Friday, October 16, 2009

कुछ और बातें


विडंबना
टपकती है जब आंख
नम होती है ज़मीन मन की
बोना चाहता हूं उल्लास के बीज
पर फिर यूं सुलगती हैं नसे
खोदने लगता हूं वासना की खाई

कलाई
आज फिर उड़ी पतंग
और डोर मेरे हाथ में नहीं
उलाहना क्या दूं
मैं ही कहां थाम सका
तुम्हारी कलाई

निगरानी
हां, फिर आया मैं पीछे-पीछे
क़दमों के निशान और धड़कने गिनते हुए
कितना बुरा होता है
प्रेमी का वाच डॉग में तब्दील हो जाना

बंजर
ज़हर की तासीर भी कम हो गई
हलक से उतरा पर काम ना आया
जैसे मेरा प्यार
स्वार्थ की ज़मीन थी, तो वासना की फसल उगी
अफ़सोस कैसा, जो लगाव के फूल नहीं खिले

इंतज़ार
अब तक हूं प्रतीक्षा में
पर मौसम की तरह
बदलती जा रही हैं घड़ी की सुइयां
और लंबा होता जा रहा है पतझड़

आह
अक्सर ख्वाब देखे हैं मैंने
और पाया है
लाल हो गई है तुम्हारी पुतली
जैसे
दर्द मुझको हो
और आह उठे तुम्हारे सीने में

जवाब

कहां हो तुम
और कब तक?
कुछ सवालों की नियति है
अनुत्तरित रहना


यूं मिलो

कितना वक्त गुज़र गया है हंसे हुए
अब तो घोल दो
प्रेम की लस्सी
चुंबन की चीनी
और आलिंगन का दही
फेंट दो, मिल जाएं, हो जाएं एकसार
जैसे मिले हैं हमारे दिल
हंसो कि मैं भी हंसना चाहता हूं!

8 comments:

  1. मै तो भींग गया..शुक्ल जी..पिछले दिनों थोड़ा सा प्यार मिला था कहीं...उसकी याद फिर हो आई...

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  2. Chatt Ke Paar Jo Atak Jaati Kahin Door, Ham Samjh Lete thaam Liye Tumne Isko...

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  3. कहां हो तुम
    और कब तक?
    कुछ सवालों की नियति है
    अनुत्तरित रहना


    --आह्ह!! क्या जबरदस्त क्षणिकाएँ हैं..एक पूरा का पूरा ग्रंथ समाया है हर क्षणिका में. वाह! बधाई.

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  4. क्या कहूं एक एक पंक्ति पर मुग्ध हूँ । भाव में उतरती और डूबती रचना मन को आनंदित कर गयी । आभार

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  5. आपको पढना एक अजीब सी बारिश में भीगना सा है....

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  6. aapke likhe me ajib si baat hoti hai , mushkil se blog pe aa pata hun magar aapko padh ke meri ungaliyaa thahar jaati hai aakhir kya baat hai aapke lekhani me batawoge nahi aap??


    dhero badhaayee diwaali ki bhi

    arsh

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  7. बहुत बारिक लिख गए दादा, विंडबना को सहते, कलाई को पकड़ते, खुद की निगरानी में समय बिताते इस बंजर मन को इंतजार रहेगा आह भरने का। आपकी कविता में ही जवाब मिल गया- यूं मिलों कि कितना वक्त गुजर गया।

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