हर बार उभर आते हैं
मेरे चेहरे पर
तुम्हारे प्रेम के निशान
तब
जब हम मिलते हैं
सूरज मुस्कराता है
और, और तेज़ बहने लगती है नदी
फर्राटा भर-भर हांफ उठती है
धरती
पर
ये उन्माद नही
ये सब करते हैं
व्यंग्य
हम पर
हम भी
लगातार निचोड़ते रहे
अपने-अपने हिस्से का प्यार
सोचा
सुखा देंगे सब
देखो
विधि भी प्रतिकूल है
और हमारा समय भी
हम खुद हैं
अपने प्रेम के विरुद्ध
पर अफ़सोस…
माफ़ी के साथ कह रहा हूं
सारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
कितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जब, तब
जैसे-तैसे
आकर धर दबोचता है
हमारी घृणा को
और भरने लगता है
कंठ तक लबालब
चाहत-संगीत
सारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
ReplyDeleteकितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जिद्दी ना हो फिर वो प्रेम ही क्या.....बड़ी सच्चाई से अभिव्यक्त किया है,प्रेम को...सुन्दर कविता.
ise kahate hain atma kee kavita vah
ReplyDeleteआपकी रचना बहुत सुन्दर है!
ReplyDeleteयह चर्चा मंच में भी चर्चित है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_5547.html
माफ़ी के साथ कह रहा हूं
ReplyDeleteसारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
कितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जब, तब
जैसे-तैसे
आकर धर दबोचता है
हमारी घृणा को
और भरने लगता है
कंठ तक लबालब
चाहत-संगीत
well said...as always....
बहुत खूब,
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
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