कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, June 15, 2009

बिना साहित्यिक महत्व और ख़ूबसूरती के ये पंक्तियां...


लिखने की लय बिगड़-सी गई है...वैसे भी, जब कलम बेचकर रोटी कमानी पड़े, तो अक्सर ऐसा होता है...बस कूड़े-कचरे की तरह कुछ अवशिष्ट इधर-उधर फिंक जाता है...उसकी ही बानगी...



अश्क आंखों में लिए तलाशते हो मेरे चेहरे पे हंसी की खुशबू...यार इतने संगदिल तो तुम पहले ना थे...
हमको रहने दो इंसान होने की कमज़ोरियों के साथ, देवता बनने के तो हम पहले से काबिल न थे

बहुत संभाला है तुझे फ़िक्र की आंधी से...यूं न ज़र्द हो सूखे पत्तों की तरह/
मुश्किलों का दौर बहुत छोटा है / बाकी मौसम की तरह ये भी गुज़र जाएगा


यूं ज़िंदगी की लय बिगड़ गई, क्यों हैं ऐसी उलझनें / न हों चाहतों की राह में अड़चनें, अभी सफ़र में हैं बड़ी मुश्किलें /
जो हर मोड़ पे तेरा साथ है, अपनी सांस भी आबाद है / अब प्यार ही बस प्यार हो / आजा सनम हम गले मिलें

तुम न बिखरा करो यूं तिनकों की तरह...मैं भी अंदर से उधड़ जाऊंगा
हरदम चाहा है तुम्हें समंदर की माफ़िक, मैं भी कतरों में मिल जाऊंगा


वो सितारों की जुस्तजू में थे, कांटों से छिल गए जिनके पांव हैं..

पहली बार ही कुछ ऐसा हुआ सेंध में धरे गए हम, उधर रहजनों की कुर्सियों पर मखमल जड़े जा रहे हैं..