कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, January 30, 2012

चण्डीदत्त शुक्ल की दो नई कविताएं

चण्डीदत्त शुक्ल

सो जाओ कि रात बहुत गहरी है, काली है
सो जाओ कि अब कोई उम्मीद नहीं जगाएगा तुम्हारे मन के लिए
सो जाओ कि बंगाल से लेकर मद्रास तक, समुद्र का जल नाराज़ है तुमसे।
दिशाएं पूछती हैं, सनसनाकर हरदम, क्यों हारे तुम, इतना प्रेम किया था क्यों?
सो जाओ कि देश की किसी नायिका की आंख तुम्हारे लिए गीली नहीं होने वाली।
सो जाओ कि प्रेम एक घिसा-पिटा, दोहराए जाने को मज़बूर शब्द भर है।
सो जाओ कि गीली लकड़ी की तरह निरर्थक जलावन है प्रेम,
निहायत दुख के वक्त सिर्फ घुटन भरा धुआं पैदा करेगा।
सो जाओ कि एक और उदास दिन तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
एक सुबह, जिसमें मशीन की तरह काम और निष्फल इच्छाएं तुम्हारा रास्ता ताकती होंगी।
सो जाओ कि किसी और को न सही, तुम्हें खुद से एक झीना-सा लगाव तो है।
तुम अब भी प्रेम करते हो न उस लड़के को,
जो प्रेम करते वक्त रोता था, हंसता था, खिलखिलाता था और नंगे पैरों चूमता था हरी-हरी घास को।
सो जाओ कि कुछ और कविताएं लिखना।
उन्हें पढ़कर कुछ लोग रोएंगे। टूटेंगे...। कोई-कोई सिर भी धुनेगा, फिर कुछ तो राहत मिलेगी तुम्हें और उन्हें।
सो जाओ कि निराशा से लबालब इस काव्य के बाद,
सकारात्मक जीवन के लिए कुछ भाषण तुम्हें तैयार करने होंगे।
सो जाओ, कि अब तुम प्रेम में होते हुए भी, प्रेम में नहीं हो।
सो जाओ, क्योंकि खुदकुशियों से भी कुछ भला नहीं होता।
सो जाओ, क्योंकि ज्यादा जागने और बहुत रोने से,
दिन भर आंख रहेगी लाल।
करीब चालीस की उम्र में, लोग कहते हैं, उदास दिखना, उदास होने से ज्यादा खराब समझा जाता है।


एक और कविता
एक दोस्त ने पूछा...कल रात,
तुम्हें, आखिर नींद क्यों नहीं आती...
जागते रहते हो उल्लुओं की तरह...
सो क्यों नहीं जाते...
मैं क्या कहता,
फिर एक बार ओढ़ ली, शब्दों की चादर.
कहने लगा...
वसंत ने आज ही द्वार खटखटाया है
रात ने ब्रश किए हैं शायद
हवा ठंडी है कुछ ज्यादा ही
चांद भी आंख-मुंह धोकर आया है
चांदनी मतवाली-सी फिर रही है...
पत्तियां नए कपड़े पहनकर इतराती हुईं।
फूल और महकते,
परिंदे और चहकते हुए
सब पूछते- तुम उदास क्यों हो?
मैंने भी घर की सब खिड़कियां खुली छोड़ी हैं...
शायद, हवा, खुशबू और चांदनी के साथ वसंत भी आकर ठहर जाए
पुराने अखबार पर जमी धूल खिसकाकर, जमके बैठे जाए।
मुझे सोता देखकर लौट गया फिर... फिर क्या करूंगा...?

Wednesday, January 25, 2012

बहुत मेले देखे, लेकिन ये मेला कुछ खास है!

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

भास्कर ब्लॉग. .अदाएं दिखा रही है जालिम सर्दी। कभी कहर बरपाती है तो अगले ही पल गुलाबी हो जाती है। हम भी कभी ठिठुरते, कहीं सूरज की गुनगुनाहट के संग संवरते हुए, मेले में जाने को तैयार हो रहे हैं। आज जयपुर में साहित्य के मेले का आखिरी दिन है..।

और दिमाग की सिल्वर स्क्रीन पर बीते वक्त की यादों की रील चलने लगी है। कैसे-कैसे तो होते थे बचपन के मेले। डरते-डरते हुए भी, चिल्ला-चिल्लाकर हवाई झूले की सैर। टॉकीज और आर्केस्ट्रा में घुसने का रोमांच, जादूगर के हैरतअंगेज करतब। नींबू, धनिया, पुदीना, टमाटर से सजा चना मसाला खाना, गुब्बारों पे निशाना लगाना, गोलगप्पे का जायका, धार्मिक गीत, आरती, चालीसा और फिल्मी गानों की किताबें खरीदना, बीच-बीच में खूब शोर-शराबा और फिर एकाएक किसी बच्चे का गुम हो जाना..!

कभी सोचा नहीं था कि लिखने-पढ़ने-कहानी-किताबों-कविता का भी मेला लगेगा। जयपुर में लगता है हर साल। दुनिया भर से लिखने-पढ़ने वाले आते हैं और उनकी फैन-फॉलोइंग जुटती है। इस साल मेले के चार दिन बीत चुके हैं। देश-दुनिया के हजारों लोगों की भीड़ डिग्गी पैलेस का रुख कर चुकी है। बाहर चाय सात रुपए में बिक रही है और अंदर के तो भाव ही न पूछिए। लंदन से आईं कैरिना कुल्हड़ की चाय पीने के लिए पंद्रह मिनट तक जद्दोजहद करती हैं, लेकिन जैसे ही ओप्रा विन्फ्रे मंच पर आती हैं, वे सब भूल-भालकर कुल्हड़ और ब्रोशर संभालतीं स्टेज की तरफ बढ़ चलती हैं।

कल की ही तो बात है। शानदार हवेली जैसे होटल डिग्गी पैलेस में दीवारें गुलाबी रंग से रंगी थीं। संतरी-लाल, पीली-हरी झालरों से आसमान ढंका था। हर तरफ बड़े-बड़े कैमरे घूर रहे थे, लेकिन फ्रंट लॉन के बाहर, झरोखे में बैठी एक गोरी-चिट्टी अंगरेज लड़की एक किताब पढ़ने में ऐसी मशगूल थी, ज्यूं ध्यान लगा रही हो। उसे देखते ही जैसे कानों में गूंजने लगा — एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा.. ए लो, तभी बगल से इस गीत के गीतकार जावेद अख्तर निकल लिए।

गुलजार की झलक भर ही मिली। भीड़ उन्हें छू लेने को बेताब थी, पर शेखर कपूर, दीप्ति नवल, अशोक चक्रधर और अशोक वाजपेयी बगल की कुर्सियों पर बैठे थे। अपनी मशहूरियत, ऊंचे कद के बोध से एकदम अलग। खुशी तब भी होती है, जब आप देखते हैं, दरबार हॉल में घुसने के लिए जितनी मशक्कत आपको करनी पड़ रही है, केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल भी उतनी ही कोशिश में जुटे हैं। अगर आप सिब्बल से पहले अंदर घुस गए तो ‘हुर्रा’ करेंगे ही।

साल-दर-साल लिटरेचर फेस्टिवल में भीड़ बढ़ रही है। कहने वाले कहते हैं, लिटरेचर मिसिंग है, बस फेस्टिवल बचा है, लेकिन ये महज बातें हैं। क्या खुशी की बात ये नहीं है कि जिस साहित्य को लेकर दैन्यता, मुफलिसी की बातें होती हैं, उसके आकर्षण में सारी दुनिया की सेलिब्रिटीज खिंची चली आती हैं। हम भारतीय स्वभाव से ही उत्सव प्रेमी होते हैं, सो अक्षरों के उत्सव में भी शामिल हो रहे हैं, जोर-शोर से। आदतन खाते-पीते-बतियाते, तारीफें कर रहे हैं और जरूरत के हिसाब से आलोचना भी।

वैसे, मुझे तो जेएलएफ में शामिल होकर बचपन में सुनी, कवि कैलाश गौतम की कविता अमौसा का मेला की ये पंक्तियां याद हो आईं - एही में चंपा-चमेली भेंटइली/बचपन के दुनो सहेली भेंटइली/ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें/दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें..

शादी के दस साल बाद कहीं मिली सहेलियां जैसे बतिया रही हों, वैसे ही मेले में कितने ही पुराने परिचित मिले और गपियाने लगे। आए तो थे सब के सब किताबों की महक को दिमाग में बसा लेने, लेकिन जब मिले तो सारे काम भूलकर एक-दूसरे को खुद में समेटने लगे। ऐसे में कहें तो बड़े काम की चीज है ये मेला.. विचारों का मेला और यारों का मेला।

 
 

Wednesday, January 18, 2012

सपनों को यादों की गुल्लक से निकालें

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख--भास्कर ब्लॉग...
- चण्डीदत्त शुक्ल

सोंधी महक से सराबोर जाड़े की सुबहों में कंबल से हाथ बाहर निकालने की हिम्मत नहीं पड़ती। कोहरे का झुरमुट जैसे लपककर मुट्ठी में हथेली जकड़ लेता है। उसकी गर्मजोशी के बावज़ूद ठिठुरा मन-तन लिए हम फिर छुपने के रास्ते तलाशने लगते हैं। हां, सूरज के चेहरे पर ज्यूं गुनगुनी धूप थिरकती है, उसी पल यादों के कई दरीचे ख्यालों में खुल जाते हैं।

यादें हैं भी क्या.. गुजरे वक्त की मासूम-सी गवाही। मौसमों का असर मन पर इस कदर होता है कि याद-कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। कुछ बीते हुए लम्हे अलग-अलग मौसमों की दास्तान बयां करते हैं। कभी कोई धड़कन कानों में आकर गुनगुनाती है - क्यों, जीभ पर तैरने लगा न पहली बार चबाए गए भुट्टे का स्वाद और फिर उभरता है अफसोस..। हाय! भुट्टे, तुम पॉपकॉर्न क्योंकर हुए? इस सोच से उबर भी न पाए कि ‘छपाक’ कर स्मृतियों की बौछार नहला जाती है और रूबरू करा देती है उस नजारे से, जब हम सारा लोक व्यवहार भूल, मर्यादा का बंधन तोड़के, जमकर भीगे थे, पहली बारिश में।

और महज मौसम ही क्यों.. कुछ पुरानी, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें, चंद जर्द पड़ी चिट्ठियां और कई सूखे हुए गुलाब भी तो याद दिला देते हैं बीते हुए जमाने की।

जमाना, जब जिम्मेदारियों से ज्यादा जोर मस्तानेपन का था। भाग-दौड़ तब भी होती थी, लेकिन लोकल ट्रेन, बस या ऑटो पकड़ने के लिए नहीं। टारगेट तब भी होता था, लेकिन कारोबार का नहीं - हर दौड़धूप, हर लक्ष्य के पीछे वजह बस एक थी - आज का दिन मस्ती में जी लें। कल की कल देखेंगे।

ख्वाबों की दुनिया भी कितनी सतरंगी होती है। आंखों के कैनवास पर इंद्रधनुषी रंग कभी धुंधले ही नहीं होते। वक्त गुजरता गया। आप, हम और हमारे संगी-साथी, सब के सब ‘जिम्मेदार’ हुए और भूल गए पहली-पहली बारिश में नहाने का, दिन भर बिना काम के भटकने का सुख, यानी खुद के लिए जीने के मायने।

वक्त नहीं थमता, लेकिन कभी तो कुछ होता है, जो सब कुछ याद दिला देता है। चंद रोज पहले की ही बात है। जयपुर के जवाहर कला केंद्र में युवा कलाकार निधि सक्सेना की पेंटिंग एक्जीबिशन देखने गया था, एक तस्वीर पर नजर ठहर गई। यादों के आसमान और चाहतों के समंदर का नीला रंग। चिड़ियाएं चांद को साथ ले जाने को मचल रही हैं। एक लड़की कैमरे के पीछे खड़ी उनकी चलती-फिरती तस्वीरें कैद करने में लगी है।

कई डॉक्यूमेंटरी फिल्में बना चुकी निधि के लिए अपने सपनों को संजोए रखने का जरिया चित्रकारी है। उनके कैनवास पर चिड़िया है, सिनेमा है, चाहत है, सपने हैं.. लेकिन ये तस्वीर देखकर मैं ठिठक गया, सोचने को मजबूर — हमारे पास क्या है?

बीता वक्त तो है नहीं, यादों को सीलन लग रही है। अब खुलकर झूमने, बेइरादा कहीं चल देने के मौके और शगल नहीं हैं..। फिर करें क्या, कैसे लौटाएं बीते वक्त को? क्यों न हम भी चिड़िया बनकर चांद को साथ ले जाने की कोशिश करें। खयाल कुछ ज्यादा पोएटिक हो गया शायद, सो इसका मुकम्मल बयान कुछ यूं कर लेते हैं - आओ, चलो, सपनों को यादों की गुल्लक से बाहर निकालें। अपने लिए भी कुछ देर जी लें। कुछ अच्छा करें, कुछ सुंदर सुनें, चंद अच्छे लोगों से दोस्तियां करें। खुशी के बहाने तलाशें। आप कहेंगे - न! मुस्कराने की बात करते हो/किस जमाने की बात करते हो..? माना साहब, मुश्किल है खुशी के चांद को साथ ला पाना, लेकिन छोटी-छोटी कोशिशें करके हम खुश रह सकते हैं। तो करेंगे न आप कोशिश..?

Tuesday, January 10, 2012

क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती



 - चण्डीदत्त शुक्ल@08824696345
तुम्हारा दोस्त दुखी है...
उससे न पूछना, उसकी कातरता की वज़ह,
दुख की गंध सूखी हुई आंख में पड़ी लाल लकीरों में होती है।
ये सवाल न करना, तुम क्यों रोए?
कोई, कभी, ठीक-ठीक नहीं बता सकता अपनी पीड़ा का कारण।
कहानियों के ब्योरों में नहीं बयान होते हताशा के अध्याय,
न ही दिल के जख्मों को बार-बार, ताज़ा चमड़ी उधेड़कर दिखाना मुमकिन होता है साथी।
कोई कैसे बताएगा कि वह क्यों रोया?
इतना ही क्यों, इस बार ही क्यों, इतनी छोटी-सी वज़ह पर?
ऐसे सवाल उसे चुभते हैं।
रो भी न पड़ना उसे हताश देखकर,
वह घिर जाएगा ग्लानि में और उम्र भर के लिए।
नैराश्य होगा ही उसकी ज़ुबान पर और लड़खड़ा जाएगी जीभ,
बहुत उदास और अधीर होगा, अगर उसे सुनानी पड़ी अपनी पीड़ा की कथा।
तब भी यकीन करो, शब्दों में नहीं बांध पाएगा वह अपनी कमज़ोरी।
हो सके तो उसे छूना भी नहीं।
तुम्हारी निगाह में एक भरोसे का भाव है उसका सबसे कारगर मरहम,
उसमें बस लिखा रहे ये कहना – तुम अकेले नहीं हो।
उसकी भीगी पलकों को सूखने का वक्त देना
और ये कभी संभव नहीं होगा, उसे यह समझाते हुए –
गलतियां ये की थीं, इसलिए ऐसा हुआ!
हर दुखी आदमी मन में बांचता है अपने अपराध।
वह जड़ नहीं होता, नहीं तो रोया ही न होता।
दुख नए फैशन का छींटदार बुशर्ट नहीं है कि वह बता सके उसे ओढ़ने की वज़ह,
कोई मौसम भी नहीं आता रुला देने में जो हो कारगर।
हर बार आंख भी नहीं भीग जाती दुख में।
जब कोई खिलखिलाता हुआ चुप हो जाए यकायक,
तब समझना, कहीं गहरे तक गड़ी है एक कील,
जिसे छूने से भी चटख जाएंगी दिल की नसें।
उसके चेहरे पर पीड़ा दिखनी भी जरूरी नहीं है।
एक आहत चुप्पी, रुदन और क्षोभ की त्रासदी की गवाही है।
उसे समझना और मौजूद रहना,
बिना कुछ कहे,
क्योंकि पीड़ा की कोई भाषा नहीं होती।

Wednesday, January 4, 2012

चण्डीदत्त की कुछ ताज़ा कविताएं

इस ठूंठ पर वसंत की तरह लहलहाना...! 
एक झटके के साथ रुकती है तुम्हारे शहर से आ रही बस,
उतरता है मुसाफ़िरों का रेला
और
टिक जाती हैं नज़रें फिसलती हुई
आगत से गंतव्य तक की सूचना से
गाड़ी की नंबर प्लेट पर।
महज, ये सोचकर रोमांचित हो उठता हूं मैं,
यहीं कभी तुमने भी देखा होगा।
तुम्हारी पसंद के रंगों की बुशर्ट-पतलून पहनने लगा हूं मैं,
अब, जब भी तुम कभी मिलोगी,
खुशी से लहालोट हो कहोगी न, अरे! मेरा फेवरिट कलर!
ज्यूं,
मैंने पतझड़ के इस मौसम में अपने सब के सब पत्ते त्याग दिए हैं।
ज़िंदें अपनी, मुगालते भी सभी और वहम की खाल...
केंचुलें उतारकर निरीह केंचुए की तरह सर्प बैठा है नई त्वचा की प्रतीक्षा में,
तुम भी इस ठूंठ पर वसंत की तरह लहलहाओ न...!

***
तुम, आ गए प्रेम!


प्रेम,
तुम्हारा पीछे छूटना तय ही था
शायद
तुम्हारे आने से पहले से
तुम फिसल ही जाते हो
दिल की गिरह से जब-तब
बल्कि,
जब, तब तुममें डूबे होते हैं हम।
तब, जब तुम्हारी होती है सबसे ज्यादा ज़रूरत,
तुम होते हो गैरहाज़िर
हमारी ज़िंदगी से।
और,
एक के बाद एक कर गुज़रते दिनों में
तुम हो जाते हो गुजरे दिनों को एक गैरज़रूरी-सा एहसास।
फिर,
ज्यूं ही हम निश्चिंत होकर,
कुछ दर्दभरे गीत सुनते हुए
चंद कविताएं लिखकर
कुछ ज़र्द चिट्ठियां उलटते हुए,
निपटाते रहते हैं घर के ज़रूरी कामकाज,
ऐन उन्हीं के बीच,
गहरी टीस बनकर तुम सिर उठा खड़े हो जाते हो...
क्या, यही याद दिलाने के लिए
हां, तुम मौजूद हो.
कभी नहीं गुजरे,
न ही तुम गैरज़रूरी थे।
सच है, तुम्हारा पीछे छूटना,
छूटना है बचपन की तरह ही,
जो न होकर भी हाज़िर होता है हमारे मन में सदैव।
यूं ही,
तुम भी तो अपनी छायाओं में,
हमारे होंठों और आंखों पर हरदम अट्टहास करते रहते हो,
कभी मुस्कान और आंसू बनकर,
तो कभी कटाक्ष की शक्ल में कहते हुए,
बिना प्रेम के जियोगे? जीकर दिखाओ तो जानें!

***
लम्हा एक, हंसूंगा भरपूर

उदासियों के रंग मेरे दामन पे खूब खिलते हैं.
तुम खिलखिलाना बेहिसाब
एक लम्हा, ही हंस लूंगा मैं भी
मुकम्मल हंसी
बिना किसी टीस की
बगैर रत्ती भर याद के
बस सहज होकर
जैसे, प्रेम से पहले था
अर्थहीन ही सही....

***

दुख में तुम्हारे संग की याद

एक विदा
संकेत है किसी आगमन का
हर बार कोई लौटे ही,
ये ज़रूरी है...
तुम नहीं
तो दुख ही सही।
यूं भी,
दुख में तुम कुछ ज्यादा ही याद आते हो
और तुम्हारे संग बिताया गया सुख भी
लगता है अनमोल।
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!
एक विदा
संकेत है किसी आगमन का
हर बार कोई लौटे ही,
ये ज़रूरी है...
तुम नहीं
तो दुख ही सही।
यूं भी,
दुख में तुम कुछ ज्यादा ही याद आते हो
और तुम्हारे संग बिताया गया सुख भी
लगता है अनमोल।
वसंत,
तुम आना...
भ्रम का पतझड़ गुजरने को है...!

***

चलते-चलते
मैं खूब मिलता रहा, हर दिन जोर-शोर से
वो चुपचाप मेरी रगों से होके गुज़र गया...
...
तू आया, बोला भी कुछ नहीं, चलता गया
यूं, मेरे साथ था, फिर भी सफर खाली रहा...
....
गर्मजोशियां उसकी बांह में थीं समंदर की तरह
पर दिल किसी सहरा-सा लिए दामन में वो बाकी रहा