कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, June 27, 2012

एक अकेला मैं ही काफी नहीं हू क्या?

महकता है चंदन हर ओर
नहीं है भोर भी,
कि कोई पुजारी तैयार कर रहा हो लेप
देवि या देव के अभिषेक की ख़ातिर।
तुम फिर ठहरकर मेरे घर के बाहर,
जोर से उसांस लेकर चली गई हो कहीं?
सुनो वसंत,
माफी के काबिल नहीं है,
मौसमों के कालचक्र में हेर-फेर की तुम्हारी साज़िश।
ऐन दोपहर में,
जब लंच टाइम होकर गुजरा है,
लोग दफ्तरों में कामकाज के लिए फिर हो रहे हैं उत्सुक,
ऐसे में अगर भोर का वहम पैदा करोगी,
तपते सूरज को शर्म आएगी,
हवा भी सुलगती हुई सर्द होगी,
कितना कुछ तो गड़बड़ होगा,
मुर्गे देने लगेंगे बांग,
प्रभातफेरियां सजानी पड़ेंगी,
आरतियों और घंटियों की ध्वनि से बदल जाएगा सब।
शेयर बाज़ार बिना परिणाम के फिर खुल जाएगा।
कितनी ही अर्थव्यवस्थाओं को,
कार्यालयीय व्यस्तताओं को,
प्रेमियों के तय वादों को,
स्कूलों में हो रहे नए एडमिशन्स को,
बिगाड़कर तुम्हें क्या मिलेगा।
ऐसे तेज़ सांस लेना-छोड़ना बंद रखो।
तुम्हारी एक-एक आहट से यह कमज़ोर दुनिया हो जाती है असंतुलित।
रहम करो देवि,
तुम्हारे अत्याचार का शिकार, एक अकेला मैं ही काफी नहीं हूं क्या?