कभी गुल थे हम, चमन भी खुद / खुद हौसले की ज़ुबान थे / वही बुत बने पत्थर हुए /
तुम ही बताओ क्यों आज, अपने से लगते नहीं, जो कभी दिल के इतने क़रीब थे
तेरी दीद की है आरज़ू / बस सुस्त सी खुद से गुफ्तगू / न उम्मीद के चराग़ हैं / न मोहब्बतों के दीए जले / हम सुस्त-सुस्त से बैठे हैं / बस आह की हैं रवायतें / अब ढल गए तारे सभी / जिन्हें छूने की थीं कभी कोशिशें
यूं ही वक़्त पे हम रो रहे / जैसे दीया बन के जल रहे / जो हालात खुद पैदा किए / उन्हें दफ्न होने तक ढो रहे
यूं आह में ग़ुम हुई चाह है / भटकी जैसे ज़िंदगी की राह है / जो साथ तुम थे रोशनी थी / अब हर पल लगे जैसे स्याह है
राहे जुनून में यूं भटकन है / ये हमको कहां मालूम था / शौक-ए-मोहब्बत की चाह का / ये हस्र कहां मालूम था
बहुत बढिया ...
ReplyDeleteBahut khub...!!
ReplyDeleteनव संवत्सर २०६६ विक्रमी और नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनायें
खूबसूरत शेर सब के सब
ReplyDeleteachi rachna hai
ReplyDeleteWah.. behtreen...
ReplyDeleteइस रौशनी को फिर से चुरा लो
ReplyDeleteन रहो स्याह, पलों को रंगीन बना लो
achha tha waise bhi aapki baatein kaafi gehri hoti hain naa chandi jeeeee
ReplyDeleteAapka blog kaafi khoobsurat hai aapke man ki tarah hi..............
ReplyDeleteअब आप पत्रकार से साहित्यकार हो गएँ हैं
ReplyDeleteआपकी रचनायें बेमिशाल हैं
kaafi crative hain aap sir jee. badhayi
ReplyDeleteउम्दा. शुक्रिया.
ReplyDeleteजारी रहें.
lage raheye..sher dher v ho jaye to v sher hi rahta hai...
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