आज हूं मैं हिंस्र
आक्रामक...उत्तेजित
किसी आदमखोर पशु सा उन्मत्त!
ढूंढ रहा हूं घड़ी के आविष्कारक को...
मिल जाए / तो / तोड़ दूं उसका सर...
जब तुम अपने हाथ पर बंधी कलाई घड़ी देखते हो
मन करता है
जला दूं संसार की सारी घड़ियों को
जिन्होंने बांध रखी है विवशता समय की,
काश!
जब तुम मिलो-
रुक जाए ये संसार
मैं पागल-सा
बस सुनूं
तो शांति का संगीत...
या तो तुम
अगली बार मिलना...
हरदोई में
जहां का घंटाघर बंद है,
एक दशक से...
कम से कम
वहां तो ये शत्रु समय पीछा नहीं करता....!
गोंडा, रात के 2.40 बजे, सितंबर, 1997
waah bahut achcha socha..bahut sundar
ReplyDeleteबहुत बढिया!!
ReplyDeleteबहुत प्रभावी.
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