Wednesday, June 2, 2010

छलना...कब तक छलती रहोगी तुम...


छलना!
मुझको छलती रही है तू
सदियों से
माना जिसको
सदैव समर्पित हुआ
ठीक उसी से, बता...
अरे! मैं क्यों तिरस्कृत हुआ...?
तिल-तिल, घुट-घुटकर
जिसका दु:ख अब तक अपना समझा...
माना अपना
नहीं परायाबोध रहा जिसको लेकर
उसने सारे भाव दरश, समझा
संज्ञा दी--नाटकीयता की...
क्यों होता है ऐसा?
जान नहीं पाया हूं अब तक.
हूं असामाजिक क्यूं इस जग में?
दुर्गम में या सुंदर मग में...
या फिर किसी बंद कमरे तक
जहां कहीं भी रहा अस्तित्व मेरा...
मेरा! अपना! अपनेपन!! का...
झूठा नेह नहीं बिखेरा मैंने...
फिर भी तिरस्कृत होता हूं...
क्यों होता है ऐसा...
जान नहीं पाया हूं अब तक!

गोंडा, 1997 की कोई रात

5 comments:

  1. गंभीर रचना ,विचारणीय प्रस्तुती....

    ReplyDelete
  2. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बहुत सुन्दर रचना है। बधाई।

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन अभिव्यक्ति!

    ReplyDelete
  4. अंतर्द्वंद की अच्छी प्रस्तुति

    ReplyDelete