कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, February 23, 2010

काश...हम होते...उंगलियां एक हाथ की!


काश! तुम होते
गर्म चाय से लबालब कप
हर लम्हा निकलती तुम्हारे अरमानों की भाप...
दिल होता मिठास से भरा
काश!
मैं होती
तुम्हारी आंख पर चढ़ा चश्मा..
सोचो, वो भाप बार-बार धुंधला देती तुम्हारी नज़र
काश! मैं होती रुमाल...
और तुम पोंछते उससे आंख...
हौले-से ठहर जाती पलक के पास कहीं
झुंझलाते तुम...
काश, होती जीभ मैं तुम्हारी
गोल होकर फूंक देती...आंख में...।
काश,
हम दोनों होते एक ही हाथ में
उंगलियां बनकर साथ-साथ
रहते हरदम संग,
वही
गर्म चाय से लबालब कप पकड़ते हुए
छू लेते एक-दूसरे को, सहला लेते...
काश, मैं होती तेज़ हवा,
उड़ाती अपने संग धूल
बंद हो जाती सबकी नज़र, पल भर को ही सही
जब तुम छूते मुझे
कोई देख भी ना पाता...

Monday, February 15, 2010

वेलेंटाइन डे : मंटो के बहाने अनूठी मोहब्‍बत के चंद अफसाने

http://mohallalive.com/2010/02/14/valentine-day-special-writeup-by-chandidutt-shukla/ से साभार...



कहते हैं, दिल की लगी क्या जाने ऊंच-नीच, रीत-रिवाज, घर-बिरादरी और लोक-लाज। फिर क्यों भला मोहब्बत के अफसाने सुनते-सुनाते वक्त भी किसी लड़की की निगाह लड़के की जेब पर और लड़कों की निगाह लड़की के फिगर पर अटक जाती है! मोहब्बत करने वाले खफा होंगे, तमतमा जाएंगे, कहेंगे – अंगूर खट्टे हैं मोहतरम के! खुद को लैला नहीं मिली, सो मोहब्बत को बदनाम करने चले हैं। लेकिन जनाब, कम ही सही, सच तो है ये भी। बहुत-सी मोहब्बतें टाइमपास हो गयी हैं। बड़ी गाड़ी, भरी जेब और महंगे गिफ्ट। बड़े से बड़े आशिक दिल का जनाजा निकालने और बेवफाई की दास्तान लिखने के लिए उकसाने को काफी हैं।

ऐसी बहुत-सी मोहब्बतें, जो बरिस्ता, मैकडी या पार्कों की बेंचों पर शुरू होती हैं, एक-आधे थप्पड़ और कुछ अश्लील एसएमएस के साथ खत्म हो जाती हैं। तो ऐसी चाहतों का क्या कीजिए। आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक के सोइए या फिर लगाते रहिए दिल बार-बार और हर बार तुड़वाने को तैयार हो जाइए। या फिर हो भी सकता है कि सच्ची मोहब्बत मिल ही जाए, कभी-कहीं! खैर, हमारे पाठक कहेंगे, गजब की मनहूसियत है मियां! वेलेंटाइन डे के दिन इश्क के इजहार की बात होती तो कुछ बात बनती।

ये जनाब तो बेवफाई और झूठी मोहब्बतों का रोना ले बैठे। सो मोहतरम… बात तो मोहब्बत की ही करेंगे हम भी, लेकिन ये आशिकी जरा अलग-सी है, अनूठी है। अच्छा, अफसाना शुरू करने से पहले जरा कुछ सवाल-जवाब हो जाएं। आप ही बताएं, आपका महबूब गर किसी गैर की बाहों में सिमट जाए, तो आप उसे चाहेंगे? या तड़पेंगे, झुलसेंगे और भुला देंगे? और कहीं पता चले कि वो नैतिक ही नहीं है, देह की उसे फिक्र ही नहीं है, तो? तब पक्का है कि आप थर्रा जाएं। कल तक जिसका नाम रटते-रटते आपकी जुबान नहीं थकती थी, वो ही आपकी नजर से गिर जाए! पर मंटो, ऐसे महबूब से ही प्यार करता था… क्यों? बताएंगे हम, आगे की लाइनों में। अब शुरू करते हैं हम अफसाना… अनूठी मोहब्बत का।

लीजिए साहब, जब ढोल-ताशे बज ही गये, एलान हो गया नये अफसाने की शुरुआत का, तो बात मुद्दे की हो जाए। एक मियां मंटो हुए हैं अदब की दुनिया में। खुद बा-होश रहे और ऐसी-ऐसी बातें लिखीं कि पढ़ कर अच्छे-खासे लोग बेहोश हो जाएं। उसकी निगाह में मोहब्बत का बयान भी अनूठा है… मंटो कहता है, “किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए, तो मैं उसे जुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ जरूर खींचेगा, जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ों लड़कियां जान देती हैं, लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित बाशिंदा। इस बजाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियां भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा।”

कमाल का है मंटो, तभी तो उसने कई ऐसे अफसाने लिखे, जो अदालत तक खींच ले जाने का सबब बने। एक कहानी तो कहर ही बरपाती है – “बू”। कहानी कुछ यूं शुरू होती है – बरसात के यही दिन थे। खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे। सागवन के स्प्रिंगदार पलंग पर, जो अब खिड़की के पास थोड़ा इधर सरका दिया गया, एक घाटन लड़की…

आगे की लाइनें यहां नहीं लिखी जा सकतीं? क्यों भला… अश्‍लील लगेंगी। पर मंटो को कोई दिक्कत नहीं होती। वो नैतिकता के नाम पर घबराने, थर्रा जाने और लोगों को परेशान करने वालों से कहता है, जब तुम्हारा समाज ऐसा है, तो उसे साफ करो। मैं तो जो है, वो ही लिखता हूं।

इस कहानी का पढ़ा-लिखा नायक रणधीर सब कुछ समझता था, लेकिन वो कभी “मिट्टी पर पानी छिड़कने से निकलने वाली सोंधी-सोंधी बू” नहीं भुला सका। एक वन-डे स्टैंड में घाटन नायिका से मिला रणधीर उस बू को हरदम याद करता है, जो “…कुछ और ही तरह की थी। उसमें लेवेंडर और इत्र की मिलावट नहीं थी, वह बिलकुल असली थी, औरत और मर्द के शारीरिक संबंध की तरह असली और पवित्र।”

अब क्या कहेंगे! क्या इसे अपवित्र, अनैतिक कहकर अनूठी किस्म की मोहब्बत का एक हिस्सा मानने से इनकार कर दिया जाए? ये लगाव नहीं, तो और क्या है, जो “हिना के इत्र की तेज खुशबू” से अलग हटाकर रणधीर के दिमाग में किसी के जिस्म की बू भर देती है!

पाक-साफ, सच्ची मोहब्बतों की दास्तान पढ़ कर खुद को लैला-मजनू समझ लेने वालों को मंटो बार-बार झटका देता है। उसकी एक कहानी है – “सौ कैंडल पावर का बल्ब”। यहां भी कोई जन्म-जन्म की मोहब्बत नहीं है… सिर्फ एक रात की बात है। रात है और एक शहर… नौजवान मुसाफिर एक दलाल से मिलता है। तमाम रातों की जागी हुई एक वेश्या के पास जाता है, जो मजबूरी की शिकार होकर, उनींदी सी ग्राहक के साथ चल देती है। भलामानस ग्राहक उसे वापस पहुंचा देता है, ताकि वो दो घड़ी नींद हासिल कर सके। दो दिन बाद ही वो फिर उसके ठिकाने पर जाता है। बार-बार खटखटाने पर भी दरवाजा नहीं खुलता, तो वो झांककर देखता है। वेश्या ने दलाल का सिर ईंट से तोड़ दिया है और खुद चैन की नींद सो रही है। हाजरीन कहेंगे – इसमें मोहब्बत कहां है? जनाब, मोहब्बत क्या सिर्फ लड़के और लड़की के बीच दिलों के कारोबार को कहते हैं? इश्क क्या महज जन्म-जन्म की कसमें खाने के व्यापार को कहते हैं? यहां शुरुआत में वेश्या के जिस्म की भूख भले हो, ग्राहक के लिए उसकी नींद अपने दैहिक सुख से ज्यादा बड़ी लगती है…। पल भर की सही, एक दिन की सही, ऐसी मोहब्बत अनूठी नहीं, तो क्या है? (भले ही आप इसे हमदर्दी जैसा कुछ मान लें!)

एक कहानी, जिसका शीर्षक याद नहीं आता, में तवायफ अपने आशिक की जान बचा लेती है, खुद हलाक होकर। कौन कहेगा, इससे ज्यादा वफादार कोई पतिव्रता औरत भी होगी? ऐसे ही तो झटके हमेशा देता रहा मंटो। मंटो का जिस्म भले अब दुनिया में न हो, लेकिन उसने अपने अफसानों में सच का जो तेजाब भरा, वो सभ्य समाज के खोखले बदन को पता नहीं, कब तक झुलसाता रहेगा। मंटो तवायफों पर कहानियां लिखता था और उन्हें किसी भी समर्पित प्रेमिका से ज्यादा ईमानदार और पवित्र मानने से कभी गुरेज नहीं करता था। वो मजहबी था या नहीं, इस पर कोई फैसला कर पाना आसान नहीं है, लेकिन कहानियों की शुरुआत से पहले कागज पर 786 लिखने वाला मंटो अपने अफसानों में मोहब्बत के रंग खुद ही भरता था। इसके लिए उसने किसी ईश्वरीय सत्ता से परमिशन लेने की भी जरूरत नहीं समझी। कहीं पढ़ा था – कब्र में पड़ा मंटो अब भी सोच रहा है कि वो ज्यादा बड़ा अफसानानिगार है या खुदा? यही सच भी तो है…

मोहब्बत किससे हो, कितनी हो, कब तक हो, हो भी तो क्यों हो, होने से क्या मिले… इतना जिसने सोचा, उसने मोहब्बत कहां की… इतना सोच-विचार करके दिल लगाने वालों से तो लाख गुना अच्छे मंटो के बुरे चरित्र वाले, खूब खराब नायक-नायिकाएं। वो कम से कम संस्कारों, आदर्शों, नैतिकताओं के नाम पर न जिस्म की गुहार का मुंह बांधते हैं, न ही दिल को रोक लेते हैं – नहीं, इस गली से नहीं गुजरना। यहां कोयला बिकता है… चेहरे पर कालिख लग जाएगी!

Friday, February 12, 2010

अपने ही गर्भ में छिपा लो…सिखा दो…अभेद्य मंत्र


अनजाने चेहरों वाली / सीमाओं से पार / भाषाओं से इतर / कई तस्वीरें / देखीं / सुनीं / पहली-पहली बार / तुम्हारे ही संग / उनमें बसा प्रेम / उभरा तब तुम्हारी आंख से / छलका हमारे होंठों तक / आज फिर / गया उसी दौर में / पर अबूझ रह गए / वो चित्र / जड़ हैं नायक / स्थिर नायिकाएं / ना वहां युद्ध था / ना प्रेम / था तो बस / एक अटूट एकांत / सन्नाटा / जिसे चीर पाना / नहीं मुमकिन / मेरे लिए / बिना तुम्हारे / अब अपने ही गर्भ में / छिपा लो / जन्म देने से पहले / सिखा देना / अवाक् हो जाने के / चक्रव्यूह से निकलने का / अभेद्य मंत्र

Sunday, February 7, 2010

हमारे प्रेम के विरुद्ध…हम…फिर भी ज़िंदा चाहत-संगीत

हर बार उभर आते हैं
मेरे चेहरे पर
तुम्हारे प्रेम के निशान
तब
जब हम मिलते हैं

सूरज मुस्कराता है
और, और तेज़ बहने लगती है नदी
फर्राटा भर-भर हांफ उठती है
धरती

पर 
ये उन्माद नही
ये सब करते हैं
व्यंग्य
हम पर
हम भी 
लगातार निचोड़ते रहे
अपने-अपने हिस्से का प्यार
सोचा
सुखा देंगे सब
देखो 
विधि भी प्रतिकूल है 
और हमारा समय भी
हम खुद हैं
अपने प्रेम के विरुद्ध
पर अफ़सोस…
माफ़ी के साथ कह रहा हूं
सारे षड्यंत्रों के बावज़ूद
कितना ज़िद्दी है
हमारे प्रेम का राग
जब, तब 
जैसे-तैसे 
आकर धर दबोचता है
हमारी घृणा को 
और भरने लगता है 
कंठ तक लबालब
चाहत-संगीत

Thursday, February 4, 2010

सूख गया गुलाब…अब और भी महकता है





तमाम गीत चुनकर मैंने रख लिए हैं/ उस गुलदस्ते में / जिसमें पहली-पहली बार / तुम्हारे जूड़े से निकालकर / लगा लिया था / लाल गुलाब / अब वो सूख गया है / पर महक़ अब तक है / वैसी की वैसी / जैसी थी नए-नकोर फूल में / और देखो / महकता ही जा रहा है / बिना मिलन के खाद-पानी के भी / वो गुलाब अब बंद रहता है / दिल की किताब के / दो मुड़े हुए पन्नों के बीच / जिन पर दर्ज है तारीखें / हमारे संयोग की / आओ पलट दें / पन्ने / पढ़ लें, रच लें नई गजल