मुद्दों पर विचार-विमर्श करते रहते। यही कारण है कि मैं अलग-अलग धर्मों और मान्यताओं के बारे में तार्किकता से समझ सका । वह भी तब, जबकि पस्ती किताब लिखने से पहले मैं खुद नास्तिक था।<br />
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<b>क्या?</b>यह तो मानता था कि संपूर्ण प्रकृति के संचालन की एक व्यवस्था है, लेकिन ईश्वरीय सत्ता या अस्तित्व को लेकर जिस तरह के विचार थे, उनके हिसाब से मैं नास्तिक ही कहलाऊंगा ।<br />
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<b>बदलाव कैसे आया?</b>यह भी ईश्वरीय आशीष है। उन्होंने मन में आस्था पैदा की, फिर इतनी दृढ़ कर दी कि शिव के अतिरिक्त किसी और बात का विचार ही मन में नहीं ला सकता । एक बार आस्तिक बनने के बाद मैंने अन्य धर्मों में भी विश्वास रखना शुरू कर दिया । सभी धर्म समान रूप से सुंदर हैं।<br />
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<b>अच्छाई और बुराई के संधान को कथारूप देते हुए प्रमुख पात्र के रूप में शिव को ही क्यों चुना? किसी और ईश्वरीय स्वरूप पर विचार न करने की वजह क्या थी?</b>देखिए बुराई के संहार की जब बात होती है तो निगाह के सामने एक ही देवता का चेहरा घूमने लगता है, वे हैं - शिव । मैं बुराई के सिद्धांतों की व्याख्या करने में लगा था और तब मुझे शिव से बेहतरीन किरदार दूसरा कोई भी नहीं दिखा। इसके अलावा, जब आप मिथक में 'हीरो' तलाशते हैं तो वे एक आदर्श चरित्र हैं। शिव 'माचो' हैं, औघड़ है और उतने ही रहस्यमयी भी हैं। पूरे संसार में वे अनगिनत रूपों और तरीके से पूजे जाते हैं। वे आज़ाद और अकेले हैं। कांवड़ से लेकर पॉप तक पूरी तरह 'फिट' हो जाते हैं। तानाशाह ईश्वर की तरह नहीं दिखते । उनकी सहजता प्रभावित करती है।<br />
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<b>अगला कदम क्या था?</b>लिखना शुरू हो पाना ही मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी। एक-एक कदम चलते हुए मंजिल तक पहुंच तो गया, लेकिन पहले शुरुआत और फिर प्रवाह का बने रहना और अंततः शिव के पात्र के साथ न्याय कर पाना सबसे बड़ी चुनौती थी। एक घटना याद आती है सुबह के समय मैं स्नान कर रहा था। कथा-सूत्र कुछ अटक-सा गया था। यकायक, मन में विचार कौंधे। मैं खुशी से कांप उठा। बाहर निकलकर रोना शुरू कर दिया। जोर-जोर से रुदन। वह एक ऐसी भावुक स्थिति थी, अकल्पनीय और अवर्णनीय, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। यूं भी शिव सबमें हैं। उनकी अनुश्रुति न होने तक ही सब संकट मौजूद हैं। जैसे ही शिवत्व को आपने पहचान लिया, उसके बाद एक ही नाद नस-नस में गूंजता है हर हर महादेव, हर एक में महादेव, हम सब महादेव हैं!<br />
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<b>कभी ऐसा नहीं लगा कि तीन अलग-अलग किताबों में कथानक बिखेर देने की वजह से पाठकों को असुविधा होगी?</b>मुझे ऐसा नहीं लगता है बल्कि तीन खंडों की वजह से पाठकों को कुछ सोचने-समझने और विराम लेने का अवसर मिला है। दूसरे - प्रकाशक के लाभ, मार्केटिंग की संभावना और लेखक को भी कुछ चिंतन का मौका मिलने का ध्यान रखना होता है।<br />
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<b>एक सफल रचनाकार, इतिहासकार या धार्मिक व्यक्ति - खुद को क्या कहलाना पसंद करेंगे?</b>एक शिवभक्त और पारिवारिक व्यक्ति, उसके बाद बाकी सब कुछ। परिवार मेरी ताकत है और शिव कृपालु। इनके बिना मेरी कोई गति नहीं है।<br />
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<b>'शिव-त्रयी' के बाद अगली श्रृंखला के लिए कोई विषय सोचा?</b>फिलहाल, प्राचीन ग्रीक और मिस्र संस्कृतियों पर अध्ययन कर रहा हूं। मनु और अकबर पर चिंतन कर रहा हूं। रामायण और महाभारत के अलग-अलग संस्करणों और व्याख्याओं पर भी लिख सकता हूं। बहुत-से विचार हैं। देखते हैं। भविष्य में कौन-सी सोच ज्यादा मजबूत होकर किताब बन सकेगी। बैंकर साहब और देवदत्त पटनायक ने मिथकों पर अच्छ शोध किया है और दिलचस्प किताबें लिखी हैं। आजकल उनके भी पन्ने पलट रहा हूं।<br />
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<b>(विस्तार से पढ़ें - अहा! ज़िंदगी के साहित्य महाविशेषांक में)</b></div>
चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-56239934361097361192013-04-17T01:45:00.000+14:002013-04-17T01:45:54.480+14:00हर साल बस इंतज़ार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-fEVOhNy14aU/UW05Rpk6dtI/AAAAAAAABig/ymd162fARzs/s1600/3508008576_994506714e.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="212" src="http://3.bp.blogspot.com/-fEVOhNy14aU/UW05Rpk6dtI/AAAAAAAABig/ymd162fARzs/s320/3508008576_994506714e.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
- चण्डीदत्त शुक्ल<br />
<br />
धुंधली होती गई धीरे-धीरे गुलाबी जनवरी.<br />
कोहरे की चुन्नी में बंधी रही,<br />
जाती हुई फरवरी के चांद की हंसी.<br />
मार्च की अलगनी पर टंगी रह गई,<br />
तुम्हारी किलकन की चिंदी-चिंदी रुमाल।<br />
अप्रैल, मई और जून पकते हैं मेरे दिमाग में,<br />
सड़े आम की तरह,<br />
बस अतीत की दुर्गंध के माफिक,<br />
पूरी जुलाई बरसती है आंख<br />
और कब बीत जाते हैं,<br />
अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर<br />
कांपते हुए,<br />
जान भी नहीं पाता।<br />
तुम्हारे बिना मिला सर्द अकेलापन मौसमों पर भारी है.<br />
नवम्बर के दूसरे हफ्ते की एक बोझिल शाम में याद करता हूं,<br />
चार साल पहले के दिसम्बर की वो रात,<br />
जब तुमने हौले-से<br />
चीख जैसा घोल दिया था,<br />
कान में,<br />
तीखा-लाल मिर्च सरीखा स्वाद,<br />
कहकर –<br />
अब के बाद हर साल बस इंतज़ार करोगे!</div>
चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-34988045592601972862013-02-27T19:41:00.003+14:002013-02-27T19:41:49.916+14:00यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>- चण्डीदत्त शुक्ल</b><br /><br />
<b>मेरे शहर का नाम गोंडा है। </b>धुंध, धूल, हंसी, उदासी, ठंड नारेबाज़ी और सरोकार – हर मौसम, हर एहसास, अपनी पूरी बुलंदी पर। सुना है – एक-दो मॉल खुल गए हैं – देखा नहीं। सोचता हूं – दिल्ली-बंबई की तरह वहां कार्ड से पेमेंट होता होगा, बैरे को टिप दी जाती होगी या फिर पुराने वक्त के हिसाब से बारगेनिंग, यानी `थोड़ा और कम करो' की कवायद जारी होगी? खैर, बयान यहां गोंडा का करना नहीं था, ये सब बताने की गरज बस इतनी थी कि मेरा शहर कुछ-कुछ कस्बाई है, जो जितना बिल्डिंगों में बना और सड़कों पर बढ़ा है, कदरन उतना ही दिलों में भी बसा है। बात उन दिनों की करनी थी, जब मैं किशोर से ज्यादा और नौजवान से कुछ कम था, बीए फर्स्ट ईयर के दौर की या उससे भी पहले की बात होगी। <br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-MLv3-s29NoM/US2cWiRw5fI/AAAAAAAABhc/nZe_1a6fH8U/s1600/jagannath+tripathi+ji.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="480" src="http://3.bp.blogspot.com/-MLv3-s29NoM/US2cWiRw5fI/AAAAAAAABhc/nZe_1a6fH8U/s640/jagannath+tripathi+ji.jpg" width="640" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">जगन्नाथ त्रिपाठी जी, भाषाविद् और साहित्यकार</td></tr>
</tbody></table>
<br /><b>कहते हैं – जवानी की डगर पर</b> पहले-पहले कुछ क़दम रखते वक्त मोहल्ले की सब लड़कियां हसीन लगती हैं और जगजीत सिंह की ग़ज़लें मीठी – ऐसे समय में डायरी लिखने की आदत पड़ जाती है, सो ग़म-ए-रोजगार इश्क था, कुछ-कुछ रोजगार की तलाश थी पर डायरी में कवितानुमा पता नहीं क्या लिखने का चस्का लग चुका था। शहर तब भी ऐसा ही था, जैसा कम-ओ-बेश अब है... साहित्य को लेकर सनक, उन्माद, जुनून इसी तरह का था, ज्यूं इस दिन तक है, जब आप ये यादनामा पढ़ रहे हैं। परंपरागत कविताई, यानी छंद, तुक से तुक मिलाने की होड़, ऐसी कविताएं – जो सांस्कृतिक पहचान हैं – मंचों पर वीर रस का वमन, या चुटकुलेबाजी तब भी थे, लेकिन कुल-मिलाकर बात बस इतनी कि हवा में परंपरा की खुशबू ज्यादा थी। मुझे मुगालता था अपनी उम्र से आगे का होने का, सो तुक से अलग, बेतुकी बोले तो फ्री-वर्स कविताएं गढ़ने लगा था।<br /><b><br />उन्हीं दिनों मिले थे डीएफओ साहब। </b>सेवानिवृत्त हो चुके थे। पर हम सबके लिए डीएफओ साहब ही थे... जगन्नाथ त्रिपाठी जी। दिखने में बेहद बुलंद, सेहतमंद, सुंदर। मेरी मसें भीग रही थीं, मूंछ हल्की-हल्की ही आई थी और वे भरे-पूरे बुजुर्ग थे। बोलते और मुंह से मिसरी फूटती – ये उपमा ग़लत नहीं है, एकदम सटीक और सही है। वे उन दिनों `पलाश' शीर्षक से एक प्रतिनिधि संकलन या कि कहें पत्रिका प्रकाशित करने की जद्दोज़हद में थे। प्रकाशन कितना दुष्कर और तकरीबन `थैंकलेस’ होता है - इसका पहले-पहला एहसास तभी हुआ था। एक गोष्ठी में मिले या फिर किसी कवि परिचित के साथ उनके घर गया था – ठीक-ठीक याद नहीं आता – पर मिलना हो गया था। बेहद आत्मीयता के साथ हाथ मिलाया था। पूछते हुए, कुछ-कुछ चुटकी लेते हुए, हंसकर - कविता लिखते हैं आप...? तो फिर सुनाइए। मुक्तछंद कविताएं याद तो रहती नहीं हैं, सो एक तुक वाली ही सुना दी थी – ज़िगर जिगर में बसे इस तरह, जिगर से उनकी याद न जाती। वो हंसे नहीं थे, पर स्मित हास्य होंठों पर था। <br /><br /><b>कविता से अलग, कविता की सारी बातें </b>बता दी थीं उन्होंने उस शाम। कौन-सा शब्द कहां हो, क्यों हो, कितना हो, उसके भाव क्या हैं, अर्थ क्या हैं, जरूरत क्या है, परंपरा क्या है, इतिहास क्या है... पहली बार सुनी थी इतनी अंतरंगता से कही गई, बयां हुई भाषा की बात।<br />
<br /><b>लिखने-पढ़ने वाली, मेरी उम्र की पीढ़ी </b>त्रिपाठी जी को भाषाविद् के रूप में ज्यादा पहचानती है पर मैं उन्हें देखकर सोचता रह गया - इस उम्र में भी स्टूडेंट की तरह हैं ये तो! हर शब्द को लेकर उनकी उत्सुकता, इच्छा, कौतूहल, उसके आदि से अब तक के परिवर्तनों पर निगाह – इतनी सुरुचि, ऐसी तल्लीनता बिरले ही दिखती है। कृष्णनंदन तिवारी नंदन बेहद सौम्य-सरल और उतने ही मधुर कवि हैं। त्रिपाठी जी और वे देर तक चर्चा करते। इस बीच शिवाकांत मिश्र विद्रोही, झंझट जी आदि विभिन्न कवियों का जमावड़ा उनके जेल रोड के पास वाले घर में होता रहता।<br /><br /><b>मैं भी अक्सर पहुंचता। </b>कुछ दिन बाद अघोषित तौर पर मैं `पलाश’ का सहयोगी हो गया था। नेह-दुलार और अच्छा-सा चाय-नाश्ता, जो उन दिनों बड़े आकर्षण का केंद्र था – गटकते हुए कविताओं से सजी-सुलझी शाम गुजरती जाती। ये दौर बहुत लंबा नहीं था। बाद के दिनों में मेरी पढ़ाई-लिखाई लुढ़कती-बढ़ती रही और फिर रिज़क कमाने के वास्ते शहर ही छूट गया। डीएफओ साहब ने `पलाश’ प्रकाशित कर दिया। बहुत-से लोगों ने तारीफ की। उनने भी, जो पहले इस काम में निंदा-रस के चटखारे लेते रहते थे। सुना कि त्रिपाठी जी पलाश को नियमित करने में जुटे थे। बाद में ख़बर नहीं मिली कि क्या हुआ!<br /><br /><b>वे दोस्त नहीं थे। रिश्तेदार भी नहीं। </b>कम-अज-कम मैंने ब्राह्मणों वाली परंपरा में घुसकर किसी रक्त-संबंध की टोह-बीन नहीं की। त्रिपाठी जी हम उम्र भी नहीं थे, पर इतने अजीज लगे थे कि उन शामों का स्वाद अरसे बाद भी नहीं भूल सका हूं। आज के दौर में, जब लिखना-पढ़ना कारोबार हुआ जाता है, उदास रात के साए में खुशग़वार बना वो घर बहुत याद आता है। वहां सचमुच शब्द अर्थवान थे। त्रिपाठी जी कितने अच्छे कवि, लेखक थे – इस बारे में टिप्पणी समय देगा, पर वे एक बेहद सुंदर, सजग, कई बार अडिग भाषाप्रेमी और साहित्य के आशिक जरूर थे... और उससे भी आगे एक मुकम्मल इंसान भी। कभी, किसी वक्त, जब भाषा को लेकर बहसें करता हूं, तो वे याद आते हैं – कहते हुए, शब्द सीमित हैं। इन्हें सोच-समझ कर काम में लाइए। परंपरा है कि कोई न रहे तो उसकी इज्जत की जाती है, डीएफओ साहब के बारे में ऐसा सोच पाना भी मेरे लिए मुमकिन नहीं है। मैं उन्हें कोई श्रद्धांजलि दे ही नहीं पाऊंगा। लगता है, कुछ समस्या हुई, कोई बात-कोई शब्द-कोई एहसास समझ न आएगा तो उनके पास जाऊंगा, वे हंसते हुए अर्थों की झड़ी लगा देंगे। पर उससे भी पहले पूछेंगे – कुछ खाएंगे? चाय पी लेते है, फिर साहित्य चर्चा करेंगे। वे कहीं गए नहीं, इसीलिए यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं...।<br /><br /><br /></div>
चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-35722951756668197352012-12-18T03:18:00.000+14:002012-12-18T03:18:36.011+14:00मेरे पास मां है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<blockquote class="tr_bq">
<b>मेरा लिखा पहला नाटक, जिसका मंचन गोंडा में एक स्कूल के बच्चों ने कल किया... अच्छा लग रहा है :) </b></blockquote>
<br />नाटककार – चण्डीदत्त शुक्ल<br /><br />दृश्य-1<br /><br /> एक मध्यवर्गीय परिवार के घर का ड्राइंगरूम... दीवारों पर कुछ वॉल पेंटिंग्स लगी हैं। कमरे में खाना खाने का भी इंतज़ाम है। एक तरफ टेबल रखी है, जिसके आसपास चार कुर्सियां लगी हैं। मेज पर कप, प्लेट्स और बाकी क्रॉकरी व कटलरी मौजूद है। कुर्सियां खाली पड़ी हैं। दाहिनी तरफ की विंग से एक शख्स की एंट्री। उम्र यही कोई 50 साल। फेल्ट हैट लगा रखी है। कोट, पैंट, टाई पहने हुए। होंठों में सिगार दबी है, पर जली नहीं। धीरे-धीरे चलते हुए वह मंच के बीचोबीच रुक जाता है। लाइट्स ऑफ। स्पॉट लाइट चेहरे पर पड़ती है। सिगार हाथ में लेता है। <br /><br />व्यक्ति - क्या बेवकूफी है साहब। बल्कि यूं कहिए कि इससे बड़ी बेवकूफी और कुछ हो ही नहीं सकती। दस बजने को आए। दफ्तर जाने का वक्त हो गया और अब तक ड्राइवर नहीं आया। अजी, इसकी बात ही क्या करें। जैसी सरकार निकम्मी, वैसी ही पब्लिक भी...<br /><br /> ड्राइवर की एंट्री...कास्ट्यूम ह्वाइट ड्रेस, ह्वाइट पैंट <br /><br />ड्राइवर - नहीं सरकार। कहना ही है तो कहिए कि पब्लिक निकम्मी है, इसीलिए सरकार भी निकम्मी है। (एनाउंसमेंट वाली स्टाइल में), जरा सोचिए — जितनी मेहनत हम लोग टीवी के आगे रिमोट पर करते हैं, इतनी वोट वाले दिन कर दें तो क्या तमाम निकम्मे लोग हमारे नेता बनेंगे?<br /><br />-- बैकग्राउंड से गाना बजता है... <br />मेरा गधा, गधों का लीडर…<br />(फिल्म - मेहरबान)।<br /><br /> गाना चालीस सेकेंड्स तक चलता है, तभी एक मॉडर्न लेडी बाईं विंग से एंट्री लेती हैं। गाउन पहने हुए। एक हाथ में लिपस्टिक लिए हुए... हाथ से चेहरे पर पावडर सही करने की कोशिश कर रही हैं। मंच के बीचोबीच आकर रुकती हैं, फिर लिपिस्टिक लगाना शुरू करती हैं, तभी पहले से मौजूद व्यक्ति और ड्राइवर को देखकर –<br /><br />लेडी - अरे महेंद्र, तुम यहां क्या कर रहे हो? पक्की बात है – पॉलिटिक्स-पॉलिटिक्स खेल रहे होगे। मेरी तो किस्मत ही फूट गई है। <br />(यह सुनकर ड्राइवर और महेंद्र, दोनों के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान तैरने लगती है। दोनों एक-दूसरे को देखकर कुछ बुदबुदाते हैं)<br />लेडी – पहले पॉलिटिक्स, फिर ऑफिस, वहां से निकलकर घोड़ों पर दांव लगाने चले जाते हो और घर लौटते ही शेयर बाज़ार। कभी सोचा है कि मेरे भी कुछ अरमान हैं...<br /><br />बैकग्राउंड से गाना बजता है... <br />हाय मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया<br />(फिल्म - संगम)। <br /> गाना चालीस सेकेंड्स तक चलता है... फिर fadeout हो जाता है। इस बीच महेंद्र कुछ बोलता है, जो भिनभिनाहट की तरह सुनाई देता है। कुछ भी क्लियर नहीं होता। गाना खत्म होते-होते महेंद्र की आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगती है... <br /><br />महेंद्र (दर्शकों से मुखातिब होकर) — इनसे मिलिए, ये हैं सुश्री, सौभाग्यवती, कलावती, सुशील महिला यानी लीलावती। अब लीला नाम कुछ-कुछ पौराणिक लगता है, पुराना दिखता है न, सो इन्होंने जस्ट चेंज के लिए रख लिया है – एलवी। और मैं भी इनके पति, महेंद्र पति से एमपी हो गया हूं। हा हा हा. (नकली हंसी हंसता है.)। खैर, एक बात तो बताइए, मुझसे मिलकर आपको कैसा लगा... मुझे तो आप सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।<br /><br /> सभी पात्र जब संवाद बोल रहे होंगे, तब मंच पर मौजूद अन्य लोग फ्रीज रहेंगे...। अपने संवाद बोलकर एमपी सेंटर में लौट जाएगा, बिना मुड़े। कदम-दर-कदम बैक होकर। नाटक में यह ध्यान रखना होगा कि दर्शकों को पीठ कभी न दिखाई जाए। बीच में जाकर वह एबाउट टर्न पोजीशन में ड्राइवर की ओर मुंह करेगा, सिगार तोड़कर फेंक देगा, तभी एलवी एक्टिव होती हैं, सेंटर में आकर खड़ी हो जाती हैं –<br /><br />एलवी (दर्शकों से) – ये साहब मेरे पति हैं। ऐसे पति से निपत्ती रहना ठीक है। हां जी, निपूती वाला मुहावरा पुराना हुआ। ये पति तो चाय की पत्ती से भी गए गुजरे हैं। कितना भी उबाल लो, रंग नहीं छोड़ते। बस उबलते रहते हैं। दूध-आग-मेहनत सब बरबाद करो... स्वाद नहीं आने वाला। मेरी सोशल सर्विसेज को किटी पार्टी कहकर खुश होते रहते हैं। अब आप लोग ही बताइए – दो-चार सखियां कहीं मिलेंगी तो क्या बातें नहीं करेंगी? अजी, सुख-दुख, हाल-चाल। (वाल्यूम धीरे करते हुए) जब बात करेंगी तो थोड़ी कहानियां, किस्से होते ही हैं जी। कौन-कहां बिज़ी है... किसका कहां कैसा चक्कर है... खुद ही सोचिए – हम लोग दिन भर बोर होती हैं, कुछ गॉसिप न करें तो कैसे चले?<br /><br />-- एलवी का डायलॉग पूरा होने से पहले ही एमपी और ड्राइवर परेड की स्टाइल में वहां से एक्जिट करने लगते हैं, तभी राइट विंग से किसी लड़की की आवाज़ आती है –<br /><br />पापा, पापा... प्लीज़, रुकिए। मुझे आपसे कुछ डिस्कस करना है। <br /><br /> एमपी और ड्राइवर एलवी के पास लौट आते हैं, एबाउट टर्न लेकर। अब तीनों बातें कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज़ें नहीं सुनाई दे रही हैं। बैकग्राउंड से आवाज़ आती है, एक लड़के और एक लड़की की। यानी कैरेक्टर मंच पर दूसरे हैं और डायलॉग किसी और के --<br /><br />लड़का – ओ नो, पापा फिर चले गए। अब तुम क्या करोगे स्वीटी?<br />लड़की – तुम्हें क्या? तुम तो पैसे मांगते हो तो पूरा एटीएम ही थमा देते हैं। मुझे पापा चाहिए, पैसे नहीं। <br /><br /> ये दोनों संवाद तीन-चार बार रिपीट किए जाएं। <br /><br /> बैकग्राउंड स्कोर – सात समंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से... नन्ही सी गुड़िया लाना, चाहे गुड़िया न लाना, पापा जल्दी घर आना। 40 सेकेंड बजेगा। फेडआउट होता है, या फिर परदा गिरता है। <br /><br />दृश्य-2<br /><br /> परदा उठता है या फेडइन। कुर्सी-मेज हट चुकी है। एक आरामकुर्सी पर एक लड़की, अठारह साल उम्र, सिर नीचा किए रो रही है। बैकग्राउंड म्यूज़िक में शहनाई बजा सकती हैं। रोने की आवाज़ न आए तो अच्छा है। उसके ठीक पीछे एक लड़का, तकरीबन चौदह साल का, उसका सिर सहला रहा है। <br /><br /><br />लड़की – रोते हुए – नोज़ल साउंड – ब्रो, टेल मी. क्या मैं बुरी हूं?<br />लड़का – नो स्वीटी, यू आर सो गुड। <br />स्वीटी – देन ब्रो, पापा मुझे हग क्यों नहीं करते, ह्वाई ही आलवेज इग्नोरिंग मी... वो कभी पूछते तक नहीं कि स्वीटी बेटा, ह्वाट यू डूइंग नाउडेज़? <br />लड़का – सिस, सेम सिचुएशन हियर। तुमने कभी देखा है कि पापा ने दो मिनट भी मेरे साथ गुजारे हों। ही आलवेज बार्किंग... नो टीवी एनीमोर। बस... । हां, पैसे ज़रूर दे देते हैं, जितने मांगो, उतने।<br />स्वीटी – रमेश ... ये घर मुझे नर्क की तरह लगता है।<br />रमेश – स्वीटी सिस, प्लीज़, थिंक एबाउट मी। मैं तो आपसे चार साल छोटा हूं। आई वांट एक्स्ट्रा अटेंशन, एक्स्ट्रा केयर... पर न डैडी, न मॉम... किसी के पास मेरे लिए टाइम नहीं है।<br /><br /> रमेश की बात सुनकर स्वीटी हंस पड़ती है –<br /><br />स्वीटी – हां! तू तो न्यू बोर्न बेबी है न. डायपर पहनता है। <br /><br /> दोनों हंसने लगते हैं। धीरे-धीरे हंसी की आवाज़ घुंघरुओं की खनखनाहट में बदल जाती है। पर्दा गिरता है। <br /><br />दृश्य-3<br /><br /> कमरे की साज-सज्जा बदल जाती है। अब कमरा रमेश का बेडरूम है। रमेश कुर्सी पर बैठा है और टेबल पर लैपटॉप रखकर मूवी देख रहा है। मंच पर काफी कम रोशनी है। लैपटॉप की लाइट में रमेश के फेसियल एक्सप्रेशन दिखाई देते हैं। वह कभी चौंक रहा है, कभी तनाव में है। रहस्यमयी म्यूज़िक बजेगा... हॉरर... और थ्रिलर...। एमपी की एंट्री। वह चुपचाप जाकर रमेश के बगल खड़ा हो जाता है और चिल्लाता है <br /><br />एम पी – रमेश...रमेश...रमेश...<br /><br /> आवाज़ कई बार गूंजती है। इसके साथ ही लाइट्स जल जाती हैं। तबले की गड़गड़ाहट, धीरे से तेज होती हुई। रमेश हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता है। <br /><br />एम पी – चिल्लाते हुए – मैंने तुम पर भरोसा किया नालायक और तुमने ये सिला दिया। मैं और तुम्हारी मॉम सोचते हैं कि तुम पढ़ाई कर रहे होगे और तुम लैपटॉप पर...<br /><br /> रमेश चुपचाप खड़ा है। माहौल में टेंशन क्रिएट करने वाला म्यूज़िक। बत्तियां लगातार जलने-बुझने लगती हैं। तकरीबन आठ सेकेंड। यकायक, फिर से सारी बत्तियां जल जाती हैं।<br /><br />रमेश – पापा, आज आप मुझ पर तोहमतें लगा रहे हैं। मुझे भला-बुरा कह रहे हैं। आखिर, मैंने गलत क्या किया है? बस अपनी ज़िंदगी ही तो जीने की कोशिश कर रहा हूं। आप मुझसे बहुत सारे सवाल पूछ चुके हैं। मैंने अब तक आपसे कोई क्वेश्चन नहीं किया। क्या आप मेरे सवालों के जवाब देंगे?<br /><br /> रमेश और एमपी फ्रीज हो जाएंगे। बाकी सभी कैरेक्टर्स की एंट्री होगी। रमेश और एमपी एक-दूसरे को देखते हुए खड़े हैं और बाकी सब कैरेक्टर्स रमेश व एमपी के डायलॉग बोल रहे हैं।<br /><br />रमेश – आप तब कहां थे, जब मैं साइकिलिंग करते हुए गिर गया था और मुझे फ्रैक्चर हो गया था<br />एम पी – तब मैं मीटिंग्स अटेंड कर रहा था<br />रमेश – आप तब कहां थे पापा, जब मुझे आपकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी?<br />एम पी – तब मैं शेयर मार्केट में इन्वेस्टमेंट कर रहा था<br />रमेश – रोते हुए – पापा, आप तब कहां थे, जब मैं फ़ेल हो गया था?<br />एम पी – तब मैं रेसकोर्स में था। हां, बाद में मैंने तुम्हें डांटा तो था...<br /><br /> रमेश और एमपी के अलावा, बाकी कलाकार संवाद दोहराते हुए तेज़ गति से मंच से बाहर हो जाएंगे। रमेश और एमपी अब चिल्ला रहे हैं। दोनों के संवाद साफ नहीं सुनाई दे रहे हैं। यकायक, एमपी चिल्लाते हुए –<br /><br />एम पी – अगर तुम्हें मनमानापन करना है तो मेरे घर से बाहर निकल जाओ। मैं तुम्हें अपनी पूरी जायदाद से बेदखल करता हूं।<br /><br /> बैकग्राउंड में मदर इंडिया का गीत बजेगा – पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली... ये केवल सेटायर के लिए है। 40 सेकेंड तक प्ले। एक तरफ रमेश एक्जिट कर रहा है और वह मंच की पूरी परिक्रमा करते हुए बाहर निकलेगा। मंच के बीचोबीच एम पी अकेले खड़ा है, तभी उसे कई लोग आकर घेर लेते हैं। कोई शेयर के दस्तावेज लिए है, किसी के हाथ में ब्रीफकेस है। थोड़ी देर बात करने के बाद वे विपरीत दिशा से एक्जिट कर जाते हैं और रमेश दूसरी ओर से। जब सब निकल जाते हैं तो तेज गति से स्वीटी मंच पर आती है और भइया-भइया, ब्रो...लिसेन...लिसेन...डोंट गो अवे कहती हुई वह भी एक्जिट कर जाती है।<br /><br />दृश्य-4<br /><br /> मंच खाली पड़ा है। कोई कुर्सी-मेज भी नहीं। एक तरफ की लाइट जल रही है। शेष मंच पर अंधेरा है। एक अधेड़ इंसान एंट्री करता है। उसका ड्रेसअप इंट्रेस्टिंग है। ऊपर कोट, नीचे धोती। कोट में टाई लगा रखी है और गले में गमछा डाल रखा है, जो थोड़ा नीचे बंधा होगा, ताकि टाई दिखती रहे। ये नाटक का सूत्रधार है<br /><br />सूत्रधार – नमस्ते, हाय हैलो, सलाम, प्रणाम। फ्रेंड्स मैं हूं राम के. राम यानी राम, और के से कन्हाई। मैं वैसा ही हूं, जैसा कि है आपका मध्यवर्ग, यानी बीच की दुनिया। न ऊंचे हैं पैसे से, न निचले स्तर पर हैं। न ज्यादा पढ़े, न अनपढ़। खोखली सोच, खोखली उड़ान वाले लोग। हम सब बीच के लोग हैं, जिनके पास बहुत-से सपने हैं, लेकिन उनके लिए ज़मीन नहीं... हम सनक की हद तक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने में जुट जाते हैं... और ये सोचते ही नहीं कि उन बच्चों को मां-बाप का थोड़ा-सा वक्त चाहिए, थोड़ी-सी गाइडेंस चाहिए।<br /><br /> इतना संवाद बोलकर सूत्रधार मंच के एक कोने में रुक जाता है। फ्रीज।<br /> दूसरी विंग से एलवी की एंट्री होती है। उनके साथ उनके ही एज ग्रुप की तीन महिलाएं और हैं। एक महिला न्यूज़पेपर से खुद को पंखा कर रही है।<br /><br />महिला -1 – उफ़, ओ गॉड. कितनी गर्मी है। पसीना रुक ही नहीं रहा। सुबह को डियो लगाओ, शाम तक सब गायब हो जाता है।<br />महिला – 2 – ऊपर से ये कमली तो डेंगू मच्छर हो गई है। सिर्फ खून चूसती है। हफ्ते में तीन दिन आती है और चार दिन गायब। अब सुबह-सुबह उठकर बर्तन धुलो...<br />महिला – 3 – ओ हो नाज़ुक कली... मिसेज सॉफ्टी. डिश वॉशर से बर्तन धुलने में भी आपकी कमर लचक जाती है।<br />एल वी – यार आप लोग न झगड़ो नहीं... रमेश पता नहीं कहां है, मुझे टेंशन हो रही है, लेकिन आप लोगों से कमिट किया था किटी के लिए, सो मैं प्रेजेंट हूं। देखिए, आज ही प्लान कर लीजिए कि न्यू इयर कैसे सेलिब्रेट करेंगे। मैं तो कहती हूं कि सोनू निगम को ही मेन सिंगर बुलाते हैं पार्टी में...<br /><br /> मंच के कोने से सूत्रधार बीच में आ जाता है। एलवी और उनकी सहेलियां फ्रीज हो चुकी हैं। सूत्रधार आगे कहता है –<br /><br />सूत्रधार – ये रमेश की मां हैं। सोशल वर्कर। हरदम बिज़ी रहती हैं। अपने जैसी महिलाओं का दुख दूर करने में। इनका सबसे बड़ा दुख है कि वेट बढ़ गया है और इनके हबी... ओ-ओ- आप समझे नहीं... हस्बैंड, इनका ध्यान नहीं रखते, अटेंशन नहीं देते। इन्हें बच्चों की चिंता नहीं है। वे क्या कर रहे हैं, लिख-पढ़ रहे हैं, कहां हैं और कहां नहीं। इन्हें कैसे बताएं कि हरे-भरे खेत सबको अच्छे लगते हैं, लेकिन पहले उनकी जुताई करनी पड़ती है, बीज रोपना होता है और फिर करनी होती है सिंचाई।<br /><br /> पार्श्व से आवाज़ आती है – सभी कैरेक्टर्स की आवाज़ में...<br />बीज रोपना पड़ता है... करनी होती है सिंचाई<br />ये लाइन तीन-चार बार रिपीट होती है।<br /><br />सूत्रधार – प्यारे दर्शकों, रमेश की मां को चिंता नहीं है कि उनका बेटा कहां होगा। उनके पापा भी बहुत बिज़ी हैं... आपके पास तो वक्त है न... आइए, आपको लिए चलते हैं रमेश के पास।<br /><br /> लाइट्स आफ होती हैं... पर्दा गिरता है...<br /><br />दृश्य-5<br /><br /> एक टूटी खाट बिछी है। खाट के अगल-बगल बोरे लटके हैं। लकड़ी के स्टैंड पर। यहीं रमेश मैली चादर ओढ़कर बैठा है। वह सर्दी से कांप रहा है। एक किनारे ज़मीन पर मैली-कुचैली कमीज पहने एक बूढ़ा बीड़ी जलाने की कोशिश कर रहा है। बार-बार बीड़ी जलाता है। धुआं खींचता है और फिर खांसता है। बीड़ी जली नहीं है। आखिरकार झल्लाकर बीड़ी फेंक देता है...<br /><br />बूढ़ा – ये ससुरी बीड़ी भी किस्मत की तरह है। जब चाहो, तब नहीं जलती। बाकी टाइम धुकधुकाती रहती है। तू क्यों कांप रहा है रे बेटा। सर्दी लग रही है क्या?<br /><br /> एक विंग से बुढ़िया की एंट्री। शक्ल से ही झगड़ालू लग रही है। धोती पहने है। <br /><br />बूढ़िया – अरे नासपीटे, तू न मरेगा, न घर खाली करेगा। जब देखो, तब बैठा-बैठा बीड़ी पीता रहता है। यह भी नहीं होता कि चार गट्ठर घास ही काट लाए। कम से कम एक जून की रोटी का तो जुगाड़ हो।<br /><br />बूढ़ा – अरे चुड़ैल, चुप कर। जब देखो, गिटर-पिटर करती रहती है। कभी तो एक घड़ी शांति से बैठ जाया कर। सारी ज़िंदगी तुझे झेलते हुए बीत गई। अंतिम दिन तो भगवान का नाम लेने दे।<br /><br />बुढ़िया – हां, बीड़ी में भगवान छिपे हैं न.... कहते-कहते रमेश की ओर देखती है – अरे, बबुआ के तो सर्दी लग रही है... जल्दी जाओ ... कुछ दवा-दारू लेकर आओ।<br /><br /> बूढ़ा अपनी कमीज की सब जेबें झाड़कर देखता है, फिर उदासी के साथ बुढ़िया को देखता है। उसे कुछ कहता न पाकर थके कदमों से बाहर निकल जाता है। बुढ़िया और रमेश फ्रीज हो जाते हैं। सूत्रधार की एंट्री –<br /><br />सूत्रधार – नहीं साहब, आप लोग परेशान न होइए। ये रमेश ही है, बस आप इसे पहचान नहीं पा रहे। भूख-थकान और चिंता का बोझ किसे नहीं मार देता है। नाज़ुक रमेश भी रोटी और तकलीफ का बोझ नहीं उठा पाया... बीच रास्ते में गिर गया ... ये तो भला कहिए बूढ़े रामधनी का, जो इसे अपने घर उठा लाया। दो दिन तक रमेश ने ज़ुबान न खोली, आज ही होश में आया है। रामधनी और उसकी बुढ़िया के पास दो वक्त की रोटी खाने के लिए पैसे नहीं हैं, अब एक पराए इंसान के लिए वो दवा कहां से लाए... ख़ैर, सुना है कि रमेश के पापा उसे ढूंढते हुए इधर ही आने वाले हैं... देखते हैं, आगे क्या होता है?<br /><br />Lights off<br /><br /><br />दृश्य-6<br /><br /> रामधनी का वही घर। रमेश और बुढ़िया कुछ बातें कर रहे हैं। आवाज़ सुनाई नहीं देती। तभी एक विंग से रामधनी की एंट्री होती है। रामधनी चारपाई के पास पहुंचता है। बुढ़िया को दवाइयां देता है और खुद चक्कर खाकर चारपाई पर लुढ़क जाता है। बुढ़िया चीखती है –<br /><br />बुढ़िया – तुम दवाई कहां से लाए? तुम्हारे पास तो पैसे थे ही नहीं। क्या फिर से अपना खून बेच दिया?<br /><br />बूढ़ा – रामधनी, इंसान ज़िंदा रहेगा तो और खून बना लेगा। देख रही हो, ये छोटा-सा बच्चा बुखार में तप रहा है। पता नहीं किसकी फुलवारी का फूल है। बेचारा सड़क पर पड़ा तड़प रहा था। बेहोश था। पापा-पापा बुलाता हुआ। कोई न आगे, न पीछे। मुझसे रहा नहीं गया। मैं इसे उठा लाया। मैं निपूता था अब तक, तू भी निपूती। देख, हमें बच्चा मिल गया। हम इसे पालेंगे-पोसेंगे, बड़ा करेंगे। ब्याह करेंगे इसका। तू सास बनेगी...<br /><br />बुढ़िया ... सिसकते हुए ... तुम ख्वाब बहुत देखते हो... बुढ़ा गए पर अकल न आई। कभी किसी और का बच्चा अपना हुआ है क्या? हां, हम अपना फर्ज पूरा करेंगे... पर हमारी किस्मत में औलाद कहां। होती तो भगवान न देता क्या?<br /><br />रमेश उन्हें आंखें फाड़कर देख रहा है। वह चीख पड़ता है – <br /><br />रमेश – बापू, बापू... ये तुमने क्या किया? न कोई जान, न पहचान, मुझे बचाने के लिए अपना खून बेच डाला... उफ़, आपको ये क्या हो गया। <br />(मुड़कर बुढ़िया से)<br />मां... तुम मेरी मां हो, मेरे पास मां है। मैं अकेला नहीं हूं...।<br /><br /><br /> दूसरी विंग से एमपी व एलवी की एंट्री...<br /><br />एल वी – रमेश, तुम पागल हो गए हो क्या... ये बुढ़िया तुम्हारी मां नहीं है। मैं हूं तुम्हारी मॉम...।<br /><br />रमेश – हां, आप मॉम हैं और ये मेरी मां। <br /><br />एम पी – मेरे पास क्या नहीं है। मोटर है, बंगला है, गाड़ी है... इसके पास क्या है...?<br /><br /><br /> बैकग्राउंड से दीवार फ़िल्म का डायलॉग गूंजता है – मेरे पास बंगला है, मोटर है, गाड़ी है...<br /><br />रमेश – इस बूढ़े, लाचार, गरीब इंसान को देखकर रहे हैं मिस्टर महेंद्र पति। इसके पास दिल है। जीने का जज्बा है। किसी इंसान के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली सोच है। ये पैसों के पीछे नहीं भागता। इसके लिए सबसे ज़रूरी प्यार है और इसके लिए ये अपना खून तक बेच देता है। और मॉम, आप इस देवी को बुढ़िया कहकर अपमानित कर रही हैं, सुनिए... हज़ारों रुपए की क्रीम लगाकर भी आपके चेहरे की चमक नहीं लौट सकती, लेकिन गौर से देखिएगा... इस औरत के चेहरे पर प्यार की कैसी आभा चमक रही है। मॉम ये मां है... किसी पराए इंसान के बच्चे को भी अपने गले से लगा लेती है... पापा, ये दौलत इन लोगों के पास है और आप जानना चाहते हैं, मेरे पास क्या है? – मेरे पास मां है... मेरे पास मां है...।<br /><br />पर्दा गिरता है। <br /><br /><br /><br /></div>
चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-5054556054279399612012-12-08T02:31:00.000+14:002012-12-08T02:35:49.278+14:00हे आमिर! उल्लू नहीं है पब्लिक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>ज़रूरी सलाह बनाम खीझ</b><br />
<br />
<b>- चण्डीदत्त शुक्ल</b><br />
<br />
<b>आमिर खान साहेब नहीं आए।</b> बुड़बक पब्लिक उन्हें `तलाश' करती रही। सिर्फ पब्लिक नहीं, बांग्ला मिजाज़ में कहें तो भद्रजन भी। पुलिसवाले और लौंडे-लपाड़ियों के अलावा, शॉर्ट सर्विस कमीशन टाइप पत्रकार, रिक्शा-साइकिल-मोटरसाइकिल स्टैंड वाले भी। चौंकिएगा नहीं, शॉर्ट सर्विस बोले तो कभी-कभार ये धंधा कर लेने वाले। एक यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले तमाम सत्रह-अठारह साल के छोरे-छोरियां पूरा का पूरा विश्वविद्यालय बंक करके उस भुतहा बस्ती में बिचर रहे थे। पहले उछलते-कूदते, फिर एक ग्लास पानी के लिए छुछुआते हुए। जयपुर से कुल जमा सौ किलोमीटर के इर्द-गिर्द ही पड़ता है भानगढ़। इंटरनेट पर सर्च को रिसर्च नाम देने वाले जानते ही होंगे कि इस कसबे को लेकर तरह-तरह की अफवाहें जोर-शोर से सामने आई हैं, इतनी ज्यादा, जितने `भूत' न रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में होंगे, न कहानियों में। चुनांचे, बात बस इतनी भानगढ़ को लेकर दो बातें सबसे ज्यादा चलन में हैं, पहली – एक तांत्रिक की बद्दुआ से भानगढ़ उजड़ गया और दूसरी ये कि सांझ ढलते ही यहां भूतों का बसेरा हो जाता है, इसलिए उजड़े हुए कसबे के गेट बंद कर दिए जाते हैं। परिंदा और जानवर भले हाथ-पैर-मुंह मारें, पर जीता-जागता आदमी चौहद्दी में कदम नहीं रख सकता।<br />
<br />
<b>ख़ैर, आप भी सोच रहे होंगे, ये आदमी अक्ल से पैदल है क्या, </b>बात शुरू की थी आमिर खान साहेब से और लौंडे-लपाड़ियों का जिक्र करते हुए भूतों तक जा पहुंचा, तो साहबान सिरा यहीं जुड़ता है, वह इसलिए कि इसी भानगढ़ की `विजिट' करने का दावा आमिर, या कि उनके प्रचारकों ने किया था और ये बात पब्लिसिस्टों से होती हुई ख़बरचियों और फिर अख़बारों तक जा पहुंची, सो भानगढ़ में पब्लिक जुटनी लाजिम थी, लेकिन न आना था उन्हें और न आए वो, यानी अपने आमिर! अब ख़बर पढ़कर आमिर का इंटरव्यू करने की ख़्वाहिश से जो हम सब दल-बल समेत भुतहा बस्ती में हाजिर हुए तो आमिर न मिले पर मिले केवड़े के पेड़, काले मुंह वाले बंदर और कई ऐसे किस्से, जो बता रहे थे कि भानगढ़ में कुछ और हो न हो, भूत तो एक भी नहीं हैं। हां, जितनी ज़ुबान, उतने अफसाने भी, सो यह समझाने वाले भी कई निकले कि उनने भूत तो देखा है, लेकिन लेडीज़, यानी चुड़ैल।<br />
<br />
<b>हालांकि भूत और भानगढ़ और वहां की घुमाई-टहलाई के </b>यात्रा वृत्तांत, संस्मरण और यादनामा तो फिर कभी लिखा जाएगा, आज का सवाल ज्यादा इंप्वार्टेंट है, जिसे हल करने पर केबीसी की ईनामी राशि भले न मिले पर एक बात तो जोर-शोर से समझ में आएगी ही कि आमिर ज्यादा सयाने हैं, या पब्लिक (जिसमें हम भी शामिल हैं) अधिक बुड़बक है? सब जानते हैं कि आमिर अपनी फ़िल्मों के प्रमोशन-पब्लिसिटी के लिए सारे करम कर डालते हैं। हमारे इलाके की भाषा में कहें तो ... से घोड़ा खोल देते हैं (इस ट्रिपल डॉट ... में देह के एक विशेष अंग का नाम नहीं भरा गया है। सयाने लोग खुदै बूझ लें)। जितनी बार, जिस-जिस किस्म की फ़िल्म बना ली, उसे रिलीज़ करने से पहले और बाद में तरह-तरह के भेष बनाकर घूमे। हर बार चैलेंज किया -- है किसी में दम तो पकड़ के दिखावे। नकद ईनाम देंगे। फोटू-शोटू साथ में खिंचवाएंगे और, और भी किसिम-किसिम की बात, पर कोई पकड़ न पाया। भांप न पाया कि दाढ़ी बढ़ाए, अचकन संभालते बगल से जो फट्ट से निकले, वो मुल्ला जी और कउनो नहीं, अपने आमिर खान हैं। आमिर न हुए, डॉन हो गए, जिसे पता नहीं कितने तो मुल्कों की पुलिस भी पकड़ नहीं पाती। अब वही खान साहेब जब हो-हल्ला करके, ख़बर छपवाके भी भानगढ़ नहीं आए तो फिर से समझ में आया कि कहीं हाजिर होके तो कहीं गैर-हाज़िर रहके उल्लू बनाना खान साहेब का शौक नहीं, एक और पब्लिसिटी स्टंट है।<br />
<br />
<b>आमिर साहेब, आपसे बस कहनी एक बात है</b> कि पुलिस-पत्रकार-पब्लिक – सबसे आपने अपनी तलाश तो करवा ली, लेकिन ये सब ज्यादा काम आता नहीं है। हो सके तो कहानी सेलेक्शन, एक्टिंग और डायरेक्शन – जिसके लिए बेसिक तौर पर आपकी पहचान होती रही है – पर ही ज्यादा ज़ोर लगाइए, मैनुपुलेट करके मार्केटिंग के चक्कर में अगर आप पब्लिक को ऐसे उल्लू बनाते रहे तो देखिएगा – एक दिन आप सनीमा हाल में बैठे रह जाएंगे और पब्लिक आपकी ही तरह फुर्र हो जाएगी, फिर बजाते रहिएगा हरमुनिया।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-neSRm9hBUwA/UMHhWqoc0TI/AAAAAAAABc8/N9EURdqqyS8/s1600/Bhangarh_The_Ghost_city-3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="http://1.bp.blogspot.com/-neSRm9hBUwA/UMHhWqoc0TI/AAAAAAAABc8/N9EURdqqyS8/s400/Bhangarh_The_Ghost_city-3.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<br /></div>
चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-23189816104467081052012-12-02T01:52:00.001+14:002012-12-02T01:52:28.659+14:00इस सदी की निहायत अश्लील कविता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<b>- चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345</b><br />
<br />
<b>*</b><br />
<b><br /></b>
<b>जरूरी नहीं है कि,</b><br />
आप पढ़ें<br />
इस सदी की, यह निहायत अश्लील कविता<br />
और एकदम संस्कारित होते हुए भी,<br />
देने को विवश हो जाएं हजारों-हजार गालियां।<br />
आप, जो कभी भी रंगे हाथ धरे नहीं गए,<br />
वेश्यालयों से दबे पांव, मुंह छिपाए हुए निकलते समय,<br />
तब क्यों जरूरी है कि आप पढ़ें अश्लील रचना?<br />
यूं भी,<br />
जिस तरह आपके संस्कार जरूरी नहीं हैं मेरे लिए,<br />
वैसे ही,<br />
आपका इसका पाठक होना<br />
और फिर<br />
लेखक को दुत्कारना भी नियत नहीं किया गया है,<br />
साहित्य के किसी संविधान में।<br />
यह दीगर बात है कि,<br />
हमेशा यौनोत्तेजना के समय नहीं लिखी जातीं<br />
अश्लील कविताएं!<br />
न ही पोर्न साइट्स के पेजेज़ डाउनलोड करते हैं,<br />
स्खलित पुरुषों के थके हाथ।<br />
कई बार,<br />
भूख से बोझिल लोग,<br />
पीते हैं एक अदद सिगरेट<br />
और दुख से हारे मन,<br />
खोजते हैं शराब में शांति।<br />
ऐसे ही,<br />
बहुत पहले बताया था,<br />
धर्म के एक पुराने जादूगर ने,<br />
संभोग में छिपे हैं<br />
शांति और समाधि के मंत्र।<br />
उन तपते होंठों में,<br />
फंसाकर अपने प्यासे लब,<br />
`वह' भी तो हर बार नहीं तलाशता,<br />
काम का करतब।<br />
कभी-कभी कुछ नम, कुछ उदास,<br />
थके हुए थोड़े से वे होंठ,<br />
ले जाते हैं मेडिटेशन-मुद्रा में।<br />
मंथर, बस मुंह से मुंह जोड़े<br />
कुछ चलते, कुछ फिरते अधर...।<br />
कोई प्रेमी क्यों चूमता है अपनी प्रेयसी को?<br />
प्रेयसियां आंखें मूंद उस मीठे हमले की क्यों करती हैं प्रतीक्षा?<br />
इन कौतूहलों के बीच, सत्य है निष्ठुर --<br />
पुरुष का सहज अभयारण्य है स्त्री की देह<br />
और<br />
मैथुन स्वर्गिक,<br />
तब तक,<br />
जिस वक्त से पहले मादा न कह दे,<br />
तुम अब नर नहीं रहे<br />
या कि<br />
मुझे और कोई पुरुष अच्छा लगता है!<br />
एक पहेली हल करने के लिए ज़िलाबदर हो गए हैं विक्रमादित्य<br />
और तड़ीपार है बेताल,<br />
जिसे दुत्कारते हैं तमाम पंडित<br />
नर्क का द्वार कहकर,<br />
उसमें प्रवेश की खातिर,<br />
किसलिए लगा देते हैं,<br />
सब हुनर-करतब और यत्न?<br />
औरत की देह जब आनंदखोह है<br />
तब<br />
वह क्यों हैं इस कदर आपकी आंख में अश्लील?<br />
<br />
<b><br /></b>
<b>*</b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-IUUSjzSTick/ULnvHbsRjtI/AAAAAAAABcs/_Jn3XCIaO2g/s1600/0331.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="http://1.bp.blogspot.com/-IUUSjzSTick/ULnvHbsRjtI/AAAAAAAABcs/_Jn3XCIaO2g/s400/0331.jpg" width="376" /></a></div>
<b><br /></b>
<div style="text-align: center;">
<b>कलाकृति - Jose Rivas</b></div>
</div>
चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-54654379836291314662012-08-16T22:15:00.001+14:002012-08-16T22:42:53.632+14:00मन की मौज में न भूलें आजादी के मायने<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="fl rhn">
<h4 class="fs160 fl" style="color: red; text-align: left;">
<u>दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख</u></h4>
<b><span style="color: #009900; font-size: medium;">चण्डीदत्त शुक्ल</span><span style="color: #009900;"> | </span> Aug 15, 2012, 00:10AM IST</b></div>
<div class="ffTMS fs75">
</div>
<div class="cb5">
</div>
<div class="article_common">
<ul class="sTab ml10">
<li class="open" id="PATHKONC_LI"><a href="http://www.blogger.com/blogger.g?blogID=7793152972586917066">आलेख</a></li>
</ul>
</div>
<div class="">
<div id="123" style="float: left; margin-right: 15px; width: 290px;">
<a href="http://www.blogger.com/blogger.g?blogID=7793152972586917066" name="poll"></a> </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-MTp98L9oNmg/UCywybXFxbI/AAAAAAAABYM/eMmiOsGKzvM/s1600/14JAIPURCITY-PG10-0.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="150" src="http://2.bp.blogspot.com/-MTp98L9oNmg/UCywybXFxbI/AAAAAAAABYM/eMmiOsGKzvM/s320/14JAIPURCITY-PG10-0.gif" width="320" /></a></div>
<span class="introTxt" id="print_div" style="text-align: justify;"> <b>गांव के एक काका की याद आ रही है।</b> रिश्तेदारी का ख्याल नहीं। शायद पुरखों की पट्टीदारी का कोई छोर जुड़ता होगा उनसे, पर हम सब उन्हें काका, यानी बड़े चाचा के बतौर ही जानते-पहचानते और मान देते। काका का असल नाम भी याद नहीं पड़ता। बच्चे-बड़े सब उन्हें मनमौजी कहते। मनमौजी का मतलब मस्त-मौला होने से नहीं था। <br /> <br /> <b>काका निर्द्वद्व, नियंत्रण के बिना, </b>इधर-उधर घूमने वाले, दिन भर ऊंघने और शाम को चौपाल में बैठकर नई पीढ़ी को गालियां देने वाले सनकी बुजुर्ग थे। यानी मौज की खातिर जीने वाले। कोई कहता- काका! कुछ काम-धाम करो। तो वह टोकने वाले पर ही पिल पड़ते, 'तुम्हारी तरह थोड़े हैं कि घर में खाने को ठीक नहीं है। बाप-दादा कमाकर रख गए हैं। हम तो मौज उड़ाएंगे। घर में काकी भी ऐसी मिल गईं, जो कुछ कहती-सुनती नहीं थीं। उम्र के आखिरी दिनों में जरूर काका को सद्गति प्राप्त होने से ऐन पहले सद्ज्ञान मिल गया था। बहुत बीमार थे। अक्सर समझाते - बेटवा, पढ़-लिख लो। ये जो आजाद घूमते रहते हो, यह सब काम नहीं आएगा। विद्या और संस्कार ही आगे तक साथ देते हैं।<br /> <br /> <b>अब मनमौजी काका तो रहे नहीं। </b>वे कोई बड़े सूरमा-खलीफा या सेलिब्रिटी भी नहीं कि उनकी चर्चा की जाए, सो आप सोचेंगे कि इतनी जगह उनके बयान में बर्बाद क्यों की गई। बहरहाल, इसकी भी वजह है। मनमौजी दरअसल, एक आदमी का नाम भर नहीं है। यह स्थिति अपनी जिम्मेदारी भुलाकर सिर्फ मस्त रहने, अपने मन का करने की प्रवृत्ति भी हो जाती है और तभी इसके खतरे सामने आते हैं। आज आजादी का दिन है। स्वाधीनता दिवस को हम एक और छुट्टी मान बैठते हैं, तो क्या हम भी मनमौजी काका ही नहीं बनते जा रहे? शायद हम भूल गए हैं कि आजादी का एक पर्याय स्वतंत्रता भी है, यानी अपने लिए, अपना तंत्र। एक अनुशासन, जो बताता है कि अगर हमें कुछ अधिकार मिले हैं तो उनके बरक्स कुछ जिम्मेदारियां भी हैं।<br /> <br /> <b>बचपन में जश्न-ए-आजादी </b>मनाने के लिए हम सब बच्चे गांवभर में घूम-घूमकर चंदा इकट्ठा करते। छोटे-छोटे डंडों पर झंडे लगाकर भारत माता की जय के नारे लगाते। यह अहसास अंदर से होता था कि देश आजाद है और उसका उत्सव महज रस्म-अदायगी नहीं है। होली-दिवाली की तरह जरूरी है। पर अब क्या? एक अदद छुट्टी, स्कूलों में लड्डू और सभागारों में कुछ और नारे.. बस!<br /> <br /> <b>तीन रोज पहले की बात है। </b>भोपाल में आयोजित एक मीडिया चौपाल में शामिल होने पहुंचा था। इसमें आजादी को अधिकार मान लेने और कोई तंत्र न विकसित करने की बात यकायक शुरू हो गई। बात छोटी-सी है, पर उसके मायने बड़े हैं। एक साथी ने कहा 'सोशल कम्युनिटीज पर जिसका, जो मन करता है, वह लिख देता है।' कुछ ब्लॉगर चिढ़ भी गए, पर बात तो सही है। अगर आपको एक प्लेटफॉर्म मिला है तो उसका इस्तेमाल करते समय दूसरों के हितों, भावनाओं और अपनी बात की गरिमा की चिंता करनी ही चाहिए।<br /> <br /> <b>यह तो सिर्फ एक उदाहरण है।</b> पहलू हजार हैं और सबके सब विचारणीय। देश बदलने की बात तो बड़ी है, लेकिन गौर कीजिए, क्या हम सब अपने आपमें मनमौजी बनते नहीं जा रहे हैं? बहुत पुराना शेर है- हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। हम इस बात को समझें कि आजादी हमें बैठे-बिठाए नहीं मिल गई। हमारे पास अपना तंत्र तो है, लेकिन क्या उसके लिए जरूरी सम्मान और हां, आवश्यक प्रयास हमारे अंदर हैं? क्या हम देश की अस्मिता बढ़ाने के लिए कुछ करते हैं? बात थोड़ी कड़वी है, लेकिन बेहद जरूरी है, समझने वाली है। </span> </div>
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चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-44738752172016271322012-07-24T21:33:00.001+14:002012-07-24T21:33:11.775+14:00एक उदास कविता<font size="4"><b>एक उदास कविता</b><br><br>सबसे बुरा है<br>उस हंसी का मर जाना<br>जो जाग गई थी<br>तुम्हारी एक मुस्कान से.<br><br>जमा हुआ दुख<br>पिघला,<br>आंख से आंसू बनकर,<br>तुमने समेट ली थी<br>पीड़ा की बूंद<br>अंगुली की पोर पर.<br> <br>वह सब मन का तरल गरल<br>व्यर्थ है अब,<br>जैसे लैबोरेट्री की किसी शीशी में रखा हो<br>थोड़ा-सा निस्तेज वीर्य, ठंडा गाढ़ा काला खून <br>या देह का कोई और निष्कार्य अवयव।<br><br>खिड़कियों के बाहर<br>कुछ दरके हुए यकीन लटके हैं<br> चमगादड़ों की तरह बेआवाज़<br>शोर करते हैं<br>झूठे वादे।<br><br>कविताएं सिर्फ गूंज पैदा करती हैं<br>नहीं बदलतीं किस्मत<br>जैसे कि<br>प्रेम का लंगड़ा होना <br>उससे पहले से तय होता है,<br>जब पहली बार वह भरता है,<br>दो डग हंसी की ओर।<br> <br>चलती रहती है<br>इश्क की सांस<br>तब<br>मन के उदर में पलता है कविता का भ्रूण<br>और खा जाता है एक दिन <br>वही कोमल एहसास <br>इच्छा का राक्षस।<br><br>ढल जाता है साथ देखा गया ठंडा चांद<br>गमलों के इर्द-गिर्द उगती रचनाएं<br> कुम्हलाई पत्तियों की राख में हैं पैबस्त<br>एक उदास आदमी चीखता हुआ कोसता है खुद को<br>कहते हुए,<br>क्यों नहीं है मेरे प्रेम में ताकत?<br>कैसे घुल-सी गई एक बार फिर<br>`सुनो, मेरी आवाज़ सुनो' की पुकार!<br><br>कौन बताए,<br> प्रेम का सूरज अस्त होने के लिए ही उगता है<br>कभी नहीं रुकता कोई<br>सिर्फ प्रेम के लिए,<br>प्रेम के सहारे।<br><br>प्रेम की कहानियां<br>इच्छाओं के लोक में<br>बेसुरी फुसफुसाहट से ज्यादा औकात नहीं रखतीं।<br><br>विरह मिलन से बड़ा सत्य है<br> और बेहद खरी गारंटी भी<br>जिसके साथ धोखे की रस्सी से बुने कार्ड पर लिखा है-<br>टूटेगा मन, जो जोड़ने की कोशिश की।<br><br>बहुत पहले, <br>नाज़ुक हाथों को थामकर <br>लिखी थी एक गुननुगाहट,<br>पाखंड के <br>साइक्लोन ने <br>ढहा दिया रेत का महल।<br> <br>समंदर किनारे प्रेम की कब्र बनती है,<br>ताजमहल हमेशा नवाबों के हिस्से आते हैं।<br>आज राजा<br>अंग्रेजी बोलते हैं,<br>चमकते अपार्टमेंट्स में होता है उनका ठिकाना<br>वहीं ऊंची बिल्डिंगों के बाहर, <br>कूड़ेदान के पास पॉलीथीन में लिपटे रहते हैं<br> कुछ सच्चे चुंबन, चंद गाढ़े आलिंगन और हज़ारों काल्पनिक वादे!<br><br><br>निर्लज्ज हंसी और बेबस आंसुओं<br>अपने लिए गढ़े नए नियमों,<br>दुत्कारों और आरोपों,<br>गाढ़े धूसर रंग की शिकायतों<br>और इन सबके साथ हुए असीम पछतावे के साथ<br> सब कुछ भले लौट आए<br>पर नहीं वापस आता,<br>राह भटका हुआ विश्वास।<br>छलिया आकाश ने निगल लिया है<br>एक गहरा साथ!<br>लुप्त हुई नेह की एक और आकाशगंगा,<br>प्रेम से फिर बड़ा साबित हुआ,<br>उन्माद का ब्लैकहोल!<br><br></font><font size="4">प्रेम की अकाल मृत्यु पर आओ,<br> खिलखिलाकर हंसें।<br> हमारे काल का सबसे शर्मनाक सत्य है<br> मन की अटूट प्रतीक्षा से बार-बार बलात्कार।<br> कहने को प्रतीक्षा भी स्त्रीलिंग है, <br> लेकिन उससे हुए दुष्कर्म की सुनवाई महिला आयोग नहीं करता।</font><br> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-38338109234727551572012-06-27T01:11:00.002+14:002012-06-27T01:11:16.992+14:00एक अकेला मैं ही काफी नहीं हू क्या?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
महकता है चंदन हर ओर<br />नहीं है भोर भी,<br />कि कोई पुजारी तैयार कर रहा हो लेप<br />देवि या देव के अभिषेक की ख़ातिर।<br />तुम फिर ठहरकर मेरे घर के बाहर,<br />जोर से उसांस लेकर चली गई हो कहीं?<br />सुनो वसंत,<br />माफी के काबिल नहीं है,<br />मौसमों के कालचक्र में हेर-फेर की तुम्हारी साज़िश।<br />ऐन दोपहर में,<br />जब लंच टाइम होकर गुजरा है,<br />लोग दफ्तरों में कामकाज के लिए फिर हो रहे हैं उत्सुक,<br />ऐसे में अगर भोर का वहम पैदा करोगी,<br />तपते सूरज को शर्म आएगी,<br />हवा भी सुलगती हुई सर्द होगी,<br />कितना कुछ तो गड़बड़ होगा,<br />मुर्गे देने लगेंगे बांग,<br />प्रभातफेरियां सजानी पड़ेंगी,<br />आरतियों और घंटियों की ध्वनि से बदल जाएगा सब।<br />शेयर बाज़ार बिना परिणाम के फिर खुल जाएगा।<br />कितनी ही अर्थव्यवस्थाओं को,<br />कार्यालयीय व्यस्तताओं को,<br />प्रेमियों के तय वादों को,<br />स्कूलों में हो रहे नए एडमिशन्स को,<br />बिगाड़कर तुम्हें क्या मिलेगा।<br />ऐसे तेज़ सांस लेना-छोड़ना बंद रखो।<br />तुम्हारी एक-एक आहट से यह कमज़ोर दुनिया हो जाती है असंतुलित।<br />रहम करो देवि,<br />तुम्हारे अत्याचार का शिकार, एक अकेला मैं ही काफी नहीं हूं क्या?<br /><br /><br /></div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-25562186825283186252012-05-07T19:45:00.001+14:002012-05-07T19:45:21.274+14:00हां, है न `बहुत कुछ'!<b>- चण्डीदत्त शुक्ल</b><br><br>जाते हुए,<br>हंसे बगैर<br>एकदम उस तरह,<br>जैसे कोई गैर<br>अगर तुम यह कहकर निवृत्त हुईं<br>`और कुछ?'<br>और मैं नहीं कह सका,<br>`हां, है बहुत...!'<br>तो इसके मायने यह नहीं<br>कि नहीं है तुमसे पहले जैसा प्रेम।<br> विदा के समय,<br>बिछु़ड़ते लम्हों में जैसे हमने छोड़ दिया<br>एक पुराना साथ<br>यूं ही, ज़ुबान से शब्द अलग हुए<br>तो उन्हें क्या दोष दूं, बोलो?<br>कोई, कहां कह पाता है<br>एक बार में, एक साथ, सब कुछ,<br>वह, जो कहना संभव ही नहीं होता<br> महज शब्दों में।<br>थरथराए होंठ जब सन्निपात का शिकार बन लज्जित हो जाते हैं<br>आंख तो कहती है कुछ धीरे-से, सकुचाते हुए,<br>सुनो न उनकी बात।<br>बताऊं तुम्हें कुछ, सुनोगी, सह सकोगी क्या,<br>क्या है कुछ कहने को बाकी मेरे मन में,<br> सुनो वसंत<br>कुछ अधूरी शामें तुम अपने क्लचर में बांधकर जो गुमशुदा हुई हो,<br>यह बात ठीक नहीं।<br>चांद नंगे बदन सारी रात ठिठुरता है<br>समोसे की शक्ल में तारे ऐंठे हैं<br>पसीने से भीगे हों जैसे सारी शाम तुम्हारे इंतज़ार में<br> और तुम भूल गईं आंसुओं का मोयन लगाना.<br>कुछ अधजली रोटियां बिना खाए छूट गई हैं<br>लेमन सोडा बेचने वाला भी जान लेता है पूछ-पूछकर<br>कहां है तुम्हारी दोस्त मियां, बड़े अकेले-अकेले रहते हो!<br>हैं कुछ बकाए भी,<br>एक तो उस बंद हो गए सिनेमाघर का,<br> जहां हमें और भी फिल्में देखनी थीं।<br>एक वादा था तुम्हारा, एक ऐसे चुंबन का,<br>जिसके बाद मैं अंतिम सांस लूं।<br>उस परदेसी फिल्म की तरह,<br>जिसमें एक बूढ़ा शिशु होकर प्रेयसी की गोद में<br>लेता है आखिरी हिचकी,<br>तुम मरने दोगी अपनी बांह में।<br> पर सब स्वप्न कहां सच होते हैं,<br>सो यह भी घुल जाने दो<br>लेकिन सुनो,<br>सौ ग्राम हरी मिर्च खाने के बाद,<br>मेरी सी-सी पर कराह उठने वाली तुम,<br>बताओ तो,<br>आज वहां फिर क्यों नहीं लौटीं,<br>जहां से बेदर्द होकर घुमा ले गई थीं गाड़ी।<br> जानते हुए भी कि तुम नहीं आओगी,<br>आदत से मज़बूर मैं गया था वापस,<br>अपने टूटे हृदय को एक और धक्का देने।<br>कहना तो है तुमसे बहुत कुछ<br>है न `और कुछ'<br>पर जानता हूं,<br>न तुम सुन सकोगी<br>न मैं कह सकूंगा,<br>हम दोनों<br> निकल चुके हैं<br>बहुत दूर,<br>कहने-सुनने और उसके असर से,<br>इसलिए अब मौन हूं।<br>सुना था,<br>शब्दों में जब कविता तैरती है<br>तो पहाड़ हिल उठते हैं<br>दिशाएं थमती हैं<br>यात्राएं नए रास्ते चुनती हैं<br>और मरा हुआ प्रेम फिर ज़िंदा होता है।<br> यही सोचकर<br>हर दिन बुनता रहा हूं एक नया मंत्र।<br>जैसे, वेद की ऋचाएं धर रही हों देह<br>हवनकुंड में सुलगती लकड़ियों के बीच मुझे राख कर<br>देने को नया जन्म।<br>मंत्रों में गुंफित है तुम्हारा नाम सदैव<br>लेकिन जो कुछ भी बाकी है,<br> वह शेष ही रहेगा शायद सदैव<br>जब मेरी एक भी कविता तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं जगा पाती<br>नहीं चलती हो एक भी कदम नींद से बाहर<br>तो यह सब मंत्र हुए व्यर्थ<br>नष्ट सब कविताएं<br>इनका नाद बहुत धीमा है<br>और तुम्हारा गुस्सा कुंभकर्णी नींद के हथियार से लैस है।<br> सोच रहा हूं, बंद कर दूं कुछ भी लिखना<br>अगर यह सब इतना ही असमर्थ है,<br>जितना कातर मेरा प्रेम,<br>तो कविता के न होने से क्या थमा रह जाएगा,<br>यूं भी, शब्दों में कहां ढोई जा सकी है प्रीति<br>न ही क़तरा भर भी नफरत।<br>घृणा ही जी ली होती मुकम्मल<br> तो क्षणांश को ही सही,मुझसे मिलना जारी क्यों रखतीं<br>और प्रेम बचा रह गया होता अक्षरों की दीवार में<br>तब, यह रोती हुई कविता किसी भी तरह शरीर कैसे पाती।<br>हरदम कविता को जन्म देना प्रेम को वापस नहीं लाता<br>फिर भी,<br>इस जन्म में संभव नहीं है,<br> तुम्हें विस्मृत कर पाना<br>मेरी कविताओं का जन्म तुम्हारे गर्भ से ही तो हुआ है,<br>मेरी वसंत। चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-4711162043807216452012-04-28T01:25:00.001+14:002012-04-28T01:25:54.526+14:00शुक्रिया वसंत<font size="4"><b style="color:rgb(204,0,0)">- चण्डीदत्त शुक्ल</b></font><br><div class="gmail_quote"><br><b>शुक्रिया वसंत</b><br>तुम्हारा मिलना इस बार<br>नहीं लाया कोई बहार।<br>कहीं, नहीं फूटी, कोई कुहुक<br>एक भी फूल नहीं खिला<br> कहां हंसी कोई चिड़िया<br>पर<br>तुम, अपने न होने के बावज़ूद<br>साथ हुईं,<br>पल भर को सही।<br>बोलो, मृत्यु भी क्या छीन सकेगी यह सुख?<br> जानती हो<br>जी गया मैं।<br>यूं भी,<br>बेहद तकलीफ देता है,<br>छीजते हुए, सांस समेत तिल-तिल मरना।<br>इससे कितना अच्छा है न,<br>हंसते हुए, तुम्हारी गोद में प्राण दे देना।<br>तुम मिलीं <br>और मैंने ज्यूं एक पल को त्याग दी सारी निराशा!<br> आज सांस में हिमालय से ठंड आकर पसरी है।<br>बहुत ज़रूरी है<br>तुम्हारे अंदर यकीन का ज़िंदा रहना.<br>मुझ पर न सही,<br>किसी पर भी बना रहे विश्वास<br>वह भी न हो<br>तो खुद में ज़िंदा और आश्वस्त रहो तुम।<br>आखिरकार,<br>उपस्थित रहना<br> एक खूबसूरत इंसान का <br>इस दुनिया में<br>कितना आवश्यक है।<br>यकीन करना<br>तुम्हारे हंसने से <br>आज भी सुबह हो जाती है<br>और लाल।<br>दोबाला रफ्तार से धड़कता है दिल।<br>तुम्हारी देह के बिना भी,<br>मुझमें<br>तृप्त होती हैं समस्त वासनाएं।<br> एक शाम,<br>अपने मरे हुए यकीनों के साथ ही सही,<br>आना...<br>कुछ न कहना,<br>कुछ न सुनना।<br>तुम्हें अपनी बांह में पिरोकर<br>छुए बिना ही<br>मैं भर दूंगा तुम्हारे मन में प्रेम-सरोवर।<br>कुछ तो है साथी<br>जो बनाता है<br>इस रंगहीन-बेस्वाद दुनिया को <br> सुंदर और लज्जतदार<br>वह हो तुम<br>और मेरा कातर प्रेम! </div><br> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-4288971319719737762012-04-16T20:35:00.000+14:002012-04-16T20:35:09.746+14:00म्यां, नाराज़ क्यूं हो?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><!--[if gte mso 9]><xml> <w:WordDocument> <w:View>Normal</w:View> <w:Zoom>0</w:Zoom> <w:PunctuationKerning/> <w:ValidateAgainstSchemas/> <w:SaveIfXMLInvalid>false</w:SaveIfXMLInvalid> <w:IgnoreMixedContent>false</w:IgnoreMixedContent> <w:AlwaysShowPlaceholderText>false</w:AlwaysShowPlaceholderText> <w:Compatibility> <w:BreakWrappedTables/> <w:SnapToGridInCell/> <w:WrapTextWithPunct/> <w:UseAsianBreakRules/> <w:DontGrowAutofit/> </w:Compatibility> <w:BrowserLevel>MicrosoftInternetExplorer4</w:BrowserLevel> 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से.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">म्यां</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">,<span lang="HI"></span></span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">कोई नई बात कही होती.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">ये क्या</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">,<span lang="HI"></span></span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">भूत भगाने को</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">,<span lang="HI"></span></span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">इबादत की खातिर</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">लोहबान जलाना.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">कभी</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">गुड नाइट छोड़के</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">मच्छर-मक्खी भगाने कू लोहबान<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>जलाओ न.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">अमां.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">दिल के जले से मूं फुल्लाने वाले तुम कोन-से नए आदमी हो</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">किसी टकीला वाले अंबानी से गुस्सा के देखो.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">आशिक को तो गली का कुत्ता भी भूंकता है</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">पूरा पंचम राग में</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">तार सप्तक छेड़ते हुए</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">ऊं-ऊं-उआं करके रोता है</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">,<span lang="HI"></span></span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">किसी रात साला किसी दरोगा पे रोके दिखाए</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">नाराज़ मती होओ</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">हम इश्क के मारे हैं</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">,<span lang="HI"></span></span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">तुम्हारी नाराज़गी बेकार जाएगी।</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">किब्ला.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">इश्क ही कल्लो</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">नाराज़गी फरज़ी लगैगी</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">फिर तो</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">,<span lang="HI"></span></span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">एक ही कंबल में मूं लपेटे हमारे साथ पड़े रहोगे.</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">ये रोग किसी छूत से नहीं होता</span></div><div class="MsoNormal" style="mso-layout-grid-align: none; mso-pagination: none; text-autospace: none;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">हां</span><span style="font-family: Mangal; font-size: 11.0pt; mso-ascii-font-family: Mangal;">, <span lang="HI">इस रोग की छूत बड़ी बुरी होवे है...</span></span><span style="font-family: Arial; font-size: 11.0pt; mso-bidi-font-family: Arial;"></span></div></div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-72577409899017599332012-03-17T23:07:00.001+14:002012-03-17T23:07:40.569+14:00कुछ कविताएं आज की...<font size="4"><b>- चण्डीदत्त शुक्ल @ 8824696345</b><br></font><div class="gmail_quote"><div class="gmail_quote"><font size="6"><br>जागती है मेरे जन्म की हर रात</font><br><font size="4">हां, <br>बाकी है बहुत कुछ<br>तुम्हारा मुझ पर.<br> शेष हो तुम भी कहीं मुझमें,<br>एक जरूरी बोझ की तरह।<br> ज्यूं,<br>पनघट से घर लौटते हुए <br>पानी से भरी मटकी सिर दुखाती बहुत है<br> पर उसी तेजी के साथ<br>हल्का कर देती है प्यास से भरी देह।<br>तुम्हारी कृतज्ञताओं के कंबल में,<br>ठिठुरता है मेरा वर्तमान<br>और दहकता हुआ देखो गुलाबी अतीत।<br>तुम्हारा स्वप्न होना जीवन का,<br>किस कदर जगा गया है<br>मेरे जन्म की हर रात।<br> <br></font><font size="6"><br> ठहरी रहना किसी मोड़ से गुजरते हुए</font><br><font size="4"><br>सारे अच्छे लड़के<br></font><font size="4"> शादीशुदा हैं,<br>या फिर समलैंगिक--<br>कहीं पढ़ा था मैंने<br>और </font><font size="4">कह रहा हूं <br></font><font size="4">इसी वाचिक हिंसा से भरकर <br>सारी लड़कियां, <br>जिन्हें हम प्यार करते हैं, <br>होती हैं कुछ दूसरे ही किस्म की।<br> वे या तो रहती हैं किन्हीं और चीजों के प्रेम में<br>या फिर<br>स्वप्नों के दंश से झुलसी हैं उनकी इच्छाएं।<br>अपने अस्तित्व में पिघलते देख<br></font><font size="4">हमारी देहों का बोझ<br>दोहरी होती हैं हंस-हंसकर<br>फिर भी नहीं देती हैं खुद का एक कतरा भी! <br> लगाव की ये सब यात्राएं चुक गई हैं<br>बालू से तेल निकालते हुए।<br>तुम,<br>ठहरी रहना किसी मोड़ से गुजरते हुए<br>एक निर्जन रास्ते पर।<br>मैं आऊंगा तुम्हारे उपयुक्त बनकर,<br>तुम तो हो ही<br>सनातन मेरी प्रियपात्र।<br></font><br> </div></div> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-8023754190889119082012-03-09T23:25:00.001+14:002012-03-09T23:25:06.852+14:00व्यंग्य : बेगुनाह चच्चा ने खेली एक अनूठी होली<p class="mobile-photo"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-MSUdSpqj_kQ/T1nMc_2EVRI/AAAAAAAABLs/87HPIP2RUTg/s1600/holi%2Bchacha-706853.jpg"><img src="http://3.bp.blogspot.com/-MSUdSpqj_kQ/T1nMc_2EVRI/AAAAAAAABLs/87HPIP2RUTg/s320/holi%2Bchacha-706853.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5717826000470168850" /></a></p><br><div class="gmail_quote"><blockquote class="gmail_quote" style="margin:0 0 0 .8ex;border-left:1px #ccc solid;padding-left:1ex"><div class="gmail_quote"><div class="gmail_quote"><br><b>- चण्डीदत्त शुक्ल<br><br><a href="mailto:chandidutt@gmail.com" target="_blank">chandidutt@gmail.com</a><br> <br>91+8824696345<br> </b><br> <br><font size="4">कभी महंगाई ने होली खेली, कभी लापरवाह नेताओं के ऊल-जलूल बयानों ने, लेकिन चच्चा के पस्त हौसलों को धूल चटाते हुए चच्ची बोलीं—मुश्किलें तो रहेंगी ही, हौसले से खेलो रंग और बोलो – होली है, है होली!<br> </font><br> <br>मार्च का पहला हफ्ता भी बीतने को है और मौसम किसी बेवफ़ा माशूका की तरह ऊल-जलूल, दिल तोड़ने वाली हरकतें करने से बाज नहीं आ रहा। पौ फटते ही ठंडे पानी से नहाने की जो आदत मजबूरी में पड़ी थी, उसका निबाह करने का फायदा ये हुआ है कि हवा में बदलाव आते ही जुकाम-बुखार धर दबोचता है। ऊपर से तुर्रा ये कि सुबह सिहरन भरी बयार चलती है और दोपहर में सिर तपने लगता है। ज्यादा गलती ये कर दी कि चचा के घर का रुख कर लिया। पहुंचा तो देखता हूं कि चचा चारपाई उलटी करके रस्सी पर डंडा पटक रहे हैं। फितरतन हंसी आ गई और उनका पारा फटाक कर ऊपर चढ़ गया। वे हिनहिनाए—`का बाबू नंदलाल, हमको ट्रैफिक का कानून समझ लिया है? जब चाहोगे, तोड़ दोगे। ये जो डंडा हम रस्सी पर पटक रहे हैं, वही तुम्हारी पीठ पर धर देंगे।' अल्पमत की सरकार की तरह हमारी हंसी शैंपेन के झाग माफिक तुरंत बैठ गई। हम रिंरियाए – `अमां चचा, आप भी न पूरे डॉली बिंद्रा हो रहे हैं। बे-बात नाराज़, लड़ने को आमादा। हुआ यूं कि हम सोच रहे थे— आप होली की तैयारी में जुटे मिलेंगे।<br> <br>पकी हुई दाढ़ी-मूंछें खिजाब से रंगने और नई अचकन से लैस होने में मुत्तिला होंगे, लेकिन जो आपको खटमल मारते देखा तो हंसी आ गई। अब इसे लड़कपन की भूल मानकर माफ़ कर दीजिए।' चचा बुझती हुई लालटेन की तरह और भभक पड़े – `कहना क्या चाहते हो। तुम बयालीस की उमर में लड़के हो और हम बुड्ढे हो गए? अभी हमारी उमर ही क्या है?' चचा को सेंटी होते देख हमने जबान के मंझे को ढील दी और पटरी पे आ गए। हमने कहा – `चचा, सच बात है। आपके बाल ही तो सफेद हैं...' उन्होंने बात लपक ली, बोले – `हां, दिल तो काला ही है बेटा। खैर, और सुनाओ। क्या हाल है?' लेकिन ये कहने के साथ ऐसा भी नहीं कि जवाब का इंतज़ार करते, खुद ही बोलते रहे – `ऐसा है नंदलाल, होली तो हमसे साल 2011 ने जमकर खेल ही ली है। अब हम रस्मअदायगी करें तो करें।'<br> <br>हमने मुंह के किवाड़ फटाक से खोल दिए – `अमां चचा, आप भी न गड़बड़झाला कर रहे हैं। होली तो आज है और आप पता नहीं क्या-क्या कह रहे हैं। सुबह ही भांग चढ़ा ली क्या?' चचा इस बार न फफके, न भभके, बस मुस्कुरा दिए – `नंदू बेटा, आओ बैठो। हम सुनाते हैं, कैसे मनाई हमने साल भर होली!' हम भी इत्मिनान के साथ, खुले कानों और दोपहर तक जमे रहने के इरादे के साथ वहीं जमीन पर पसर लिए। फिर तो चचा बोलते रहे, नॉनस्टॉप, फुल स्पीड।<br> <br>चचा ने क्या कहा, हम बताएंगे, लेकिन पहले जरा उनका इंट्रोडक्शन हो जाए। इनका असली नाम तो वालिदान को या हेड मास्टर साहब को पता होगा, हम बस इतना जानते हैं कि सूफियाना मिजाज के चचा खुद को बेगुनाह चच्चा कहलाना पसंद करते हैं। आशिकाना दिल के मालिक हैं, सो जवानी में दो-चार हड्डियां तुड़वा चुके और रेलवे स्टेशन के पास पान की छोटी-सी दुकान चलाते हैं।<br> <br>चचा कहने लगे – `देखो नंदू, होली का हाल हम तुमसे क्या बताएं। अब तुम हमसे कहोगे चाय पिलाओ, सो पहली कहानी तो यहीं से शुरू हो जाती है। एक जमाना था, जब हम कलेवे में, बोले तो मुए ब्रेकफास्ट में, दूध-जलेबी खाते थे। अब गाना सुनते हैं जलेबी बाई, लेकिन दूध को सेंट की तरह इस्तेमाल में लाते हैं। ऐसे में इस साल की सबसे जबर्दस्त होली तो महंगाई ने खेली है।'<br> <br>धाकड़ मिजाज चच्ची आंगन में आकर चिल्लाईं– `सुनो जी, न काम के, न काज के, दुश्मन अनाज के। अब भतीजा आया है तो कंजूसी के रिकॉर्ड न बनाओ। ऐसी किल्लत नहीं पड़ी है कि इसे चाय भी न पिला पाऊं।' चच्ची की बात सुनके हमारी हिम्मत जागी, लेकिन उन्होंने भी दिल तोड़ने की ठान रखी थी। बोलीं – `बेटा नंदू, चचा तुम्हारे बात तो सही कह रहे हैं। बेटा साल भर में पांच बार दूध की कीमत बढ़ी है। मैं कहती ही रह गई कि एक भैंस पाल लो, लेकिन ये हैं कि सुनते नहीं।'<br> <br>चचा फट पड़े - `और आंगन में तेल का कुंआं भी खोद लूं न... वहीं से पेट्रोल और केरोसीन निकलेगा!'<br><br>चच्ची ग़ज़ब वाली नाराज़ हुईं और चचा को कोसते हुए अंदर जा सिधारीं। हमने सोचा, ये मियां-बीवी हर मेहमान के आने के साथ ऐसी ही नौटंकी शुरू कर देते हैं, ताकि चाय न पिलानी पड़े। खैर, चाय की उम्मीद छोड़ हमने चचा की आवाज़ की तरफ कान लगा दिए। वे कहते जा रहे थे – `बेटा, दूसरी होली हमारे साथ विद्या बालन ने खेली। अब इस बुढ़ापे में ऐसी-ऐसी हरकतें दिखा गई है कि खुद तो दोजख में जाएगी ही और हमारा रास्ता भी बंद कर दिया…'। उनके खुले मुंह पर यकायक ढक्कन लग गया तो हमने पलटकर देखा। दूध बहुत कम, पानी ढेर सारा वाली चाय एक डिस्पोजल ग्लास में भरकर बाहर निकल रही थीं। उन्होंने चाय हमें पकड़ाई और चचा को घूरा। चचा बेचारे अपनी परमानेंट मनहूस शक्ल पर और भी बारह बजाकर चुप हो गए।<br> <br>चची बोलीं – `विद्या बालन क्यों, सन्नी लियोन की बात करो।' वे गिड़गिड़ाए – `हम तो नंदू बेटा से पढ़ाई-लिखाई की बात कर रहे थे।' चची वहीं जमकर बैठ गईं – `जरा हम भी तो सुनें तुम्हारी ये स्पेशल बातचीत।'<br><br>हम चाय गुड़गुड़ाने लगे और चचा गप का सिरा पकड़कर आगे बढ़ चले – `बेटा, अन्ना आए थे तो सबने सोचा कि अनशन करके मुश्किल सब हल हो जाएगी, लेकिन हम पहले से जानते थे कि इससे कुछ नहीं होगा। तुम्हारी चच्ची तो महीने में वैसी ही दस-पंद्रह दिन अनशन करवाती हैं, लेकिन हमसे कोई हल कहां निकलवा पाईं।'<br> <br>चच्ची जनलोकपाल बिल के समर्थन में मुस्तैद कार्यकर्ता की तरह भड़कीं – तुमसे कुछ होगा तो है नहीं, बस बातें बनाते रहो। इसके बाद हमारी ओर मुड़ीं - `नंदू बेटा। हम जब चौदह साल की उम्र में ब्याह के आए थे, तभी कह रहे थे कि सरकारी नौकरी के लिए टिराई करो। अब देखो, पिछले साल सारी छुट्टियां ऐसी पड़ी हैं कि एक दिन छुट्टी लो और तीन दिन आराम करो, लेकिन इनकी तो सारी कोशिश एकदम रामदेव के आंदोलन की तरह साबित हुई।'<br> <br>चचा बोले – `हमने एक बार में तुम्हें सेलेक्ट किया, उसका शुकराना अदा नहीं करती हो। सैफरीना की तरह बना देते, तब सही होतीं।' उन्होंने हिम्मत करके इतना कह तो दिया, लेकिन चच्ची की घुड़की खाकर फिर साइलेंट हो गए। कुछ देर तो माहौल यूपी चुनाव की तरह रहा, फिर समर्थन जुटाने के लिए आतुर पॉलिटिकल पार्टीज की तरह नॉर्मल हो गया।<br> <br>चचा ने उस दोपहर पूरे साल की होली की जो-जो घटनाएं सुनाईं, उनका डिटेल में बयान करना ठीक नहीं है, लेकिन मुख्तसर-सा बयान कुछ यूं है – नंदलाल, होली-दीवाली सब दिल में ही होती है। बाहर निकलकर मनाने चलो तो एक-से-एक संकट सामने है। पिक्चर देखनी हो तो मल्टीप्लेक्स में टिकट से ज्यादा पॉपकॉर्न के पैसे दो।<br> <br>लाइसेंस लेना हो तो पूरे साल की कमाई रिश्वत में दे दो। ज्यादा नारेबाजी करो तो दो पत्ती गांजा रखके हवालात में ठूंस दें।' हमने ज्यादा जोर दिया तो बोले – `हमारे साथ तो बिग होली कृषि मंत्री साहब ने खेली। पूरे साल बताते रहे कि खेती-किसानी का भविष्य ज्योतिषियों के हाथ में है और खुद बेचारे मुकदमेबाजी से लेकर क्रिकेट की गुगलियां सुलझाने में लगे रहे। हमारा बस चले तो हम अलीगढ़ का एक ताला उन्हें गिफ्ट कर दें। दूसरे साहब हैं तो अंग्रेजों के जमाने से अब तक चली आ रही एक पार्टी के नेता, लेकिन उन्हें मच्छर भी काटता है तो आरएसएस की साजिश बता देते हैं। इनसे भी अव्वल नंबर के हुलियारे निकले आतंकवादी, जो जब देखो, तब अपनी जान तो गंवाते ही हैं, हमारा अमन-चैन भी काफूर कर देते हैं।'<br> <br>चचा सेंटी हो रहे थे और हम मुंह बाए उनकी बात का जवाब तलाश रहे थे। वे एक्सप्रेस ट्रेन की तरह दौड़ते रहे – `अब बताओ नंदू, मेरे जैसे बेगुनाह के पास क्या है, लेकिन गैस सिलेंडर की कीमतें सुनकर मन करता है, खुदा के पास चला जाऊं। हां, याद आया, होली तो मौत ने भी इस बार बहुत तगड़ी खेली, लेकिन वो भी अपने साथ हमारे अजीज जगजीत सिंह, भूपेन हजारिका, देवानंद को ले गई। अब जन्नत में गाना-बजाना हो रहा है और हम तुम्हारी चच्ची की झिन-झिन सुन रहे हैं… खैर, अपनी-अपनी किस्मत। होली तो हर साल आएगी, लेकिन हम एक सवाल पूछते हैं – हमारी सुध सरकार को कब आएगी?'<br> <br>चच्चा को हम क्या जवाब देते। उनकी उम्मीदें सोने की कीमत की तरह सारी सीमाएं लांघ रही हैं। हम और फेडअप होते, उससे पहले चच्ची ने हमें बचा लिया। वे साबुन का झाग घोलकर लाईं और चच्चा के घुटे सिर पर उड़ेलकर बोलीं – होली है, होली है मनहूस। मेरे प्यारे शौहर, तुम सच में बूढ़े हो गए हो। मुफलिसी और मुसीबतें तो हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं। मियां, ये ही न हों तो ज़िंदगी कितनी बेनूर और बेमज़ा हो जाएगी। है कि नहीं...। दूसरों को कोसना छोड़ो और आओ, जितनी भी रूखी-सूखी है, उसमें ही मस्त रहें, होली खेलें।'<br> <br>मैंने राहत की सांस ली और चच्चा-चच्ची को होली की मुबारकबाद देकर आगे बढ़ा। मेरे मन में चच्ची की बातें अब भी गूंज रही थीं – हालात से समझौता करके चुप बैठ जाना हल नहीं है, हमें आवाज़ तो उठानी होगी, लेकिन दिक्कतों की दुहाई देकर सिर्फ झींकते रहने से भी कुछ नहीं होगा। ज्यादा अच्छा ये होगा कि हम हंसते रहें और लड़ते रहें। हम ऐसा कर पाए तो हर दिन होली होगी।<br> <br>चच्ची की बात यादकर मुझे हंसी आ गई, तब तक चार-पांच बच्चे दौड़ते हुए आए और टकरा गए। वे चिल्ला रहे थे – होली है, होली है...। दूर, सूरज बादलों के पीछे थोड़ी देर इंटरवल मनाने निकल लिया था और होलियारे हर तरफ हुल्लड़ मचाने निकल पड़े थे।<br> <br></div><br> </div></blockquote></div><br> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-74796167364821529002012-03-04T18:16:00.001+14:002012-03-04T18:16:51.258+14:00कहानी ... तुम चुप रहो गुलमोहर!<p class="mobile-photo"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-_9hPFinM0Go/T1LstHgRefI/AAAAAAAABLU/LRkobsiGzKQ/s1600/chandidutt-711258.jpg"><img src="http://2.bp.blogspot.com/-_9hPFinM0Go/T1LstHgRefI/AAAAAAAABLU/LRkobsiGzKQ/s320/chandidutt-711258.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5715891136939260402" /></a></p><p class="mobile-photo"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-rQEXVc4ReFg/T1LstZzMVII/AAAAAAAABLc/ueYvfQoJeP8/s1600/holi%2Bnew-713293.jpg"><img src="http://2.bp.blogspot.com/-rQEXVc4ReFg/T1LstZzMVII/AAAAAAAABLc/ueYvfQoJeP8/s320/holi%2Bnew-713293.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5715891141850453122" /></a></p><br><div class="gmail_quote"><font size="6"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">तुम चुप रहो गुलमोहर</span></b><span>!</span><span></span></font><div class="gmail_quote"> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><br><font size="4"><span style="font-family:Mangal"></span></font></p><p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span style="font-family:Mangal"><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">चण्डीदत्त शुक्ल</span><span style="font-family:Mangal"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span><a href="mailto:chandidutt@gmail.com" target="_blank">chandidutt@gmail.com</a></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span> </span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">एकांत का धूसर रंग हो, चाहे मिलन की चटख रंगोली... खुशी मन में ही पैदा होती है, वहीं खत्म भी हो जाती है। हर दिन को होली बनाने की चाहत में फाल्गुनी ने वर्जित फल चख तो लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि </span></b><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">हम अकेले भी अपने अंदर होते हैं और पूर्ण भी खुद से ही। कोई तनहाई दूसरों के सहारे खत्म नहीं होती...</span></b><b><span></span></b></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span> </span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span> </span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">आसमान के गाल लाल थे। ऐन टमाटर की माफ़िक। होली का हफ्ता शुरू हो चुका था, सो धरती से अंबर तक, हर तरफ रंगों की बारात सजी थी, लेकिन हैरत की बात </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> सर्दी अब भी हवा की नसों में तैरती हुई। ठंड ने बादलों को थप्पड़ मार-मारकर पूरे आसमान को सुर्ख कर दिया था। </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सारी रात जागने के बाद चांद कराह रहा था। दर्द के मारे उसके पैरों की नसें नीली पड़ गई थीं। उसकी </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">विनती पर ही </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सरपट भागते</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">सूरज के रथ के आगे जुते घोड़े यकायक ठहर गए। उनके पैरों की नाल यूं झनकी कि फाल्गुनी की आंखों से पलकों ने कुट्टी कर दी। उसने </span></span><span style="font-family:Arial">`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">आह</span><span style="font-family:Mangal">' <span lang="HI">कह अंगड़ाई ली और </span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">करवट बदली।</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> निगाहें लाल थीं। कम सोने और ज्यादा जागने की वजह से। रात का लंबा वक्फा आंख की राह से गुजरकर आगे बढ़ा था।</span><span style="font-family:Mangal"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">बगल में लेटा निहार अब भी निढाल था, सुध-बुध खोए हुए। नींद में शायद ख्वाब जाग रहे थे। तभी तो सांस-दर-सांस नींद में दाखिल हुआ वह मुस्कुराता जा रहा था। फाल्गुनी ने टहोका </span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सूरज के घोड़े आसमान के बीचोबीच ठहरे हुए हैं और तुम हो कि घोड़े बेचकर सोते ही जा रहे हो। उठो</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">भोर हो गई है। मुझे झटपट तैयार होकर </span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">दफ्तर </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">के लिए निकलना है।</span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">वह खिलखिलाई। उसके जूड़े में सजी चमेली के दो फूल मेज पर बिखर गए। महक बिखरते फूल... सफेद... कमरे में गुनगुना अंधेरा था और फूल जुगनुओं की मानिंद रोशनी के हरकारे बने थे। </span><span style="font-family:Arial"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Arial">`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ऊं... सोने दो न... आज कौन-सा दफ्तर</span><span style="font-family:Mangal">? <span lang="HI">अब तो छुट्टी हो गई है न होली की।</span>' <span lang="HI">निहार कुनमुनाया। फाल्गुनी गुर्राई - </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">अभी आठ दिन बाकी हैं जनाब।</span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> हालांकि चिल्लाते ही उसे हंसी आ गई। थोड़ा-सा तरस और ज़रा-सी झुंझलाहट</span><span style="font-family:Mangal">,<span lang="HI"> एकसाथ। वो है ही ऐसी। प्यार करते वक्त भी तनी रहती है। निहार अक्सर टोकता - </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">हिटलर की तरह अकड़ी क्यों रहती हो</span><span style="font-family:Mangal">? <span lang="HI">कभी झुक भी जाया करो।</span></span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> फाल्गुनी के पास एक ही जवाब होता - </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">तुम मर्दों ने हम औरतों को इसी प्यार के नाम पर हमेशा ठगा है। झूठ-मूठ का प्रेम और बदले में कब्जा कर लेते हो हमारी सच्ची निष्ठा। अब ये दांव न चलेगा। हम आज की औरत हैं। प्यार और गुलामी में फर्क समझत</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ी</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> हैं।</span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">निहार खिलखिलाता - </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">अच्छा जानम</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">नहीं समझना तो न समझो। हमें गुलाम ही बना लो।</span></span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> फाल्गुनी फिर भी अड़ी रहती - </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ये सब दांव हैं तुम लोगों के। निहार अब तंज कसता</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">लेकिन धीरे से - </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">बड़ा एक्सपीरिएंस है तुम्हें।</span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> फाल्गुनी छिल जाती</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">लेकिन करती भी क्या। सोचती - </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">भगवान ने इन्हीं बंदरों से जोड़ी लगाई है। जैसे भी हैं</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">इनसे अपने हिस्से का प्यार तो हम औरतों को वसूल करना ही है।</span></span><span>'</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">यूं भी, निहार से मिलने के बाद ही उसकी ज़िंदगी के सारे रंग लौट आए थे। हर दिन होली जैसा होता। खुशी की बौछार से नहाया हुआ। वह चिबुक पर चूमता और फाल्गुनी की आंखें मुंद जातीं। हर तरफ शोर गूंजता </span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> होली है...होली है। ऐन सितंबर के महीने में भी </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">छपाक</span><span>'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> कर गुदगुदी का गुब्बारा फूटता, ठीक दिल के बीचोबीच।</span><span style="font-family:Mangal"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ये कैसी कहानी है। क्या है इसका ओर और छोर। सच बात। नहीं है कोई कोर-किनारा, लेकिन चौंकने की बारी अब आपकी है। निहार और फाल्गुनी पति-पत्नी नहीं हैं, वे प्रेमी-प्रेमिका भी नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे को बेस्ट फ्रेंड बताते हैं। नाइट शिफ्ट के बहाने निहार फाल्गुनी के फ्लैट में अक्सर आकर ठहर जाता है </span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> न सही</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">दो-चार कैजुअल लीव</span></span><span>! </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">वह</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> शादीशुदा है। फाल्गुनी जानती है</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">फिर भी उसके घर के दरवाजे निहार के लिए खुले रहते हैं। ये उनके बीच एक गुप्त समझौते की तरह है। दोनों जानते हैं कि उन्हें एक-दूसरे से क्या चाहिए। साफ-साफ इसका हिसाब किसी के पास नहीं। देह</span>? <span lang="HI">नहीं</span>, <span lang="HI">बहुत छोटी-सी चीज हैं ये तो। फिर पैसा</span>? <span lang="HI">दोनों कमाते भी ठीकठाक हैं। फिर क्या है</span>, <span lang="HI">जिसकी तलाश में वे मिलते हैं। अक्सर</span>, <span lang="HI">चोरी-छुपे नहीं</span>, <span lang="HI">बेधड़क। जवाब तलाशना बाकी है। फाल्गुनी बुदबुदाती है </span></span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> निहार मेरे खोए रंग लौटाकर लाया है तो निहार के पास भी जवाब है </span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> अरे, कुछ नहीं. वी आर जस्ट फ्रेंड्स। नथिंग स्पेशल।</span><span style="font-family:Mangal"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी के लिए निहार का साथ एक वर्जित फल की तरह है। यूं</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">वह स्वेच्छाचारी नहीं है। इतनी आधुनिक भी नहीं। देह उसके लिए वर्जना का बड़ा अध्याय रही है एक समय तक</span>, <span lang="HI">लेकिन अब नहीं। वह जानती है कि इसी के लिए सब उसके आसपास मंडराते हैं तो वह क्यों न</span>, <span lang="HI">अपनी पसंद का पुरुष चुने। हां, </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">बेस्ट फ्रेंड्स</span><span>' </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">का गढ़ा जवाब वह भी अक्सर बुदबुदाती रहती है। न जाने क्यों। मन में उमड़ता एक गुलाबी रंग उसके लिए सबसे बड़ा है। हर दिन को होली बना लेने का ज्वार...।</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ऑटो स्टैंड की ओर बढ़ती हुई फाल्गुनी सोच रही थी - सब कुछ तो है उसके पास। निहार भी</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">भले ही किसी के हिस्से से मांगा हुआ ही सही</span>, <span lang="HI">फिर वो उदास क्यों है। आठ दिन बाद होली है। उसका पसंदीदा त्योहार। क्या खूब हुल्लड़ करती थी वो होली पर। सहेलियों की टोली निकलती तो मोहल्ले में तूफान आ जाता। मां बड़बड़ाती - </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">देखना</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">एक दिन नाक कटवाएगी आपकी लाडली</span></span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> और पापा कान में तेल डाले गुटका रामायण पढ़ते रहते। फाल्गुनी सहेलिय</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ों के संग</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> मुंडेर लांघती</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">छत-दर-छत फलांगती कहां-कहां न हो आती। एक-एक सहेली को रंग से सराबोर करने के बाद जब वे थक जातीं तो सब की सब बॉलकनी में इकट्ठा हो राह आते-जाते लोगों पर रंग भरे गुब्बारे फेंकतीं। दोपहर बाद गुलाल का दौर चलता और देर शाम जब फाल्गुनी नहाती तो छींकते-छींकते दोहरी हो जाती। मां तब भी बड़बड़ातीं - </span></span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">देखो कलमुंही को। बांस की तरह हो गई है</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">लेकिन लाज-शर्म रत्ती की नहीं है।</span></span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ऐसा था क्या</span><span>? </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">नहीं... फाल्गुनी तो छुईमुई के पौधे की तरह थी... </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">तब से अब तक वैसी की वैसी है, लेकिन पांच-पांच दिन तक जींस पहने, रात-बेरात भटकने वाली फाल्गुनी ऊपर से तो एकदम बिंदास</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">बेखौफ़</span>, <span lang="HI">बेखटक नज़र आती है। कुछ तो है, जो वो उदास रहती है। होली का त्योहार उसके सीने में पूरा का पूरा समंदर पैदा कर देता। वह खिलखिलाती</span>, <span lang="HI">चिल्लाती</span>, <span lang="HI">निहार को मजबूर कर देती कि वो कोई भी बहाना बनाकर उसके पास आए। निहार आता तो उसे दबोचकर लाल-पीला-नीला-गुलाबी कर देती। उसे अच्छा लगता था</span>, <span lang="HI">एक तरफ सीडी प्लेयर पर गाना बजता रहे - लौंगा-इलायची का बीड़ा लगाया</span>, <span lang="HI">खाए गोरी का यार</span>, <span lang="HI">बलम तरसे</span>, <span lang="HI">रंग बरसे... और दूसरी तरफ वह स्केच पेन से निहार के क्लीन-शेव्ड चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ बनाती रहे। कुछ न मिलता तो उसकी सफेद शर्ट पर इंक पॉट उड़ेल देती। </span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">निहार छटपटाता उसकी पकड़ से छूटने के लिए और वह उसे पीटती</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">धौल-धप्पे लगाती...लेकिन जैसे ही वह अपने घर जाने की बात करता</span>, <span lang="HI">वही पुरानी जमी उदासी जैसे हरी हो जाती और उसके सीने में उगा समंदर सिमटने लगता।</span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">वैसी ही उदासी</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">जैसी काफी कम उम्र से थी। हाईस्कूल से। कैसी है ये गांठ </span></span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal"> <span lang="HI">फाल्गुनी कभी टोह नहीं लगा पाई। मुंहबोली बहन जैसी दोस्त मंजू से उसने पूछा भी था </span></span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">पता नहीं क्यों मैं उदास रहती हूं</span><span>?</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> खूब खिलखिलाकर हंसने के ऐन बाद हो जाने वाली उदास</span><span style="font-family:Mangal">? <span lang="HI">क्या करूं</span>? <span lang="HI">कुछ तो सोल्यूशन बताओ।</span></span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मंजू मुस्कुराई थी। चुटकी भर बोली -</span><span style="font-family:Arial" lang="HI"> </span><span style="font-family:Arial">`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">किसी से जी भरकर प्यार कर लो। सब ठीक हो जाएगा। इस उम्र में ऐसा होता है।</span><span style="font-family:Arial">'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span style="font-family:Mangal"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी उसे क्या बताती</span><span style="font-family:Mangal">, <span lang="HI">प्यार तो वह तभी कर बैठी थी</span>, <span lang="HI">जब नवीं में थी। पूरे एक साल पहले। अपने मास्टर जी से। एक बार रात भर जागकर मास्टर जी को चिट्ठी भी लिखी और उसमें पूड़ी पैक करके स्कूल ले गई थी। लंच टाइम में मास्टर जी को टिफिन पकड़ाते वक्त मनुहार की थी </span></span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सर</span><span>! </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">आपके लिए खास दाल की कचौरी बनाई है। प्लीज़, आप खाइएगा ज़रूर।</span><span>'</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">इंटरवल के बाद मास्टर जी ने उसे खाली टिफिन लौटाते हुए ताकीद की थी </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी, बच्चे</span><span>,</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> थैंक यू, लेकिन ये वक्त पढ़ाई में मन लगाने का है।</span><span>'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> वह दिन था और अब, फाल्गुनी की उदासी और बढ़ गई थी। उसके बाद कितने ही दिन गुजरते गए। त्योहार आते रहे। होली भी आई और बेरंग गुजर गई। फाल्गुनी ने पढ़ाई पूरी की। हॉस्टल की बेस्वाद रातें, शामें और दोपहरियां उसके दिल पर पत्थर बनकर लदी रहतीं, लेकिन वो जीती गई, एक-एक दिन। न, बोझ बनाकर भी नहीं। उसके तन-बदन में एक उमंग और उदास धुन का अजीब-सा मेल हरदम बना रहता था। नौकरी में आने के तुरंत बाद निहार से मुलाकात हुई और दोनों कब एक-दूसरे की ज़िंदगी में अतिक्रमण कर बैठे, वे खुद भी नहीं जानते। हां, निहार से मिलना उसकी ज़िंदगी में रंग लौटा लाया था। उसे तो यही लगता था और निहार भी कहता </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> तुम मेरी लाइफ में बहुत लकी साबित हुई हो। </span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">धचके के साथ ऑटो रुका और विचारों की रेलगाड़ी पटरी से उतर गई। फाल्गुनी ने मीटर देखा। चौवालीस रुपए हुए थे। वह ड्राइवर को पचास रुपए का नोट देकर, </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">कीप द चेंज</span><span>'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> कहते हुए आगे बढ़ गई।</span><span lang="HI"> </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाइलों का ढेर निपटाते हुए कब दोपहर के डेढ़ बज गए, पता ही नहीं चला। चपरासी ने केबिन का दरवाज़ा खोलकर कहा </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मैम</span><span>! </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">लंच के लिए जाएंगी क्या</span><span>?' </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"><span> </span>वह अनमने अंदाज में टिफिन निकालकर उठने ही वाली थी, तभी एक महिला स्वर उसके कानों से टकराया </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मैं अंदर आ जाऊं फाल्गुनी</span><span>?'</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">वह चौंकी। कौन है ये महिला, जो उसका नाम लेकर इतने अनौपचारिक ढंग से पुकार रही है। फाल्गुनी बोली </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">यस, कम इन।</span><span>'</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> लंबे जूड़े में फूल सजाए, साड़ी पहने एक मध्यवय महिला ने अंदर केबिन के अंदर कदम रखे </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">हाय</span><span>! </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मैं सुजाता हूं। सुजाता ठाकुर।</span><span>'</span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">हाय</span><span>!</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> सुजाता</span><span>?</span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">जी, सुजाता ठाकुर, पोएट। आप फेसबुक पर अक्सर कमेंट्स करती रहती हैं मेरी कविताओं पर।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">हम्म्म... जी, लेकिन आप यहां, आज, यकायक</span><span>?</span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ये तो आप जानती ही हैं कि मैं इसी शहर में रहती हूं, लेकिन मैं एक और परिचय दे दूं...।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी की उत्सुकता चरम पर थी। वह बोली </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> हां...।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मैं निहार की पत्नी हूं... नहीं, नहीं, घबराइए नहीं। मैं जानती हूं कि उसने आपको मेरे बारे में कुछ भी नहीं बताया होगा, पर मुझे सब पता है। मैं उसका पर्स खाली करते समय आपकी फोटोग्राफ देख चुकी हूं। बाकी, आपका सारा परिचय तो एफबी पर है ही।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:18pt"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी कुछ बोल न पाई। सुजाता उसके सामने बैठी थी और फाल्गुनी की आंखों के आगे अतीत टिमटिमाने लगा था। निहार ने यहीं, इसी दफ्तर में लंच टाइम में कॉफी के लिए इन्वाइट किया था। कितना केयरिंग एप्रोच था उसका। बाद के दिनों में उसने बताया था कि उसकी पत्नी कम पढ़ी-लिखी, एक देहाती महिला है। और ये भी </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> मेरी फैंटेसीज कुछ और हैं...। यू नो...</span><span>!</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">न जाने कब से प्रेम की, साथ की तलाश में भटक रही फाल्गुनी को निहार गुलमोहर के पेड़ की तरह लगा। वही गुलमोहर का पेड़, जहां पहली बार मास्टर जी की कड़वी सलाह के बाद वह चुपचाप रोई थी। उसकी आंखों में काली-मिर्च का पावडर जैसे किसी ने डाल दिया था....और तब भी, जब एक बार होली के ही दिन, जीजाजी ने उसके कुर्ते पर पान की पीक फेंक दी थी। गुलमोहर के पेड़ ने दोनों दिन उसे संभाल लिया था। अपनी डालियों में। खुशबूदार भरोसे के साथ।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">होली के दिन फाल्गुनी तब भी हंसती थी... एक उदास हंसी, लेकिन जब से निहार उसे मिला था, वो सारी नैतिकता भुलाकर उसके साथ बिंदास घूमने लगी थी। रातों के वक्त, दोपहरियों में भी कभी-कभार। उसने अपने मन में सोचा था </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> निहार को ही कहां किसी का साथ मिला है। अगर मैं और वो एक-दूसरे के साथ कुछ लम्हा ही खुश रह सकते हैं तो इसमें क्या बुराई है</span><span>?</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">पिछले तीन साल से निहार और फाल्गुनी इसी अनियतकालिक रिलेशनशिप में थे। एक-दूसरे के बारे में बेहद संक्षिप्त जानकारियों और महीने में तीन-चार मुलाकातों, नाइट स्टे के सिवा उन दोनों के पास कुछ भी नहीं था... लेकिन गुलमोहर का पेड़ हर रात फाल्गुनी के सीने में आकर खिल उठता, पूरी ताकत के साथ, खुशबुए फैलाता हुआ। जिस रात निहार घर आता, फाल्गुनी रंगों में सनी रहती। कभी कभी ब्लेड से अंगूठा काटकर तिलक लगाने की नौटंकी करती तो कभी बेसन घोलकर अपने सिर में डाल लेती और चिल्लाती </span><span style="font-family:Arial">–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> होली आई है। आई है होली...।</span><span style="font-family:Mangal"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span>`</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">निहार तुम्हारे पास केवल सेक्सुअल फेवर के लिए आता है... </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">तुम्हारी तलाश भी वही होगी शायद</span><span>?'</span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सुजाता को आप से तुम संबोधन पर आने में देर नहीं लगी थी और अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद फाल्गुनी थर्रा उठी थी। किसी अज्ञात भय से। धीमी आवाज़ में उसने बस इतना कहा </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> नहीं, वो मेरा बेस्ट फ्रेंड है।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मैं व्यंग्य नहीं कर रही हूं, लेकिन रातें साथ बिताने वाले बेस्ट फ्रेंड नहीं, सिर्फ बेड पार्टनर होते हैं फाल्गुनी।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"><span> </span>मैम, आप जो भी समझें, सच जो भी हो, लेकिन मुझे निहार का साथ अच्छा लगता है।</span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी की आवाज़ में मजबूती थी, कांपती हुई ही सही। सुजाता ने कहा </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">मैंने होली पर जो कविता लिखी थी... उस पर तुम्हारा कमेंट मुझे अब भी याद है। सब के सब रंग धूसर क्यों लगते हैं, यही पूछा था न तुमने और उछाह के साथ बता गई थीं, कोई प्रेम में हो तो कुछ भी बेनूर नहीं लगता। अब जान पाई हूं कि वो सब के सब रंग तुम्हें निहार से मिल रहे हैं। उस निहार से, जो अपनी पत्नी और बच्चों का भी नहीं हुआ। हम सबके अंदर एक एकांत होता है फाल्गुनी, लेकिन वह न तो उधार के प्रेम से पूरा होता है, न ही धोखे से रचे-बसे ढोंग से। </span><span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">फाल्गुनी क्या कहती, कैसे बताती। कैसे निहार उससे खूब मिलता रहा</span><span lang="HI"> </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">हर दिन जोर-शोर से और चुपचाप उसकी रगों से होके गुज़र गया था। वह भी तो चुपचाप उसके साथ चलती गई थी, लेकिन नियति यही थी कि ये सफर खाली साबित होना था। बिना मंजिल का सफर</span><span>!</span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">आप क्या कहना चाहती हैं</span><span>? </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"><span> </span>क्या आप निहार पर अपने हक़ को लेकर मुझसे झगड़ने आई हैं</span><span>?</span></font></p> <p class="MsoNormal" style="margin-left:36pt"><font size="4"><span><span>-<span style="font-family:"Times New Roman";font-style:normal;font-variant:normal;font-weight:normal;line-height:normal;font-size-adjust:none;font-stretch:normal"> </span></span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">नहीं, मैं तो निहार को तलाक देने वाली हूं। महज इसलिए नहीं कि उसका तुमसे अफेयर है। अब मुझे उस पर यकीन नहीं रह गया है, केवल इसीलिए। तुम चाहो तो उसके साथ रहो, लेकिन एक बात कहूंगी </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> एकांत अपने अंदर होते हैं। खुद ही खत्म भी किए जाते हैं। इनमें कोई दाखिल तो हो सकता है, लेकिन वह और अकेलापन ही लेकर आता है... कोई हल कभी नहीं होता, किसी और के पास।</span><span style="font-family:Arial"></span></font></p> <p class="MsoNormal"><font size="4"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">बस, कहानी यहीं खत्म होती है। आप ये अंत नकार देंगे। शायद, लेखक को कोसें भी, लेकिन मजबूरी है, कहानी इसके आगे बढ़ेगी भी तो क्या</span><span>? </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">होली के आठ दिन पहले फाल्गुनी की रंगों की तलाश अधूरी रह गई है... रात में वह बड़बड़ाती है </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> कब है होली, कब है होली। होली के दिन वह हंसेगी भी... फिर उदास होगी, लेकिन अब जान चुकी है </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> प्रेम यूं ही नहीं मिल जाता, महज देह मिलती है, वह भी प्रेम के ढोंग के साथ। फाल्गुनी ने फ्लैट भी बदल दिया है। निहार कहां गया, पता नहीं। अब कभी उसके ख्वाबों में गुलमोहर का पेड़ दाखिल होता है, तो वह चिल्ला पड़ती है </span><span>–</span><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> चुपचाप रहो गुलमोहर। उसके सीने में समंदर नहीं जागता, हां... कंप्यूटर के वॉल पेपर पर जरूर समंदर की तलहटी की तसवीर है। जाने तो क्या नाम है उस समुद्र का... शायद, अरैबियन सी</span><span>!</span></font></p><p class="MsoNormal"><font size="4"><br><span></span></font></p><p class="MsoNormal"><font size="4"><br><span></span></font></p> <p class="MsoNormal"><span style="font-size:14pt"><font size="4">(<b>चण्डीदत्त शुक्ल। </b>गोण्डा, उप्र में जन्म। जयपुर में निवास। अमर उजाला, दैनिक जागरण, स्वाभिमान टाइम्स, फोकस टीवी जैसे अखबारों-पत्रिकाओं-टेलीविजन चैनलों में चाकरी और दूरदर्शन-रेडियो पर तरह-तरह का काम करने के बाद, तकरीबन हर पद पर नौकरी बजाते हुए इन दिनों दैनिक भास्कर की मैगज़ीन डिवीज़न में फीचर संपादक के रूप में अहा! ज़िंदगी पत्रिका के संपादकीय विभाग में कार्यरत। दूरदर्शन-नेशनल के साप्ताहिक कार्यक्रम कला परिक्रमा की लंबे अरसे तक स्क्रिप्टिंग की है। दो फिल्मों में अभिनय और स्क्रिप्ट लेखन का अनुभव भी है। रंगमंच और साहित्य से गहरा जुड़ाव। चौराहा.ब्लॉग का संचालन. संपर्क 08824696345)</font><br> </span></p> </div> </div> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-6438322536558115522012-02-29T01:51:00.001+14:002012-02-29T01:51:25.523+14:00मत रोओ रामकली की अम्मा<b>- चण्डीदत्त शुक्ल<br></b><br><div class="gmail_quote">मुंह जैसा मुंह नहीं तुम्हारा<br><br>फिर क्यों गला फाड़के रोती हो<br><br>रामकली की अम्मा?<br><br>तुम्हारे रोने से कोई भला नहीं होगा<br><br>क्या सोचती हो, हाथी का दिल दहलेगा?<br> <br>या कि कांपेंगे टेलीविजन और अखबार वाले...।<br> <br>सब निश्चिंत और नपुंसक हैं, मेरी तरह।<br><br>बहुत शोर हुआ तो हाशिए के सिंगल कॉलम में निपटा दी जाएगी तुम्हारी बेटी<br><br>और किसी साफ-सुथरी जगह पर रिकॉर्ड पीटूसी में<br><br>बाकी एक सौ निन्यानबे लाशें।<br><br>दूर, परासपानी में करमा गाते-गाते ठहर गया है बलिराम खरवार उर्फ परगट बाबा<br> <br>तुम भी चुप हो जाओ।<br><br>झारखंड तक लाश भी नहीं लौटेगी रामकली की।<br><br>वहीं, कहीं दफना दी गई होगी...।<br><br>बिचौलियों से बचेंगे तो कुछ हरे नोट तुम्हें भी मिलेंगे।<br><br>रामप्रताप की बीवी देखो न, चुप है।<br><br>बड़ा बेटा जानता है, उसे भी यहीं आना होगा,<br> <br>किसी पहाड़ की छाती चीरकर लाइमस्टोन निकालते, दफ़न होने के लिए।<br><br>एक सौ बीस किलोमीटर दूर बनारस के लहरतारा में जब कबीर चुपचाप हैं<br><br>तब तुम ही रोकर क्या करोगी रामकली की अम्मा?<br><br>पहाड़ गिरने के बाद छींकते-छींकते हाल बुरा है,<br> <br>कुछ तो उनकी फिक्र करो।<br><br>लाशें गिनने आए साहब को गन्ने का रस तो पी लेने दो।<br><br>सुना है, दुकानें सजी हैं वहां, अंगूर बिक रहा है।<br><br>रात तक अंगूरी भी मिलेगी।<br><br>तुम्हारी मंजरी के लिए कोई लोरिक पत्थर का सीना नहीं तोड़ेगा...<br> <br>वो यहीं कहीं बिकेगी <br><br>काम से लौटते हुए बीस, चालीस या हद से हद सौ रुपए में।<br><br>खेत में ही नीलाम करेगी अपनी अस्मत।<br><br>तुम्हारी ढपाई में खरीदार सिर झुकाकर घुसेंगे तो है नहीं।<br><br>एक तो कच्ची बनी है, दूसरे कोई देवी स्थान थोड़े है...<br> <br>वहां खड़े होना तो दूर, बस लेटा जा सकता है...।<br><br>मत रोओ, तुम मज़दूर हो.<br><br>ऐसी मौतें हमारे सफेद रजिस्टरों में दर्ज नहीं होतीं।<br><br>नेता जी की खादी पर रामप्रताप के खून के छींटे नहीं दिखेंगे, वो ड्राईक्लीन करा लेंगे।<br> <br>बहुत महंगी मशीन में धुलता है उनका कुरता-पायजामा।<br><br>मत रोओ रामकली की अम्मा,<br><br>इत्ता शोर काहे करती हो...<br><br>सोनभद्र में नक्सली पैदा होते रहेंगे<br><br>कुछ जिएंगे मरते हुए,<br><br>कुछ मरेंगे फिर जी जाने के लिए।<br> <br>नेता नोट छापते रहेंगे,<br><br>पहाड़ खोदते रहेंगे।<br><br>सब कुछ ऐसा ही होगा,<br><br>बस बिजलीघर के बगल के गांव में बत्ती नहीं जलेगी।<br><br>जंगल से शहर तक आने को पुल नहीं बनेगा।<br><br>कई मौतें दवा के इंतज़ार में रास्ते में ही होंगी।<br> <br>और मैं<br><br>अगली बार, सीमेंट फैक्टरी के गेस्टहाउस में मुफ्त की चाय पीते हुए भी शर्मिंदा नहीं होऊंगा...<br> <br>तुम कोई रानी नहीं हो, जो तुम्हारे महल के डूबने पर मैं कहानियां रचूं<br><br>चुप हो जाओ रामरती की अम्मा,<br><br>धूल भरे कस्बे में रात हो गई है<br><br>और जेसीबी मशीन भी कितनी देर तक रामप्रताप की लाश टांगे रहेगी,<br><br> उसे शहर लौटना है...<br> <br>सुना है, मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है...। </div><br><br clear="all">-- <br><b style="color:rgb(204,0,0)">सोनभद्र में लाइमस्टोन खनन के दौरान पहाड़ धसकने से कई मज़दूर मारे गए। खबरों में वे या तो हाशिए पर हैं, या फिर वहां से भी गायब। उनके लिए, ये शब्द-श्रद्धा।<br></b>0 लोरिक-मंजरी सोनभद्र के प्रेमी हैं, पुरातन कथा चरित्र<br> 0 परगट बाबा जीवित हैं, 94 साल के, कर्मा गायक<br> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-73371259436838059332012-02-17T20:24:00.000+14:002012-02-17T20:25:01.623+14:00सिनेमा की इबारत संजोने वाले चंद जिद्दी ख्वाब<p class="mobile-photo"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-oKqn58mExnM/Tz3yvgaQ_II/AAAAAAAABLI/ReuiHD1Rv4U/s1600/bhobhar1-701624.jpg"><img src="http://2.bp.blogspot.com/-oKqn58mExnM/Tz3yvgaQ_II/AAAAAAAABLI/ReuiHD1Rv4U/s320/bhobhar1-701624.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5709986800543530114" /></a></p><span style="text-align:justify"><b><font style="color:rgb(51,51,255)" size="4">दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख</font><br style="color:rgb(204,0,0)"><br>भास्कर ब्लॉग.</b> <br><br><b style="color:rgb(204,0,0)">- चण्डीदत्त शुक्ल * 08824696345</b><br><br><b>ख्वाब भी क्या खूब होते हैं। </b>कुछ बेहद नाजुक और कुछ ऐसे, जो जागी आंखों से देखे गए..। न पूरे हों तो टूट जाते हैं। सिनेमा ख्वाबों की इसी बारात में शामिल होने की तरह है। सपनों की सिनेमाई रील पर सोए रहते हैं कुछ अरमान। बचपन में यही अरमान हौसले के खाद-पानी से लहलहाए रहते थे। <br> <br> <b>घर से स्कूल और छुट्टी के बाद फुर्र कर </b>चिड़ियों की तरह वापस उड़ आने के दिनों में ये खबर मिलते ही कि रात को वीडियो लगेगा, थकान और नींद काफूर हो जाती थी। सिनेमा और सपनों की जुगलबंदी अब तक मन में जागती है। पलक जो कहीं झपक भी गई तो ख्वाबों में फिल्म चलती रहती है। ऐसी ही हालत उन हजारों लोगों की है, जो सिनेमा से मोहब्बत करते हैं। कुछ महज देखने तक तो कई अपने मन में ऐसे ख्वाब भी पालते हैं, जिनमें फिल्म बनाने की इबारत लिखी होती है। <br> <br> <b>कई जुनूनी लोगों के लिए </b>फिल्म मेकिंग वैसी ही है, जैसे चित्रकार के लिए कलाकृति या कवि के लिए कविता। अब फिल्म निर्माण सस्ता काम तो है नहीं कि ख्वाब देखे और झट-से बुनकर साकार भी कर दिए। बावजूद इसके हजारों फिल्में बनती हैं। जानते हैं कैसे? महज हौसले की ताकत से। ये वे फिल्में हैं, जो कैमरे से ज्यादा मन में शूट होती हैं। एडिटिंग टेबल से पहले ख्वाबों का हिस्सा बनती हैं और सिनेमाघरों में रिलीज होने से पहले दोस्तों की महफिल में कई बार दिखाई जा चुकी होती हैं।<br> <br> <b>कुछ अरसा पहले एक फिल्म रिलीज हुई थी 'आई एम'। </b>इसमें 45 देशों के 400 लोगों ने बतौर निर्माता पैसा लगाया और फंड जुटाने का काम फेसबुक के जरिए हुआ। श्याम बेनेगल भी गुजरात के दूध विक्रेताओं की मदद से 'मंथन' बना चुके हैं, लेकिन अपनी फिल्म बुनने का ख्वाब देखने वाले जुनूनी लोग इनसे जरा-से अलग हैं। <br> <br><b> मालेगांव का नाम याद कीजिए। </b>क्या आप जानते हैं कि यहां एक छोटा-सा फिल्म उद्योग भी चलता है, जो वीडियो कैमरे से बनाई फिल्मों के लिए मशहूर है? इसी इंडस्ट्री पर आधारित, महज एक लाख रुपए में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'मालेगांव का सुपरमैन' अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोर चुकी है। <br> मेरठ के आसपास, हरियाणा और बिहार में ऐसे प्रयास खूब होते हैं। लगे हाथ एक और फिल्म याद कर लें 'श्वास'। ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली यह पहली मराठी फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए बाकायदा एक सहकारी संस्था बनाई गई और निर्माता ने कई लोगों से पैसे उधार लिए। <br> <br> <b>जयपुर में भी कुछ जुनूनी नौजवानों ने </b>सिनेमा रचने का सपना देखा। उन्होंने एक फिल्म बनाई है 'भोभर'। किसान रेवत और उसके परिवार के संघर्षो के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फिल्म के निर्माण की अंतर्कथा सिर्फ और सिर्फ हौसले के जादू-मंतर की कहानी है। गजेंद्र एस. श्रोत्रिय इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं, लेकिन फिल्म बनाने का जुनून इस कदर चढ़ा कि सब कुछ भुलाकर सपना साकार करने में जुट गए। गांव बिरानिया में सेट लगा। दिन-रात शूटिंग हुई। बजट बढ़ न जाए, इसलिए निर्माता से लेखक तक, हर कोई तैयार था कि जरूरत पड़ने पर खुद एक्टिंग कर लेंगे। शूट शुरू होते ही हीरो ने हाथ खड़े कर दिए। आनन-फानन में दूसरा कलाकार तलाशा गया। हीरोइन बनने के लिए जयपुर की रंगमंच कलाकार उत्तरांशी पारीक तैयार हुईं। आखिरकार, फिल्म पूरी हुई और यूनान में इंटरनेशनल प्रीमियर होने के बावजूद वितरण में अड़चन हुई तो खुद ही डिस्ट्रीब्यूशन का जिम्मा संभाला। 'वो तेरे प्यार का गम' जैसे प्रसिद्ध गीत का संगीत देने वाले दिवंगत संगीतकार दान सिंह की धुनों से सजी 'भोभर' आज रिलीज हो रही है। पहले भी हौसले की मिसाल देती ऐसी फिल्में रिलीज हुई हैं। कुछ चली हैं, कई का नामलेवा भी नहीं बचा। 'भोभर' का भविष्य भी दर्शक तय करेंगे, लेकिन हौसले का जादू-मंतर सिर चढ़कर बोल रहा है। वो बता रहा है 'जुनून' हो तो सब कुछ किया जा सकता है। फिल्म भी बनाई जा सकती है!</span> <div align="left"> </div> <div> </div> <div> </div> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-21708362479713758692012-02-17T02:30:00.001+14:002012-02-17T02:30:21.157+14:00ज़िंदगी हो कलाकृति की तरह, हम बन जाएं कलाकार<p class="mobile-photo"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-os4Drz6KMmM/Tzz23YqAsbI/AAAAAAAABK4/ZugpuSzWXTE/s1600/mask-721157.jpg"><img src="http://4.bp.blogspot.com/-os4Drz6KMmM/Tzz23YqAsbI/AAAAAAAABK4/ZugpuSzWXTE/s320/mask-721157.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5709709858970841522" /></a></p><span style="font-family:Mangal" lang="HI"></span><span style><span style>-<span style="font:7.0pt "Times New Roman""> </span></span></span><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">चण्डीदत्त शुक्ल </span>@ </b><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">08824696345</span></b> <p class="MsoNormal" style="margin-left:18.0pt;text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> </span></b></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय</span></b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">... कभी ये हंसाए, कभी ये रुलाए। सच... ज़िंदगी की पहेली हल करना बहुत मुश्किल काम है... लेकिन जीवन को उलझन मान लेने से तो हल निकलेगा नहीं... फिर क्या किया जाए</span>?<span style> </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">क्यों न, जीवन जीने की कला हम सीख ही लें। जान लें, वो अंदाज़, जिससे ज़िंदगी खूबसूरत हो जाती है... खुशनुमा बन जाती है...</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सोचिए, ज़िंदगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तस्वीरें अपनी रंगत बिखेरती नज़र आएंगी।</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">ज़िंदगी जीना</span></b><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप एक कलाकार की तरह ज़िंदगी को महसूस करें। जीवन का सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में महसूस करें।</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">एक श्लोक बचपन में सुना था </span>–<span style="font-family:Mangal" lang="HI"> <i>साहित्य संगीत कला विहीन:</i></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><i><span style="font-family:Mangal" lang="HI">साक्षात् पशु: पुच्छ विषाण हीन:।</span></i><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> इसमें कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है...।</span><span style="font-family:Mangal"></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सत्यम्, शिवम्, सुंदरम का ज्ञान भी यही है। सुंदर और शुभ का बोध कराने वाला... यानी जो सुंदर है, वह शुभ है और वही सत्य है... और यकीनन, ये कला ही तो है। ज़िंदगी को ज़िंदादिली के साथ महसूस करने, उसे आगे बढ़ाने की कला। कोई अच्छी तसवीर देखते हुए नज़रों से होते हुए दिल तक बह चली खुशी की गंगा आखिर कहां से फूटती है</span>?<span style="font-family:Mangal" lang="HI"> एक सुंदर कलाकृति आखिरकार, सुंदर कब होती है... तभी तो, जब उसमें सच्चाई हो, सुंदरता हो और वह हमारी ज़िंदगियों से जुड़ी हो।</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">जीवन में कला कितनी ज़रूरी है...</span></b><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं।</span><span lang="HI"> </span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह कराने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का ज़माना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से अपनी बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता... लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा कि वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी मैं अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा था।</span><span style="font-family:Mangal"></span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">सोचने वाली बात है... हम</span></b><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं</span>? <span style="font-family:Mangal" lang="HI"><span style> </span>क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए</span>?</p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><span style="font-family:Mangal" lang="HI">और यह बात खुद को खास करने तक ही सीमित नहीं है। सच तो ये है कि जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव बना नहीं रहेगा, हम ज़िंदगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। यूं, ऐसा भी नहीं है कि हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए... जरूरी ये है कि कला-साहित्य और संगीत के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उसे सराहने का भाव पैदा किया जाए।</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">एक बहुत पुराना किस्सा याद आता है...</span></b><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> एक बहुत बड़े संगीतकार किसी महफिल में गायन कर रहे थे। कुछ लोग बार-बार वाह-वाह कह रहे थे। उन्होंने गायन बीच में ही बंद कर दिया। </span><span lang="HI"><span style> </span></span><span style="font-family:Mangal" lang="HI">आयोजक ने गायक महोदय से सवाल पूछा कि आपने कार्यक्रम रोक क्यों दिया। गायक ने विनम्रता से कहा </span>–<span style="font-family:Mangal" lang="HI"> गलत जगह पर मिली तारीफ निंदा से कम नहीं होती।</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">अब ये सवाल हमारे लिए है...</span></b><span style="font-family:Mangal" lang="HI"> क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती है</span>? <span style="font-family:Mangal" lang="HI"><span style> </span>कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंख में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं। कोई चित्र देखते समय हम मंत्रमुग्ध हो पाते हैं... अगर हां तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िंदगी हमारे लिए प्यार का गीत है... लेकिन जवाब न में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िंदगी के रास्ते से कला का भाव भटक गया है... ये ज़रूरी है कि हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाएं और ज़िंदगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सीख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी...इसकी चमक कुछ और ही होगी।</span></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b> </b></p> <p class="MsoNormal" style="text-autospace:none"><b><span style="font-family:Mangal" lang="HI">(जयपुर आकाशवाणी के कार्यक्रम चिंतन के लिए तैयार आलेख का मूल पाठ)</span></b><b><span style="font-size:10.0pt"></span></b></p> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-56576389110380565662012-02-15T23:53:00.001+14:002012-02-15T23:53:34.710+14:00मैं माटी का गुड्डा...<b>- चण्डीदत्त शुक्ल # 8824696345<br><br>मिट्टी...! क्या है मिट्टी? </b>धूल, बालू, पानी का मेल, कुदरत की एक अंगड़ाई... या महज खेल... या फिर करिश्मा है मिट्टी? क्या है इस मिट्टी में, जो इसका नाम सुनने भर से हम झूम उठते हैं। आंखों के सामने उतराने लगते हैं कितने ही खूबसूरत नज़ारे... मिट्टी से खेलना, मिट्टी से बने घरों में रहना, मिट्टी की खुशबू, मिट्टी में रमना और आखिरकार, मिट्टी में मिल जाना... कुछ तो है...। जानना चाहेंगे, क्या है मिट्टी का जादू... मिट्टी और कुछ नहीं... दरअसल, हम खुद हैं मिट्टी। ये तो सब जानते हैं, कोई नई बात नहीं है, बस एक बार फिर दोहरा दूं... पांच तत्वों से बना है हमारा शरीर और इसमें मिट्टी है एक अहम तत्व। तभी तो कहते हैं, मिट्टी का शरीर था, मिट्टी में मिल गया।<br> <br><b>हमारे लोक जीवन का एक-एक जर्रा </b>इसी मिट्टी से बना है, बंधा है। मिट्टी की ज़िंदगी से रिश्तेदारी भी अनूठी है, तभी तो एक तरफ पानी बरसता है... मिट्टी गीली होती है... हर तरफ सोंधी महक बिखरती है। एक ओर सूखी धरती की प्यास बुझती है, तो दूसरे किनारे होता है हमारा मन और जैसे सांस के ज़रिए, नस-नस में इसी मिट्टी की खुशबू समा जाती है। मिट्टी की खुशबू कुदरती है। सुबह-सबेरे ओस पड़ते समय कभी मिट्टी से बातें करके देखिएगा। तन-मन और निगाह... सब खिल उठेंगे। सारी दुनिया की सब खुशियां मिट्टी से ही तो जुड़ी हैं। मिट्टी के घर, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी के दीए और मिट्टी वाले खेत... है न मज़ेदार बात।<br> <br><b>बचपन के सुनहरे दिन याद आते हैं... </b>आँगन, दालान और छोटे-छोटे कमरों वाले घर में हर जगह मिट्टी नज़र आती थी। तब सीमेंट के फर्श नहीं होते थे। बड़ी-बड़ी टाइल्स वाले छोटे-छोटे, कबूतरों के दड़बों वाले घर... वो दिन कुछ और ही थे, घर भी बड़े-बड़े और आंगन तो कई बार उससे भी बड़ा। पूरे आंगन को मिट्टी से ही लीपते थे सब। बच्चे मिट्टी से सारा बदन रंग लेते। सूखी मिट्टी, गीली मिट्टी। हाथों में और चेहरे पर। कपड़ों में और एक-दूसरे पर मिट्टी का छिड़काव... खेलकूद कर घर लौटते तो मौसम चाहे जाड़े का हो या गरमी का, नहाना ही पड़ता... लेकिन बदन में मिट्टी के निशान और इसकी खुशबू बची ही रह जाती। <br> <br><b>दूर तालाब से गीली मिट्टी </b>लाकर कई बार चूल्हा बनाया और घर-गृहस्थी के खेल खेले थे। आंगन के पास कई पौधे रोपे थे। उनमें से कई अब दरख्त बन गए। फल उगा रहे हैं। पीढ़ियों का मुंह मीठा कर रहे हैं। आज मिट्टी की बात करते हुए लोक जीवन के तमाम रंग याद आ रहे हैं। तब कोई संस्कार मिट्टी को मेहमान बनाए बिना पूरा नहीं होता था। शादी-ब्याह में गीली मिट्टी से बनाई गई वेदी और हंसी-ठिठोली के मौके से लेकर होली तक मिट्टी का मेल इतना गहरा था कि उसके रंग अब भी जहन में बाकी हैं। यही दौर था, जब सावन में झूले झूलते हुए हवा से होड़ होती थी और मिट्टी से मिलकर मौसम का हालचाल बताती हुई गांव की मिट्टी बालों में सन जाती थी। <br> <br><b>खैर, अब दिन बदल गए हैं। </b>सिनेमा में भी गांव बाकी नहीं बचा है। अब मदर इंडिया के "गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…" जैसे गीत भी सुनने को कहां मिलते हैं। दीवाली में भी मिट्टी के दीए नहीं जलते। मिट्टी में खेलना, उसकी बातें करना असभ्यता की निशानी समझा जाने लगा है। इस सबके बावजूद एक अच्छी खबर है। सुना है, मध्य प्रदेश के खंडवा में मिट्टी से इत्र बनाया जा रहा है। अच्छी खबर है। चलिए, सेंट की बोतल में ही सही, मिट्टी बाकी तो बचेगी। कैसा हो, जो हम अपनी ज़िंदगी मिट्टी की ये महक बनाए रखें। आप करेंगे न ऐसा? चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-72522353113024094452012-02-05T09:00:00.001+14:002012-02-05T09:00:59.638+14:00एक आंसू गुनगुनाता रहा उम्र भर...<p class="mobile-photo"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-TS4PfE5lg4g/Ty2AbEaotdI/AAAAAAAABJs/DZwCH89pcHc/s1600/nost-759638.jpg"><img src="http://4.bp.blogspot.com/-TS4PfE5lg4g/Ty2AbEaotdI/AAAAAAAABJs/DZwCH89pcHc/s320/nost-759638.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5705357505478571474" /></a></p><p class="mobile-photo"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-1esvdfoHEQY/Ty2Abep1FCI/AAAAAAAABJ4/EatHC4ZGP9Y/s1600/nostalgia-760918.jpg"><img src="http://2.bp.blogspot.com/-1esvdfoHEQY/Ty2Abep1FCI/AAAAAAAABJ4/EatHC4ZGP9Y/s320/nostalgia-760918.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5705357512521618466" /></a></p><p class="mobile-photo"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-IiB9omlpk7w/Ty2Abi92YpI/AAAAAAAABKE/VkhROKKCZgs/s1600/nostalgia-mirjana-gotovac-762660.jpg"><img src="http://4.bp.blogspot.com/-IiB9omlpk7w/Ty2Abi92YpI/AAAAAAAABKE/VkhROKKCZgs/s320/nostalgia-mirjana-gotovac-762660.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5705357513679331986" /></a></p><p class="mobile-photo"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-xR9bBOZgH5A/Ty2AcGdM7jI/AAAAAAAABKU/oU2XNdbASgQ/s1600/blue%252Ccolour%252Cfloral%252Cflower%252Clight%252Corange%252Cpetal%252Craindrops%252Ctear%252Ctears-27399dc2d423137a51400706f67da564_i-764022.jpg"><img src="http://4.bp.blogspot.com/-xR9bBOZgH5A/Ty2AcGdM7jI/AAAAAAAABKU/oU2XNdbASgQ/s320/blue%252Ccolour%252Cfloral%252Cflower%252Clight%252Corange%252Cpetal%252Craindrops%252Ctear%252Ctears-27399dc2d423137a51400706f67da564_i-764022.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5705357523206073906" /></a></p><p class="mobile-photo"><a 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प्रेम मिला, साथी मिला और फिर सब छूट गया। उसके साथ हर वक्त रहे आंसू, जीवन संगी बनकर और जब वह सबसे ज्यादा निराश थी, भीगी आंखों ने ही समझाया – आने वाला कल होगा बहुत खूबसूरत... बस, आस न छोड़ो... ये एहसास एक बार फिर से उसकी आंखें नम कर गया। हो भी क्यों न, आंसुओं की जुबान बे-आवाज़ बहुत जोर से सुनाई देती है...<br> </i> <br><br><br><b>रात का दामन ठिठुरा हुआ था। लगातार गूंजने वाली, जागते रहो की आवाज़ कोहरे से डरकर कंबल </b>में कहीं गुम हो गई। दिशाओं ने मुंह पर चुप्पी की पट्टी बांध ली। कड़वाहट भरी नज़रें पलकों में ढकने की कोशिश करते परिंदे अलसाते रहे। हाथों की पहुंच से बहुत दूर, निगाह के नजदीक, माथे के ऊपर तारों की बारात उमड़ने लगी। एक के बाद एक कर, इठलाते तारे आते और फिर छुपन-छुपाई खेलने लगते, मद्धम-सी चमक बिखेरकर। कढ़ाई से सजे किनारे वाली एक सफेद चादर नील में डुबाकर किसी ने आसमान पर उछाल दी। ब्लैक कॉफी से भरे मग की खाली होती सतह देख निहारिका बुदबुदाई – सो जाओ कि रात बहुत गहरी है, काली है... पर नींद का नाम-ओ-निशान तक नहीं था। मॉनिटर भले बंद था, लेकिन सीडी चल रही थी। एसडी बर्मन टीस बिखेरते हुए – मोरे साजन हैं उस पार...मैं इस पार...। तभी मोबाइल चहका – सोईं नहीं अब तक? तुम्हारे कमरे में खुदकुशी के सारे सामान मौजूद हैं न! <br> मल्हार का संदेश पढ़ निहारिका को गुदगुदी सी हुई। अगरबत्ती सुलगने के आखिरी कगार तक पहुंचकर थम चुकी थी, लेकिन महक ऐसी, ज्यूं बहार ने दरवाजे पर ताजा-ताजा दस्तक दी हो। निहारिका नए-नए प्रेम में थी, अंखुआ ही रहा था उसका और मल्हार का प्रेम। दूसरे दिन की शुरुआत के ऐन पहले, इस पहर, उसके घर से आठ सौ किलोमीटर दूर, किसी और ही शहर में मौजूद है इस वक्त मल्हार, पर दोनों कितने जुड़े हुए हैं — यही सोचते हुए, हंसते-हंसते जाने कैसे छलक उठे निहारिका के नयन। बिना कुछ कहे, भीगी आंखों ने बयां कर दिया सब हाल!<br> <br> <b>प्यार सबको होता है न कभी-कभार।</b> जब-जब ये आता है, दुनिया में कुछ और बाकी नहीं बचता। दिल की लगी से निकलने के बाद भी कहां कुछ शेष रहता है, लेकिन निहारिका को कहां होश था। रात यूं ही गुजरती रही। मल्हार के संदेश पढ़ते और जवाब में बार-बार कुछ लिखते-मिटाते हुए। कॉफी खत्म हो चुकी थी, लेकिन यादें अंतहीन हैं। एक सिरा टूटता तो दूसरा उभर आता। <br> `बहुत ब्लैक कॉफी पीती हो तुम, देखना काली हो जाओगी', कभी मल्हार ये कहता तो अगले ही पल ये – `थोड़ी चीनी डाल लो, मुझसे नहीं पी जाती तुम्हारी बदसूरत कॉफी'। निहारिका नाराज होती, इससे पहले ही खिलखिलाहट की घंटियां बजाने लगता – `अच्छा, अच्छा! अब रंगभेद की नीति पर लेक्चर मत शुरू कर देना। सॉरी-सॉरी। याद आ गया, गोरा-काला कुछ नहीं होता... और ये भी कि तुम्हारे प्रिय भगवान कृष्ण श्याम रंग के हैं। चीनी नहीं तो अपनी लंबी अंगुलियां ही कॉफी में घोल दो, मीठी हो जाएंगी।' निहारिका बेसाख्ता हंस पड़ती और साथ ही उंगलियों से पलकों की कोर टटोलने लगती — गीली जो हो गई होतीं तब तक, निगाहें उसकी। मल्हार बोलता – `अपने आंसू जमीन पर मत गिरने देना, ये मोती टूट जाएंगे।' क्या कहती निहारिका, बस इतना सा ही तो – `धत! एकदम फिल्मी!' <br> <br> <b>ऐसा हरदम ही होता। निहारिका के बैग में दो जोड़ी रुमाल हमेशा मौजूद रहते। </b>पर्मानेंट जुकाम की पेशेंट है वो। आंखें और नाक पोंछती हुई, न...न, रोती नहीं थी, पर मल्हार हंस देता – `इनसे मिलिए, एकता कपूर के सीरियल्स की बड़ी बहू। इनका हंसना-गाना, खाना-पीना, सब आंसुओं के साथ होता है।'<br> बस, ऐसी ही है निहारिका। जिसकी जो मर्जी, सोच ले। उसको शर्म नहीं आती। बुक्का फाड़कर, मजलिस के बीच भी, क्लास रूम में, जब चाहे, जहां जी करे, रो देने वाली। उसकी समझ में नहीं आता कि हंसना-रोना कौन-सी अभद्रता की बात है, जो उसके लिए `एक्सक्यूज मी, एक्सक्यूज मी' का रट्टा लगाती फिरे, इसलिए `मिस इमोशनल' का तमगा लग जाने से भी वो नहीं डरती।<br> दिन गुजरते रहे, साल-दर-साल, मल्हार और निहारिका का प्रेम मजबूत होता गया। प्यार में कंट्रोल की स्टियरिंग अपने हाथ में कहां होती है। मेहंदी हसन की आवाज़ में अक्सरहा सुनते हुए ग़ज़ल — प्यार जब हद से बढ़ा सारे तक़ल्लुफ़ मिट गए, आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गए, दोनों नजदीक-दर-नजदीक आते गए। <br> <br><b>*** <br>निहारिका ने सीने में दम भर सांस कैद कर ली</b> और फिर फूंक बाहर निकाली। डायरी पर जमा धूल पूरी तरह बेदखल होकर मेजपोश के कोनों में सिमट गई। कितने ही दिन गुजर गए। निहारिका और मल्हार अब पति-पत्नी हैं, लेकिन दोनों का साथ रहना अब भी मुमकिन नहीं हो पाया है। अलग-अलग शहरों में नौकरियों में ज़िंदगी खर्च करते हुए, बस तनहा रातें हैं और ब्लैक कॉफी के भरते-खाली होते कप। डायरी के पहले ही पन्ने पर मल्हार ने लिख दी थी एक इबारत ...<br> <br><b>रोना नहीं, कभी न रोना</b><br><br>यादों की पछुआ हवा निहारिका का तन-मन सिहरा गई। याद आए, वे पल, जब प्रेम पर पढ़ाई-लिखाई का बोझ भारी पड़ने लगा था। रात-रात भर मल्हार संदेश पर संदेश भेजता रहता और उसकी अंगुलियां टेक्स्ट बुक के पन्ने पलटने में मुस्तैद रहतीं। एक्जाम के बाद, बहुत अरसा गुजरने पर जब दोनों मिले तो मल्हार चीखने वाले अंदाज में शिकायतें सुनाता रहा। वो खोई रही, गुमसुम और फिर वही हुआ... उसकी आंखों में पानी ठहरा हुआ था। छलछलाया हुआ... टपक पड़ने को बेकरार। ये देखकर मल्हार हंस दिया – `मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का / उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले'। निहारिका क्या कहती। बोली – `शब्दों में प्रेम करना तो कोई तुम से सीखे मल्हार।'<br> <br><b>*** <br>प्रेम के दिन भी कितने गिने-चुने होते हैं। कोटे से मिले राशन की तरह, </b>खर्च होने की उतावली में। उनकी शादी तो हो गई, लेकिन कितनी ही मुश्किलों से जूझते हुए। मां बचपन में ही रूठकर दुनिया से चली गई थीं। पिता ने नन्ही नीहू को बहुत-से अरमानों के साथ बड़ा किया था। विजातीय लड़के से शादी की बात सुनकर उन्होंने धैर्य की पूंजी खो दी थी। वे गुस्से की कैद में थे। मां के फोटो की रंगत तांबई हो चुकी थी। उदास निहारिका एक बार फिर, आसमान से बिना कुछ कहे, बातें करती चुपचाप लेटी थी, तभी एक तारा टूटा, बेआवाज़। निहारिका ने दुआ के लिए हाथ जोड़ लिए। पलकें बंद थीं और आंखों के आंचल में सिमटा था, वही सदा का साथी – आंसू।<br> <br><b>भोर में सबसे पहले पिता का ही स्वर सुनाई दिया। </b>उन्होंने पुकारा – नीहू! उनकी पुकार में गुस्सा न था, बस आशंका और दुख के कुछ निशान थे। आंखों में पूरे बदन का लहू इकट्ठा था, पर मुंह से आवाज़ का कतरा भी न निकला, टपका सिर्फ एक आंसू। निहारिका ने हिम्मत कर उन्हें फिर से मल्हार के बारे में बताया। उसने पिता की हथेलियां कसकर थाम ली थीं। पिता ने सारी बात सुनी और फिर उसके थरथराते हाथों पर एक बूंद आंसू टप से गिरा। निहारिका ने पलकें बंदकर बदले में भी आंसू ही लौटा दिए।<br> <br>***<br><br><b>डायरी के पन्ने पर एक और रात टंकी थी, </b>लेकिन तारों से भरी नहीं। नहाकर ताजादम हुई एक धुली रात। मल्हार के साथ ज़िंदगी शुरू करने की गवाही देती हुई। बड़ी-बड़ी आंखें खोलकर मल्हार को देखते हुए निहारिका बोली – `ये ख्वाब है या मेरी ख्वाबगाह, जहां मैं आ गई हूं?' मल्हार ने कहा – `न्यू पिंच' और उसके कंधे पर चुटकी भर ली। ततैया ने डंक मारा हो, ऐसे चिंहुक पड़ी निहारिका और आंख में फिर लहलहा उठी एक नदी।<br> `गीजर के पानी से नहाकर आई हो क्या, तुम्हारे आंसू बहुत गुनगुने हैं?'<br>अपने पोरों पर मल्हार की आंख से रिसा हुआ एक आंसू थामती हुई निहारिका गुनगुनाई – `और तुम्हारे आंसू इतने नमकीन क्यों हैं? अरब महासागर का सारा नमक एक ही में सिमट गया लगता है। इसमें ज़िंदगी के सब दुख घोल लिए हैं क्या?<br> दूर कहीं एक दीवाना रेडियो पर भूले-बिसरे गीत सुन रहा था।<br><br>***<br><b><br>बस, इतनी-सी थी उनकी कहानी? नहीं... ज़िंदगी बहुत लंबी होती है, सो उन दोनों की भी थी। </b>कभी साथ रहते हुए, कहीं बरसों तक, बस मिलने की चाह में गुजरती हुई। एक दिन, मल्हार ने हमेशा के लिए निहारिका का साथ छोड़ दिया। किसी तरह की बीमारी का संकेत भी नहीं दिया था उसने। छुट्टियों में घर आया था, तब एक दिन बुखार से बदन तपने लगा। निहारिका अस्पताल ले गई तो पता चला – कैंसर की आखिरी स्टेज है और फिर दोनों बिछड़ गए। वायलिन का उदास सुर अब निहारिका के कानों में अक्सर बजता है और उसे वह अकेले सुनती है। पुरानी डायरी के पन्ने पलटती हुई। दूसरे कमरे में सो रही है गुलाब की पंखुरी-सी बेटी – कोमल!<br> <br>***<br><b>`मम्मा! मैंने कल रात ही कहा था कि सुबह कढ़ी-चावल खाऊंगी। बनाया क्या?'</b><br>निहारिका बुदबुदाई— `नहीं ! बेसन लाना भूल गई।' कोमल रूठ गई, लेकिन निहारिका को सुध नहीं थी। उसके कानों में कुछ संवाद उभर रहे थे –<br> मल्हार से वह लड़ रही थी – ` तुम खटाई नहीं लाए। अब कढ़ी कैसे बनाऊं?'<br> वह बोला – `कढ़ी में खटाई थोड़े ही पड़ती है। इसमें तो तुम अपना गुस्सा ही घोल देना।'<br>` हां, और की जगह आंसू, है न...!'<br>और दोनों ठठाकर हंस दिए थे। उनके खिलखिलाते चेहरों पर होली के सब रंग जवान हो गए थे।<br>निहारिका ने खिड़की के पार देखा। सुबह अब दोपहर से मिलने चल पड़ी थी। एक गड्ढे में जमा पानी में कमर तक डूबी हुई कोमल कुछ ढूंढ रही थी। <br> निहारिका ने आवाज़ लगाई – `क्या कर रही हो? पानी से बाहर निकलो, ठंड लग जाएगी।'<br>कोमल घर के अंदर आई। उसके हाथ में एक भीगा हुआ खरगोश था। कांपता हुआ। निहारिका ने कोमल के गुलाब जैसे हाथ अपनी हथेली पर फैला लिए और उसकी लकीरों में कुछ तलाशने लगी। दुख के समुद्र के पार, उम्मीद का एक कल उन सबको पुकार रहा था। निहारिका की आंख में कुछ कांप रहा था, खरगोश की पलकें भी भीगी थीं।<br> <br> </div><br><br> चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-57491075322907802142012-02-04T00:08:00.002+14:002012-02-04T00:10:18.808+14:00कहिए डर को अलविदा...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="mobile-photo"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-MshtR4pCBII/TyuyONMAopI/AAAAAAAABJg/4ir6d8yypF8/s1600/pic-111_f-736072.jpg"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5704849310122812050" src="http://2.bp.blogspot.com/-MshtR4pCBII/TyuyONMAopI/AAAAAAAABJg/4ir6d8yypF8/s320/pic-111_f-736072.jpg" /></a></div><b>अहा! ज़िंदगी में प्रकाशित</b>, दैनिक भास्कर से <a href="http://www.bhaskar.com/article/MAG-article-of-aha-zindagi-2775059.html"><b>साभार</b></a><br />
<div style="color: red;"><b><br />
</b></div><b><span style="color: red;">- लेखक - श्री अमिताभ </span></b><br />
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<b>ज़िन्दगी क्या है </b>और इसके अर्थ क्या हैं? इस सवाल का जवाब तलाशने के क्रम में बहुत से लोगों की ज़िन्दगियां बीत गई हैं। हर बार कोई न कोई नया और अनूठा अर्थ सामने आया है। जिस तरह हाथ की हर अंगुली जुदा होती है, आकार और उपयोग में, वैसे ही हर शख्स के लिए ज़िन्दगी के मायने अलग होते हैं, लेकिन एक बात पर ज्यादातर लोग सहमत हैं कि जिस जीवन का कोई सार न हो, उसका कोई अर्थ नहीं।<br />
<br />
<b>अर्थवान जीवन के लिए जरूरी </b>है कि हम वृहद मानव समाज की बेहतरी के लिए काम करें। बेहतर काम के लिए सुंदर सोच होनी चाहिए, लेकिन बात यहीं मुकममल नहीं होती। हममें लाख गुण हों, हौसला हो, राह सामने हो, फिर भी अच्छाई के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाते। जरूरी है साहस का होना। जो सोचा है, उस पर खरा साबित होने के लिए हिममत का सहारा पास में होना।<br />
<br />
<b>यह सही है कि इरादे नेक हों, </b>मानसिकता स्वस्थ हो, फिर भी साहस नहीं है तो कदम हमेशा डगमगाते रहेंगे। साहस के न होने भर से धैर्य जवाब देने लगेगा, हम अपने बचाव के लिए नए-नए रास्ते चुनते रहेंगे और आखिरकार, बेहतरी का इरादा एक खोखले स्वह्रश्वन में बदलकर रह जाएगा।<br />
<br />
<b>प्रश्न उठता है — साहस क्या है? </b>क्या इसे संजोने के लिए बाहरी तत्वों से कोई मदद मिलती है? किताबों ग्रंथों महापुरुषों से जो सीख मिलती है, वह पर्याह्रश्वत है या नहीं? जवाब है — साहस बाहर से आने वाली चीज नहीं। यह वह एहसास नहीं, जिसके लिए बाह्य जगत का सहारा लिया जाए या इसे कहीं से आयातित किया जाए। हिम्मत का जज्बा हमारे अंदर है, जरूरत है उसे पहचानने की।<br />
<br />
<b>साहस का भाव दरअसल, </b>भय से मुक्ति है। भय भी हरदम किसी अनदेखे, अनजाने संकट का नहीं होता। अगर हम अपनी 'जो जैसा है, वो ठीक है' की मानसिकता में रमे रहना चाहते हैं और एक लीक से हटने की कोशिश नहीं करते तो वह एक किस्म का भय ही है। 'मैं यह करूंगा तो लोग क्या कहेंगे' और 'ऐसा करने से वैसा हो जाएगा' जैसी सोच डर से उपजती है। जैसे ही हम कुछ नया, बेहतर करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं और फिर किसी भी सोच या परिस्थिति में उससे अलग नहीं हटते, तत्क्षण भय से मुक्त हो जाते हैं। मृत्यु का भय, धन हानि का डर, अपयश का संकट जटिल भय हैं। इनका सामना करने के लिए बड़े साहस की जरूरत है, लेकिन इनसे भिड़ने से पहले छोटे-छोटे डरों से मुक्ति हासिल करनी होगी। एक बार साहस जाग गया तो दुनिया का बड़े से बड़ा खतरा भी व्यक्तित्व में शामिल भय को पुन: सिर नहीं उठाने देगा। हर संकट से बड़ा होगा तब हमारा साहस।<br />
<br />
<b>कई बार हम अपने किए कराए </b>पर पानी फेरते नज़र आते हैं, क्योंकि उस समय बड़े लक्ष्य की तरफ ध्यान देने की जगह खुद से लड़ाई लड़ रहे होते हैं। अक्सर अंतर्द्वद्व की यह स्थिति किसी बड़े गोल को हासिल करने के लिए नहीं होती। हम उस समय महज यह आकलन कर रहे होते हैं कि करने से कितना लाभ होगा और उसके बरक्स नुकसान की मात्रा कितनी होगी। कुछ भी नया करते समय सबसे पहले मन के अंदर से डर की आवाज उभरती है। यही मौका है कि उस पर काबिज होना सीख लें। याद कीजिए — बचपन में साइकिल चलाना सीखते समय आप एक-दो बार सीट से जरूर गिरे होंगे। अगर उसी समय आप साइकिल चलाना सीखने से तौबा कर लेते तो अब तक साइकिल की सवारी महज स्वह्रश्वन होती। गिरना और चोट खाना क्या है? बहुत छोटा सा भय.. एक बार इससे मुक्ति पा ली तो इसके आगे आप बाइक और फिर कार की ड्राइविंग सीखना चाहेंगे।<br />
<br />
<b>यकीनन, जिन लोगों ने </b>बड़े लक्ष्यों को साधा है और आप जिन्हें मंत्रमुग्ध भाव से सराहते हैं, देखते हैं, वे सब के सब कभी न कभी अपने-अपने अभयास में असफल हुए होंगे, चोटिल हुए होंगे। वे हारे नहीं, डरे नहीं, इसलिए शीर्ष तक पहुंचे।<br />
<br />
<b>साइकिल से गिरना महज </b>एक प्रतीक है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि शारीरिक चोटों सेन घबराना साहस को जगा लेना है। सच तो यह है कि किसी भी तरह की चोट से न डरना ही साहस का आह्वान करना है। जिस्म का जन्म बहुत जल्दी भर जाता है। मन की चोट भरने में वक्त लगता है। एक छोटे भय से दो-दो हाथ करने के बाद मन पर लगी चोटों का सामना करने का अवसर आता है। किसी भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से पहले यह सोचकर बैठ गए कि असफलता की स्थिति में क्या होगा तो यकीन कीजिए — आप सफल हो ही नहीं सकेंगे। फिर तो हरदम डर की गठरी में दुबके बैठे रहना होगा। हां, आपने यह सोच लिया कि परीक्षा और प्रतियोगिता में कुछ लोग सफल होंगे और कुछ असफल तो प्रयास करने की हिममत बढ़ जाएगी। इस मोड़ पर साहस का जो जज्बा आपके साथ होगा, वही मंजिल तक ले जाएगा। जिस्म की चोट से आप उबर गए हैं।<br />
<br />
<b>असफलता का डर आपने </b>मन से निकाल दिया है। बारी है अगले चरण की। अब पूरे व्यक्तित्व को डर से मुक्त कीजिए। सोचिए — जो होगा, वह अच्छा होगा और अच्छा न भी हुआ तो फिर प्रयास करेंगे। निश्चित तौर पर तब आपका व्यक्तित्व इस्पात जैसा होगा। आप भयमुक्त बनेंगे और बड़े संकल्प भी साकार हो सकेंगे। राहें खुली खुली, डर से अलग, मंजिल की तरफ साफ देखने वाली बनेंगी.. तो बताइए जरा.. आप कह रहे हैं न डर को अलविदा? एक बार ऐसा कर सके आप तो जीवन को और नजदीक से समझ सकेंगे और ज़िन्दगी का अर्थ भी तलाश कर पाना सुगम हो जाए।</div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-75385261300677973332012-01-30T17:25:00.000+14:002012-01-30T17:25:15.378+14:00चण्डीदत्त शुक्ल की दो नई कविताएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><a href="https://www.facebook.com/chandiduttshukla" target="_blank">चण्डीदत्त शुक्ल</a> </b><br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-y5rnIJPDnvs/TyYNPgJENqI/AAAAAAAABJM/vD_paR1ECrQ/s1600/night_rain2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="http://1.bp.blogspot.com/-y5rnIJPDnvs/TyYNPgJENqI/AAAAAAAABJM/vD_paR1ECrQ/s320/night_rain2.jpg" width="312" /></a></div>सो जाओ कि रात बहुत गहरी है, काली है<br />
सो जाओ कि अब कोई उम्मीद नहीं जगाएगा तुम्हारे मन के लिए<br />
सो जाओ कि बंगाल से लेकर मद्रास तक, समुद्र का जल नाराज़ है तुमसे।<br />
दिशाएं पूछती हैं, सनसनाकर हरदम, क्यों हारे तुम, इतना प्रेम किया था क्यों?<br />
सो जाओ कि देश की किसी नायिका की आंख तुम्हारे लिए गीली नहीं होने वाली।<br />
सो जाओ कि प्रेम एक घिसा-पिटा, दोहराए जाने को मज़बूर शब्द भर है।<br />
सो जाओ कि गीली लकड़ी की तरह निरर्थक जलावन है प्रेम,<br />
निहायत दुख के वक्त सिर्फ घुटन भरा धुआं पैदा करेगा।<br />
सो जाओ कि एक और उदास दिन तुम्हारी प्रतीक्षा में है।<br />
एक सुबह, जिसमें मशीन की तरह काम और निष्फल इच्छाएं तुम्हारा रास्ता ताकती होंगी।<br />
सो जाओ कि किसी और को न सही, तुम्हें खुद से एक झीना-सा लगाव तो है।<br />
तुम अब भी प्रेम करते हो न उस लड़के को,<br />
जो प्रेम करते वक्त रोता था, हंसता था, खिलखिलाता था और नंगे पैरों चूमता था हरी-हरी घास को।<br />
सो जाओ कि कुछ और कविताएं लिखना।<br />
उन्हें पढ़कर कुछ लोग रोएंगे। टूटेंगे...। कोई-कोई सिर भी धुनेगा, फिर कुछ तो राहत मिलेगी तुम्हें और उन्हें।<br />
सो जाओ कि निराशा से लबालब इस काव्य के बाद,<br />
सकारात्मक जीवन के लिए कुछ भाषण तुम्हें तैयार करने होंगे।<br />
सो जाओ, कि अब तुम प्रेम में होते हुए भी, प्रेम में नहीं हो।<br />
सो जाओ, क्योंकि खुदकुशियों से भी कुछ भला नहीं होता।<br />
सो जाओ, क्योंकि ज्यादा जागने और बहुत रोने से,<br />
दिन भर आंख रहेगी लाल।<br />
करीब चालीस की उम्र में, लोग कहते हैं, उदास दिखना, उदास होने से ज्यादा खराब समझा जाता है।<br />
<b><br />
</b><br />
<b>एक और कविता</b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://3.bp.blogspot.com/-4TYLw5xc5Wo/TyYNc0qQ4hI/AAAAAAAABJU/B35dYz3l77Y/s1600/spring+wallpapers+hd-1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="http://3.bp.blogspot.com/-4TYLw5xc5Wo/TyYNc0qQ4hI/AAAAAAAABJU/B35dYz3l77Y/s400/spring+wallpapers+hd-1.jpg" width="400" /></a></div>एक दोस्त ने पूछा...कल रात, <br />
तुम्हें, आखिर नींद क्यों नहीं आती...<br />
जागते रहते हो उल्लुओं की तरह...<br />
सो क्यों नहीं जाते...<br />
मैं क्या कहता,<br />
फिर एक बार ओढ़ ली, शब्दों की चादर.<br />
कहने लगा...<br />
वसंत ने आज ही द्वार खटखटाया है<br />
रात ने ब्रश किए हैं शायद<br />
<span class="text_exposed_show"> हवा ठंडी है कुछ ज्यादा ही<br />
चांद भी आंख-मुंह धोकर आया है<br />
चांदनी मतवाली-सी फिर रही है...<br />
पत्तियां नए कपड़े पहनकर इतराती हुईं।<br />
फूल और महकते,<br />
परिंदे और चहकते हुए<br />
सब पूछते- तुम उदास क्यों हो?<br />
मैंने भी घर की सब खिड़कियां खुली छोड़ी हैं...<br />
शायद, हवा, खुशबू और चांदनी के साथ वसंत भी आकर ठहर जाए<br />
पुराने अखबार पर जमी धूल खिसकाकर, जमके बैठे जाए।<br />
मुझे सोता देखकर लौट गया फिर... फिर क्या करूंगा...?</span></div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-23986923120774988192012-01-25T20:40:00.000+14:002012-01-25T20:40:33.151+14:00बहुत मेले देखे, लेकिन ये मेला कुछ खास है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> <a href="" name="poll"></a> <div> <div class="graybox" style="margin-bottom: 10px; margin: 10px 10px 0px 0px; width: 268px;"> </div></div><span class="introTxt" id="print_div" style="text-align: justify;"><b><a href="http://www.bhaskar.com/article/ABH-seen-very-fair-but-fair-is-something-special-2782568.html" target="_blank">दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख</a> </b></span><br />
<br />
<span class="introTxt" id="print_div" style="text-align: justify;"><b>भास्कर ब्लॉग. .</b>अदाएं दिखा रही है जालिम सर्दी। कभी कहर बरपाती है तो अगले ही पल गुलाबी हो जाती है। हम भी कभी ठिठुरते, कहीं सूरज की गुनगुनाहट के संग संवरते हुए, मेले में जाने को तैयार हो रहे हैं। आज जयपुर में साहित्य के मेले का आखिरी दिन है..।<br />
<br />
और दिमाग की सिल्वर स्क्रीन पर बीते वक्त की यादों की रील चलने लगी है। कैसे-कैसे तो होते थे बचपन के मेले। डरते-डरते हुए भी, चिल्ला-चिल्लाकर हवाई झूले की सैर। टॉकीज और आर्केस्ट्रा में घुसने का रोमांच, जादूगर के हैरतअंगेज करतब। नींबू, धनिया, पुदीना, टमाटर से सजा चना मसाला खाना, गुब्बारों पे निशाना लगाना, गोलगप्पे का जायका, धार्मिक गीत, आरती, चालीसा और फिल्मी गानों की किताबें खरीदना, बीच-बीच में खूब शोर-शराबा और फिर एकाएक किसी बच्चे का गुम हो जाना..!<br />
<br />
कभी सोचा नहीं था कि लिखने-पढ़ने-कहानी-किताबों-कविता का भी मेला लगेगा। जयपुर में लगता है हर साल। दुनिया भर से लिखने-पढ़ने वाले आते हैं और उनकी फैन-फॉलोइंग जुटती है। इस साल मेले के चार दिन बीत चुके हैं। देश-दुनिया के हजारों लोगों की भीड़ डिग्गी पैलेस का रुख कर चुकी है। बाहर चाय सात रुपए में बिक रही है और अंदर के तो भाव ही न पूछिए। लंदन से आईं कैरिना कुल्हड़ की चाय पीने के लिए पंद्रह मिनट तक जद्दोजहद करती हैं, लेकिन जैसे ही ओप्रा विन्फ्रे मंच पर आती हैं, वे सब भूल-भालकर कुल्हड़ और ब्रोशर संभालतीं स्टेज की तरफ बढ़ चलती हैं।<br />
<br />
कल की ही तो बात है। शानदार हवेली जैसे होटल डिग्गी पैलेस में दीवारें गुलाबी रंग से रंगी थीं। संतरी-लाल, पीली-हरी झालरों से आसमान ढंका था। हर तरफ बड़े-बड़े कैमरे घूर रहे थे, लेकिन फ्रंट लॉन के बाहर, झरोखे में बैठी एक गोरी-चिट्टी अंगरेज लड़की एक किताब पढ़ने में ऐसी मशगूल थी, ज्यूं ध्यान लगा रही हो। उसे देखते ही जैसे कानों में गूंजने लगा — एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा.. ए लो, तभी बगल से इस गीत के गीतकार जावेद अख्तर निकल लिए।<br />
<br />
गुलजार की झलक भर ही मिली। भीड़ उन्हें छू लेने को बेताब थी, पर शेखर कपूर, दीप्ति नवल, अशोक चक्रधर और अशोक वाजपेयी बगल की कुर्सियों पर बैठे थे। अपनी मशहूरियत, ऊंचे कद के बोध से एकदम अलग। खुशी तब भी होती है, जब आप देखते हैं, दरबार हॉल में घुसने के लिए जितनी मशक्कत आपको करनी पड़ रही है, केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल भी उतनी ही कोशिश में जुटे हैं। अगर आप सिब्बल से पहले अंदर घुस गए तो ‘हुर्रा’ करेंगे ही।<br />
<br />
साल-दर-साल लिटरेचर फेस्टिवल में भीड़ बढ़ रही है। कहने वाले कहते हैं, लिटरेचर मिसिंग है, बस फेस्टिवल बचा है, लेकिन ये महज बातें हैं। क्या खुशी की बात ये नहीं है कि जिस साहित्य को लेकर दैन्यता, मुफलिसी की बातें होती हैं, उसके आकर्षण में सारी दुनिया की सेलिब्रिटीज खिंची चली आती हैं। हम भारतीय स्वभाव से ही उत्सव प्रेमी होते हैं, सो अक्षरों के उत्सव में भी शामिल हो रहे हैं, जोर-शोर से। आदतन खाते-पीते-बतियाते, तारीफें कर रहे हैं और जरूरत के हिसाब से आलोचना भी।<br />
<br />
वैसे, मुझे तो जेएलएफ में शामिल होकर बचपन में सुनी, कवि कैलाश गौतम की कविता अमौसा का मेला की ये पंक्तियां याद हो आईं - एही में चंपा-चमेली भेंटइली/बचपन के दुनो सहेली भेंटइली/ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें/दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें..<br />
<br />
शादी के दस साल बाद कहीं मिली सहेलियां जैसे बतिया रही हों, वैसे ही मेले में कितने ही पुराने परिचित मिले और गपियाने लगे। आए तो थे सब के सब किताबों की महक को दिमाग में बसा लेने, लेकिन जब मिले तो सारे काम भूलकर एक-दूसरे को खुद में समेटने लगे। ऐसे में कहें तो बड़े काम की चीज है ये मेला.. विचारों का मेला और यारों का मेला।</span> <br />
<div align="left"> </div><div class="cb10"> </div><div class="cb10"> </div></div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-30682532130234559612012-01-18T20:18:00.000+14:002012-01-18T20:18:33.445+14:00सपनों को यादों की गुल्लक से निकालें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://1.bp.blogspot.com/-T7fzxryUBEM/TxZjxPLjjBI/AAAAAAAABIw/s_HWRnsm4dc/s1600/painting_for_blog1_f.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://1.bp.blogspot.com/-T7fzxryUBEM/TxZjxPLjjBI/AAAAAAAABIw/s_HWRnsm4dc/s1600/painting_for_blog1_f.jpg" /></a></div><b>दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख--<a href="http://www.blogger.com/goog_1625906521">भास्कर ब्लॉग...</a></b><a href="http://www.bhaskar.com/article/ABH-remove-from-dreams-memories-of-the-piggy-bank-2741993.html" target="_blank"><br />
</a><b>- चण्डीदत्त शुक्ल</b><br />
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<b>सोंधी महक से सराबोर </b>जाड़े की सुबहों में कंबल से हाथ बाहर निकालने की हिम्मत नहीं पड़ती। कोहरे का झुरमुट जैसे लपककर मुट्ठी में हथेली जकड़ लेता है। उसकी गर्मजोशी के बावज़ूद ठिठुरा मन-तन लिए हम फिर छुपने के रास्ते तलाशने लगते हैं। हां, सूरज के चेहरे पर ज्यूं गुनगुनी धूप थिरकती है, उसी पल यादों के कई दरीचे ख्यालों में खुल जाते हैं।<br />
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<b>यादें हैं भी क्या.. गुजरे वक्त की मासूम-सी गवाही। </b>मौसमों का असर मन पर इस कदर होता है कि याद-कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। कुछ बीते हुए लम्हे अलग-अलग मौसमों की दास्तान बयां करते हैं। कभी कोई धड़कन कानों में आकर गुनगुनाती है - क्यों, जीभ पर तैरने लगा न पहली बार चबाए गए भुट्टे का स्वाद और फिर उभरता है अफसोस..। हाय! भुट्टे, तुम पॉपकॉर्न क्योंकर हुए? इस सोच से उबर भी न पाए कि ‘छपाक’ कर स्मृतियों की बौछार नहला जाती है और रूबरू करा देती है उस नजारे से, जब हम सारा लोक व्यवहार भूल, मर्यादा का बंधन तोड़के, जमकर भीगे थे, पहली बारिश में।<br />
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<b>और महज मौसम ही क्यों..</b> कुछ पुरानी, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें, चंद जर्द पड़ी चिट्ठियां और कई सूखे हुए गुलाब भी तो याद दिला देते हैं बीते हुए जमाने की।<br />
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<b>जमाना, जब जिम्मेदारियों से ज्यादा जोर </b>मस्तानेपन का था। भाग-दौड़ तब भी होती थी, लेकिन लोकल ट्रेन, बस या ऑटो पकड़ने के लिए नहीं। टारगेट तब भी होता था, लेकिन कारोबार का नहीं - हर दौड़धूप, हर लक्ष्य के पीछे वजह बस एक थी - आज का दिन मस्ती में जी लें। कल की कल देखेंगे।<br />
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<b>ख्वाबों की दुनिया भी </b>कितनी सतरंगी होती है। आंखों के कैनवास पर इंद्रधनुषी रंग कभी धुंधले ही नहीं होते। वक्त गुजरता गया। आप, हम और हमारे संगी-साथी, सब के सब ‘जिम्मेदार’ हुए और भूल गए पहली-पहली बारिश में नहाने का, दिन भर बिना काम के भटकने का सुख, यानी खुद के लिए जीने के मायने।<br />
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<b>वक्त नहीं थमता, लेकिन कभी तो कुछ </b>होता है, जो सब कुछ याद दिला देता है। चंद रोज पहले की ही बात है। जयपुर के जवाहर कला केंद्र में युवा कलाकार निधि सक्सेना की पेंटिंग एक्जीबिशन देखने गया था, एक तस्वीर पर नजर ठहर गई। यादों के आसमान और चाहतों के समंदर का नीला रंग। चिड़ियाएं चांद को साथ ले जाने को मचल रही हैं। एक लड़की कैमरे के पीछे खड़ी उनकी चलती-फिरती तस्वीरें कैद करने में लगी है।<br />
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<b>कई डॉक्यूमेंटरी फिल्में बना </b>चुकी निधि के लिए अपने सपनों को संजोए रखने का जरिया चित्रकारी है। उनके कैनवास पर चिड़िया है, सिनेमा है, चाहत है, सपने हैं.. लेकिन ये तस्वीर देखकर मैं ठिठक गया, सोचने को मजबूर — हमारे पास क्या है?<br />
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<b>बीता वक्त तो है नहीं, </b>यादों को सीलन लग रही है। अब खुलकर झूमने, बेइरादा कहीं चल देने के मौके और शगल नहीं हैं..। फिर करें क्या, कैसे लौटाएं बीते वक्त को? क्यों न हम भी चिड़िया बनकर चांद को साथ ले जाने की कोशिश करें। खयाल कुछ ज्यादा पोएटिक हो गया शायद, सो इसका मुकम्मल बयान कुछ यूं कर लेते हैं - आओ, चलो, सपनों को यादों की गुल्लक से बाहर निकालें। अपने लिए भी कुछ देर जी लें। कुछ अच्छा करें, कुछ सुंदर सुनें, चंद अच्छे लोगों से दोस्तियां करें। खुशी के बहाने तलाशें। आप कहेंगे - न! मुस्कराने की बात करते हो/किस जमाने की बात करते हो..? माना साहब, मुश्किल है खुशी के चांद को साथ ला पाना, लेकिन छोटी-छोटी कोशिशें करके हम खुश रह सकते हैं। तो करेंगे न आप कोशिश..?</div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7793152972586917066.post-70384101679265852152012-01-10T21:02:00.000+14:002012-01-10T21:02:39.900+14:00क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://4.bp.blogspot.com/-Q4Ybc9F0yB0/TwviUwzphJI/AAAAAAAABHo/aTsSWCHX-qI/s1600/Sad_Evening_1152x864.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="250" src="http://4.bp.blogspot.com/-Q4Ybc9F0yB0/TwviUwzphJI/AAAAAAAABHo/aTsSWCHX-qI/s400/Sad_Evening_1152x864.jpg" width="400" /></a></div><br />
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<b> - चण्डीदत्त शुक्ल</b>@08824696345<br />
तुम्हारा दोस्त दुखी है...<br />
उससे न पूछना, उसकी कातरता की वज़ह,<br />
दुख की गंध सूखी हुई आंख में पड़ी लाल लकीरों में होती है।<br />
ये सवाल न करना, तुम क्यों रोए?<br />
कोई, कभी, ठीक-ठीक नहीं बता सकता अपनी पीड़ा का कारण।<br />
कहानियों के ब्योरों में नहीं बयान होते हताशा के अध्याय,<br />
न ही दिल के जख्मों को बार-बार, ताज़ा चमड़ी उधेड़कर दिखाना मुमकिन होता है साथी।<br />
कोई कैसे बताएगा कि वह क्यों रोया?<br />
इतना ही क्यों, इस बार ही क्यों, इतनी छोटी-सी वज़ह पर?<br />
ऐसे सवाल उसे चुभते हैं।<br />
रो भी न पड़ना उसे हताश देखकर,<br />
वह घिर जाएगा ग्लानि में और उम्र भर के लिए।<br />
नैराश्य होगा ही उसकी ज़ुबान पर और लड़खड़ा जाएगी जीभ,<br />
बहुत उदास और अधीर होगा, अगर उसे सुनानी पड़ी अपनी पीड़ा की कथा।<br />
तब भी यकीन करो, शब्दों में नहीं बांध पाएगा वह अपनी कमज़ोरी।<br />
हो सके तो उसे छूना भी नहीं।<br />
तुम्हारी निगाह में एक भरोसे का भाव है उसका सबसे कारगर मरहम,<br />
उसमें बस लिखा रहे ये कहना – तुम अकेले नहीं हो।<br />
उसकी भीगी पलकों को सूखने का वक्त देना<br />
और ये कभी संभव नहीं होगा, उसे यह समझाते हुए –<br />
गलतियां ये की थीं, इसलिए ऐसा हुआ!<br />
हर दुखी आदमी मन में बांचता है अपने अपराध।<br />
वह जड़ नहीं होता, नहीं तो रोया ही न होता।<br />
दुख नए फैशन का छींटदार बुशर्ट नहीं है कि वह बता सके उसे ओढ़ने की वज़ह,<br />
कोई मौसम भी नहीं आता रुला देने में जो हो कारगर।<br />
हर बार आंख भी नहीं भीग जाती दुख में।<br />
जब कोई खिलखिलाता हुआ चुप हो जाए यकायक,<br />
तब समझना, कहीं गहरे तक गड़ी है एक कील,<br />
जिसे छूने से भी चटख जाएंगी दिल की नसें।<br />
उसके चेहरे पर पीड़ा दिखनी भी जरूरी नहीं है।<br />
एक आहत चुप्पी, रुदन और क्षोभ की त्रासदी की गवाही है।<br />
उसे समझना और मौजूद रहना,<br />
बिना कुछ कहे,<br />
क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती।<br />
</div>चण्डीदत्त शुक्ल-8824696345http://www.blogger.com/profile/07464479436953603553noreply@blogger.com6