एक बार फिर चौराहा के पाठकों, सहयोगियों के लिए पुराना माल पर नई बोतल में हाज़िर है...ये एक डॉक्यूमेंट्री के लिए बहुत साल पहले लिखी गई एक स्क्रिप्ट है लेकिन नए कंटेंट और तथ्य जरूर शामिल किए गए हैं...आपकी अदालत में, आपकी प्रतिक्रियाएं जानने के लिए। एक वैधानिक सूचना जरूर...बहुत पहले ही ये स्क्रिप्ट रजिस्टर्ड है, इसलिए इसकी कॉपी-पेस्ट या किसी भी तरह का प्रयोग बिना पूर्व अनुमति के प्रतिबंधित है...
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पूर्वोत्तर की परवाज
Ext / sunrise / आकाश में गोल घूमता परिंदों का झुंड, बांसुरी और जलतरंग
नील गगन के सीने पर अठखेलियां करते मतवाले पंछी जब भरते हैं उड़ान, तो उन्हें कोई सरहद नहीं रोक पाती. एक देश से दूसरे देश वे भरते हैं परवाज और लोग मंत्रमुग्ध हो उन्हें देखते रह जाते हैं.
Cu / आकाश में देखता कोई लड़का / bansuri
काश...पंख होते तो हम भी उड़ पाते. यूं तो, पंछी परदेसी नहीं होते, लेकिन परदेस से भारत का रुख जरूर करते हैं.
पूर्वोत्तर की वादियों का Low angle shot / jaltarang
भारत में भी खासतौर पर पूर्वोत्तर का. पूर्वोत्तर में बहुत ज्यादा एंडेमिक स्पीसेज पाए जाते हैं, बल्कि दुनिया में सबसे ज्यादा यहीं.
Ext / shot of activities in nest / sehnaee
एडेमिक स्पीसेज, यानी ऐसे परिंदे, जो जन्मते यही हैं, दम बाकी रहने तक रहते भी यहीं हैं. यही वजह है कि परदेस से आए पंछी तो यहां जमा होते हैं पर पूर्वोत्तर के परिंदे कहीं का रुख नहीं करते. यहीं पर तो दो साल पहले पंछियों की दो नई प्रजातियों का पता चला है. पक्षी विज्ञानी मानते हैं कि पूर्वोत्तर में अब भी कई अनजाने, अजनबी परिंदे छिपे--राह भटके होंगे, जिन्हें पक्षिविज्ञान की किताबों में फिलहाल तक दर्ज नहीं किया जा सका है.
दूरबीन से देखता कोई बर्ड वाचर
शेष देश की तुलना करें, तो पूर्वोत्तर में पंछी निहारन वाले यानी बर्ड वाचर्स बहुत ज्यादा नहीं आते.
Camera track in वादियां, जंगल, वाटर बॉडीज
ये भारत का ऐसा इलाका है, जहां दुर्लभ परिंदे मिल जाते हैं मोड़-मोड़ पर, डगर-डगर पर. वाइड विंग्ड डक, बेंगाल फ्लोरिकन, डार्क रम्प्ड स्विफ्ट और मार्स बेबलर से मुलाकात करनी हो, तो पूर्वोत्तर को ही मुकाम बना लें. तरह-तरह के परिंदे इन इलाकों में रचे-बसे रहते हैं, तो इसकी वजह है . पूर्वोत्तर इन चिड़ियों का चंबा है. यहां की फिज़ाओं में रोमांच है, घर का घरेलूपन है और हैं उनके ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी हर चीज, जो कुदरत ने उन्हें बख्शी है.
Low angle shot of a rain forest
घने जंगल के दरख्तों की डालियां सूरज को अंदर झांकने भी नहीं देतीं, ऐसे में चिड़े-चिड़ी और उसके बच्चों के लिए इससे अधिक प्राकृतिक वास स्थान और कहां मिले?
Zoom out shot of himalay and birds
हिमालय का पूर्वी किनारा और ब्रह्मपुत्र की कल-कल धारा, नदी की तलछट में है वो सबकुछ, जो जीने के लिए जरूरी है, फिर चिड़िया अपना चंबा छोड़ यहां से कहां और क्यों जाए? पूर्वोत्तर में ही वे सब जगहें हैं, जहां सबसे ज्यादा बारिश होती है. हर दिन भीगा हुआ पर यही वो जगह है, जहां धरती सूरज की किरणों से नहाई भी रहती है, यानी बारिश और धूप का साथ, साथ-साथ. अगर आप परिंदों को निहारने के शौकीन हैं, तो इससे बेहतर जगह सारी दुनिया में शायद ही मिले. हर तरफ फैले पंछियों का कुनबा आपको अपने पास बुला ही लेगा और आप थम जाएंगे उनके नजदीक.
Cu of adjujent and various shot of adjujant
एक तरह के सारस एड्ज्युटेंट को भी एकदम क़रीब से देखना हो, तो ये दुनिया की सबसे अच्छी जगह है.
Milestones to kaaziranga, welcome board of kaaziranga and track in kaaziranga
गोहाटी में दो राष्ट्रीय अभयारण्य हैं-काजीरंगा और मनास. राजधानी गोहाटी से २१७ किलोमीटर दूर असम का सबसे पुराना अभयारण्य काजीरंगा ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी किनारे 430 स्क्वायर किलोमीटर इलाके में बना है. यहां मिलने वाले गैंडों के लिए काजीरंगा मशहूर है, जो बड़ी-बड़ी हाथीघास के बीच मस्त होकर घूमते हैं.लेकिन इन जंतुओं के बीच, जगह बना इनके साथ कुछ परिंदे भी रहते हैं. ये कहते हैं, हमें भी देखिए, बहुत छोटे हैं हम, आसानी से दिखते भी नहीं, लेकिन ३५० प्रकार के हैं और रंग तो करोड़ों हैं हमारे.
पंछियों के पीछे दौड़ते-भागते, कुलेल करते जानवर...एक-दूसरे के साथ दिल-लगी का इससे खूबसूरत और मौजूं उदाहरण और क्या होगा. वैसे तो, बेंगाल फ्लोरिकन बहुतायत में मिलती हैं पर आसानी से दिखती नहीं. अब आपको उन्हें तलाशना ही है, तो हाथी की सवारी करनी होगी...उनके पीछे-पीछे जाने, उनके मुकाम तलाशने के लिए. कई बार एक बार की हाथी-सवारी से भी काम नहीं चलता. वैसे, ये तरीका और भी कई किस्म के परिंदों से आपकी मुलाकात करा सकता है,
Cam track in grass like searchin some habitate
तरह-तरह के बेबलर. इस तरह लंबी-लंबी घास में छिपी चिड़ियों का परिवार अपना ठिकाना छोड़कर उड़ जाता है, इसलिए हमें दिख जाता है उनका कारवां, नई मंजिल की तरफ रफ्ता-रफ्ता बढ़ते हुए.
Pan on woodland
पूर्वी छोर वुडलैंड से घिरा है, यानी ऐसे जंगल, जिनके दरख्तों में पत्तियां कम और लकड़ियां होती हैं ज्यादा. इस वुडलैंड में दरख्तों की टहनियों पर अपना और बच्चों का पेट भरने के लिए कीड़े ढूंढ़ते कठफोड़वे मिल जाएंगे जगह-जगह.
Mor / ext / In kaaziranga एलिफैंट सफारी पर चढ़ते लोग और घूमते
यूनेस्को ने काजीरंगा को १९८५ में विश्व धरोहर साइट घोषित किया. इससे एक दशक पहले १९७४ में काजीरंगा को वन्यजीव अभयारण्य बनाया गया. इस अंडाकार पार्क में कोई चारदीवारी नहीं है. एक तरफ है ब्रह्मपुत्र का दक्खिनी किनारा तो दूसरी ओर मोरी डिफ्लालू रिवर.कई साल पहले इसे संरक्षित वन बताते हुए यहां शिकार पर रोक लगा दी गई थी. दलदली इलाका, एलिफैंट घास, उष्णस्थल पर गहन वन...हाथियों के लिए ये सबसे मुफीद जगह थी और साथ-साथ परिंदों के लिए भी.
W shot of yuhina, चोंच cut to eye zoom out various activities, smiles view shot of yuhina
काज़ीरंगा में एक दिलचस्प और खूबसूरत चिड़िया यूहीना से आप मिल सकते हैं. ये वही पंछी है, जिसे हम फार्मसन यूहीना के नाम से जानते रहे हैं। छोटी-सी, गीत गुनगुनाने वाली चिड़िया। मूलत: ताईवानी, ये चिड़िया बहुत खूबसूरत है. यूहीना का बदन रंगों से भरपूर है और काली-भूरी छटा इसकी खूबियां बढ़ा देती है। चिड़िया का पिछला हिस्सा और पूंछ आलिव ब्राउन रंगों से सजा है। बाकी यूहीना की तरह ये चिड़िया भी उजली आंखों वाली है, ठीक बैबलर परिवार की सदस्य की तरह.
ये प्रजाति कम घने जंगलों में पाई जाती है. यूहीना काफी फुर्तीले, आकर्षक और थोड़े शर्मीले परिंदे के रूप में सामने आते हैं. इनकी आवाज, इनकी पुकार भी है खासी सुरीली-लगता है, वे त्वी-मी-चिउ कह रहे हों, जिसका मतलब है-वी मीट यू. ताईवान यूहीना को आप कई बार चेरी के पेड़ों से लटके देख सकते हैं पर ज्यादातर समय ये चाइनीज ट्यूलिप के फूलों से लिपटे पाए जाते हैं. बात इनके खानपान की करें, तो जान लीजिए कि इनका भोजन है कीड़-मकोड़े और फूल. इनका प्रजनन समय है मई से जून के बीच.
Cu of legs lift up and full shot of parrot bill
Cu of viewer eyes. Cut to florican
ऐसा ही पंछी है पैरेट बिल. छोटे-छोटे पंछी पर पूंछ बड़ी. झुंड में रहते हैं पैरेट बिल. अधिकतर घास का बीज ही इनका भोजन है, जैसा कि इनके नाम से भी जाहिर है.
यहां आपका साथ देने के लिए हाजिर होगा एक और मस्त परिंदा, बेंगाल फ्लोरिकन. ओटिडेड परिवार के इस सदस्य की धमक आप उत्तर प्रदेश से असम तक महसूस कर सकते हैं. असम में इन जनाब का नाम है--उल्लू मोरा. पुरुष बेंगाल फ्लोरिकन के सिर से गर्दन के बीच काले रंग के बाल होते हैं और पेट के पास भी. परों पर सफेद धब्बे इसकी खूबसूरती पर ग्रहण नहीं लगाते, बल्कि और बढ़ा देते हैं. मादा फ्लोरिकन पुरुष पंछी से बड़ी होती है और उसका रंग धुंधली भूरी आभा लिए हुए. गले के किनारे तथा निचले शरीर में पतली, गाढ़ी लकीर होती है। आमतौर पर बंगाल फ्लोरिकन चुप ही रहते हैं पर कोई इन्हें छेड़ दे, तो धातु टकराने जैसी आवाज के साथ शोर मचा देते हैं.
Cam tracking on grass and flying florican
अधिकतर सुबह-शाम या फिर देर शाम तक दिखाई देने वाले फ्लोरिकन लंबी-लंबी बड़ी-बड़ी घास या फिर छुपी हुई झाड़ियों में रहते हैं.
Track in दलदली इलाका / various shots of adjunct
ऐसा ही एक और परिंदा है--तकरीबन १२२ सेंटीमीटर का लेसर एडजेंट. गाढ़े काले रंग के इस सारस की गर्दन और सिर पर धब्बों के निशान मिलते हैं. कुदरती या इंसान के बनाए दलदली इलाकों में ये सारस बहुतायत में मिल जाएगा. अपने, बच्चों और परिवार के साथ. बड़े दरख्तों पर ये घोंसले बनाते हैं पर रहने के लिए इन्हें दलदल ही भाता है. जंगलों के खत्म होने, पेड़ों की जगह कालोनियां बन जाने की वजह से धीरे-धीरे ये सारस भी हमारा साथ छोड़ रहे हैं और इनकी तादाद लगातार कम हो रही है.
2bird watchers एकसाथ दूरबीन से देखते / various shots pid
अब एक और साथी की बात, ये है ग्रेट पिड. अपनी तरह के पंछियों में सबसे ज्यादा संख्या में भारत में ही मिलते हैं ये साहब.ये एक बड़ी चिड़िया है, जो सौ से एक सौ बीस सेंटीमीटर लंबी है. इसकी पूंछ भी है खासी लंबी, यानी छत्तीस इंच तक.आमतौर पर इनका वजन साढ़े छह पौंड के आसपास होता है.
Shots of keede-makaude
इनका प्रारंभिक भोजन फल ही है.यूं कीड़े-मकोड़े खाकर भी ये पेट की आग बुझा लेते हैं.वैसे, ग्रेट पिड कभी अकेले नहीं घूमते. जब ये चलते हैं, तो दो से चालीस पंछियों का समूह इनके साथ कदम से कदम मिलाता है. सलाम इन्हें, इनके प्यार के लिए भी. ये जो जोड़ा बनाते हैं, उसमें कई साल तक साथ रहता है.
Nest of pid
मादा ग्रेट पिड एक बार में एक से दो अंडे देती है, यानी परिवार नियोजन का खयाल भी.घर बनाते वक्त मादा पेड़ पर ही रहती है और मिट्टी संजोती है, जबकि नर पिड घर बनाने की बाकी सामग्री संजोता है.छह से सात हफ्ते में इनका घर हो जाता है तैयार. अफसोस की बात कि घर बनने के बाद थकान से नर पिड मर जाता है. वैसे, बहुत-से बाकी परिंदों की तरह ग्रेट पिड की संख्या भी लगातार कम होती जा रही है.
इनके रहने की जगहों पर इंसानी नजर पड़ गई. खानपान की दिक्कत भी बढ़ी, सो ग्रेट पिड भी कम होते जा रहे हैं...
Low angle shot of उड़ान भरकर कहीं बैठते हुए ईगल
काजीरंगा में पल्लास फिश ईगल भी अपनी ओर खींच लेता है.बड़ा, भूरा परिंदा, जिसका खानदान कजाकिस्तान और मंगोलिया से लेकर हिमालय और उत्तरी भारत तक फैला है.इसमें दोनों तरह के पंछी शामिल हैं. बाहर से आए हुए और यहां बड़े-बूढ़े हुए भी. सफेद रंग से सजा चेहरा, हल्का भूरा शरीर और बगलें गाढ़ी भूरी.पूंछ का रंग ज़ुदा...यानी काला. आमतौर पर इनकी लंबाई ७२ से ८४ सेमी के आसपास है.
मछलियों के shots
साफ पानी की मछलियां खाकर चटखारे मारते किसी परिंदे को देखें, तो हो सकता है कि वो पल्लास फिश ईगल ही हो.
नाव पर बड़े-बड़े बैगों के साथ आते हैं सैलानी
मस्त-मस्त सर्द मौसम से गरमी की अगुवाई के महीनों, यानी नवंबर से अप्रैल के बीच काज़ीरंगा आने का सबसे मुफीद समय है. वैसे भी, अप्रैल मध्य से अक्टूबर मध्य तक अभयारण्य बंद कर दिया जाता है. बारिश के मौसम में ब्रह्मपुत्र अपने किनारे छोड़ उफन पड़ती है. घास-फूस, खानपान सबकुछ बाढ़ के हवाले हो जाते हैं और पशु-पंछी अपना आशियां छोड़कर चले जाते हैं छह महीने की छुट्टी मनाने.
Ext / mor / Focus on Migratory birds / jaltarang
ओरिएंटल हनी, बज़ार्ड, ब्लैक शोल्डर्ड काइट, ब्लैक काइट, ब्राह्मणी काइट, ईगल, ग्रे-हेडेड फिशिंग ईगल, हूलॉक गिज्बॉन, इबिस, हेरोन, हिमालयन ग्रेफान...ये कुछ परदेसी पंछी हैं, जो अपना जाड़ा हिंदुस्तान में ही बिताते हैं। हां, कई यहीं बहुत अरसे तक भी रह जाते हैं। कई साइबेरियन क्रेन आती तो समूह में हैं पर उन्हें चोट लग जाए या फिर वे बीमार हो जाएं, तो रुककर सुस्ताने भी लगती हैं। कई दफा ऐसा भी होता है कि पंछी आया तो हौसले के साथ पर इतना वक्त बीत गया कि वो लौटने की हि मत नहीं जुटा सका.
गांव में सैलानियों के गीत गाते अलग-अलग शॉट्स
गोहाटी से सड़क मार्ग के जरिए काजीरंगा आया जा सकता है, चाहें तो ब्रह्मपुत्रा की लहरों से अठखेलियां करते नइया और खेवइया का सहारा लेते, `हो मेरे मांझी...´ गुनगुनाते हुए भी तय किया जा सकता है अभयारण्य तक सफर. कुदरत की इस सौगात का मु य द्वार असम पर स्थित कोहोरा में है. यहां के लिए गोहाटी, जोरहाट, तेजपुर और ऊपरी असम से हर दिन बसें चलती हैं. रेल से आना हो, तो निकटवर्ती स्टेशन 75 किलोमीटर दूर है, नाम है-- फुर्केटिंग. और अगर हवाई जहाज से पानी हो मंजिल, तो गोहाटी तक आ सकते हैं. अभयारण्य से 97 किलोमीटर दूर नजदीकी हवाई अड्डे जोरहाट तक भी आया जा सकता है।
रेस्ट हाउस में आते सैलानी
अभयारण्य के एकदम पास बड़े होटल नहीं हैं। यहां ठहरना हो, तो जंगलात महकमे या पर्यटन निगम के रेस्ट हाउस ही मिल सकेंगे. वैसे, वाइल्ड ग्रास लॉज, बोनहाबी रेजॉर्ट, लैंडमार्क वुड्स,लोरा रेजॉर्ट,अरण्या रिजॉर्ट, काजीरंगा रिजॉर्ट तथा कालीबॉर रिजॉर्ट में भी आप रुक सकते हैं.
हाथी सफारी पर घूमते सैलानी / pan to Arial view of kaaziranga
आमतौर पर गैंडों व हाथियों के लिए मशहूर काजीरंगा पार्क में कभी छिपे,कई बार फुदकते और बहुत दफा सामने आकर मन मोह लेते इन परिंदों की सूची लंबी है और इनसे मिलने का सुख भी मस्ती से सराबोर कर देता है. मन में गूंज सी उठती है...काश, पंख होते हमारे भी, तो हम हर सरहद को तोड़कर नील गगन में उड़ते. कोई बात नहीं...नहीं हैं पंख पर पंछी तो हैं हमारे पास...जो जब आते हैं खुशियां लाते हैं...आइए, हम भी खुशियों के इस डाकिए को प्यार करें, उसे संजोए रखें, संभाले रहें.
कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द
मुसाफ़िर...
Friday, November 21, 2008
Monday, November 10, 2008
नमकीन फिल्में
नमक
मुंह में भर देता है नमकीन स्वाद
और हाथों में?
फालतू बात नहीं है यह
नमक बनाने वाले हाथों में हो जायें ज़ख्म
तो फिर?, जलेंगे ना वो पोर-पोर?
नहीं, उनके ज़ख्म नहीं जलते
घावों में नमक असर नहीं कर पाता
सुना है
नमक बनने वाले अब अपने ज़ख्म सी चुके हैं
देर रात उन्हें सीडी पर दिखाई जाती हैं
नमकीन फिल्में
मुंह में भर देता है नमकीन स्वाद
और हाथों में?
फालतू बात नहीं है यह
नमक बनाने वाले हाथों में हो जायें ज़ख्म
तो फिर?, जलेंगे ना वो पोर-पोर?
नहीं, उनके ज़ख्म नहीं जलते
घावों में नमक असर नहीं कर पाता
सुना है
नमक बनने वाले अब अपने ज़ख्म सी चुके हैं
देर रात उन्हें सीडी पर दिखाई जाती हैं
नमकीन फिल्में
Friday, October 17, 2008
टेराकोटा, काली बंगा, चूड़ियां और प्रेम
पंद्रह सौ साल पहले
अनजान कबीले की उस औरत ने
पहनी होगी कलाई में चूड़ी
टेराकोटा से बनी
टेराकोटा, जो होती है लाल और काली
उससे बुनीचूड़ी का एक टुकड़ा
जो न बताओ तो नहीं लगता
श्रृंगार का जरिया
वो चूड़ी पहनकर वो औरत हंसी होगी
होंठों को एक दांत से दबाकर
पर तुम्हारी तो आंख से काजल बहने लगता है
तुम थर्राए होंठों से
पूछती हो
जिन हाथों में रही होगी ये चूड़ी
उन्हें किसी ने चूमा होगा ना
तुम सिहर उठती हो ये सोचकर
वक्त में घुल गई होगी वो औरत
मिट गया होगा उसका अस्तित्व
पर सुनो...चूड़ी कहां घुली?
नहीं नायकीन मानो
मिट्टी कभी नष्ट नहीं होती
चूड़ी टुकड़ा-टुकड़ा टूटी
लेकिन खत्म नहीं हुई
तुमने ही तो मुझे बताया था वसंतलता
ऐसे ही प्रेमियों और प्रेमिकाओं के तन नष्ट हो जाते हैं
पर कहां छीजता है प्रेम?
काली बंगा से लौटते वक्त
तुम बीन लाईं कहीं से चूड़ी का वो टुकड़ा
और मुझसे पूछती रही,
क्या होता है टेराकोटा
और ये भी
पंद्रहवी सदी में किस कबीले की औरत ने पहनी होगी
टेराकोटा से बनी ये चूड़ी
मेरे पास नहीं है कोई जवाब
बस, तुम्हारी लाई चूड़ी का वो टुकड़ा रखा है मेरे पास
सदा रहेगा शायद
मैं नहीं जानता काली बंगा के बारे में
न ही उन औरतों के बारे में
बस पता है प्रेम
जो पता नहीं कहां,
पेट में, दिल में, मन में या फिर आंसुओं में
पीर पैदा करता है
यकीन मानो
वो नष्ट नहीं होता कभी
अनजान कबीले की उस औरत ने
पहनी होगी कलाई में चूड़ी
टेराकोटा से बनी
टेराकोटा, जो होती है लाल और काली
उससे बुनीचूड़ी का एक टुकड़ा
जो न बताओ तो नहीं लगता
श्रृंगार का जरिया
वो चूड़ी पहनकर वो औरत हंसी होगी
होंठों को एक दांत से दबाकर
पर तुम्हारी तो आंख से काजल बहने लगता है
तुम थर्राए होंठों से
पूछती हो
जिन हाथों में रही होगी ये चूड़ी
उन्हें किसी ने चूमा होगा ना
तुम सिहर उठती हो ये सोचकर
वक्त में घुल गई होगी वो औरत
मिट गया होगा उसका अस्तित्व
पर सुनो...चूड़ी कहां घुली?
नहीं नायकीन मानो
मिट्टी कभी नष्ट नहीं होती
चूड़ी टुकड़ा-टुकड़ा टूटी
लेकिन खत्म नहीं हुई
तुमने ही तो मुझे बताया था वसंतलता
ऐसे ही प्रेमियों और प्रेमिकाओं के तन नष्ट हो जाते हैं
पर कहां छीजता है प्रेम?
काली बंगा से लौटते वक्त
तुम बीन लाईं कहीं से चूड़ी का वो टुकड़ा
और मुझसे पूछती रही,
क्या होता है टेराकोटा
और ये भी
पंद्रहवी सदी में किस कबीले की औरत ने पहनी होगी
टेराकोटा से बनी ये चूड़ी
मेरे पास नहीं है कोई जवाब
बस, तुम्हारी लाई चूड़ी का वो टुकड़ा रखा है मेरे पास
सदा रहेगा शायद
मैं नहीं जानता काली बंगा के बारे में
न ही उन औरतों के बारे में
बस पता है प्रेम
जो पता नहीं कहां,
पेट में, दिल में, मन में या फिर आंसुओं में
पीर पैदा करता है
यकीन मानो
वो नष्ट नहीं होता कभी
Monday, October 13, 2008
तेज रफ्तार सिनेमा जैसा साहित्य : चेतन भगत
चौराहा के पाठकों के लिए एक और पोस्ट जागरण.कॉम से साभार...हालांकि लिखी ये भी मैंने ही है...
बदन पर जींस और टी-शर्ट, आंखों पर गॉगल्स और हाथ में चेतन भगत की ताजा किताब..ये नजारा आप कनॉट प्लेस में टहलते वक्त या मेट्रो में सफर करते हुए देख सकते हैं। यकीनन न्यूयार्क टाइम्स की जुबान में भारतीय इतिहास में सर्वाधिक बिकने वाले उपन्यासकार चेतन भगत युवाओं के पसंदीदा लेखक बन चुके हैं। उनके उपन्यासों की कथा और बुनावट बहुत हद तक फिल्मी है और प्रारंभ का अंदाज भी। शुरुआत अक्सर फ्लैशबैक के साथ होती है। किशोरवय और कई बार युवावस्था का प्रेम, चुंबन, रतिदृश्य और छिटपुट हिंसा..उनके उपन्यासों के फार्मूले-मसाले हैं। चेतन तेजरफ्तार क्लाइमेक्स बुनते हैं, जिनके बाद हैप्पी एंडिंग होती है।
नई खबर ये है कि अब तक अंग्रेजी में हॉटकेक बने रहे चेतन भगत की फिलवक्त तक रिलीज तीनों किताबें हिंदी में भी उपलब्ध हो गई हैं। प्रभात प्रकाशन ने चेतन की दो किताबें- 5 प्वाइंट समवन और वन नाइट @ कॉल सेंटर का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है, जबकि डायमंड पॉकेट बुक्स ने द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ का रूपांतरण पेश किया है।
वन नाइट @ कॉल सेंटर वही किताब है जिस पर बनी फिल्म हेलो हाल में ही रिलीज हुई है और साथ में फ्लॉप भी। ये गुडगांव के एक कॉल सेंटर में काम करने वालों की एक रात की कहानी है जिसका अंत तेजरफ्तार क्लाइमेक्स और भगवान की फोन कॉल के साथ होता है। इसमें फ्लर्ट, डेटिंग और चौराहे पर चुंबन के दृश्य हैं, जो यकीनन युवाओं को लुभा लेते हैं।
फाइव प्वाइंट समवन में आईआईटी, पवई के तीन छात्रों की कथा सुनाई गई है। यहां रैगिंग, स्वप्न और संघर्ष का मिश्रण मिलता है। चेतन की सबसे ताजा किताब द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ में पाठक अहमदाबाद के तीन दोस्तों से परिचित हो पाते हैं। ये दोस्त बहुत-सी उम्मीदों के साथ अहमदाबाद में मौजूद हैं, जहां दंगे होते हैं। इन सबके बीच हम एक छोटे-से बच्चे और उभरते क्रिकेटर अली को दंगाइयों से बचाने की कोशिशों का नजारा भी कर पाते हैं।
चेतन की कृतियों को कोई न कोई सूत्रधार पेश करता है। 3 मिस्टेक्स.. में ये जिम्मेदारी उपन्यास के नायक गोविंद ने संभाली है। इस कृति में चेतन अपने जाने-पहचाने मसालों के साथ हाजिर होते हैं, लेकिन इनके साथ राजनीतिक चेतना की झलक भी है जिसमें गोधरा और धर्मनिरपेक्षता को लेकर लेखक ने कुछ कहने की कोशिश की है।
चेतन की खासियत है उनकी सहज-सरल भाषा। किसी कृति का अनुवाद करते वक्त मूल लेखक की भाषा को बचाए-बनाए रखना बडी जिम्मेदारी बन जाती है। कुशल है कि तीनों कृतियों के अनुवादक इसे संजोए रख सके हैं। तेजरफ्तार हिंदी फिल्म की तरह बुने गए ये उपन्यास अंग्रेजी की तरह हिंदी में सराहे जाएंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा।
पुस्तक : द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ
लेखक संपादक: चेतन भगत
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स प्रा. लि
समीक्षक: चण्डीदत्त शुक्ल
बदन पर जींस और टी-शर्ट, आंखों पर गॉगल्स और हाथ में चेतन भगत की ताजा किताब..ये नजारा आप कनॉट प्लेस में टहलते वक्त या मेट्रो में सफर करते हुए देख सकते हैं। यकीनन न्यूयार्क टाइम्स की जुबान में भारतीय इतिहास में सर्वाधिक बिकने वाले उपन्यासकार चेतन भगत युवाओं के पसंदीदा लेखक बन चुके हैं। उनके उपन्यासों की कथा और बुनावट बहुत हद तक फिल्मी है और प्रारंभ का अंदाज भी। शुरुआत अक्सर फ्लैशबैक के साथ होती है। किशोरवय और कई बार युवावस्था का प्रेम, चुंबन, रतिदृश्य और छिटपुट हिंसा..उनके उपन्यासों के फार्मूले-मसाले हैं। चेतन तेजरफ्तार क्लाइमेक्स बुनते हैं, जिनके बाद हैप्पी एंडिंग होती है।
नई खबर ये है कि अब तक अंग्रेजी में हॉटकेक बने रहे चेतन भगत की फिलवक्त तक रिलीज तीनों किताबें हिंदी में भी उपलब्ध हो गई हैं। प्रभात प्रकाशन ने चेतन की दो किताबें- 5 प्वाइंट समवन और वन नाइट @ कॉल सेंटर का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है, जबकि डायमंड पॉकेट बुक्स ने द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ का रूपांतरण पेश किया है।
वन नाइट @ कॉल सेंटर वही किताब है जिस पर बनी फिल्म हेलो हाल में ही रिलीज हुई है और साथ में फ्लॉप भी। ये गुडगांव के एक कॉल सेंटर में काम करने वालों की एक रात की कहानी है जिसका अंत तेजरफ्तार क्लाइमेक्स और भगवान की फोन कॉल के साथ होता है। इसमें फ्लर्ट, डेटिंग और चौराहे पर चुंबन के दृश्य हैं, जो यकीनन युवाओं को लुभा लेते हैं।
फाइव प्वाइंट समवन में आईआईटी, पवई के तीन छात्रों की कथा सुनाई गई है। यहां रैगिंग, स्वप्न और संघर्ष का मिश्रण मिलता है। चेतन की सबसे ताजा किताब द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ में पाठक अहमदाबाद के तीन दोस्तों से परिचित हो पाते हैं। ये दोस्त बहुत-सी उम्मीदों के साथ अहमदाबाद में मौजूद हैं, जहां दंगे होते हैं। इन सबके बीच हम एक छोटे-से बच्चे और उभरते क्रिकेटर अली को दंगाइयों से बचाने की कोशिशों का नजारा भी कर पाते हैं।
चेतन की कृतियों को कोई न कोई सूत्रधार पेश करता है। 3 मिस्टेक्स.. में ये जिम्मेदारी उपन्यास के नायक गोविंद ने संभाली है। इस कृति में चेतन अपने जाने-पहचाने मसालों के साथ हाजिर होते हैं, लेकिन इनके साथ राजनीतिक चेतना की झलक भी है जिसमें गोधरा और धर्मनिरपेक्षता को लेकर लेखक ने कुछ कहने की कोशिश की है।
चेतन की खासियत है उनकी सहज-सरल भाषा। किसी कृति का अनुवाद करते वक्त मूल लेखक की भाषा को बचाए-बनाए रखना बडी जिम्मेदारी बन जाती है। कुशल है कि तीनों कृतियों के अनुवादक इसे संजोए रख सके हैं। तेजरफ्तार हिंदी फिल्म की तरह बुने गए ये उपन्यास अंग्रेजी की तरह हिंदी में सराहे जाएंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा।
पुस्तक : द 3 मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ
लेखक संपादक: चेतन भगत
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स प्रा. लि
समीक्षक: चण्डीदत्त शुक्ल
Wednesday, October 8, 2008
इंग्लैंड में हिंदी
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चौराहा के पाठकों के लिए आजकल मैं मौलिक पोस्ट नहीं लिख पा रहा हूँ...पहले चवन्नी से पोस्ट साभार ली और अब जागरण.कॉम से...हाँ...मूल रूप से यह पोस्ट लिखी मैंने ही हैं...
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फिल्म 'लगान' याद है आपको? हां! तो भुवन भी याद होगा। गंवई भुवन, जिसे न बैट पता, न बाल पर बल्लेबाजी करने उतरा, तो अंग्रेजों के छक्के छूट गए। भुवन के पास थी बस एक ताकत-अपने समाज को 'लगान' की जंजीरों से मुक्त कराने का संकल्प।
लंदन में इन दिनों भारतीय साहित्यकार कुछ ऐसी ही बल्लेबाजी कर रहे हैं। फर्क इतना भर कि वे भुवन जैसे अनगढ़ नहीं, न हिंदी उनके लिए अबूझ-अनजानी भाषा है। वैसे, वे अंग्रेजी या अंग्रेजीयत को जवाब देने के लिए साहित्य नहीं रच रहे। उनके मन में भुवन जैसा इरादा है, तो इसलिए कि सात समंदर पार लंदन में भी हिंदी की धाक हो।
इसके लिए प्रवासी भारतीयों ने इंग्लैंड से हिंदी में पत्रिकाएं निकालीं। लगातार कवि सम्मेलन आयोजित किए और भारत-ब्रिटेन के बीच की दूरी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये कम कर दी। दिल्ली में नीपा जैसे थिएटर ग्रुप के साथ अंतरराष्ट्रीय बाल रंग महोत्सव की बात करें, या 'अक्षरम' के सालाना भव्य आयोजन पर नजर डालें, लंदन के प्रवासी भारतीयों की अकुलाहट और लगन की गवाही मिल जाएगी।
बीबीसी से जुड़े रहे डा. ओंकारनाथ श्रीवास्तव [2004 में निधन] और कुछ अरसा पहले ही दिवंगत हुई 'तीसरा सप्तक' की कवयित्री कीर्ति चौधरी की जोड़ी हिंदी के प्रचार-प्रसार में तन-मन-धन से जुटी रही। सनराइज रेडियो के प्रसारक रवि शर्मा, फिल्मकार डा. निखिल कौशिक, पूर्णिमा वर्मन, कवयित्री दिव्या माथुर और भारतीय उच्चायोग के हिंदी अधिकारी राकेश दुबे जैसे कार्यकर्ता हिंदी को सम्मानित करने की मुहिम में जुटे हैं।
वैसे, यह सब कुछ दो-चार दिन में नहीं हुआ। जहां भी किसी भाषा के मुरीद रहते हैं, उसे स्थापित करने की कोशिश करते ही हैं। उल्लेखनीय इतना भर कि ब्रिटेन और खासकर लंदन में ये कोशिश खासी असरदार साबित हो रही है।
अब एक नजर चर्चित लेखिका-अनुवादक युट्टा आस्टिन के बयान पर। युट्टा मानती हैं कि हिंदी के लेखक जो कहानी-कविता लिखते हैं, वे भारतीय या पाश्चात्य के समीकरणों से कहीं ऊपर हैं। युट्टा आस्टिन बताती हैं कि लंदन में हिंदी कोई अपरिचित भाषा नहीं रही। यहां के लोग हिंदी में रचा गया साहित्य पसंद करते हैं और हिंदी लिखने वालों को भी। युट्टा के कथन को प्रमाणित करती हैं जून के आखिरी हफ्ते में घटी दो घटनाएं--
लंदन के नेहरू सेंटर सभागार में कहानीकार उषा राजे सक्सेना के कथा संग्रह 'वह रात और अन्य कहानियां' का लोकार्पण हुआ। समारोह में बीबीसी की निदेशक अचला शर्मा, नेहरू सेंटर की निदेशक मोनिका मोहता, आलोचक प्राण शर्मा और प्रकाशक महेश भारद्वाज खास तौर पर मौजूद थे। कार्यक्रम में लंदन में रह रहे हिंदी के लेखक तो आए ही, दर्जन भर से ज्यादा ब्रिटिश हिंदी प्रेमी भी हाजिर हुए।
चंद रोज बाद ब्रिटिश संसद के उच्च सदन हाउस आफ लार्ड्स में हिंदी का गुणगान हुआ। यहां नासिरा शर्मा को उपन्यास 'कुइयांजान' के लिए 14वां अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया। इस मौके पर ब्रिटिश सरकार के आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री टोनी मैक्नलटी ने हिंदी में ही अपने भाषण की शुरुआत की।
हिंदी को लगातार ऊंचाई पर चढ़ते देखकर क्या खुलकर हंसा जा सकता है? इसका जवाब जानने से पहले घुमक्कड़ सांस्कृतिक लेखक अजित राय [जो इनमें से एक बड़े आयोजन के सहभागी रहे] की बात सुन लीजिए, 'हिंदी लंदन के माथे की बिंदी बन चुकी है। हमारी भाषा के आराधक अब अंग्रेजों के सबसे बड़े सदन में पुष्पहार पहनते हैं।' वे 'जागरण' से बातचीत में कहते हैं, 'लंदन में जल्द ही भारतीय प्रकाशकों के सहयोग से ब्रिटेन की प्रमुख साहित्यिक संस्था 'कथा यूके' एक बुक क्लब शुरू करने जा रही है। ऐसे में ब्रिटेनवासी हिंदी साहित्य को और मजे के साथ पढ़ सकेंगे।' वे खासे विश्वास के साथ बताते हैं, 'खुलकर हंसने जैसा वक्त आना अभी बाकी है, लेकिन हम देर तक मुस्करा जरूर सकते हैं।'
चौराहा के पाठकों के लिए आजकल मैं मौलिक पोस्ट नहीं लिख पा रहा हूँ...पहले चवन्नी से पोस्ट साभार ली और अब जागरण.कॉम से...हाँ...मूल रूप से यह पोस्ट लिखी मैंने ही हैं...
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फिल्म 'लगान' याद है आपको? हां! तो भुवन भी याद होगा। गंवई भुवन, जिसे न बैट पता, न बाल पर बल्लेबाजी करने उतरा, तो अंग्रेजों के छक्के छूट गए। भुवन के पास थी बस एक ताकत-अपने समाज को 'लगान' की जंजीरों से मुक्त कराने का संकल्प।
लंदन में इन दिनों भारतीय साहित्यकार कुछ ऐसी ही बल्लेबाजी कर रहे हैं। फर्क इतना भर कि वे भुवन जैसे अनगढ़ नहीं, न हिंदी उनके लिए अबूझ-अनजानी भाषा है। वैसे, वे अंग्रेजी या अंग्रेजीयत को जवाब देने के लिए साहित्य नहीं रच रहे। उनके मन में भुवन जैसा इरादा है, तो इसलिए कि सात समंदर पार लंदन में भी हिंदी की धाक हो।
इसके लिए प्रवासी भारतीयों ने इंग्लैंड से हिंदी में पत्रिकाएं निकालीं। लगातार कवि सम्मेलन आयोजित किए और भारत-ब्रिटेन के बीच की दूरी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये कम कर दी। दिल्ली में नीपा जैसे थिएटर ग्रुप के साथ अंतरराष्ट्रीय बाल रंग महोत्सव की बात करें, या 'अक्षरम' के सालाना भव्य आयोजन पर नजर डालें, लंदन के प्रवासी भारतीयों की अकुलाहट और लगन की गवाही मिल जाएगी।
बीबीसी से जुड़े रहे डा. ओंकारनाथ श्रीवास्तव [2004 में निधन] और कुछ अरसा पहले ही दिवंगत हुई 'तीसरा सप्तक' की कवयित्री कीर्ति चौधरी की जोड़ी हिंदी के प्रचार-प्रसार में तन-मन-धन से जुटी रही। सनराइज रेडियो के प्रसारक रवि शर्मा, फिल्मकार डा. निखिल कौशिक, पूर्णिमा वर्मन, कवयित्री दिव्या माथुर और भारतीय उच्चायोग के हिंदी अधिकारी राकेश दुबे जैसे कार्यकर्ता हिंदी को सम्मानित करने की मुहिम में जुटे हैं।
वैसे, यह सब कुछ दो-चार दिन में नहीं हुआ। जहां भी किसी भाषा के मुरीद रहते हैं, उसे स्थापित करने की कोशिश करते ही हैं। उल्लेखनीय इतना भर कि ब्रिटेन और खासकर लंदन में ये कोशिश खासी असरदार साबित हो रही है।
अब एक नजर चर्चित लेखिका-अनुवादक युट्टा आस्टिन के बयान पर। युट्टा मानती हैं कि हिंदी के लेखक जो कहानी-कविता लिखते हैं, वे भारतीय या पाश्चात्य के समीकरणों से कहीं ऊपर हैं। युट्टा आस्टिन बताती हैं कि लंदन में हिंदी कोई अपरिचित भाषा नहीं रही। यहां के लोग हिंदी में रचा गया साहित्य पसंद करते हैं और हिंदी लिखने वालों को भी। युट्टा के कथन को प्रमाणित करती हैं जून के आखिरी हफ्ते में घटी दो घटनाएं--
लंदन के नेहरू सेंटर सभागार में कहानीकार उषा राजे सक्सेना के कथा संग्रह 'वह रात और अन्य कहानियां' का लोकार्पण हुआ। समारोह में बीबीसी की निदेशक अचला शर्मा, नेहरू सेंटर की निदेशक मोनिका मोहता, आलोचक प्राण शर्मा और प्रकाशक महेश भारद्वाज खास तौर पर मौजूद थे। कार्यक्रम में लंदन में रह रहे हिंदी के लेखक तो आए ही, दर्जन भर से ज्यादा ब्रिटिश हिंदी प्रेमी भी हाजिर हुए।
चंद रोज बाद ब्रिटिश संसद के उच्च सदन हाउस आफ लार्ड्स में हिंदी का गुणगान हुआ। यहां नासिरा शर्मा को उपन्यास 'कुइयांजान' के लिए 14वां अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया। इस मौके पर ब्रिटिश सरकार के आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री टोनी मैक्नलटी ने हिंदी में ही अपने भाषण की शुरुआत की।
हिंदी को लगातार ऊंचाई पर चढ़ते देखकर क्या खुलकर हंसा जा सकता है? इसका जवाब जानने से पहले घुमक्कड़ सांस्कृतिक लेखक अजित राय [जो इनमें से एक बड़े आयोजन के सहभागी रहे] की बात सुन लीजिए, 'हिंदी लंदन के माथे की बिंदी बन चुकी है। हमारी भाषा के आराधक अब अंग्रेजों के सबसे बड़े सदन में पुष्पहार पहनते हैं।' वे 'जागरण' से बातचीत में कहते हैं, 'लंदन में जल्द ही भारतीय प्रकाशकों के सहयोग से ब्रिटेन की प्रमुख साहित्यिक संस्था 'कथा यूके' एक बुक क्लब शुरू करने जा रही है। ऐसे में ब्रिटेनवासी हिंदी साहित्य को और मजे के साथ पढ़ सकेंगे।' वे खासे विश्वास के साथ बताते हैं, 'खुलकर हंसने जैसा वक्त आना अभी बाकी है, लेकिन हम देर तक मुस्करा जरूर सकते हैं।'
Tuesday, September 30, 2008
हमका सलीमा देखाय देव
यह पोस्ट मूलतः चवन्नी (www.chavannichap.blogspot.com) के लिए लिखी थी..वहीँ से साभार. 7 (seven) टिप्पणियां भी वहीँ से लेकर आया हूँ
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Monday, September 29, 2008
हमका सलीमा देखाय देव...-चण्डीदत्त शुक्ल
हिन्दी टाकीज-१०
इस बार हिन्दी टाकीज में चंडीदत्त शुक्ल .यूपी की राजधानी लखनऊ से 128 किलोमीटर, बेकल उत्साही के गांव बलरामपुर से 42, अयोध्या वाले फैजाबाद से 50 किलोमीटर दूर है गोंडा. 1975 के किसी महीने में यहीं पैदा हुए थे चण्डीदत्त शुक्ल. वहीं पढ़े-लिखे. लखनऊ और जालंधर में कई अखबारों, मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने के बाद फिलहाल दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर हैं.लिखने-पढ़ने की दीवानगी है, वक्त मिले न मिले मौका निकाल लेते हैं. थिएटर, टीवी-सिनेमा से पुरानी रिश्तेदारी है. स्क्रिप्टिंग, एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है पर जो भी काम करने को मिले, छोड़ते नहीं. सुस्त से ब्लागर भी हैं. उनके ब्लाग हैं www.chauraha1.blogspot.com और www.chandiduttshukla1.blogspot.com. साहित्य में भी बिन बुलाए घुसे रहने के लिए तैयार. कई किताबों की योजना है पर इनमें से चंद अब भी फाइनल होने के इंतजार में हैं...और जानना हो, तो chandiduttshukla@gmail.com पर मिल सकते हैं।
हमका सलीमा देखाय देव...
झींकते-रींकते हुए हम पहले मुंह बनाते, फिर ठुनकते और जब बस न चलता तो पेंपें करके रोने लगते। देश-दुनिया के हजारों बच्चों की तरह हम भी दुलरुआ थे, मनबढ़ और बप्पा की लैंग्वेज में कहें, तो बरबाद होने के रस्ते पर तेजी के साथ बढ़ रहे थे. खैर, कुढ़ने के बावजूद बप्पा खुद ही पिच्चर दिखाने अक्सर ले जाते. कभी न ले जाते, तो दादी पइसा, मिठाई और -- कुटाई नहीं होने देंगे -- का भरोसा थमाकर फिल्म देखने भेज देतीं. तो यूं पड़े हममें सिलमची (ब-तर्ज चिलमची) होने के संस्कार लेकिन नहीं...सिनेमा से भी कहीं पहले दर्शक होने के बीज पड़ गए थे. हम दर्शक बने आल्हा प्रोग्राम के, रामलीला के, नउटंकी के. भाई लोगों को जानके खुसी होगी कि ये तरक्की हमने तब हासिल कर ली थी, जब बमुश्किल चार-पांच साल के होंगे. पिता गजब के कल्चरल हैं (खानदानी रुतबे के बावजूद). जावा मोटरसाइकिल पर हमें आगे-पीछे कहीं भी टांग-टूंगकर रात, आधी रात,पछिलहरा (एकदम भोर)निकल लेते किसी भी सांस्कृतिक अनुष्ठान का पहरुआ बनने. पान खाने के तगड़े शौकीन हैं वे. बनारसी तमकुहा पान वे खाते रहते और हम उनके अगल-बगल दुबके, नौटंकी-आल्हा-रहंस (रासलीला का छोटा एडिशन) का मजा मुंह बाए हुए लेते. रात में गांव-गंवई के बीच, तरह-तरह की बतकही के हल्ले में थोड़ा-सा म्यूजिकल भी कान में पड़ जाता और यूं जीवन में कल्चर की सत्यनारायण कथा ने प्रवेश किया.
सिनेमा की बात
समझ में नहीं आता--कब से याद करूं? तब से, जब प्रकाश, संगीत और दृश्यों का विधान पता नहीं था...रोशनियों के दायरे आंखों के इर्द-गिर्द छाए रहते, दृश्यों की जगह कुछ परछाइयां नजर आतीं और कानों को अच्छा लगने वाले सुर-साज रूह को छू जाते...या तब से याद करूं, जब पता चलने लगा था कि फिल्म मोटामोटी क्या है, सीन कैसे बनते हैं और कहानी-गाने कहां वजूद में आते हैं। या फिर और बाद से, जब इन सबकी तकनीक से भी परिचित हुआ. जरा-सा खुद काम कर, थोड़ा औरों को देखकर और बहुत-सा पढ़कर...लेकिन पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर फिल्म का, पढ़े सो पंडित होय, सो फिल्मों का सही संस्कार बीच के दिनों में ही हुआ...अलसाए दिन, जब कुछ-कुछ पता चल चुका था पर ढेर सारी अलमस्ती ही साथ थी...यानी छुटपन...
इससे भी पहले टीवी
तब आठ-दस साल का था। घर में टीवी नहीं थी, क्यों नहीं थी, ठीकठीक याद नहीं आता.शायद आर्थिक दिक्कतें वजह हों, या फिर घर में पांडित्य का दबदबा...जिसके तहत टीवी, सलीमा या पिच्चर को नरक का आधार समझा-बताया गया...खैर, वजह जो हो, घर में टीवी नहीं थी तो नहीं थी. शायद पूरे शहर में (हमारे मोहल्ले में तो खैर हंड्रेड परसेंट पक्का है कि माया फूफा को छोड़कर किसी घर में नहीं थी) पांच-सात ही रही हो...सो,गोंडा शहर में टीवी जिन गिने-चुने घरों में थी, उनके यहां या तो मेरा जाना-आना नहीं था, या फिर घुसने को ही नहीं मिलता था. फिर भी टीवी से मोहब्बत हो गई थी...सूं...सूं...करते, या जलतरंगें बजाते, या फिर शहनाई की धुन (संगीत के जानकार निर्बुद्धि पर हंसें नहीं) बजाते हुए सत्यम शिवम सुंदरम की धुन गूंजती, साढ़े पांच बजे शाम का शायद वक्त था, तब हम लोग माया फूफा के घर की इकलौती खिड़की पर सिर देकर खड़े हो जाते...गर्मियों में बुआ जी, जिनसे हमारा रिश्ता मोहल्ले के अच्छे, इज्जतदार पड़ोसियों की निकम्मी औलादों से ज्यादा और कुछ नहीं था, जमकर गरियातीं और उनके लड़के भी अपने उत्कृष्ट होने का हर दस मिनट पर एहसास दिलाते, पर हम थे कि खिड़की छोड़ने को तैयार न रहते...नीले बैकग्राउंड में ह्वाइट कलर का गोला पता नहीं कितने जादुई ढंग से देर तक घूमता, फिर बुआ जैसी शक्ल वाली ही एक लड़की, एंकर, एनाउंसर, समाचार वक्ता, जो चाहे कह लें, ढेर सारे कपड़े पहने सामने आती और कुछ भी बोलना शुरू कर देती. हम मुंह बाए बस उसका मुंह ही देखते रहते. अपनी गली-मोहल्ले की ही कोई बहुत खबसूरत लड़की लगती वो...पर ऐसी, जिसे दूर से ही देखा जा सकता है, छुओगे तो काट लेगी.सीरियलों की बात चलती है, तो नुक्कड़ याद आता है, उससे भी कहीं ज्यादा इंतजार. एक स्टेशन पर लंबा इंतजार. बहुत छोटा-सा था, जब वहां से प्रेम का लेसन पढ़ा. बहुत बाद में एक फिल्म का गाना सुनते हुए--रोमांस का भी एक लेक्चर होना चाहिए, वो लेसन फिर-फिर याद आया. मुंगेरीलाल के हसीन सपने और मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल जैसे धारावाहिकों के दृश्य अब तक नसों में बेचैनी पैदा कर देते हैं.मालगुडी डेज, तमस, एक कहानी की तो उफ्फ॥पूछिए ही मत...।टीवी पर ही पहले-पहल जासूसी सीरियल देखे.करमचंद की गाजरें और किटी की किटकिट. यहीं रामायण, महाभारत और चंद्रकांता जैसे भव्य धारावाहिक.रामायण के वक्त तक घर में एक बहुत मरियल ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी आ गया था.पिता जी से हम लोगों ने खूब चिल्ल-पों मचाई, तो उन्होंने एंटीना में बुस्टर कलर टीवी वाला लगवा दिया, बोले-अभी बुस्टर लगवा दिया है कलर वाला, बाद में टीवी भी ला देंगे. टीवी तो खैर कलर बहुत साल नहीं आई. पहले बड़ी ब्लैक एंड ह्वाइट आई और बहुत साल चली. हमने कब कलर टीवी खरीदी, वो प्रसंग कोई हैसियत नहीं रखता, इसलिए उसका जिक्र अभी नहीं--फिर कभी. टेलिविजन पर फिल्में भी किश्तवार आती थीं...अब भी आती हैं, यकीन न हो तो बाइस्कोप देख लीजिए. तीन घंटे की फिल्म चार दिन में आती है. लेकिन जब ये फिल्में आतीं, तो टीवी के आगे बैठने को लेकर जो धकापेल मचती, बताने लायक नहीं है. बिनावजह यादों को हिंसा से भरपूर का लेबल दे दिया जाएगा.
चुनांचे...रंगोली भी लाजवाब रही...
हेमामालिनी कभी झक सफेद साड़ी में दिखतीं तो कभी नीले रंग की।(ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी पर ब्ल्यू कलर का कवर लगा था). अब उनके जैसी धुनदार (ट्रांसलेशन -- म्यूजिकल) एंकर कोई नहीं दिखती. संडे की सुबे-सुबे हम सब दर्जन भर बच्चे चौकड़ी मारकर फर्श पर बैठ जाते. नक्शेबाजी करते हुए गनेश दद्दा (घर के टीवी आपरेटर) स्टाइल के साथ टीवी खोलते. टीवी की बीमारी ज्यादा नहीं बढ़ी तब तक सिनेमा की छूत लग गई थी. सारा दिन मुसलसल आवारागर्दी करने के बाद नाइट शो देखने जाता था. अक्सर अकेले, कभी-कभार पड़ोस के किसी दोस्त के साथ. हर बार पैसे मुझे ही चुकाने होते पर टिक्की और गोलगप्पा साथ वाला ही खिलाता.
गोंडा में सिनेमा हॉल
तीन हैं सिनेमा हॉल। इनमें से तीनों की हालत पर कुछ कहूंगा,तो इनके ओनर हड्डी-पसली एक कर देंगे पर अव्यवस्था हर जगह है. कहीं थोड़ी कम, तो कहीं थोड़ी ज्यादा. पिछली छुट्टियों में घर गया था, तो पता चला कि एक बिकने वाला भी है, दूसरे में फिल्म देखना बहुत बड़े संत्रास को न्योता देने जैसा है और तीसरे में अब नई फिल्में नहीं लगतीं, ये वो है जिसकी हालत कुछ बेहतर थी. घर के सबसे करीब था कृष्णा. मुझे वहां लगने वाली डाकू रानी हसीना, चंबल की नागिन टाइप की पिच्चरें बहुत प्रिय थीं. खूब ठांय-ठूंय, सेक्सुअल कॉमेडी देखता औऱ किशोरावस्था में मिली हॉट नॉलेज को ग्रहण करता. यहीं पर गानों वाली किताब मिलती थी, चार आने-अठन्नी और कोई-कोई बारह आने की. चार-पन्नों की किताब में नायक नायिका-गीतकार के नाम दिए होते, एक बहुत खराब सी काली-सफेद तस्वीर बनी होती, जिस पर स्याही पुत गई होती और हम सब उसे खरीदकर किसी धर्मग्रंथ जैसी श्रद्धा के साथ पढ़ते.
पुराने जमाने के हीमेश
यहीं सुना था दिवाना मुझको लोग कहें...नाक से यें यें यें कहने का मजा हिमेश रेशमिया क्या जानें...यही दीवानगी रास्ते का पत्थर किसमत ने मुझे बना दिया...तक भी पहुंची। कहीं तो ये दिल कहीं मिल नहीं पाते...और हीरो के गाने सुनते हुए बहुत रोया हूं मैं॥और तब यकीन मानिए कोई इश्क-विश्क मसलन-लड़कियों से जो होता है...वो भी नहीं था. खैर, मिथुन चक्रवर्ती का पराक्रमी डांस, जितेंद्र और श्रीदेवी की मस्त-मस्त मूवीज, पद्मालय का तिलिस्म...बहुत कुछ देखा. एक डायरी ही बना ली थी, जिसमें फिल्मों की रिलीज, कहानी और बजट तक लिखा होता. फिल्म इतिहासकारों के लिए विशेष संदर्भ ग्रंथ बन सकता है. सलीमा के विशेष समर्पण के चलते बाद में हाईस्कूल का रिसर्च स्कालर बनना पड़ा.ये वे दिन थे, जब हर फिल्म में हीरोइन के साथ हीरो की जगह खुद को देखता था. रास्ते में लौटते हुए खंभें ठोंकते हुए फाइट की प्रैक्टिस, गली में भौंकते कुत्तों को जानी कहने की आदत. बारिश में भीगकर जुकाम को दावत देने का जुनून, क्या कहें, समाज की भाषा में कितने पैसे फूंके और कितना समय व्यर्थ किया पर सपने देखने की आदत कब सिनेमा का गंभीर दर्शक बना देती है, यह बताने की बात नहीं है. हां, एक बात स्वीकार करूंगा, चाहे मेरे सेलेक्शन पर कितने ही सवाल क्यों न उठें...मुझे अब तक कोई भी फिल्म बतौर दर्शक बुरी नहीं लगी, मैंने भरपूर मजे लेकर उसे देखा है. चाहे वो डाकू रानी वाली फिल्म हो या फिर अर्थ जैसी अर्थवान फिल्म.
क्लासिक का चककर
धीरे-धीरे उम्र बढ़ी तो सलीमा भी चुनचुनकर देखने लगा। गुलजार, हृषिकेश मुखर्जी, महबूब, गुरुदत्त, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई भी..., सुभाष घई, महेश भट्ट. सबको देखा, बार-बार देखा. एक फिल्म आई थी मैं आजाद हूं. लोगों ने कहा बंडल है. मुझे अब भी लगता है कि नहीं थी. तब एक ही दिन में तीन शो देख लिए थे. इस दावे पर सवाल उठ सकता है कि मैं सिनेमा का गंभीर दर्शक हूं...जवाब दूंगा, सिनेमा को तो गंभीरता से ही देखा है...देखा जाने वाला सिनेमा गंभीर न हो तो मैं क्या करूं। खैर, गंभीर फिल्में देखने से कहीं ज्यादा पढ़ी जाती हैं...वहीं से सिनेमा का असल आस्वाद मिला है पर ये आनंद-अध्ययन हॉल में नहीं हो सका, वीसीआर- की बदौलत ही पूरा हो पाया. हम सब जुनूनी लोग चंदा करके वीसीआर मंगाते, टीवी भी॥रिक्शे पर लदकर आता..साथ में तीन फिल्में...एक कैसेट हम लोग लाते...वीसीआर वाले को नहीं बताते...फिल्म चालू होती...जल्दी-जल्दी गाने रिवाइंड, फारवर्ड करके फिल्म देख लेते...कोई गाना अच्छा लगता, तो पूरा भी देखते. सुबू-सुबू वीसीआर वाला आता और कवर छूकर बोलता, वीसीआर गरम क्यों है? तुम लोगों ने तीन से ज्यादा फिल्में देख ली हैं क्या? हम काउंट करके बताते कि अभी तो नवै घंटा हुआ है, बारह घंटे का फिल्म कैसे देख लेंगे भाई?
रोटिया बैरन मजा लिए जाए रे...
कहने को बहुत कुछ है...इतना जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, मसलन-कैसे सिनेमा हॉल में गेटकीपर से झगड़ा करके फिल्म देखी...कैसे प्रीमियर में फिल्म देखने के लिए मुंबई ही पहुंच गए, कैसे एक फिल्म के सेट पर हीरोइन को ही पटा लिया और बाद में डायरेक्टर से वो झाड़ खाई कि पूछो ही नहीं...पर न पढ़ने वालों के पास सब्र बचेगा और न लिखने की फुर्सत बची है...वैसे भी, ये सबकुछ इतना खूबसूरत है कि यादों में ही सिमटा रहे, तो अच्छा, नहीं तो अपनी चमक खो सकता है। अब वो पहले जैसी मस्ती कहां...कंप्यूटर, डीवीडी, वीसीडी, होम थिएटर, म्यूजिक सिस्टम, टेप रिकार्डर...आज सबकुछ है. कुछ फिल्म वालों से जान-पहचान, मेल-मुलाकात है, जिनसे नहीं है, उनसे हाथ मिलाते ही सुरसुरी आ जाए...वैसा खयाल भी नहीं बचा है फिर भी...पहले जैसी मस्ती और मजा नहीं है...कहीं खो गया है भाई लार्जर देन लाइफ वाले सलीमा का जादू...
Posted by chavanni chap at 8:32 AM 1 comments
Labels: गोंडा, चंडीदत्त शुक्ल, सिने संस्कार, हिन्दी टाकीज
वेद रत्न शुक्ल said...
भाई साहब,
उत्तम, अति उत्तम। संस्मरण शायद सुन्दर ही होते हैं। अखबार में आप इतना अच्छा नहीं लिखते। लेकिन यहां तो पूरा बांध लिया।
वेद रत्न शुक्ल
September 29, 2008 2:00 PM
महाबीर सेठ said...
आखिर आ गए ही अपने पुराने रूआब में...
वह गोंडा की मस्ती, वह चाट और टिक्की
वह रात-भर इंतजार की घडियां, कहां गई टिक-टिक
कभी गोंडा जाता भी हूं तो आप जैसे लोग ही नहीं मिलते,
मन बड़ा उदास होता, लेकिन अब तो उसी मिट्टी से हैं..
सो गोंडा का क्या ?... आप तो दिल्ली वाले हो गए और मैं तुच्छ प्राणी जालंधर की सड़कें नाप रहा हूं ।
कभी गुरू जी की तो कभी द्विवेदी जी की याद आती है...
मत छेड़े गोंडा की बातें...
पंडित जी
आपका छोटा भाई...
September 29, 2008 8:31 PM
nidhi said...
ye sansmaran, perchaiyaan hi nhi hai. aap pure ke pure apni smritiyon ka vistaar hain.
cinema ki khushboodaar huwaayen gonda (jaise dhero chote chote shehro se) se delhi aarhi hain.
October 1, 2008 5:57 PM
SHASHI SINGH said...
महानगरीय चमक-दमक से अलग छोटे शहरों और गांव-खेड़े में सिनेमा और टेलीविजन के सर्वथा अलग मायने है। उस मायने को समझने में आपकी दृष्टि बहुतों के लिए उपयोगी होगी।
लेख बहुत ही अच्छा लगा!
October 2, 2008 11:34 AM
Amit K. Sagar said...
खूबसूरती से लिखा.
October 3, 2008 9:24 PM
अजित वडनेरकर said...
दिलचस्प । सिनेमाई आनंद से सराबोर।
ग़ज़ब थे वो दिन। सिनेमा तो सच, गांव, कस्बों और देहात में ही जीवंत होता है।
October 4, 2008 12:00 AM
विवेकानंद झा said...
bhay aap itna accha likhate ho, nahi pata tha. mafi chahta hun iske liye.
October 4, 2008 12:53 PM
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Monday, September 29, 2008
हमका सलीमा देखाय देव...-चण्डीदत्त शुक्ल
हिन्दी टाकीज-१०
इस बार हिन्दी टाकीज में चंडीदत्त शुक्ल .यूपी की राजधानी लखनऊ से 128 किलोमीटर, बेकल उत्साही के गांव बलरामपुर से 42, अयोध्या वाले फैजाबाद से 50 किलोमीटर दूर है गोंडा. 1975 के किसी महीने में यहीं पैदा हुए थे चण्डीदत्त शुक्ल. वहीं पढ़े-लिखे. लखनऊ और जालंधर में कई अखबारों, मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने के बाद फिलहाल दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर हैं.लिखने-पढ़ने की दीवानगी है, वक्त मिले न मिले मौका निकाल लेते हैं. थिएटर, टीवी-सिनेमा से पुरानी रिश्तेदारी है. स्क्रिप्टिंग, एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है पर जो भी काम करने को मिले, छोड़ते नहीं. सुस्त से ब्लागर भी हैं. उनके ब्लाग हैं www.chauraha1.blogspot.com और www.chandiduttshukla1.blogspot.com. साहित्य में भी बिन बुलाए घुसे रहने के लिए तैयार. कई किताबों की योजना है पर इनमें से चंद अब भी फाइनल होने के इंतजार में हैं...और जानना हो, तो chandiduttshukla@gmail.com पर मिल सकते हैं।
हमका सलीमा देखाय देव...
झींकते-रींकते हुए हम पहले मुंह बनाते, फिर ठुनकते और जब बस न चलता तो पेंपें करके रोने लगते। देश-दुनिया के हजारों बच्चों की तरह हम भी दुलरुआ थे, मनबढ़ और बप्पा की लैंग्वेज में कहें, तो बरबाद होने के रस्ते पर तेजी के साथ बढ़ रहे थे. खैर, कुढ़ने के बावजूद बप्पा खुद ही पिच्चर दिखाने अक्सर ले जाते. कभी न ले जाते, तो दादी पइसा, मिठाई और -- कुटाई नहीं होने देंगे -- का भरोसा थमाकर फिल्म देखने भेज देतीं. तो यूं पड़े हममें सिलमची (ब-तर्ज चिलमची) होने के संस्कार लेकिन नहीं...सिनेमा से भी कहीं पहले दर्शक होने के बीज पड़ गए थे. हम दर्शक बने आल्हा प्रोग्राम के, रामलीला के, नउटंकी के. भाई लोगों को जानके खुसी होगी कि ये तरक्की हमने तब हासिल कर ली थी, जब बमुश्किल चार-पांच साल के होंगे. पिता गजब के कल्चरल हैं (खानदानी रुतबे के बावजूद). जावा मोटरसाइकिल पर हमें आगे-पीछे कहीं भी टांग-टूंगकर रात, आधी रात,पछिलहरा (एकदम भोर)निकल लेते किसी भी सांस्कृतिक अनुष्ठान का पहरुआ बनने. पान खाने के तगड़े शौकीन हैं वे. बनारसी तमकुहा पान वे खाते रहते और हम उनके अगल-बगल दुबके, नौटंकी-आल्हा-रहंस (रासलीला का छोटा एडिशन) का मजा मुंह बाए हुए लेते. रात में गांव-गंवई के बीच, तरह-तरह की बतकही के हल्ले में थोड़ा-सा म्यूजिकल भी कान में पड़ जाता और यूं जीवन में कल्चर की सत्यनारायण कथा ने प्रवेश किया.
सिनेमा की बात
समझ में नहीं आता--कब से याद करूं? तब से, जब प्रकाश, संगीत और दृश्यों का विधान पता नहीं था...रोशनियों के दायरे आंखों के इर्द-गिर्द छाए रहते, दृश्यों की जगह कुछ परछाइयां नजर आतीं और कानों को अच्छा लगने वाले सुर-साज रूह को छू जाते...या तब से याद करूं, जब पता चलने लगा था कि फिल्म मोटामोटी क्या है, सीन कैसे बनते हैं और कहानी-गाने कहां वजूद में आते हैं। या फिर और बाद से, जब इन सबकी तकनीक से भी परिचित हुआ. जरा-सा खुद काम कर, थोड़ा औरों को देखकर और बहुत-सा पढ़कर...लेकिन पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर फिल्म का, पढ़े सो पंडित होय, सो फिल्मों का सही संस्कार बीच के दिनों में ही हुआ...अलसाए दिन, जब कुछ-कुछ पता चल चुका था पर ढेर सारी अलमस्ती ही साथ थी...यानी छुटपन...
इससे भी पहले टीवी
तब आठ-दस साल का था। घर में टीवी नहीं थी, क्यों नहीं थी, ठीकठीक याद नहीं आता.शायद आर्थिक दिक्कतें वजह हों, या फिर घर में पांडित्य का दबदबा...जिसके तहत टीवी, सलीमा या पिच्चर को नरक का आधार समझा-बताया गया...खैर, वजह जो हो, घर में टीवी नहीं थी तो नहीं थी. शायद पूरे शहर में (हमारे मोहल्ले में तो खैर हंड्रेड परसेंट पक्का है कि माया फूफा को छोड़कर किसी घर में नहीं थी) पांच-सात ही रही हो...सो,गोंडा शहर में टीवी जिन गिने-चुने घरों में थी, उनके यहां या तो मेरा जाना-आना नहीं था, या फिर घुसने को ही नहीं मिलता था. फिर भी टीवी से मोहब्बत हो गई थी...सूं...सूं...करते, या जलतरंगें बजाते, या फिर शहनाई की धुन (संगीत के जानकार निर्बुद्धि पर हंसें नहीं) बजाते हुए सत्यम शिवम सुंदरम की धुन गूंजती, साढ़े पांच बजे शाम का शायद वक्त था, तब हम लोग माया फूफा के घर की इकलौती खिड़की पर सिर देकर खड़े हो जाते...गर्मियों में बुआ जी, जिनसे हमारा रिश्ता मोहल्ले के अच्छे, इज्जतदार पड़ोसियों की निकम्मी औलादों से ज्यादा और कुछ नहीं था, जमकर गरियातीं और उनके लड़के भी अपने उत्कृष्ट होने का हर दस मिनट पर एहसास दिलाते, पर हम थे कि खिड़की छोड़ने को तैयार न रहते...नीले बैकग्राउंड में ह्वाइट कलर का गोला पता नहीं कितने जादुई ढंग से देर तक घूमता, फिर बुआ जैसी शक्ल वाली ही एक लड़की, एंकर, एनाउंसर, समाचार वक्ता, जो चाहे कह लें, ढेर सारे कपड़े पहने सामने आती और कुछ भी बोलना शुरू कर देती. हम मुंह बाए बस उसका मुंह ही देखते रहते. अपनी गली-मोहल्ले की ही कोई बहुत खबसूरत लड़की लगती वो...पर ऐसी, जिसे दूर से ही देखा जा सकता है, छुओगे तो काट लेगी.सीरियलों की बात चलती है, तो नुक्कड़ याद आता है, उससे भी कहीं ज्यादा इंतजार. एक स्टेशन पर लंबा इंतजार. बहुत छोटा-सा था, जब वहां से प्रेम का लेसन पढ़ा. बहुत बाद में एक फिल्म का गाना सुनते हुए--रोमांस का भी एक लेक्चर होना चाहिए, वो लेसन फिर-फिर याद आया. मुंगेरीलाल के हसीन सपने और मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल जैसे धारावाहिकों के दृश्य अब तक नसों में बेचैनी पैदा कर देते हैं.मालगुडी डेज, तमस, एक कहानी की तो उफ्फ॥पूछिए ही मत...।टीवी पर ही पहले-पहल जासूसी सीरियल देखे.करमचंद की गाजरें और किटी की किटकिट. यहीं रामायण, महाभारत और चंद्रकांता जैसे भव्य धारावाहिक.रामायण के वक्त तक घर में एक बहुत मरियल ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी आ गया था.पिता जी से हम लोगों ने खूब चिल्ल-पों मचाई, तो उन्होंने एंटीना में बुस्टर कलर टीवी वाला लगवा दिया, बोले-अभी बुस्टर लगवा दिया है कलर वाला, बाद में टीवी भी ला देंगे. टीवी तो खैर कलर बहुत साल नहीं आई. पहले बड़ी ब्लैक एंड ह्वाइट आई और बहुत साल चली. हमने कब कलर टीवी खरीदी, वो प्रसंग कोई हैसियत नहीं रखता, इसलिए उसका जिक्र अभी नहीं--फिर कभी. टेलिविजन पर फिल्में भी किश्तवार आती थीं...अब भी आती हैं, यकीन न हो तो बाइस्कोप देख लीजिए. तीन घंटे की फिल्म चार दिन में आती है. लेकिन जब ये फिल्में आतीं, तो टीवी के आगे बैठने को लेकर जो धकापेल मचती, बताने लायक नहीं है. बिनावजह यादों को हिंसा से भरपूर का लेबल दे दिया जाएगा.
चुनांचे...रंगोली भी लाजवाब रही...
हेमामालिनी कभी झक सफेद साड़ी में दिखतीं तो कभी नीले रंग की।(ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी पर ब्ल्यू कलर का कवर लगा था). अब उनके जैसी धुनदार (ट्रांसलेशन -- म्यूजिकल) एंकर कोई नहीं दिखती. संडे की सुबे-सुबे हम सब दर्जन भर बच्चे चौकड़ी मारकर फर्श पर बैठ जाते. नक्शेबाजी करते हुए गनेश दद्दा (घर के टीवी आपरेटर) स्टाइल के साथ टीवी खोलते. टीवी की बीमारी ज्यादा नहीं बढ़ी तब तक सिनेमा की छूत लग गई थी. सारा दिन मुसलसल आवारागर्दी करने के बाद नाइट शो देखने जाता था. अक्सर अकेले, कभी-कभार पड़ोस के किसी दोस्त के साथ. हर बार पैसे मुझे ही चुकाने होते पर टिक्की और गोलगप्पा साथ वाला ही खिलाता.
गोंडा में सिनेमा हॉल
तीन हैं सिनेमा हॉल। इनमें से तीनों की हालत पर कुछ कहूंगा,तो इनके ओनर हड्डी-पसली एक कर देंगे पर अव्यवस्था हर जगह है. कहीं थोड़ी कम, तो कहीं थोड़ी ज्यादा. पिछली छुट्टियों में घर गया था, तो पता चला कि एक बिकने वाला भी है, दूसरे में फिल्म देखना बहुत बड़े संत्रास को न्योता देने जैसा है और तीसरे में अब नई फिल्में नहीं लगतीं, ये वो है जिसकी हालत कुछ बेहतर थी. घर के सबसे करीब था कृष्णा. मुझे वहां लगने वाली डाकू रानी हसीना, चंबल की नागिन टाइप की पिच्चरें बहुत प्रिय थीं. खूब ठांय-ठूंय, सेक्सुअल कॉमेडी देखता औऱ किशोरावस्था में मिली हॉट नॉलेज को ग्रहण करता. यहीं पर गानों वाली किताब मिलती थी, चार आने-अठन्नी और कोई-कोई बारह आने की. चार-पन्नों की किताब में नायक नायिका-गीतकार के नाम दिए होते, एक बहुत खराब सी काली-सफेद तस्वीर बनी होती, जिस पर स्याही पुत गई होती और हम सब उसे खरीदकर किसी धर्मग्रंथ जैसी श्रद्धा के साथ पढ़ते.
पुराने जमाने के हीमेश
यहीं सुना था दिवाना मुझको लोग कहें...नाक से यें यें यें कहने का मजा हिमेश रेशमिया क्या जानें...यही दीवानगी रास्ते का पत्थर किसमत ने मुझे बना दिया...तक भी पहुंची। कहीं तो ये दिल कहीं मिल नहीं पाते...और हीरो के गाने सुनते हुए बहुत रोया हूं मैं॥और तब यकीन मानिए कोई इश्क-विश्क मसलन-लड़कियों से जो होता है...वो भी नहीं था. खैर, मिथुन चक्रवर्ती का पराक्रमी डांस, जितेंद्र और श्रीदेवी की मस्त-मस्त मूवीज, पद्मालय का तिलिस्म...बहुत कुछ देखा. एक डायरी ही बना ली थी, जिसमें फिल्मों की रिलीज, कहानी और बजट तक लिखा होता. फिल्म इतिहासकारों के लिए विशेष संदर्भ ग्रंथ बन सकता है. सलीमा के विशेष समर्पण के चलते बाद में हाईस्कूल का रिसर्च स्कालर बनना पड़ा.ये वे दिन थे, जब हर फिल्म में हीरोइन के साथ हीरो की जगह खुद को देखता था. रास्ते में लौटते हुए खंभें ठोंकते हुए फाइट की प्रैक्टिस, गली में भौंकते कुत्तों को जानी कहने की आदत. बारिश में भीगकर जुकाम को दावत देने का जुनून, क्या कहें, समाज की भाषा में कितने पैसे फूंके और कितना समय व्यर्थ किया पर सपने देखने की आदत कब सिनेमा का गंभीर दर्शक बना देती है, यह बताने की बात नहीं है. हां, एक बात स्वीकार करूंगा, चाहे मेरे सेलेक्शन पर कितने ही सवाल क्यों न उठें...मुझे अब तक कोई भी फिल्म बतौर दर्शक बुरी नहीं लगी, मैंने भरपूर मजे लेकर उसे देखा है. चाहे वो डाकू रानी वाली फिल्म हो या फिर अर्थ जैसी अर्थवान फिल्म.
क्लासिक का चककर
धीरे-धीरे उम्र बढ़ी तो सलीमा भी चुनचुनकर देखने लगा। गुलजार, हृषिकेश मुखर्जी, महबूब, गुरुदत्त, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई भी..., सुभाष घई, महेश भट्ट. सबको देखा, बार-बार देखा. एक फिल्म आई थी मैं आजाद हूं. लोगों ने कहा बंडल है. मुझे अब भी लगता है कि नहीं थी. तब एक ही दिन में तीन शो देख लिए थे. इस दावे पर सवाल उठ सकता है कि मैं सिनेमा का गंभीर दर्शक हूं...जवाब दूंगा, सिनेमा को तो गंभीरता से ही देखा है...देखा जाने वाला सिनेमा गंभीर न हो तो मैं क्या करूं। खैर, गंभीर फिल्में देखने से कहीं ज्यादा पढ़ी जाती हैं...वहीं से सिनेमा का असल आस्वाद मिला है पर ये आनंद-अध्ययन हॉल में नहीं हो सका, वीसीआर- की बदौलत ही पूरा हो पाया. हम सब जुनूनी लोग चंदा करके वीसीआर मंगाते, टीवी भी॥रिक्शे पर लदकर आता..साथ में तीन फिल्में...एक कैसेट हम लोग लाते...वीसीआर वाले को नहीं बताते...फिल्म चालू होती...जल्दी-जल्दी गाने रिवाइंड, फारवर्ड करके फिल्म देख लेते...कोई गाना अच्छा लगता, तो पूरा भी देखते. सुबू-सुबू वीसीआर वाला आता और कवर छूकर बोलता, वीसीआर गरम क्यों है? तुम लोगों ने तीन से ज्यादा फिल्में देख ली हैं क्या? हम काउंट करके बताते कि अभी तो नवै घंटा हुआ है, बारह घंटे का फिल्म कैसे देख लेंगे भाई?
रोटिया बैरन मजा लिए जाए रे...
कहने को बहुत कुछ है...इतना जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, मसलन-कैसे सिनेमा हॉल में गेटकीपर से झगड़ा करके फिल्म देखी...कैसे प्रीमियर में फिल्म देखने के लिए मुंबई ही पहुंच गए, कैसे एक फिल्म के सेट पर हीरोइन को ही पटा लिया और बाद में डायरेक्टर से वो झाड़ खाई कि पूछो ही नहीं...पर न पढ़ने वालों के पास सब्र बचेगा और न लिखने की फुर्सत बची है...वैसे भी, ये सबकुछ इतना खूबसूरत है कि यादों में ही सिमटा रहे, तो अच्छा, नहीं तो अपनी चमक खो सकता है। अब वो पहले जैसी मस्ती कहां...कंप्यूटर, डीवीडी, वीसीडी, होम थिएटर, म्यूजिक सिस्टम, टेप रिकार्डर...आज सबकुछ है. कुछ फिल्म वालों से जान-पहचान, मेल-मुलाकात है, जिनसे नहीं है, उनसे हाथ मिलाते ही सुरसुरी आ जाए...वैसा खयाल भी नहीं बचा है फिर भी...पहले जैसी मस्ती और मजा नहीं है...कहीं खो गया है भाई लार्जर देन लाइफ वाले सलीमा का जादू...
Posted by chavanni chap at 8:32 AM 1 comments
Labels: गोंडा, चंडीदत्त शुक्ल, सिने संस्कार, हिन्दी टाकीज
वेद रत्न शुक्ल said...
भाई साहब,
उत्तम, अति उत्तम। संस्मरण शायद सुन्दर ही होते हैं। अखबार में आप इतना अच्छा नहीं लिखते। लेकिन यहां तो पूरा बांध लिया।
वेद रत्न शुक्ल
September 29, 2008 2:00 PM
महाबीर सेठ said...
आखिर आ गए ही अपने पुराने रूआब में...
वह गोंडा की मस्ती, वह चाट और टिक्की
वह रात-भर इंतजार की घडियां, कहां गई टिक-टिक
कभी गोंडा जाता भी हूं तो आप जैसे लोग ही नहीं मिलते,
मन बड़ा उदास होता, लेकिन अब तो उसी मिट्टी से हैं..
सो गोंडा का क्या ?... आप तो दिल्ली वाले हो गए और मैं तुच्छ प्राणी जालंधर की सड़कें नाप रहा हूं ।
कभी गुरू जी की तो कभी द्विवेदी जी की याद आती है...
मत छेड़े गोंडा की बातें...
पंडित जी
आपका छोटा भाई...
September 29, 2008 8:31 PM
nidhi said...
ye sansmaran, perchaiyaan hi nhi hai. aap pure ke pure apni smritiyon ka vistaar hain.
cinema ki khushboodaar huwaayen gonda (jaise dhero chote chote shehro se) se delhi aarhi hain.
October 1, 2008 5:57 PM
SHASHI SINGH said...
महानगरीय चमक-दमक से अलग छोटे शहरों और गांव-खेड़े में सिनेमा और टेलीविजन के सर्वथा अलग मायने है। उस मायने को समझने में आपकी दृष्टि बहुतों के लिए उपयोगी होगी।
लेख बहुत ही अच्छा लगा!
October 2, 2008 11:34 AM
Amit K. Sagar said...
खूबसूरती से लिखा.
October 3, 2008 9:24 PM
अजित वडनेरकर said...
दिलचस्प । सिनेमाई आनंद से सराबोर।
ग़ज़ब थे वो दिन। सिनेमा तो सच, गांव, कस्बों और देहात में ही जीवंत होता है।
October 4, 2008 12:00 AM
विवेकानंद झा said...
bhay aap itna accha likhate ho, nahi pata tha. mafi chahta hun iske liye.
October 4, 2008 12:53 PM
Tuesday, July 29, 2008
गौरैया
एक सुर्ख शाम
डूबा नहीं सूरज अभी
पर
दीवार के पांवों तक
घिर रहा अंधेरा.
अभी-अभी
चहकी है गौरैया
घर जाएगी अब
बता रही है
पहले बारिश तो थम जाने दो
सुबह होगी
फिर आएगी
उसकी टोली...
गौरैया बारिश से नहीं डरती
वो उड़ना चाहती है
बूंदों के बीच
पर जानती है
पंख भीग जाएंगे तो नहीं उड़ पाएगी
भूल करती है गौरैया फिर भी
वो बढ़ती है घर की ओर
जो है बाज के बगल
चहको गौरैया
गिलहरी भी तुम्हारे साथ फुदकेगी
पर
बाज से बचकर
हंसो
करो कलरव
पर
थमकर.
Monday, July 28, 2008
एक चिड़िया है सिक्ता
एक चिड़िया है सिक्ता. छोटी-सी...इन दिनों, बारिश से भीगते हुए वो अपना घर बनाने में जुटी है...बूंदों से नहाती हुई, अपनी भाषा में कुछ गुनगुनाती हुई सिक्ता चोंच में घास के कई टुकड़े समेटे इधर से उधर फुदकती, इस डगर से उस डगर तक भटक रही है...हो सकता है, बारिश उसका घर बनने न दे, बन जाए, तो बहा दे पर सिक्ता यह सब नहीं सोचती...वो बस घर बनाने में जुटी है...उसका घर तो बन जाएगा न?
Sunday, July 27, 2008
बचपन, बारिश और चाय
गरम-गरम सांसों की सरसराहट ने कहा,हाथ में गरम-गरम चाय की एक जोड़ी प्याली उठाओ. चलो, बस चलो, चल दो, लोग सुनें कदमों की आहट. एक जो तुम्हारे पैर हों, दूसरे तुम्हारे साथी के. हम चले, तभी दो बूंदें आसमान से उतरीं, गिरने लगीं तो अधखुली आंखों ने,पलकों ने, गैर-अघाई बाहों ने उन्हें लोक लिया...धीरे-धीरे बारिश बढ़ी, भीगने लगे हम, मन में आग दहकती हुई, पानी पड़ा और उठा धुआं. यादों का ऐसा धुआं, जिनमें कुछ सीलने, सुलगने की महक शामिल है...याद आया बचपन, धुंधलाया पर नए-नकोर बुशर्ट जैसा...चेहरे पर छा गया एक रुमाल, यादों की मीठी महक से महकता हुआ...
बहुत दिन बाद जुर्राबें उतार, पार्क की हरी घास पर नंगे पैर टहलने का दिल किया...दफ्तर का वक्त था, दस्तूर भी न था,फिर भी जूते फेंके टेबल के नीचे, मैं और वो...नहीं तुम नहीं, वो भी नहीं...एक और साथी...पार्क की ओर चल दिए...हम चाय की प्याली लिए पार्क की एक बेंच की दीवाल पर ऊपर उठंगे हुए...साथी से कहा, घास पर चलें पर वो नहीं माना...उसके कपड़े गंदे हो जाते...मैं नीचे आ गया...वहां ढेर सारा पानी था, गंदगी भी रही होगी पर नहीं...घास महक रही थी...पानी भी मुझे अपनी ओर खींच रहा था...मैं एक बड़ा--कमाऊ और जिम्मेदार इंसान नहीं, छोटा सा बच्चा बन गया था...बारिश थम गई है...मैं फिर जुर्राबें पहनकर दफ्तर में आ गया हूं...तुम भी साथ नहीं हो, बस कंप्यूटर है और आठ घंटे की नौकरी...बारिश फिर से आएगी न...मैं भीगूंगा और तुम भी...
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