* आईआईटी और आईआईएम में ही मिलती है क्वालिटी एजुकेशन
* बेहतर पढ़ाई के लिए विदेश जाना ही है छात्रों की प्राथमिकता
* 1.5 लाख भारतीय छात्र हर साल चाहते हैं विदेश जाना
* 30 हजार है ब्रिटेन जाने वालों की संख्या
* 2009 में अमेरिका जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या एक लाख के पार
* अमेरिका के अलावा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा व सिंगापुर हैं पसंदीदा
* ऑस्ट्रेलिया के चार लाख से ज्यादा छात्रों का पांचवां हिस्सा भारतीय हैं
* इटली, पोलैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड व स्वीडन भी हैं हॉट डेस्टिनेशन
* 1.60 लाख भारतीय दूसरे देशों में पढ़ रहे
* 25000 डॉलर हर साल, प्रति छात्र है औसत खर्च
* 400 करोड़ डॉलर एक साल में खर्च करते हैं भारतीय छात्र
फिल्म "नाम" के चर्चित गीत चिट्ठी आई है की आखिरी पंक्तियां हैं—तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया/पंछी पिंजरा तोड़ के आ जा, देश पराया छोड़ के आ जा.. लेकिन क्या सिर्फ पैसा ही वतन की मिट्टी छुड़ाकर सात समंदर पार जाने को मजबूर करता है? क्या तड़क-भड़क की चाहत और बेहतर जीवन स्थितियों की वजह से लोग परदेस जाते हैं...क्या सचमुच भारत में अच्छी पढ़ाई नहीं होती, इसलिए छात्र-छात्राएं विदेशी शिक्षण संस्थानों का रूख करते हैं? इन सवालों के सीधे और सटीक जवाब तलाशने मुश्किल हैं, क्योंकि विदेश जाने, वहां बसने और प्रतिभा पलायन की वजहें बहुत-सी हैं और अलग-अलग हैं...
विदेशी स्कूल में पढ़ाई-लिखाई
पढ़ाई-लिखाई के लिए परदेस का रूख करने की आम वजह यही बताई जाती है कि विदेश में क्वालिटी एजुकेशन मिलती है, जबकि भारत में महंगी फीस के बावजूद गुणवत्ता वाली शिक्षा से छात्र-छात्राएं महरूम ही रहते हैं। यही कारण है कि उच्चवर्ग ही नहीं, मध्यवर्गीय परिवारों की भी यही इच्छा होती है कि उनके बच्चे विदेश पढ़ने जाएं। चार सौ से अधिक विश्वविद्यालयों के बावजूद जब क्वालिटी एजुकेशन की बात आती है, तो आईआईटी और आईआईएम के अलावा कोई नाम नहीं दिखता। चूंकि, एजुकेशन लोन और स्कॉलरशिप हासिल करना अब मुश्किल नहीं रह गया है, इसलिए भी उच्च शिक्षा की इच्छा रखने वाले विदेशी संस्थानों की ओर मुड़ रहे हैं।
यूं, परदेस में पढ़ने की वजह महज क्वालिटी एजुकेशन ही नहीं है। यहां पढ़ने के बाद छात्रों को एक्सपोजर भी मिलता है, जिसकी वजह से कारपोरेट वल्र्ड में प्रवेश पाना आसान हो जाता है। इसके उलट, देश में शिक्षा की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। ज्यादा समय नहीं हुआ, जब राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति ने स्वीकार किया था कि विश्वविद्यालय का स्तर बहुत गिर चुका है। उन्होंने थोड़ी निराशा के साथ ये तक कहा था कि विश्व स्तर के दर्जे की बात छोड़ ही दें...अगर विश्वविद्यालय साठ के दशक वाली ख्याति पुन: पा ले, तो बड़ी बात होगी। कुलपति महोदय की स्वीकारोक्ति जैसी स्थितियों के बीच छात्रों का पलायन स्वाभाविक नहीं है क्या।
इस परिदृश्य में राहत की बात ये है कि पंद्रह साल की जद्दोजहद के बाद भारत सरकार ने विदेशी शिक्षा संस्थान (प्रवेश नियमन एवं परिचालन, गुणवत्ता बरकरार रखना और व्यावसायीकरण पर रोक) विधेयक को हरी झंडी दे दी है...इसके बाद विदेशी विश्वविद्यालय देश में अपने परिसर आसानी से खोल सकेंगे...वैसे, सरकार वर्ष 2000 में ही शिक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी दे चुकी है, लेकिन कानून से बंधे होने की वजह से विदेशी विश्वविद्यालय यहां के छात्रों को डिग्री नहीं दे सकते थे। अब चूंकि, विदेशी शिक्षा संस्थानों की शाखाएं देश में ही खुलेंगी, तो निश्चित तौर पर भारतीय छात्रों का विदेश जाना रूकेगा...।
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को उम्मीद है कि ये फैसला शिक्षा क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा और इससे पठन-पाठन संसार में विकल्प, प्रतिस्पर्धा के साथ ही बेहतर गुणवत्ता की शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा। उन्होंने इसे दूरसंचार क्षेत्र में आई क्रांति से भी बड़ी बात बताया है...। बेशक, सिब्बल की आशा सकारात्मक है, लेकिन उन्हें कई मोर्चो पर विचार करना होगा। देश के करोड़ों रूपए बचाने के लिए उठाए गए इस कदम से ही समस्या का हल नहीं होने वाला।
वैश्विक मंदी की वजह से बहुत-से छात्रों का विदेश पलायन रूका था, लेकिन इसकी वजह देशप्रेम नहीं, बल्कि मौजूदा परिस्थिति थीं... भारतीय छात्र परदेसी संस्थानों का रूख करना तब तक बंद नहीं करेंगे, जब तक उन्हें हर राह पर सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जाएंगी। ये तो माना कि पठन-पाठन का स्तर सुधर जाएगा, क्वालिटी एजुकेशन का सपना पूरा होगा, लेकिन क्या मार्केटिंग, अवसर और एक्सपोजर की बुनियादी शर्तो पर हमारी सरकार खरी उतर पाएगी? राष्ट्र से प्रेम जरूरी है, लेकिन अंध राष्ट्रवाद खतरनाक भी है। अगर छात्रों का विदेश पलायन रोकना हो, तो देश में सहूलियतें बढ़ानी ही होंगी।
चर्चित ब्लॉगर घुघूती बासूती कहती हैं, कई प्रतिभाओं ने भारत में ही रहना पसन्द किया, वे अपने निर्णय के कारण सिर धुनते मिल जाएंगे...। यही वो समय है, जब घुघूती की इस खिन्नता को समझा जाए। ये बात भी सही है कि किसी को देश छोड़ने का शौक नहीं होता। आज एनआरआई हमारे लिए पैसे, श्रम और बुद्धि का एक बड़ा स्त्रोत हैं, तो परदेस जाने, पढ़ने या बसने में भी कोई समस्या नहीं है। हां, ऎसा गुलामी की मानसिकता के तहत किया जा रहा है या फिर सुविधाओं-संसाधनों की कमी की वजह से लोग विदेश की ओर मुड़ रहे हैं...इसका सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाना जरूरी है।
परदेस प्रेम की वजहें समझनी हैं जरूरी
परदेस-प्रेम की वजह सिर्फ भौतिक ही नहीं, मानसिक भी है। गुलामी की मानसिकता से उबरने, खुद को अंग्रेजों के बराबर दिखाने की इच्छा भी विदेशी चमक-दमक की तरफ खींचती है। ऎसा नहीं कि विदेश में बस जाने की अकुलाहट की वजह अपनी मिट्टी से प्यार ना होना है, लेकिन कहीं ना कहीं खुद को ऊंचा बना पाने की इच्छा इसके कारणों में शामिल है।
चाहे विचारक हों, या फिर अध्यापक-डॉक्टर...ज्यादातर के मन के किसी ना किसी कोने में ये लालसा दबी होती है कि विदेश में बस जाएं, वहां नौकरी करें, या फिर देश लौट भी आएं तो फॉरन रिटर्न कहलाएं। कौन मानेगा कि भौतिकी में शोध के लिए साल 2008 के नोबेल पुरस्कार विजेता जापानी वैज्ञानिक तोशिहिदे मस्कावा के पास कुछ अरसा पहले तक पासपोर्ट तक नहीं था, लेकिन अपने मुल्क में चाहे दूर-दूर तक विदेश जाने की संभावना और मौका ना हो, पासपोर्ट तो सब बनवा ही लेते हैं।
वैसे, लोभ से कहीं ज्यादा सुविधाओं की कमी यहां भी पलायन की वजह है। जहां एक तरफ अमेरिका, कनाडा, यूरोप, आस्ट्रेलिया और जापान जैसे धनी देशों की मुद्रा का मूल्य ज्यादा है, वहीं रूपया अक्सर लड़खड़ाता रहता है। विदेशी संस्थाएं शोध और अध्ययन कार्यो को बढ़ावा देती हैं...इनमें शामिल विद्वानों को मौका और सम्मान देती हैं, ऎसे में उनका परदेस पलायन किस तरह असामान्य कहा जाए? बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, बाजार का दबाव इसके पीछे की बड़ी वजह है। एक तरफ तो हम विदेशी संस्थाओं पर पैसे की ताकत के बल पर हमारी प्रतिभाओं को हाईजैक करने का आरोप लगाते हैं और दूसरी तरफ ये भूल जाते हैं कि लालफीताशाही के चलते भारत की सरकारी संस्थाओं में किस तरह भ्रष्टाचार है। एक और जरूरी तथ्य हम भुला देते हैं कि ईष्र्या, टांग खींचने, नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जितनी ज्यादा हमारे यहां है, उतनी विदेशों में नहीं। इसके अलावा, परदेस में जीवन जीने की स्थितियां बेहतर हैं, कम से कम हमारे गांवों और कस्बों जैसी नहीं, जहां एक बारिश के बाद बाढ़ जैसी हालात हो जाते हैं।
मैं जानता हूं कि ये पंक्तियां पढ़ते समय पाठक लेखक को राष्ट्रद्रोही जैसा कुछ मानने को मजबूर हो जाएंगे और कुछ लोग ये भी दोहराएंगे कि पिंजरा चाहे सोने का ही हो, किसी आजाद परिंदे को अच्छा नहीं लगता। बेशक! यही वो स्पिरिट है, जिसके जागने की जरूरत मैं समझ रहा हूं और हम सबको इसे ही आगे लाना होगा। देश की व्यवस्था को उस तरह बदलना होगा कि प्रतिभाओं का पलायन रूक सके। हम अगर चाहते हैं कि देश से ब्रेन ड्रेन ना हो, तो उसका सम्मान तो किया जाए! प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ब्रेन गेन नीति का वादा किया था...अब मौका इसी वादे पर खरे उतरने का है। सरकार को चाहिए कि राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा परिषद के गठन और विनियामक संस्थाओं में सुधार का संकल्प क्रियान्वित करके दिखाएं, ऎसा होने पर ही रिवर्स ब्रेन ड्रेन का सपना पूरा हो पाएगा। वैश्विक मंदी के बाद लाखों अनिवासी भारतीय भारत लौट आए हैं, वो भी तभी रूके रहेंगे, जब देश में उन्हें सम्मान और अवसर मुहैया कराया जा सकेगा।
इस बीच अच्छी खबर ये है कि भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद (आईआईएम-ए) में पढ़ने के लिए आए बहुत-से विदेशी विद्यार्थी भारत में ही नौकरी करने के इच्छुक हैं। उदारीकरण के बाद ये एक सकारात्मक संकेत
है।
खबर अच्छी लगी...हां, तब और भी अच्छी खबरें मिलने लगेंगी, जब अपने मुल्क में ढांचागत विकास होगा। जीने-पढ़ने-आगे बढ़ने की सुविधाएं बढ़ेंगी, तो स्वदेश के हीरो की तरह विदेश गए अपने लोग अपने गांव लौटेंगे और बिजली पैदा करने के नुस्खे भी तलाशेंगे।
जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ की रविवारीय परिशिष्ट हम लोग (http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/25072010/Humlog-Article/14972.html)
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