कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, December 18, 2012

मेरे पास मां है!

मेरा लिखा पहला नाटक, जिसका मंचन गोंडा में एक स्कूल के बच्चों ने कल किया... अच्छा लग रहा है :)

नाटककार – चण्डीदत्त शुक्ल

दृश्य-1

    एक मध्यवर्गीय परिवार के घर का ड्राइंगरूम... दीवारों पर कुछ वॉल पेंटिंग्स लगी हैं। कमरे में खाना खाने का भी इंतज़ाम है। एक तरफ टेबल रखी है, जिसके आसपास चार कुर्सियां लगी हैं। मेज पर कप, प्लेट्स और बाकी क्रॉकरी व कटलरी मौजूद है। कुर्सियां खाली पड़ी हैं। दाहिनी तरफ की विंग से एक शख्स की एंट्री। उम्र यही कोई 50 साल। फेल्ट हैट लगा रखी है। कोट, पैंट, टाई पहने हुए। होंठों में सिगार दबी है, पर जली नहीं। धीरे-धीरे चलते हुए वह मंच के बीचोबीच रुक जाता है। लाइट्स ऑफ। स्पॉट लाइट चेहरे पर पड़ती है। सिगार हाथ में लेता है।

व्यक्ति - क्या बेवकूफी है साहब। बल्कि यूं कहिए कि इससे बड़ी बेवकूफी और कुछ हो ही नहीं सकती। दस बजने को आए। दफ्तर जाने का वक्त हो गया और अब तक ड्राइवर नहीं आया। अजी, इसकी बात ही क्या करें। जैसी सरकार निकम्मी, वैसी ही पब्लिक भी...

    ड्राइवर की एंट्री...कास्ट्यूम ह्वाइट ड्रेस, ह्वाइट पैंट

ड्राइवर - नहीं सरकार। कहना ही है तो कहिए कि पब्लिक निकम्मी है, इसीलिए सरकार भी निकम्मी है। (एनाउंसमेंट वाली स्टाइल में), जरा सोचिए — जितनी मेहनत हम लोग टीवी के आगे रिमोट पर करते हैं, इतनी वोट वाले दिन कर दें तो क्या तमाम निकम्मे लोग हमारे नेता बनेंगे?

-- बैकग्राउंड से गाना बजता है...
मेरा गधा, गधों का लीडर…
(फिल्म - मेहरबान)।

    गाना चालीस सेकेंड्स तक चलता है, तभी एक मॉडर्न लेडी बाईं विंग से एंट्री लेती हैं। गाउन पहने हुए। एक हाथ में लिपस्टिक लिए हुए... हाथ से चेहरे पर पावडर सही करने की कोशिश कर रही हैं। मंच के बीचोबीच आकर रुकती हैं, फिर लिपिस्टिक लगाना शुरू करती हैं, तभी पहले से मौजूद व्यक्ति और ड्राइवर को देखकर –

लेडी - अरे महेंद्र, तुम यहां क्या कर रहे हो? पक्की बात है – पॉलिटिक्स-पॉलिटिक्स खेल रहे होगे। मेरी तो किस्मत ही फूट गई है।
(यह सुनकर ड्राइवर और महेंद्र, दोनों के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान तैरने लगती है। दोनों एक-दूसरे को देखकर कुछ बुदबुदाते हैं)
लेडी – पहले पॉलिटिक्स, फिर ऑफिस, वहां से निकलकर घोड़ों पर दांव लगाने चले जाते हो और घर लौटते ही शेयर बाज़ार। कभी सोचा है कि मेरे भी कुछ अरमान हैं...

बैकग्राउंड से गाना बजता है...
हाय मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया
(फिल्म - संगम)।
    गाना चालीस सेकेंड्स तक चलता है... फिर fadeout हो जाता है। इस बीच महेंद्र कुछ बोलता है, जो भिनभिनाहट की तरह सुनाई देता है। कुछ भी क्लियर नहीं होता। गाना खत्म होते-होते महेंद्र की आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगती है...

महेंद्र (दर्शकों से मुखातिब होकर) — इनसे मिलिए, ये हैं सुश्री, सौभाग्यवती, कलावती, सुशील महिला यानी लीलावती। अब लीला नाम कुछ-कुछ पौराणिक लगता है, पुराना दिखता है न, सो इन्होंने जस्ट चेंज के लिए रख लिया है – एलवी। और मैं भी इनके पति, महेंद्र पति से एमपी हो गया हूं। हा हा हा. (नकली हंसी हंसता है.)। खैर, एक बात तो बताइए, मुझसे मिलकर आपको कैसा लगा... मुझे तो आप सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।

    सभी पात्र जब संवाद बोल रहे होंगे, तब मंच पर मौजूद अन्य लोग फ्रीज रहेंगे...। अपने संवाद बोलकर एमपी सेंटर में लौट जाएगा, बिना मुड़े। कदम-दर-कदम बैक होकर। नाटक में यह ध्यान रखना होगा कि दर्शकों को पीठ कभी न दिखाई जाए। बीच में जाकर वह एबाउट टर्न पोजीशन में ड्राइवर की ओर मुंह करेगा, सिगार तोड़कर फेंक देगा, तभी एलवी एक्टिव होती हैं, सेंटर में आकर खड़ी हो जाती हैं –

एलवी (दर्शकों से) – ये साहब मेरे पति हैं। ऐसे पति से निपत्ती रहना ठीक है। हां जी, निपूती वाला मुहावरा पुराना हुआ। ये पति तो चाय की पत्ती से भी गए गुजरे हैं। कितना भी उबाल लो, रंग नहीं छोड़ते। बस उबलते रहते हैं। दूध-आग-मेहनत सब बरबाद करो... स्वाद नहीं आने वाला। मेरी सोशल सर्विसेज को किटी पार्टी कहकर खुश होते रहते हैं। अब आप लोग ही बताइए – दो-चार सखियां कहीं मिलेंगी तो क्या बातें नहीं करेंगी? अजी, सुख-दुख, हाल-चाल। (वाल्यूम धीरे करते हुए) जब बात करेंगी तो थोड़ी कहानियां, किस्से होते ही हैं जी। कौन-कहां बिज़ी है... किसका कहां कैसा चक्कर है... खुद ही सोचिए – हम लोग दिन भर बोर होती हैं, कुछ गॉसिप न करें तो कैसे चले?

-- एलवी का डायलॉग पूरा होने से पहले ही एमपी और ड्राइवर परेड की स्टाइल में वहां से एक्जिट करने लगते हैं, तभी राइट विंग से किसी लड़की की आवाज़ आती है –

पापा, पापा... प्लीज़, रुकिए। मुझे आपसे कुछ डिस्कस करना है।

    एमपी और ड्राइवर एलवी के पास लौट आते हैं, एबाउट टर्न लेकर। अब तीनों बातें कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज़ें नहीं सुनाई दे रही हैं। बैकग्राउंड से आवाज़ आती है, एक लड़के और एक लड़की की। यानी कैरेक्टर मंच पर दूसरे हैं और डायलॉग किसी और के --

लड़का – ओ नो, पापा फिर चले गए। अब तुम क्या करोगे स्वीटी?
लड़की – तुम्हें क्या? तुम तो पैसे मांगते हो तो पूरा एटीएम ही थमा देते हैं। मुझे पापा चाहिए, पैसे नहीं।

    ये दोनों संवाद तीन-चार बार रिपीट किए जाएं।

    बैकग्राउंड स्कोर – सात समंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से... नन्ही सी गुड़िया लाना, चाहे गुड़िया न लाना, पापा जल्दी घर आना। 40 सेकेंड बजेगा। फेडआउट होता है, या फिर परदा गिरता है।

दृश्य-2

    परदा उठता है या फेडइन। कुर्सी-मेज हट चुकी है। एक आरामकुर्सी पर एक लड़की, अठारह साल उम्र, सिर नीचा किए रो रही है। बैकग्राउंड म्यूज़िक में शहनाई बजा सकती हैं। रोने की आवाज़ न आए तो अच्छा है। उसके ठीक पीछे एक लड़का, तकरीबन चौदह साल का, उसका सिर सहला रहा है।


लड़की – रोते हुए – नोज़ल साउंड – ब्रो, टेल मी. क्या मैं बुरी हूं?
लड़का – नो स्वीटी, यू आर सो गुड।
स्वीटी – देन ब्रो, पापा मुझे हग क्यों नहीं करते, ह्वाई ही आलवेज इग्नोरिंग मी... वो कभी पूछते तक नहीं कि स्वीटी बेटा, ह्वाट यू डूइंग नाउडेज़?
लड़का – सिस, सेम सिचुएशन हियर। तुमने कभी देखा है कि पापा ने दो मिनट भी मेरे साथ गुजारे हों। ही आलवेज बार्किंग... नो टीवी एनीमोर। बस... । हां, पैसे ज़रूर दे देते हैं, जितने मांगो, उतने।
स्वीटी – रमेश ... ये घर मुझे नर्क की तरह लगता है।
रमेश – स्वीटी सिस, प्लीज़, थिंक एबाउट मी। मैं तो आपसे चार साल छोटा हूं। आई वांट एक्स्ट्रा अटेंशन, एक्स्ट्रा केयर... पर न डैडी, न मॉम... किसी के पास मेरे लिए टाइम नहीं है।

    रमेश की बात सुनकर स्वीटी हंस पड़ती है –

स्वीटी – हां! तू तो न्यू बोर्न बेबी है न. डायपर पहनता है।

    दोनों हंसने लगते हैं। धीरे-धीरे हंसी की आवाज़ घुंघरुओं की खनखनाहट में बदल जाती है। पर्दा गिरता है।

दृश्य-3

    कमरे की साज-सज्जा बदल जाती है। अब कमरा रमेश का बेडरूम है। रमेश कुर्सी पर बैठा है और टेबल पर लैपटॉप रखकर मूवी देख रहा है। मंच पर काफी कम रोशनी है। लैपटॉप की लाइट में रमेश के फेसियल एक्सप्रेशन दिखाई देते हैं। वह कभी चौंक रहा है, कभी तनाव में है। रहस्यमयी म्यूज़िक बजेगा... हॉरर... और थ्रिलर...। एमपी की एंट्री। वह चुपचाप जाकर रमेश के बगल खड़ा हो जाता है और चिल्लाता है

एम पी – रमेश...रमेश...रमेश...

    आवाज़ कई बार गूंजती है। इसके साथ ही लाइट्स जल जाती हैं। तबले की गड़गड़ाहट, धीरे से तेज होती हुई। रमेश हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता है।

एम पी – चिल्लाते हुए –  मैंने तुम पर भरोसा किया नालायक और तुमने ये सिला दिया। मैं और तुम्हारी मॉम सोचते हैं कि तुम पढ़ाई कर रहे होगे और तुम लैपटॉप पर...

    रमेश चुपचाप खड़ा है। माहौल में टेंशन क्रिएट करने वाला म्यूज़िक। बत्तियां लगातार जलने-बुझने लगती हैं। तकरीबन आठ सेकेंड। यकायक, फिर से सारी बत्तियां जल जाती हैं।

रमेश – पापा, आज आप मुझ पर तोहमतें लगा रहे हैं। मुझे भला-बुरा कह रहे हैं। आखिर, मैंने गलत क्या किया है? बस अपनी ज़िंदगी ही तो जीने की कोशिश कर रहा हूं। आप मुझसे बहुत सारे सवाल पूछ चुके हैं। मैंने अब तक आपसे कोई क्वेश्चन नहीं किया। क्या आप मेरे सवालों के जवाब देंगे?

    रमेश और एमपी फ्रीज हो जाएंगे। बाकी सभी कैरेक्टर्स की एंट्री होगी। रमेश और एमपी एक-दूसरे को देखते हुए खड़े हैं और बाकी सब कैरेक्टर्स रमेश व एमपी के डायलॉग बोल रहे हैं।

रमेश – आप तब कहां थे, जब मैं साइकिलिंग करते हुए गिर गया था और मुझे फ्रैक्चर हो गया था
एम पी – तब मैं मीटिंग्स अटेंड कर रहा था
रमेश – आप तब कहां थे पापा, जब मुझे आपकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी?
एम पी – तब मैं शेयर मार्केट में इन्वेस्टमेंट कर रहा था
रमेश – रोते हुए – पापा, आप तब कहां थे, जब मैं फ़ेल हो गया था?
एम पी – तब मैं रेसकोर्स में था। हां, बाद में मैंने तुम्हें डांटा तो था...

    रमेश और एमपी के अलावा, बाकी कलाकार संवाद दोहराते हुए तेज़ गति से मंच से बाहर हो जाएंगे। रमेश और एमपी अब चिल्ला रहे हैं। दोनों के संवाद साफ नहीं सुनाई दे रहे हैं। यकायक, एमपी चिल्लाते हुए –

एम पी – अगर तुम्हें मनमानापन करना है तो मेरे घर से बाहर निकल जाओ। मैं तुम्हें अपनी पूरी जायदाद से बेदखल करता हूं।

    बैकग्राउंड में मदर इंडिया का गीत बजेगा – पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली... ये केवल सेटायर के लिए है। 40 सेकेंड तक प्ले। एक तरफ रमेश एक्जिट कर रहा है और वह मंच की पूरी परिक्रमा करते हुए बाहर निकलेगा। मंच के बीचोबीच एम पी अकेले खड़ा है, तभी उसे कई लोग आकर घेर लेते हैं। कोई शेयर के दस्तावेज लिए है, किसी के हाथ में ब्रीफकेस है। थोड़ी देर बात करने के बाद वे विपरीत दिशा से एक्जिट कर जाते हैं और रमेश दूसरी ओर से। जब सब निकल जाते हैं तो तेज गति से स्वीटी मंच पर आती है और भइया-भइया, ब्रो...लिसेन...लिसेन...डोंट गो अवे कहती हुई वह भी एक्जिट कर जाती है।

दृश्य-4

    मंच खाली पड़ा है। कोई कुर्सी-मेज भी नहीं। एक तरफ की लाइट जल रही है। शेष मंच पर अंधेरा है। एक अधेड़ इंसान एंट्री करता है। उसका ड्रेसअप इंट्रेस्टिंग है। ऊपर कोट, नीचे धोती। कोट में टाई लगा रखी है और गले में गमछा डाल रखा है, जो थोड़ा नीचे बंधा होगा, ताकि टाई दिखती रहे। ये नाटक का सूत्रधार है

सूत्रधार – नमस्ते, हाय हैलो, सलाम, प्रणाम। फ्रेंड्स मैं हूं राम के. राम यानी राम, और के से कन्हाई। मैं वैसा ही हूं, जैसा कि है आपका मध्यवर्ग, यानी बीच की दुनिया। न ऊंचे हैं पैसे से, न निचले स्तर पर हैं। न ज्यादा पढ़े, न अनपढ़। खोखली सोच, खोखली उड़ान वाले लोग। हम सब बीच के लोग हैं, जिनके पास बहुत-से सपने हैं, लेकिन उनके लिए ज़मीन नहीं... हम सनक की हद तक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने में जुट जाते हैं... और ये सोचते ही नहीं कि उन बच्चों को मां-बाप का थोड़ा-सा वक्त चाहिए, थोड़ी-सी गाइडेंस चाहिए।

    इतना संवाद बोलकर सूत्रधार मंच के एक कोने में रुक जाता है। फ्रीज।
    दूसरी विंग से एलवी की एंट्री होती है। उनके साथ उनके ही एज ग्रुप की तीन महिलाएं और हैं। एक महिला न्यूज़पेपर से खुद को पंखा कर रही है।

महिला -1 – उफ़, ओ गॉड. कितनी गर्मी है। पसीना रुक ही नहीं रहा। सुबह को डियो लगाओ, शाम तक सब गायब हो जाता है।
महिला – 2 – ऊपर से ये कमली तो डेंगू मच्छर हो गई है। सिर्फ खून चूसती है। हफ्ते में तीन दिन आती है और चार दिन गायब। अब सुबह-सुबह उठकर बर्तन धुलो...
महिला – 3 – ओ हो नाज़ुक कली... मिसेज सॉफ्टी. डिश वॉशर से बर्तन धुलने में भी आपकी कमर लचक जाती है।
एल वी – यार आप लोग न झगड़ो नहीं... रमेश पता नहीं कहां है, मुझे टेंशन हो रही है, लेकिन आप लोगों से कमिट किया था किटी के लिए, सो मैं प्रेजेंट हूं। देखिए, आज ही प्लान कर लीजिए कि न्यू इयर कैसे सेलिब्रेट करेंगे। मैं तो कहती हूं कि सोनू निगम को ही मेन सिंगर बुलाते हैं पार्टी में...

    मंच के कोने से सूत्रधार बीच में आ जाता है। एलवी और उनकी सहेलियां फ्रीज हो चुकी हैं। सूत्रधार आगे कहता है –

सूत्रधार – ये रमेश की मां हैं। सोशल वर्कर। हरदम बिज़ी रहती हैं। अपने जैसी महिलाओं का दुख दूर करने में। इनका सबसे बड़ा दुख है कि वेट बढ़ गया है और इनके हबी... ओ-ओ- आप समझे नहीं... हस्बैंड, इनका ध्यान नहीं रखते, अटेंशन नहीं देते। इन्हें बच्चों की चिंता नहीं है। वे क्या कर रहे हैं, लिख-पढ़ रहे हैं, कहां हैं और कहां नहीं। इन्हें कैसे बताएं कि हरे-भरे खेत सबको अच्छे लगते हैं, लेकिन पहले उनकी जुताई करनी पड़ती है, बीज रोपना होता है और फिर करनी होती है सिंचाई।

    पार्श्व से आवाज़ आती है – सभी कैरेक्टर्स की आवाज़ में...
बीज रोपना पड़ता है... करनी होती है सिंचाई
ये लाइन तीन-चार बार रिपीट होती है।

सूत्रधार – प्यारे दर्शकों, रमेश की मां को चिंता नहीं है कि उनका बेटा कहां होगा। उनके पापा भी बहुत बिज़ी हैं... आपके पास तो वक्त है न... आइए, आपको लिए चलते हैं रमेश के पास।

    लाइट्स आफ होती हैं... पर्दा गिरता है...

दृश्य-5

    एक टूटी खाट बिछी है। खाट के अगल-बगल बोरे लटके हैं। लकड़ी के स्टैंड पर। यहीं रमेश मैली चादर ओढ़कर बैठा है। वह सर्दी से कांप रहा है। एक किनारे ज़मीन पर मैली-कुचैली कमीज पहने एक बूढ़ा बीड़ी जलाने की कोशिश कर रहा है। बार-बार बीड़ी जलाता है। धुआं खींचता है और फिर खांसता है। बीड़ी जली नहीं है। आखिरकार झल्लाकर बीड़ी फेंक देता है...

बूढ़ा – ये ससुरी बीड़ी भी किस्मत की तरह है। जब चाहो, तब नहीं जलती। बाकी टाइम धुकधुकाती रहती है। तू क्यों कांप रहा है रे बेटा। सर्दी लग रही है क्या?

    एक विंग से बुढ़िया की एंट्री। शक्ल से ही झगड़ालू लग रही है। धोती पहने है।

बूढ़िया – अरे नासपीटे, तू न मरेगा, न घर खाली करेगा। जब देखो, तब बैठा-बैठा बीड़ी पीता रहता है। यह भी नहीं होता कि चार गट्ठर घास ही काट लाए। कम से कम एक जून की रोटी का तो जुगाड़ हो।

बूढ़ा – अरे चुड़ैल, चुप कर। जब देखो, गिटर-पिटर करती रहती है। कभी तो एक घड़ी शांति से बैठ जाया कर। सारी ज़िंदगी तुझे झेलते हुए बीत गई। अंतिम दिन तो भगवान का नाम लेने दे।

बुढ़िया – हां, बीड़ी में भगवान छिपे हैं न.... कहते-कहते रमेश की ओर देखती है – अरे, बबुआ के तो सर्दी लग रही है... जल्दी जाओ ... कुछ दवा-दारू लेकर आओ।

    बूढ़ा अपनी कमीज की सब जेबें झाड़कर देखता है, फिर उदासी के साथ बुढ़िया को देखता है। उसे कुछ कहता न पाकर थके कदमों से बाहर निकल जाता है। बुढ़िया और रमेश फ्रीज हो जाते हैं। सूत्रधार की एंट्री –

सूत्रधार – नहीं साहब, आप लोग परेशान न होइए। ये रमेश ही है, बस आप इसे पहचान नहीं पा रहे। भूख-थकान और चिंता का बोझ किसे नहीं मार देता है। नाज़ुक रमेश भी रोटी और तकलीफ का बोझ नहीं उठा पाया... बीच रास्ते में गिर गया ... ये तो भला कहिए बूढ़े रामधनी का, जो इसे अपने घर उठा लाया। दो दिन तक रमेश ने ज़ुबान न खोली, आज ही होश में आया है। रामधनी और उसकी बुढ़िया के पास दो वक्त की रोटी खाने के लिए पैसे नहीं हैं, अब एक पराए इंसान के लिए वो दवा कहां से लाए... ख़ैर, सुना है कि रमेश के पापा उसे ढूंढते हुए इधर ही आने वाले हैं... देखते हैं, आगे क्या होता है?

Lights off


दृश्य-6

    रामधनी का वही घर। रमेश और बुढ़िया कुछ बातें कर रहे हैं। आवाज़ सुनाई नहीं देती। तभी एक विंग से रामधनी की एंट्री होती है। रामधनी चारपाई के पास पहुंचता है। बुढ़िया को दवाइयां देता है और खुद चक्कर खाकर चारपाई पर लुढ़क जाता है। बुढ़िया चीखती है –

बुढ़िया – तुम दवाई कहां से लाए?  तुम्हारे पास तो पैसे थे ही नहीं। क्या फिर से अपना खून बेच दिया?

बूढ़ा – रामधनी, इंसान ज़िंदा रहेगा तो और खून बना लेगा। देख रही हो, ये छोटा-सा बच्चा बुखार में तप रहा है। पता नहीं किसकी फुलवारी का फूल है। बेचारा सड़क पर पड़ा तड़प रहा था। बेहोश था। पापा-पापा बुलाता हुआ। कोई न आगे, न पीछे। मुझसे रहा नहीं गया। मैं इसे उठा लाया। मैं निपूता था अब तक, तू भी निपूती। देख, हमें बच्चा मिल गया। हम इसे पालेंगे-पोसेंगे, बड़ा करेंगे। ब्याह करेंगे इसका। तू सास बनेगी...

बुढ़िया ... सिसकते हुए ... तुम ख्वाब बहुत देखते हो... बुढ़ा गए पर अकल न आई। कभी किसी और का बच्चा अपना हुआ है क्या? हां, हम अपना फर्ज पूरा करेंगे... पर हमारी किस्मत में औलाद कहां। होती तो भगवान न देता क्या?

रमेश उन्हें आंखें फाड़कर देख रहा है। वह चीख पड़ता है –

रमेश – बापू, बापू... ये तुमने क्या किया? न कोई जान, न पहचान, मुझे बचाने के लिए अपना खून बेच डाला... उफ़, आपको ये क्या हो गया।
(मुड़कर बुढ़िया से)
मां... तुम मेरी मां हो, मेरे पास मां है। मैं अकेला नहीं हूं...।


    दूसरी विंग से एमपी व एलवी की एंट्री...

एल वी – रमेश, तुम पागल हो गए हो क्या... ये बुढ़िया तुम्हारी मां नहीं है। मैं हूं तुम्हारी मॉम...।

रमेश – हां, आप मॉम हैं और ये मेरी मां।

एम पी – मेरे पास क्या नहीं है। मोटर है, बंगला है, गाड़ी है... इसके पास क्या है...?


    बैकग्राउंड से दीवार फ़िल्म का डायलॉग गूंजता है – मेरे पास बंगला है, मोटर है, गाड़ी है...

रमेश – इस बूढ़े, लाचार, गरीब इंसान को देखकर रहे हैं मिस्टर महेंद्र पति। इसके पास दिल है। जीने का जज्बा है। किसी इंसान के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली सोच है। ये पैसों के पीछे नहीं भागता। इसके लिए सबसे ज़रूरी प्यार है और इसके लिए ये अपना खून तक बेच देता है। और मॉम, आप इस देवी को बुढ़िया कहकर अपमानित कर रही हैं, सुनिए... हज़ारों रुपए की क्रीम लगाकर भी आपके चेहरे की चमक नहीं लौट सकती, लेकिन गौर से देखिएगा... इस औरत के चेहरे पर प्यार की कैसी आभा चमक रही है। मॉम ये मां है... किसी पराए इंसान के बच्चे को भी अपने गले से लगा लेती है... पापा, ये दौलत इन लोगों के पास है और आप जानना चाहते हैं, मेरे पास क्या है? – मेरे पास मां है... मेरे पास मां है...।

पर्दा गिरता है।



Saturday, December 8, 2012

हे आमिर! उल्लू नहीं है पब्लिक

ज़रूरी सलाह बनाम खीझ

- चण्डीदत्त शुक्ल

आमिर खान साहेब नहीं आए। बुड़बक पब्लिक उन्हें `तलाश' करती रही। सिर्फ पब्लिक नहीं, बांग्ला मिजाज़ में कहें तो भद्रजन भी। पुलिसवाले और लौंडे-लपाड़ियों के अलावा, शॉर्ट सर्विस कमीशन टाइप पत्रकार, रिक्शा-साइकिल-मोटरसाइकिल स्टैंड वाले भी। चौंकिएगा नहीं, शॉर्ट सर्विस बोले तो कभी-कभार ये धंधा कर लेने वाले। एक यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले तमाम सत्रह-अठारह साल के छोरे-छोरियां पूरा का पूरा विश्वविद्यालय बंक करके उस भुतहा बस्ती में बिचर रहे थे। पहले उछलते-कूदते, फिर एक ग्लास पानी के लिए छुछुआते हुए। जयपुर से कुल जमा सौ किलोमीटर के इर्द-गिर्द ही पड़ता है भानगढ़। इंटरनेट पर सर्च को रिसर्च नाम देने वाले जानते ही होंगे कि इस कसबे को लेकर तरह-तरह की अफवाहें जोर-शोर से सामने आई हैं, इतनी ज्यादा, जितने `भूत' न रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में होंगे, न कहानियों में। चुनांचे, बात बस इतनी भानगढ़ को लेकर दो बातें सबसे ज्यादा चलन में हैं, पहली – एक तांत्रिक की बद्दुआ से भानगढ़ उजड़ गया और दूसरी ये कि सांझ ढलते ही यहां भूतों का बसेरा हो जाता है, इसलिए उजड़े हुए कसबे के गेट बंद कर दिए जाते हैं। परिंदा और जानवर भले हाथ-पैर-मुंह मारें, पर जीता-जागता आदमी चौहद्दी में कदम नहीं रख सकता।

ख़ैर, आप भी सोच रहे होंगे, ये आदमी अक्ल से पैदल है क्या, बात शुरू की थी आमिर खान साहेब से और लौंडे-लपाड़ियों का जिक्र करते हुए भूतों तक जा पहुंचा, तो साहबान सिरा यहीं जुड़ता है, वह इसलिए कि इसी भानगढ़ की `विजिट' करने का दावा आमिर, या कि उनके प्रचारकों ने किया था और ये बात पब्लिसिस्टों से होती हुई ख़बरचियों और फिर अख़बारों तक जा पहुंची, सो भानगढ़ में पब्लिक जुटनी लाजिम थी, लेकिन न आना था उन्हें और न आए वो, यानी अपने आमिर! अब ख़बर पढ़कर आमिर का इंटरव्यू करने की ख़्वाहिश से जो हम सब दल-बल समेत भुतहा बस्ती में हाजिर हुए तो आमिर न मिले पर मिले केवड़े के पेड़, काले मुंह वाले बंदर और कई ऐसे किस्से, जो बता रहे थे कि भानगढ़ में कुछ और हो न हो, भूत तो एक भी नहीं हैं। हां, जितनी ज़ुबान, उतने अफसाने भी, सो यह समझाने वाले भी कई निकले कि उनने भूत तो देखा है, लेकिन लेडीज़, यानी चुड़ैल।

हालांकि भूत और भानगढ़ और वहां की घुमाई-टहलाई के यात्रा वृत्तांत, संस्मरण और यादनामा तो फिर कभी लिखा जाएगा, आज का सवाल ज्यादा इंप्वार्टेंट है, जिसे हल करने पर केबीसी की ईनामी राशि भले न मिले पर एक बात तो जोर-शोर से समझ में आएगी ही कि आमिर ज्यादा सयाने हैं, या पब्लिक (जिसमें हम भी शामिल हैं) अधिक बुड़बक है? सब जानते हैं कि आमिर अपनी फ़िल्मों के प्रमोशन-पब्लिसिटी के लिए सारे करम कर डालते हैं। हमारे इलाके की भाषा में कहें तो ... से घोड़ा खोल देते हैं (इस ट्रिपल डॉट ... में देह के एक विशेष अंग का नाम नहीं भरा गया है। सयाने लोग खुदै बूझ लें)। जितनी बार, जिस-जिस किस्म की फ़िल्म बना ली, उसे रिलीज़ करने से पहले और बाद में तरह-तरह के भेष बनाकर घूमे। हर बार चैलेंज किया -- है किसी में दम तो पकड़ के दिखावे। नकद ईनाम देंगे। फोटू-शोटू साथ में खिंचवाएंगे और, और भी किसिम-किसिम की बात, पर कोई पकड़ न पाया। भांप न पाया कि दाढ़ी बढ़ाए, अचकन संभालते बगल से जो फट्ट से निकले, वो मुल्ला जी और कउनो नहीं, अपने आमिर खान हैं। आमिर न हुए, डॉन हो गए, जिसे पता नहीं कितने तो मुल्कों की पुलिस भी पकड़ नहीं पाती। अब वही खान साहेब जब हो-हल्ला करके, ख़बर छपवाके भी भानगढ़ नहीं आए तो फिर से समझ में आया कि कहीं हाजिर होके तो कहीं गैर-हाज़िर रहके उल्लू बनाना खान साहेब का शौक नहीं, एक और पब्लिसिटी स्टंट है।

आमिर साहेब, आपसे बस कहनी एक बात है कि पुलिस-पत्रकार-पब्लिक – सबसे आपने अपनी तलाश तो करवा ली, लेकिन ये सब ज्यादा काम आता नहीं है। हो सके तो कहानी सेलेक्शन, एक्टिंग और डायरेक्शन – जिसके लिए बेसिक तौर पर आपकी पहचान होती रही है – पर ही ज्यादा ज़ोर लगाइए, मैनुपुलेट करके मार्केटिंग के चक्कर में अगर आप पब्लिक को ऐसे उल्लू बनाते रहे तो देखिएगा – एक दिन आप सनीमा हाल में बैठे रह जाएंगे और पब्लिक आपकी ही तरह फुर्र हो जाएगी, फिर बजाते रहिएगा हरमुनिया।


Sunday, December 2, 2012

इस सदी की निहायत अश्लील कविता


- चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345

*

जरूरी नहीं है कि,
आप पढ़ें
इस सदी की, यह निहायत अश्लील कविता
और एकदम संस्कारित होते हुए भी,
देने को विवश हो जाएं हजारों-हजार गालियां।
आप, जो कभी भी रंगे हाथ धरे नहीं गए,
वेश्यालयों से दबे पांव, मुंह छिपाए हुए निकलते समय,
तब क्यों जरूरी है कि आप पढ़ें अश्लील रचना?
यूं भी,
जिस तरह आपके संस्कार जरूरी नहीं हैं मेरे लिए,
वैसे ही,
आपका इसका पाठक होना
और फिर
लेखक को दुत्कारना भी नियत नहीं किया गया है,
साहित्य के किसी संविधान में।
यह दीगर बात है कि,
हमेशा यौनोत्तेजना के समय नहीं लिखी जातीं
अश्लील कविताएं!
न ही पोर्न साइट्स के पेजेज़ डाउनलोड करते हैं,
स्खलित पुरुषों के थके हाथ।
कई बार,
भूख से बोझिल लोग,
पीते हैं एक अदद सिगरेट
और दुख से हारे मन,
खोजते हैं शराब में शांति।
ऐसे ही,
बहुत पहले बताया था,
धर्म के एक पुराने जादूगर ने,
संभोग में छिपे हैं
शांति और समाधि के मंत्र।
उन तपते होंठों में,
फंसाकर अपने प्यासे लब,
`वह' भी तो हर बार नहीं तलाशता,
काम का करतब।
कभी-कभी कुछ नम, कुछ उदास,
थके हुए थोड़े से वे होंठ,
ले जाते हैं मेडिटेशन-मुद्रा में।
मंथर, बस मुंह से मुंह जोड़े
कुछ चलते, कुछ फिरते अधर...।
कोई प्रेमी क्यों चूमता है अपनी प्रेयसी को?
प्रेयसियां आंखें मूंद उस मीठे हमले की क्यों करती हैं प्रतीक्षा?
इन कौतूहलों के बीच, सत्य है निष्ठुर --
पुरुष का सहज अभयारण्य है स्त्री की देह
और
मैथुन स्वर्गिक,
तब तक,
जिस वक्त से पहले मादा न कह दे,
तुम अब नर नहीं रहे
या कि
मुझे और कोई पुरुष अच्छा लगता है!
एक पहेली हल करने के लिए ज़िलाबदर हो गए हैं विक्रमादित्य
और तड़ीपार है बेताल,
जिसे दुत्कारते हैं तमाम पंडित
नर्क का द्वार कहकर,
उसमें प्रवेश की खातिर,
किसलिए लगा देते हैं,
सब हुनर-करतब और यत्न?
औरत की देह जब आनंदखोह है
तब
वह क्यों हैं इस कदर आपकी आंख में अश्लील?


*

कलाकृति - Jose Rivas

Thursday, August 16, 2012

मन की मौज में न भूलें आजादी के मायने

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

चण्डीदत्त शुक्ल | Aug 15, 2012, 00:10AM IST
  गांव के एक काका की याद आ रही है। रिश्तेदारी का ख्याल नहीं। शायद पुरखों की पट्टीदारी का कोई छोर जुड़ता होगा उनसे, पर हम सब उन्हें काका, यानी बड़े चाचा के बतौर ही जानते-पहचानते और मान देते। काका का असल नाम भी याद नहीं पड़ता। बच्चे-बड़े सब उन्हें मनमौजी कहते। मनमौजी का मतलब मस्त-मौला होने से नहीं था।

काका निर्द्वद्व, नियंत्रण के बिना, इधर-उधर घूमने वाले, दिन भर ऊंघने और शाम को चौपाल में बैठकर नई पीढ़ी को गालियां देने वाले सनकी बुजुर्ग थे। यानी मौज की खातिर जीने वाले। कोई कहता- काका! कुछ काम-धाम करो। तो वह टोकने वाले पर ही पिल पड़ते, 'तुम्हारी तरह थोड़े हैं कि घर में खाने को ठीक नहीं है। बाप-दादा कमाकर रख गए हैं। हम तो मौज उड़ाएंगे। घर में काकी भी ऐसी मिल गईं, जो कुछ कहती-सुनती नहीं थीं। उम्र के आखिरी दिनों में जरूर काका को सद्गति प्राप्त होने से ऐन पहले सद्ज्ञान मिल गया था। बहुत बीमार थे। अक्सर समझाते - बेटवा, पढ़-लिख लो। ये जो आजाद घूमते रहते हो, यह सब काम नहीं आएगा। विद्या और संस्कार ही आगे तक साथ देते हैं।

अब मनमौजी काका तो रहे नहीं। वे कोई बड़े सूरमा-खलीफा या सेलिब्रिटी भी नहीं कि उनकी चर्चा की जाए, सो आप सोचेंगे कि इतनी जगह उनके बयान में बर्बाद क्यों की गई। बहरहाल, इसकी भी वजह है। मनमौजी दरअसल, एक आदमी का नाम भर नहीं है। यह स्थिति अपनी जिम्मेदारी भुलाकर सिर्फ मस्त रहने, अपने मन का करने की प्रवृत्ति भी हो जाती है और तभी इसके खतरे सामने आते हैं। आज आजादी का दिन है। स्वाधीनता दिवस को हम एक और छुट्टी मान बैठते हैं, तो क्या हम भी मनमौजी काका ही नहीं बनते जा रहे? शायद हम भूल गए हैं कि आजादी का एक पर्याय स्वतंत्रता भी है, यानी अपने लिए, अपना तंत्र। एक अनुशासन, जो बताता है कि अगर हमें कुछ अधिकार मिले हैं तो उनके बरक्स कुछ जिम्मेदारियां भी हैं।

बचपन में जश्न-ए-आजादी मनाने के लिए हम सब बच्चे गांवभर में घूम-घूमकर चंदा इकट्ठा करते। छोटे-छोटे डंडों पर झंडे लगाकर भारत माता की जय के नारे लगाते। यह अहसास अंदर से होता था कि देश आजाद है और उसका उत्सव महज रस्म-अदायगी नहीं है। होली-दिवाली की तरह जरूरी है। पर अब क्या? एक अदद छुट्टी, स्कूलों में लड्डू और सभागारों में कुछ और नारे.. बस!

तीन रोज पहले की बात है। भोपाल में आयोजित एक मीडिया चौपाल में शामिल होने पहुंचा था। इसमें आजादी को अधिकार मान लेने और कोई तंत्र न विकसित करने की बात यकायक शुरू हो गई। बात छोटी-सी है, पर उसके मायने बड़े हैं। एक साथी ने कहा 'सोशल कम्युनिटीज पर जिसका, जो मन करता है, वह लिख देता है।' कुछ ब्लॉगर चिढ़ भी गए, पर बात तो सही है। अगर आपको एक प्लेटफॉर्म मिला है तो उसका इस्तेमाल करते समय दूसरों के हितों, भावनाओं और अपनी बात की गरिमा की चिंता करनी ही चाहिए।

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। पहलू हजार हैं और सबके सब विचारणीय। देश बदलने की बात तो बड़ी है, लेकिन गौर कीजिए, क्या हम सब अपने आपमें मनमौजी बनते नहीं जा रहे हैं? बहुत पुराना शेर है- हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। हम इस बात को समझें कि आजादी हमें बैठे-बिठाए नहीं मिल गई। हमारे पास अपना तंत्र तो है, लेकिन क्या उसके लिए जरूरी सम्मान और हां, आवश्यक प्रयास हमारे अंदर हैं? क्या हम देश की अस्मिता बढ़ाने के लिए कुछ करते हैं? बात थोड़ी कड़वी है, लेकिन बेहद जरूरी है, समझने वाली है।

Tuesday, July 24, 2012

एक उदास कविता

एक उदास कविता

सबसे बुरा है
उस हंसी का मर जाना
जो जाग गई थी
तुम्हारी एक मुस्कान से.

जमा हुआ दुख
पिघला,
आंख से आंसू बनकर,
तुमने समेट ली थी
पीड़ा की बूंद
अंगुली की पोर पर.

वह सब मन का तरल गरल
व्यर्थ है अब,
जैसे लैबोरेट्री की किसी शीशी में रखा हो
थोड़ा-सा निस्तेज वीर्य, ठंडा गाढ़ा काला खून
या देह का कोई और निष्कार्य अवयव।

खिड़कियों के बाहर
कुछ दरके हुए यकीन लटके हैं
चमगादड़ों की तरह बेआवाज़
शोर करते हैं
झूठे वादे।

कविताएं सिर्फ गूंज पैदा करती हैं
नहीं बदलतीं किस्मत
जैसे कि
प्रेम का लंगड़ा होना
उससे पहले से तय होता है,
जब पहली बार वह भरता है,
दो डग हंसी की ओर।

चलती रहती है
इश्क की सांस
तब
मन के उदर में पलता है कविता का भ्रूण
और खा जाता है एक दिन
वही कोमल एहसास
इच्छा का राक्षस।

ढल जाता है साथ देखा गया ठंडा चांद
गमलों के इर्द-गिर्द उगती रचनाएं
कुम्हलाई पत्तियों की राख में हैं पैबस्त
एक उदास आदमी चीखता हुआ कोसता है खुद को
कहते हुए,
क्यों नहीं है मेरे प्रेम में ताकत?
कैसे घुल-सी गई एक बार फिर
`सुनो, मेरी आवाज़ सुनो' की पुकार!

कौन बताए,
प्रेम का सूरज अस्त होने के लिए ही उगता है
कभी नहीं रुकता कोई
सिर्फ प्रेम के लिए,
प्रेम के सहारे।

प्रेम की कहानियां
इच्छाओं के लोक में
बेसुरी फुसफुसाहट से ज्यादा औकात नहीं रखतीं।

विरह मिलन से बड़ा सत्य है
और बेहद खरी गारंटी भी
जिसके साथ धोखे की रस्सी से बुने कार्ड पर लिखा है-
टूटेगा मन, जो जोड़ने की कोशिश की।

बहुत पहले,
नाज़ुक हाथों को थामकर
लिखी थी एक गुननुगाहट,
पाखंड के
साइक्लोन ने
ढहा दिया रेत का महल।

समंदर किनारे प्रेम की कब्र बनती है,
ताजमहल हमेशा नवाबों के हिस्से आते हैं।
आज राजा
अंग्रेजी बोलते हैं,
चमकते अपार्टमेंट्स में होता है उनका ठिकाना
वहीं ऊंची बिल्डिंगों के बाहर,
कूड़ेदान के पास पॉलीथीन में लिपटे रहते हैं
कुछ सच्चे चुंबन, चंद गाढ़े आलिंगन और हज़ारों काल्पनिक वादे!


निर्लज्ज हंसी और बेबस आंसुओं
अपने लिए गढ़े नए नियमों,
दुत्कारों और आरोपों,
गाढ़े धूसर रंग की शिकायतों
और इन सबके साथ हुए असीम पछतावे के साथ
सब कुछ भले लौट आए
पर नहीं वापस आता,
राह भटका हुआ विश्वास।
छलिया आकाश ने निगल लिया है
एक गहरा साथ!
लुप्त हुई नेह की एक और आकाशगंगा,
प्रेम से फिर बड़ा साबित हुआ,
उन्माद का ब्लैकहोल!

प्रेम की अकाल मृत्यु पर आओ,
खिलखिलाकर हंसें।
हमारे काल का सबसे शर्मनाक सत्य है
मन की अटूट प्रतीक्षा से बार-बार बलात्कार।
कहने को प्रतीक्षा भी स्त्रीलिंग है,
लेकिन उससे हुए दुष्कर्म की सुनवाई महिला आयोग नहीं करता।

Wednesday, June 27, 2012

एक अकेला मैं ही काफी नहीं हू क्या?

महकता है चंदन हर ओर
नहीं है भोर भी,
कि कोई पुजारी तैयार कर रहा हो लेप
देवि या देव के अभिषेक की ख़ातिर।
तुम फिर ठहरकर मेरे घर के बाहर,
जोर से उसांस लेकर चली गई हो कहीं?
सुनो वसंत,
माफी के काबिल नहीं है,
मौसमों के कालचक्र में हेर-फेर की तुम्हारी साज़िश।
ऐन दोपहर में,
जब लंच टाइम होकर गुजरा है,
लोग दफ्तरों में कामकाज के लिए फिर हो रहे हैं उत्सुक,
ऐसे में अगर भोर का वहम पैदा करोगी,
तपते सूरज को शर्म आएगी,
हवा भी सुलगती हुई सर्द होगी,
कितना कुछ तो गड़बड़ होगा,
मुर्गे देने लगेंगे बांग,
प्रभातफेरियां सजानी पड़ेंगी,
आरतियों और घंटियों की ध्वनि से बदल जाएगा सब।
शेयर बाज़ार बिना परिणाम के फिर खुल जाएगा।
कितनी ही अर्थव्यवस्थाओं को,
कार्यालयीय व्यस्तताओं को,
प्रेमियों के तय वादों को,
स्कूलों में हो रहे नए एडमिशन्स को,
बिगाड़कर तुम्हें क्या मिलेगा।
ऐसे तेज़ सांस लेना-छोड़ना बंद रखो।
तुम्हारी एक-एक आहट से यह कमज़ोर दुनिया हो जाती है असंतुलित।
रहम करो देवि,
तुम्हारे अत्याचार का शिकार, एक अकेला मैं ही काफी नहीं हूं क्या?


Monday, May 7, 2012

हां, है न `बहुत कुछ'!

- चण्डीदत्त शुक्ल

जाते हुए,
हंसे बगैर
एकदम उस तरह,
जैसे कोई गैर
अगर तुम यह कहकर निवृत्त हुईं
`और कुछ?'
और मैं नहीं कह सका,
`हां, है बहुत...!'
तो इसके मायने यह नहीं
कि नहीं है तुमसे पहले जैसा प्रेम।
विदा के समय,
बिछु़ड़ते लम्हों में जैसे हमने छोड़ दिया
एक पुराना साथ
यूं ही, ज़ुबान से शब्द अलग हुए
तो उन्हें क्या दोष दूं, बोलो?
कोई, कहां कह पाता है
एक बार में, एक साथ, सब कुछ,
वह, जो कहना संभव ही नहीं होता
महज शब्दों में।
थरथराए होंठ जब सन्निपात का शिकार बन लज्जित हो जाते हैं
आंख तो कहती है कुछ धीरे-से, सकुचाते हुए,
सुनो न उनकी बात।
बताऊं तुम्हें कुछ, सुनोगी, सह सकोगी क्या,
क्या है कुछ कहने को बाकी मेरे मन में,
सुनो वसंत
कुछ अधूरी शामें तुम अपने क्लचर में बांधकर जो गुमशुदा हुई हो,
यह बात ठीक नहीं।
चांद नंगे बदन सारी रात ठिठुरता है
समोसे की शक्ल में तारे ऐंठे हैं
पसीने से भीगे हों जैसे सारी शाम तुम्हारे इंतज़ार में
और तुम भूल गईं आंसुओं का मोयन लगाना.
कुछ अधजली रोटियां बिना खाए छूट गई हैं
लेमन सोडा बेचने वाला भी जान लेता है पूछ-पूछकर
कहां है तुम्हारी दोस्त मियां, बड़े अकेले-अकेले रहते हो!
हैं कुछ बकाए भी,
एक तो उस बंद हो गए सिनेमाघर का,
जहां हमें और भी फिल्में देखनी थीं।
एक वादा था तुम्हारा, एक ऐसे चुंबन का,
जिसके बाद मैं अंतिम सांस लूं।
उस परदेसी फिल्म की तरह,
जिसमें एक बूढ़ा शिशु होकर प्रेयसी की गोद में
लेता है आखिरी हिचकी,
तुम मरने दोगी अपनी बांह में।
पर सब स्वप्न कहां सच होते हैं,
सो यह भी घुल जाने दो
लेकिन सुनो,
सौ ग्राम हरी मिर्च खाने के बाद,
मेरी सी-सी पर कराह उठने वाली तुम,
बताओ तो,
आज वहां फिर क्यों नहीं लौटीं,
जहां से बेदर्द होकर घुमा ले गई थीं गाड़ी।
जानते हुए भी कि तुम नहीं आओगी,
आदत से मज़बूर मैं गया था वापस,
अपने टूटे हृदय को एक और धक्का देने।
कहना तो है तुमसे बहुत कुछ
है न `और कुछ'
पर जानता हूं,
न तुम सुन सकोगी
न मैं कह सकूंगा,
हम दोनों
निकल चुके हैं
बहुत दूर,
कहने-सुनने और उसके असर से,
इसलिए अब मौन हूं।
सुना था,
शब्दों में जब कविता तैरती है
तो पहाड़ हिल उठते हैं
दिशाएं थमती हैं
यात्राएं नए रास्ते चुनती हैं
और मरा हुआ प्रेम फिर ज़िंदा होता है।
यही सोचकर
हर दिन बुनता रहा हूं एक नया मंत्र।
जैसे, वेद की ऋचाएं धर रही हों देह
हवनकुंड में सुलगती लकड़ियों के बीच मुझे राख कर
देने को नया जन्म।
मंत्रों में गुंफित है तुम्हारा नाम सदैव
लेकिन जो कुछ भी बाकी है,
वह शेष ही रहेगा शायद सदैव
जब मेरी एक भी कविता तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं जगा पाती
नहीं चलती हो एक भी कदम नींद से बाहर
तो यह सब मंत्र हुए व्यर्थ
नष्ट सब कविताएं
इनका नाद बहुत धीमा है
और तुम्हारा गुस्सा कुंभकर्णी नींद के हथियार से लैस है।
सोच रहा हूं, बंद कर दूं कुछ भी लिखना
अगर यह सब इतना ही असमर्थ है,
जितना कातर मेरा प्रेम,
तो कविता के न होने से क्या थमा रह जाएगा,
यूं भी, शब्दों में कहां ढोई जा सकी है प्रीति
न ही क़तरा भर भी नफरत।
घृणा ही जी ली होती मुकम्मल
तो क्षणांश को ही सही,मुझसे मिलना जारी क्यों रखतीं
और प्रेम बचा रह गया होता अक्षरों की दीवार में
तब, यह रोती हुई कविता किसी भी तरह शरीर कैसे पाती।
हरदम कविता को जन्म देना प्रेम को वापस नहीं लाता
फिर भी,
इस जन्म में संभव नहीं है,
तुम्हें विस्मृत कर पाना
मेरी कविताओं का जन्म तुम्हारे गर्भ से ही तो हुआ है,
मेरी वसंत।

Saturday, April 28, 2012

शुक्रिया वसंत

- चण्डीदत्त शुक्ल

शुक्रिया वसंत
तुम्हारा मिलना इस बार
नहीं लाया कोई बहार।
कहीं, नहीं फूटी, कोई कुहुक
एक भी फूल नहीं खिला
कहां हंसी कोई चिड़िया
पर
तुम, अपने न होने के बावज़ूद
साथ हुईं,
पल भर को सही।
बोलो, मृत्यु भी क्या छीन सकेगी यह सुख?
जानती हो
जी गया मैं।
यूं भी,
बेहद तकलीफ देता है,
छीजते हुए, सांस समेत तिल-तिल मरना।
इससे कितना अच्छा है न,
हंसते हुए, तुम्हारी गोद में प्राण दे देना।
तुम मिलीं
और मैंने ज्यूं एक पल को त्याग दी सारी निराशा!
आज सांस में हिमालय से ठंड आकर पसरी है।
बहुत ज़रूरी है
तुम्हारे अंदर यकीन का ज़िंदा रहना.
मुझ पर न सही,
किसी पर भी बना रहे विश्वास
वह भी न हो
तो खुद में ज़िंदा और आश्वस्त रहो तुम।
आखिरकार,
उपस्थित रहना
एक खूबसूरत इंसान का
इस दुनिया में
कितना आवश्यक है।
यकीन करना
तुम्हारे हंसने से
आज भी सुबह हो जाती है
और लाल।
दोबाला रफ्तार से धड़कता है दिल।
तुम्हारी देह के बिना भी,
मुझमें
तृप्त होती हैं समस्त वासनाएं।
एक शाम,
अपने मरे हुए यकीनों के साथ ही सही,
आना...
कुछ न कहना,
कुछ न सुनना।
तुम्हें अपनी बांह में पिरोकर
छुए बिना ही
मैं भर दूंगा तुम्हारे मन में प्रेम-सरोवर।
कुछ तो है साथी
जो बनाता है
इस रंगहीन-बेस्वाद दुनिया को
सुंदर और लज्जतदार
वह हो तुम
और मेरा कातर प्रेम!

Monday, April 16, 2012

म्यां, नाराज़ क्यूं हो?

- चण्डीदत्त शुक्ल
 
नाराज़ हो,
मेरे से.
म्यां,
कोई नई बात कही होती.
ये क्या,
भूत भगाने को,
इबादत की खातिर
लोहबान जलाना.
कभी
गुड नाइट छोड़के
मच्छर-मक्खी भगाने कू लोहबान  जलाओ न.
अमां.
दिल के जले से मूं फुल्लाने वाले तुम कोन-से नए आदमी हो
किसी टकीला वाले अंबानी से गुस्सा के देखो.
आशिक को तो गली का कुत्ता भी भूंकता है
पूरा पंचम राग में
तार सप्तक छेड़ते हुए
ऊं-ऊं-उआं करके रोता है,
किसी रात साला किसी दरोगा पे रोके दिखाए
नाराज़ मती होओ
हम इश्क के मारे हैं,
तुम्हारी नाराज़गी बेकार जाएगी।
किब्ला.
इश्क ही कल्लो
नाराज़गी फरज़ी लगैगी
फिर तो,
एक ही कंबल में मूं लपेटे हमारे साथ पड़े रहोगे.
ये रोग किसी छूत से नहीं होता
हां, इस रोग की छूत बड़ी बुरी होवे है...

Saturday, March 17, 2012

कुछ कविताएं आज की...

- चण्डीदत्त शुक्ल @ 8824696345

जागती है मेरे जन्म की हर रात

हां,
बाकी है बहुत कुछ
तुम्हारा मुझ पर.
शेष हो तुम भी कहीं मुझमें,
एक जरूरी बोझ की तरह।
ज्यूं,
पनघट से घर लौटते हुए
पानी से भरी मटकी सिर दुखाती बहुत है
पर उसी तेजी के साथ
हल्का कर देती है प्यास से भरी देह।
तुम्हारी कृतज्ञताओं के कंबल में,
ठिठुरता है मेरा वर्तमान
और दहकता हुआ देखो गुलाबी अतीत।
तुम्हारा स्वप्न होना जीवन का,
किस कदर जगा गया है
मेरे जन्म की हर रात।


ठहरी रहना किसी मोड़ से गुजरते हुए


सारे अच्छे लड़के
शादीशुदा हैं,
या फिर समलैंगिक--
कहीं पढ़ा था मैंने
और
कह रहा हूं
इसी वाचिक हिंसा से भरकर
सारी लड़कियां,
जिन्हें हम प्यार करते हैं,
होती हैं कुछ दूसरे ही किस्म की।
वे या तो रहती हैं किन्हीं और चीजों के प्रेम में
या फिर
स्वप्नों के दंश से झुलसी हैं उनकी इच्छाएं।
अपने अस्तित्व में पिघलते देख
हमारी देहों का बोझ
दोहरी होती हैं हंस-हंसकर
फिर भी नहीं देती हैं खुद का एक कतरा भी!
लगाव की ये सब यात्राएं चुक गई हैं
बालू से तेल निकालते हुए।
तुम,
ठहरी रहना किसी मोड़ से गुजरते हुए
एक निर्जन रास्ते पर।
मैं आऊंगा तुम्हारे उपयुक्त बनकर,
तुम तो हो ही
सनातन मेरी प्रियपात्र।

Friday, March 9, 2012

व्यंग्य : बेगुनाह चच्चा ने खेली एक अनूठी होली



- चण्डीदत्त शुक्ल

chandidutt@gmail.com

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कभी महंगाई ने होली खेली, कभी लापरवाह नेताओं के ऊल-जलूल बयानों ने, लेकिन चच्चा के पस्त हौसलों को धूल चटाते हुए चच्ची बोलीं—मुश्किलें तो रहेंगी ही, हौसले से खेलो रंग और बोलो – होली है, है होली!

 
मार्च का पहला हफ्ता भी बीतने को है और मौसम किसी बेवफ़ा माशूका की तरह ऊल-जलूल, दिल तोड़ने वाली हरकतें करने से बाज नहीं आ रहा। पौ फटते ही ठंडे पानी से नहाने की जो आदत मजबूरी में पड़ी थी, उसका निबाह करने का फायदा ये हुआ है कि हवा में बदलाव आते ही जुकाम-बुखार धर दबोचता है। ऊपर से तुर्रा ये कि सुबह सिहरन भरी बयार चलती है और दोपहर में सिर तपने लगता है। ज्यादा गलती ये कर दी कि चचा के घर का रुख कर लिया। पहुंचा तो देखता हूं कि चचा चारपाई उलटी करके रस्सी पर डंडा पटक रहे हैं। फितरतन हंसी आ गई और उनका पारा फटाक कर ऊपर चढ़ गया। वे हिनहिनाए—`का बाबू नंदलाल, हमको ट्रैफिक का कानून समझ लिया है? जब चाहोगे, तोड़ दोगे। ये जो डंडा हम रस्सी पर पटक रहे हैं, वही तुम्हारी पीठ पर धर देंगे।' अल्पमत की सरकार की तरह हमारी हंसी शैंपेन के झाग माफिक तुरंत बैठ गई। हम रिंरियाए – `अमां चचा, आप भी न पूरे डॉली बिंद्रा हो रहे हैं। बे-बात नाराज़, लड़ने को आमादा। हुआ यूं कि हम सोच रहे थे— आप होली की तैयारी में जुटे मिलेंगे।

पकी हुई दाढ़ी-मूंछें खिजाब से रंगने और नई अचकन से लैस होने में मुत्तिला होंगे, लेकिन जो आपको खटमल मारते देखा तो हंसी आ गई। अब इसे लड़कपन की भूल मानकर माफ़ कर दीजिए।' चचा बुझती हुई लालटेन की तरह और भभक पड़े – `कहना क्या चाहते हो। तुम बयालीस की उमर में लड़के हो और हम बुड्ढे हो गए? अभी हमारी उमर ही क्या है?' चचा को सेंटी होते देख हमने जबान के मंझे को ढील दी और पटरी पे आ गए। हमने कहा – `चचा, सच बात है। आपके बाल ही तो सफेद हैं...' उन्होंने बात लपक ली, बोले – `हां, दिल तो काला ही है बेटा। खैर, और सुनाओ। क्या हाल है?' लेकिन ये कहने के साथ ऐसा भी नहीं कि जवाब का इंतज़ार करते, खुद ही बोलते रहे – `ऐसा है नंदलाल, होली तो हमसे साल 2011 ने जमकर खेल ही ली है। अब हम रस्मअदायगी करें तो करें।'

हमने मुंह के किवाड़ फटाक से खोल दिए – `अमां चचा, आप भी न गड़बड़झाला कर रहे हैं। होली तो आज है और आप पता नहीं क्या-क्या कह रहे हैं। सुबह ही भांग चढ़ा ली क्या?' चचा इस बार न फफके, न भभके, बस मुस्कुरा दिए – `नंदू बेटा, आओ बैठो। हम सुनाते हैं, कैसे मनाई हमने साल भर होली!' हम भी इत्मिनान के साथ, खुले कानों और दोपहर तक जमे रहने के इरादे के साथ वहीं जमीन पर पसर लिए। फिर तो चचा बोलते रहे, नॉनस्टॉप, फुल स्पीड।

चचा ने क्या कहा, हम बताएंगे, लेकिन पहले जरा उनका इंट्रोडक्शन हो जाए। इनका असली नाम तो वालिदान को या हेड मास्टर साहब को पता होगा, हम बस इतना जानते हैं कि सूफियाना मिजाज के चचा खुद को बेगुनाह चच्चा कहलाना पसंद करते हैं। आशिकाना दिल के मालिक हैं, सो जवानी में दो-चार हड्डियां तुड़वा चुके और रेलवे स्टेशन के पास पान की छोटी-सी दुकान चलाते हैं।

चचा कहने लगे – `देखो नंदू, होली का हाल हम तुमसे क्या बताएं। अब तुम हमसे कहोगे चाय पिलाओ, सो पहली कहानी तो यहीं से शुरू हो जाती है। एक जमाना था, जब हम कलेवे में, बोले तो मुए ब्रेकफास्ट में, दूध-जलेबी खाते थे। अब गाना सुनते हैं जलेबी बाई, लेकिन दूध को सेंट की तरह इस्तेमाल में लाते हैं। ऐसे में इस साल की सबसे जबर्दस्त होली तो महंगाई ने खेली है।'

धाकड़ मिजाज चच्ची आंगन में आकर चिल्लाईं– `सुनो जी, न काम के, न काज के, दुश्मन अनाज के। अब भतीजा आया है तो कंजूसी के रिकॉर्ड न बनाओ। ऐसी किल्लत नहीं पड़ी है कि इसे चाय भी न पिला पाऊं।' चच्ची की बात सुनके हमारी हिम्मत जागी, लेकिन उन्होंने भी दिल तोड़ने की ठान रखी थी। बोलीं – `बेटा नंदू, चचा तुम्हारे बात तो सही कह रहे हैं। बेटा साल भर में पांच बार दूध की कीमत बढ़ी है। मैं कहती ही रह गई कि एक भैंस पाल लो, लेकिन ये हैं कि सुनते नहीं।'

चचा फट पड़े - `और आंगन में तेल का कुंआं भी खोद लूं न... वहीं से पेट्रोल और केरोसीन निकलेगा!'

चच्ची ग़ज़ब वाली नाराज़ हुईं और चचा को कोसते हुए अंदर जा सिधारीं। हमने सोचा, ये मियां-बीवी हर मेहमान के आने के साथ ऐसी ही नौटंकी शुरू कर देते हैं, ताकि चाय न पिलानी पड़े। खैर, चाय की उम्मीद छोड़ हमने चचा की आवाज़ की तरफ कान लगा दिए। वे कहते जा रहे थे – `बेटा, दूसरी होली हमारे साथ विद्या बालन ने खेली। अब इस बुढ़ापे में ऐसी-ऐसी हरकतें दिखा गई है कि खुद तो दोजख में जाएगी ही और हमारा रास्ता भी बंद कर दिया…'। उनके खुले मुंह पर यकायक ढक्कन लग गया तो हमने पलटकर देखा। दूध बहुत कम, पानी ढेर सारा वाली चाय एक डिस्पोजल ग्लास में भरकर बाहर निकल रही थीं। उन्होंने चाय हमें पकड़ाई और चचा को घूरा। चचा बेचारे अपनी परमानेंट मनहूस शक्ल पर और भी बारह बजाकर चुप हो गए।

चची बोलीं – `विद्या बालन क्यों, सन्नी लियोन की बात करो।' वे गिड़गिड़ाए – `हम तो नंदू बेटा से पढ़ाई-लिखाई की बात कर रहे थे।' चची वहीं जमकर बैठ गईं – `जरा हम भी तो सुनें तुम्हारी ये स्पेशल बातचीत।'

हम चाय गुड़गुड़ाने लगे और चचा गप का सिरा पकड़कर आगे बढ़ चले – `बेटा, अन्ना आए थे तो सबने सोचा कि अनशन करके मुश्किल सब हल हो जाएगी, लेकिन हम पहले से जानते थे कि इससे कुछ नहीं होगा। तुम्हारी  चच्ची तो महीने में वैसी ही दस-पंद्रह दिन अनशन करवाती हैं, लेकिन हमसे कोई हल कहां निकलवा पाईं।'

चच्ची जनलोकपाल बिल के समर्थन में मुस्तैद कार्यकर्ता की तरह भड़कीं – तुमसे कुछ होगा तो है नहीं, बस बातें बनाते रहो। इसके बाद हमारी ओर मुड़ीं - `नंदू बेटा। हम जब चौदह साल की उम्र में ब्याह के आए थे, तभी कह रहे थे कि सरकारी नौकरी के लिए टिराई करो। अब देखो, पिछले साल सारी छुट्टियां ऐसी पड़ी हैं कि एक दिन छुट्टी लो और तीन दिन आराम करो, लेकिन इनकी तो सारी कोशिश एकदम रामदेव के आंदोलन की तरह साबित हुई।'

चचा बोले – `हमने एक बार में तुम्हें सेलेक्ट किया, उसका शुकराना अदा नहीं करती हो। सैफरीना की तरह बना देते, तब सही होतीं।' उन्होंने हिम्मत करके इतना कह तो दिया, लेकिन चच्ची की घुड़की खाकर फिर साइलेंट हो गए। कुछ देर तो माहौल यूपी चुनाव की तरह रहा, फिर समर्थन जुटाने के लिए आतुर पॉलिटिकल पार्टीज की तरह नॉर्मल हो गया।

चचा ने उस दोपहर पूरे साल की होली की जो-जो घटनाएं सुनाईं, उनका डिटेल में बयान करना ठीक नहीं है, लेकिन मुख्तसर-सा बयान कुछ यूं है – नंदलाल, होली-दीवाली सब दिल में ही होती है। बाहर निकलकर मनाने चलो तो एक-से-एक संकट सामने है। पिक्चर देखनी हो तो मल्टीप्लेक्स में टिकट से ज्यादा पॉपकॉर्न के पैसे दो।

लाइसेंस लेना हो तो पूरे साल की कमाई रिश्वत में दे दो। ज्यादा नारेबाजी करो तो दो पत्ती गांजा रखके हवालात में ठूंस दें।' हमने ज्यादा जोर दिया तो बोले – `हमारे साथ तो बिग होली कृषि मंत्री साहब ने खेली। पूरे साल बताते रहे कि खेती-किसानी का भविष्य ज्योतिषियों के हाथ में है और खुद बेचारे मुकदमेबाजी से लेकर क्रिकेट की गुगलियां सुलझाने में लगे रहे। हमारा बस चले तो हम अलीगढ़ का एक ताला उन्हें गिफ्ट कर दें। दूसरे साहब हैं तो अंग्रेजों के जमाने से अब तक चली आ रही एक पार्टी के नेता, लेकिन उन्हें मच्छर भी काटता है तो आरएसएस की साजिश बता देते हैं। इनसे भी अव्वल नंबर के हुलियारे निकले आतंकवादी, जो जब देखो, तब अपनी जान तो गंवाते ही हैं, हमारा अमन-चैन भी काफूर कर देते हैं।'

चचा सेंटी हो रहे थे और हम मुंह बाए उनकी बात का जवाब तलाश रहे थे। वे एक्सप्रेस ट्रेन की तरह दौड़ते रहे – `अब बताओ नंदू, मेरे जैसे बेगुनाह के पास क्या है, लेकिन गैस सिलेंडर की कीमतें सुनकर मन करता है, खुदा के पास चला जाऊं। हां, याद आया, होली तो मौत ने भी इस बार बहुत तगड़ी खेली, लेकिन वो भी अपने साथ हमारे अजीज जगजीत सिंह, भूपेन हजारिका, देवानंद को ले गई। अब जन्नत में गाना-बजाना हो रहा है और हम तुम्हारी चच्ची की झिन-झिन सुन रहे हैं… खैर, अपनी-अपनी किस्मत। होली तो हर साल आएगी, लेकिन हम एक सवाल पूछते हैं – हमारी सुध सरकार को कब आएगी?'

चच्चा को हम क्या जवाब देते। उनकी उम्मीदें सोने की कीमत की तरह सारी सीमाएं लांघ रही हैं। हम और फेडअप होते, उससे पहले चच्ची ने हमें बचा लिया। वे साबुन का झाग घोलकर लाईं और चच्चा के घुटे सिर पर उड़ेलकर बोलीं – होली है, होली है मनहूस। मेरे प्यारे शौहर, तुम सच में बूढ़े हो गए हो। मुफलिसी और मुसीबतें तो हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं। मियां, ये ही न हों तो ज़िंदगी कितनी बेनूर और बेमज़ा हो जाएगी। है कि नहीं...। दूसरों को कोसना छोड़ो और आओ, जितनी भी रूखी-सूखी है, उसमें ही मस्त रहें, होली खेलें।'

मैंने राहत की सांस ली और चच्चा-चच्ची को होली की मुबारकबाद देकर आगे बढ़ा। मेरे मन में चच्ची की बातें अब भी गूंज रही थीं – हालात से समझौता करके चुप बैठ जाना हल नहीं है, हमें आवाज़ तो उठानी होगी, लेकिन दिक्कतों की दुहाई देकर सिर्फ झींकते रहने से भी कुछ नहीं होगा। ज्यादा अच्छा ये होगा कि हम हंसते रहें और लड़ते रहें। हम ऐसा कर पाए तो हर दिन होली होगी।

चच्ची की बात यादकर मुझे हंसी आ गई, तब तक चार-पांच बच्चे दौड़ते हुए आए और टकरा गए। वे चिल्ला रहे थे – होली है, होली है...। दूर, सूरज बादलों के पीछे थोड़ी देर इंटरवल मनाने निकल लिया था और होलियारे हर तरफ हुल्लड़ मचाने निकल पड़े थे।
 


Sunday, March 4, 2012

कहानी ... तुम चुप रहो गुलमोहर!


तुम चुप रहो गुलमोहर!


-        चण्डीदत्त शुक्ल

chandidutt@gmail.com

 

एकांत का धूसर रंग हो, चाहे मिलन की चटख रंगोली... खुशी मन में ही पैदा होती है, वहीं खत्म भी हो जाती है। हर दिन को होली बनाने की चाहत में फाल्गुनी ने वर्जित फल चख तो लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि हम अकेले भी अपने अंदर होते हैं और पूर्ण भी खुद से ही। कोई तनहाई दूसरों के सहारे खत्म नहीं होती...

 

 

आसमान के गाल लाल थे। ऐन टमाटर की माफ़िक। होली का हफ्ता शुरू हो चुका था, सो धरती से अंबर तक, हर तरफ रंगों की बारात सजी थी, लेकिन हैरत की बात सर्दी अब भी हवा की नसों में तैरती हुई। ठंड ने बादलों को थप्पड़ मार-मारकर पूरे आसमान को सुर्ख कर दिया था। सारी रात जागने के बाद चांद कराह रहा था। दर्द के मारे उसके पैरों की नसें नीली पड़ गई थीं। उसकी विनती पर ही सरपट भागते, सूरज के रथ के आगे जुते घोड़े यकायक ठहर गए। उनके पैरों की नाल यूं झनकी कि फाल्गुनी की आंखों से पलकों ने कुट्टी कर दी। उसने `आह' कह अंगड़ाई ली और करवट बदली। निगाहें लाल थीं। कम सोने और ज्यादा जागने की वजह से। रात का लंबा वक्फा आंख की राह से गुजरकर आगे बढ़ा था।

बगल में लेटा निहार अब भी निढाल था, सुध-बुध खोए हुए। नींद में शायद ख्वाब जाग रहे थे। तभी तो सांस-दर-सांस नींद में दाखिल हुआ वह मुस्कुराता जा रहा था। फाल्गुनी ने टहोका `सूरज के घोड़े आसमान के बीचोबीच ठहरे हुए हैं और तुम हो कि घोड़े बेचकर सोते ही जा रहे हो। उठो, भोर हो गई है। मुझे झटपट तैयार होकर दफ्तर के लिए निकलना है।'

वह खिलखिलाई। उसके जूड़े में सजी चमेली के दो फूल मेज पर बिखर गए। महक बिखरते फूल... सफेद... कमरे में गुनगुना अंधेरा था और फूल जुगनुओं की मानिंद रोशनी के हरकारे बने थे।

`ऊं... सोने दो न... आज कौन-सा दफ्तर? अब तो छुट्टी हो गई है न होली की।' निहार कुनमुनाया। फाल्गुनी गुर्राई - `अभी आठ दिन बाकी हैं जनाब।' हालांकि चिल्लाते ही उसे हंसी आ गई। थोड़ा-सा तरस और ज़रा-सी झुंझलाहट, एकसाथ। वो है ही ऐसी। प्यार करते वक्त भी तनी रहती है। निहार अक्सर टोकता - `हिटलर की तरह अकड़ी क्यों रहती हो? कभी झुक भी जाया करो।' फाल्गुनी के पास एक ही जवाब होता - `तुम मर्दों ने हम औरतों को इसी प्यार के नाम पर हमेशा ठगा है। झूठ-मूठ का प्रेम और बदले में कब्जा कर लेते हो हमारी सच्ची निष्ठा। अब ये दांव न चलेगा। हम आज की औरत हैं। प्यार और गुलामी में फर्क समझत हैं।'

निहार खिलखिलाता - `अच्छा जानम, नहीं समझना तो न समझो। हमें गुलाम ही बना लो।' फाल्गुनी फिर भी अड़ी रहती - `ये सब दांव हैं तुम लोगों के। निहार अब तंज कसता, लेकिन धीरे से - `बड़ा एक्सपीरिएंस है तुम्हें।' फाल्गुनी छिल जाती, लेकिन करती भी क्या। सोचती - `भगवान ने इन्हीं बंदरों से जोड़ी लगाई है। जैसे भी हैं, इनसे अपने हिस्से का प्यार तो हम औरतों को वसूल करना ही है।'

यूं भी, निहार से मिलने के बाद ही उसकी ज़िंदगी के सारे रंग लौट आए थे। हर दिन होली जैसा होता। खुशी की बौछार से नहाया हुआ। वह चिबुक पर चूमता और फाल्गुनी की आंखें मुंद जातीं। हर तरफ शोर गूंजता होली है...होली है। ऐन सितंबर के महीने में भी `छपाक' कर गुदगुदी का गुब्बारा फूटता, ठीक दिल के बीचोबीच।

ये कैसी कहानी है। क्या है इसका ओर और छोर। सच बात। नहीं है कोई कोर-किनारा, लेकिन चौंकने की बारी अब आपकी है। निहार और फाल्गुनी पति-पत्नी नहीं हैं, वे प्रेमी-प्रेमिका भी नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे को बेस्ट फ्रेंड बताते हैं। नाइट शिफ्ट के बहाने निहार फाल्गुनी के फ्लैट में अक्सर आकर ठहर जाता है न सही, दो-चार कैजुअल लीव! वह शादीशुदा है। फाल्गुनी जानती है, फिर भी उसके घर के दरवाजे निहार के लिए खुले रहते हैं। ये उनके बीच एक गुप्त समझौते की तरह है। दोनों जानते हैं कि उन्हें एक-दूसरे से क्या चाहिए। साफ-साफ इसका हिसाब किसी के पास नहीं। देह? नहीं, बहुत छोटी-सी चीज हैं ये तो। फिर पैसा? दोनों कमाते भी ठीकठाक हैं। फिर क्या है, जिसकी तलाश में वे मिलते हैं। अक्सर, चोरी-छुपे नहीं, बेधड़क। जवाब तलाशना बाकी है। फाल्गुनी बुदबुदाती है निहार मेरे खोए रंग लौटाकर लाया है तो निहार के पास भी जवाब है अरे, कुछ नहीं. वी आर जस्ट फ्रेंड्स। नथिंग स्पेशल।

फाल्गुनी के लिए निहार का साथ एक वर्जित फल की तरह है। यूं, वह स्वेच्छाचारी नहीं है। इतनी आधुनिक भी नहीं। देह उसके लिए वर्जना का बड़ा अध्याय रही है एक समय तक, लेकिन अब नहीं। वह जानती है कि इसी के लिए सब उसके आसपास मंडराते हैं तो वह क्यों न, अपनी पसंद का पुरुष चुने। हां, `बेस्ट फ्रेंड्स' का गढ़ा जवाब वह भी अक्सर बुदबुदाती रहती है। न जाने क्यों। मन में उमड़ता एक गुलाबी रंग उसके लिए सबसे बड़ा है। हर दिन को होली बना लेने का ज्वार...।

ऑटो स्टैंड की ओर बढ़ती हुई फाल्गुनी सोच रही थी - सब कुछ तो है उसके पास। निहार भी, भले ही किसी के हिस्से से मांगा हुआ ही सही, फिर वो उदास क्यों है। आठ दिन बाद होली है। उसका पसंदीदा त्योहार। क्या खूब हुल्लड़ करती थी वो होली पर। सहेलियों की टोली निकलती तो मोहल्ले में तूफान आ जाता। मां बड़बड़ाती - `देखना, एक दिन नाक कटवाएगी आपकी लाडली' और पापा कान में तेल डाले गुटका रामायण पढ़ते रहते। फाल्गुनी सहेलियों के संग मुंडेर लांघती, छत-दर-छत फलांगती कहां-कहां न हो आती। एक-एक सहेली को रंग से सराबोर करने के बाद जब वे थक जातीं तो सब की सब बॉलकनी में इकट्ठा हो राह आते-जाते लोगों पर रंग भरे गुब्बारे फेंकतीं। दोपहर बाद गुलाल का दौर चलता और देर शाम जब फाल्गुनी नहाती तो छींकते-छींकते दोहरी हो जाती। मां तब भी बड़बड़ातीं - `देखो कलमुंही को। बांस की तरह हो गई है, लेकिन लाज-शर्म रत्ती की नहीं है।'

ऐसा था क्या? नहीं... फाल्गुनी तो छुईमुई के पौधे की तरह थी... तब से अब तक वैसी की वैसी है, लेकिन पांच-पांच दिन तक जींस पहने, रात-बेरात भटकने वाली फाल्गुनी ऊपर से तो एकदम बिंदास, बेखौफ़, बेखटक नज़र आती है। कुछ तो है, जो वो उदास रहती है। होली का त्योहार उसके सीने में पूरा का पूरा समंदर पैदा कर देता। वह खिलखिलाती, चिल्लाती, निहार को मजबूर कर देती कि वो कोई भी बहाना बनाकर उसके पास आए। निहार आता तो उसे दबोचकर लाल-पीला-नीला-गुलाबी कर देती। उसे अच्छा लगता था, एक तरफ सीडी प्लेयर पर गाना बजता रहे - लौंगा-इलायची का बीड़ा लगाया, खाए गोरी का यार, बलम तरसे, रंग बरसे... और दूसरी तरफ वह स्केच पेन से निहार के क्लीन-शेव्ड चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ बनाती रहे। कुछ न मिलता तो उसकी सफेद शर्ट पर इंक पॉट उड़ेल देती।

निहार छटपटाता उसकी पकड़ से छूटने के लिए और वह उसे पीटती, धौल-धप्पे लगाती...लेकिन जैसे ही वह अपने घर जाने की बात करता, वही पुरानी जमी उदासी जैसे हरी हो जाती और उसके सीने में उगा समंदर सिमटने लगता।

वैसी ही उदासी, जैसी काफी कम उम्र से थी। हाईस्कूल से। कैसी है ये गांठ फाल्गुनी कभी टोह नहीं लगा पाई। मुंहबोली बहन जैसी दोस्त मंजू से उसने पूछा भी था `पता नहीं क्यों मैं उदास रहती हूं? खूब खिलखिलाकर हंसने के ऐन बाद हो जाने वाली उदास? क्या करूं? कुछ तो सोल्यूशन बताओ।'

मंजू मुस्कुराई थी। चुटकी भर बोली - `किसी से जी भरकर प्यार कर लो। सब ठीक हो जाएगा। इस उम्र में ऐसा होता है।'

फाल्गुनी उसे क्या बताती, प्यार तो वह तभी कर बैठी थी, जब नवीं में थी। पूरे एक साल पहले। अपने मास्टर जी से। एक बार रात भर जागकर मास्टर जी को चिट्ठी भी लिखी और उसमें पूड़ी पैक करके स्कूल ले गई थी। लंच टाइम में मास्टर जी को टिफिन पकड़ाते वक्त मनुहार की थी `सर! आपके लिए खास दाल की कचौरी बनाई है। प्लीज़, आप खाइएगा ज़रूर।'

इंटरवल के बाद मास्टर जी ने उसे खाली टिफिन लौटाते हुए ताकीद की थी `फाल्गुनी, बच्चे, थैंक यू, लेकिन ये वक्त पढ़ाई में मन लगाने का है।' वह दिन था और अब, फाल्गुनी की उदासी और बढ़ गई थी। उसके बाद कितने ही दिन गुजरते गए। त्योहार आते रहे। होली भी आई और बेरंग गुजर गई। फाल्गुनी ने पढ़ाई पूरी की। हॉस्टल की बेस्वाद रातें, शामें और दोपहरियां उसके दिल पर पत्थर बनकर लदी रहतीं, लेकिन वो जीती गई, एक-एक दिन। न, बोझ बनाकर भी नहीं। उसके तन-बदन में एक उमंग और उदास धुन का अजीब-सा मेल हरदम बना रहता था। नौकरी में आने के तुरंत बाद निहार से मुलाकात हुई और दोनों कब एक-दूसरे की ज़िंदगी में अतिक्रमण कर बैठे, वे खुद भी नहीं जानते। हां, निहार से मिलना उसकी ज़िंदगी में रंग लौटा लाया था। उसे तो यही लगता था और निहार भी कहता तुम मेरी लाइफ में बहुत लकी साबित हुई हो।

धचके के साथ ऑटो रुका और विचारों की रेलगाड़ी पटरी से उतर गई। फाल्गुनी ने मीटर देखा। चौवालीस रुपए हुए थे। वह ड्राइवर को पचास रुपए का नोट देकर, `कीप द चेंज' कहते हुए आगे बढ़ गई। फाइलों का ढेर निपटाते हुए कब दोपहर के डेढ़ बज गए, पता ही नहीं चला। चपरासी ने केबिन का दरवाज़ा खोलकर कहा `मैम! लंच के लिए जाएंगी क्या?'  वह अनमने अंदाज में टिफिन निकालकर उठने ही वाली थी, तभी एक महिला स्वर उसके कानों से टकराया `मैं अंदर आ जाऊं फाल्गुनी?'

वह चौंकी। कौन है ये महिला, जो उसका नाम लेकर इतने अनौपचारिक ढंग से पुकार रही है। फाल्गुनी बोली `यस, कम इन।' लंबे जूड़े में फूल सजाए, साड़ी पहने एक मध्यवय महिला ने अंदर केबिन के अंदर कदम रखे `हाय! मैं सुजाता हूं। सुजाता ठाकुर।'

-         हाय! सुजाता?

-         जी, सुजाता ठाकुर, पोएट। आप फेसबुक पर अक्सर कमेंट्स करती रहती हैं मेरी कविताओं पर।

-         हम्म्म... जी, लेकिन आप यहां, आज, यकायक?

-         ये तो आप जानती ही हैं कि मैं इसी शहर में रहती हूं, लेकिन मैं एक और परिचय दे दूं...।

फाल्गुनी की उत्सुकता चरम पर थी। वह बोली हां...।

-         मैं निहार की पत्नी हूं... नहीं, नहीं, घबराइए नहीं। मैं जानती हूं कि उसने आपको मेरे बारे में कुछ भी नहीं बताया होगा, पर मुझे सब पता है। मैं उसका पर्स खाली करते समय आपकी फोटोग्राफ देख चुकी हूं। बाकी, आपका सारा परिचय तो एफबी पर है ही।

फाल्गुनी कुछ बोल न पाई। सुजाता उसके सामने बैठी थी और फाल्गुनी की आंखों के आगे अतीत टिमटिमाने लगा था। निहार ने यहीं, इसी दफ्तर में लंच टाइम में कॉफी के लिए इन्वाइट किया था। कितना केयरिंग एप्रोच था उसका। बाद के दिनों में उसने बताया था कि उसकी पत्नी कम पढ़ी-लिखी, एक देहाती महिला है। और ये भी मेरी फैंटेसीज कुछ और हैं...। यू नो...!

न जाने कब से प्रेम की, साथ की तलाश में भटक रही फाल्गुनी को निहार गुलमोहर के पेड़ की तरह लगा। वही गुलमोहर का पेड़, जहां पहली बार मास्टर जी की कड़वी सलाह के बाद वह चुपचाप रोई थी। उसकी आंखों में काली-मिर्च का पावडर जैसे किसी ने डाल दिया था....और तब भी, जब एक बार होली के ही दिन, जीजाजी ने उसके कुर्ते पर पान की पीक फेंक दी थी। गुलमोहर के पेड़ ने दोनों दिन उसे संभाल लिया था। अपनी डालियों में। खुशबूदार भरोसे के साथ।

होली के दिन फाल्गुनी तब भी हंसती थी... एक उदास हंसी, लेकिन जब से निहार उसे मिला था, वो सारी नैतिकता भुलाकर उसके साथ बिंदास घूमने लगी थी। रातों के वक्त, दोपहरियों में भी कभी-कभार। उसने अपने मन में सोचा था निहार को ही कहां किसी का साथ मिला है। अगर मैं और वो एक-दूसरे के साथ कुछ लम्हा ही खुश रह सकते हैं तो इसमें क्या बुराई है?

पिछले तीन साल से निहार और फाल्गुनी इसी अनियतकालिक रिलेशनशिप में थे। एक-दूसरे के बारे में बेहद संक्षिप्त जानकारियों और महीने में तीन-चार मुलाकातों, नाइट स्टे के सिवा उन दोनों के पास कुछ भी नहीं था... लेकिन गुलमोहर का पेड़ हर रात फाल्गुनी के सीने में आकर खिल उठता, पूरी ताकत के साथ, खुशबुए फैलाता हुआ। जिस रात निहार घर आता, फाल्गुनी रंगों में सनी रहती। कभी कभी ब्लेड से अंगूठा काटकर तिलक लगाने की नौटंकी करती तो कभी बेसन घोलकर अपने सिर में डाल लेती और चिल्लाती होली आई है। आई है होली...।

`निहार तुम्हारे पास केवल सेक्सुअल फेवर के लिए आता है... तुम्हारी तलाश भी वही होगी शायद?'

सुजाता को आप से तुम संबोधन पर आने में देर नहीं लगी थी और अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद फाल्गुनी थर्रा उठी थी। किसी अज्ञात भय से। धीमी आवाज़ में उसने बस इतना कहा नहीं, वो मेरा बेस्ट फ्रेंड है।

-         मैं व्यंग्य नहीं कर रही हूं, लेकिन रातें साथ बिताने वाले बेस्ट फ्रेंड नहीं, सिर्फ बेड पार्टनर होते हैं फाल्गुनी।

-          मैम, आप जो भी समझें, सच जो भी हो, लेकिन मुझे निहार का साथ अच्छा लगता है।

फाल्गुनी की आवाज़ में मजबूती थी, कांपती हुई ही सही। सुजाता ने कहा मैंने होली पर जो कविता लिखी थी... उस पर तुम्हारा कमेंट मुझे अब भी याद है। सब के सब रंग धूसर क्यों लगते हैं, यही पूछा था न तुमने और उछाह के साथ बता गई थीं, कोई प्रेम में हो तो कुछ भी बेनूर नहीं लगता। अब जान पाई हूं कि वो सब के सब रंग तुम्हें निहार से मिल रहे हैं। उस निहार से, जो अपनी पत्नी और बच्चों का भी नहीं हुआ। हम सबके अंदर एक एकांत होता है फाल्गुनी, लेकिन वह न तो उधार के प्रेम से पूरा होता है, न ही धोखे से रचे-बसे ढोंग से।

फाल्गुनी क्या कहती, कैसे बताती। कैसे निहार उससे खूब मिलता रहा हर दिन जोर-शोर से और चुपचाप उसकी रगों से होके गुज़र गया था। वह भी तो चुपचाप उसके साथ चलती गई थी, लेकिन नियति यही थी कि ये सफर खाली साबित होना था। बिना मंजिल का सफर!

-         आप क्या कहना चाहती हैं?  क्या आप निहार पर अपने हक़ को लेकर मुझसे झगड़ने आई हैं?

-         नहीं, मैं तो निहार को तलाक देने वाली हूं। महज इसलिए नहीं कि उसका तुमसे अफेयर है। अब मुझे उस पर यकीन नहीं रह गया है, केवल इसीलिए। तुम चाहो तो उसके साथ रहो, लेकिन एक बात कहूंगी एकांत अपने अंदर होते हैं। खुद ही खत्म भी किए जाते हैं। इनमें कोई दाखिल तो हो सकता है, लेकिन वह और अकेलापन ही लेकर आता है... कोई हल कभी नहीं होता, किसी और के पास।

बस, कहानी यहीं खत्म होती है। आप ये अंत नकार देंगे। शायद, लेखक को कोसें भी, लेकिन मजबूरी है, कहानी इसके आगे बढ़ेगी भी तो क्या? होली के आठ दिन पहले फाल्गुनी की रंगों की तलाश अधूरी रह गई है... रात में वह बड़बड़ाती है कब है होली, कब है होली। होली के दिन वह हंसेगी भी... फिर उदास होगी, लेकिन अब जान चुकी है प्रेम यूं ही नहीं मिल जाता, महज देह मिलती है, वह भी प्रेम के ढोंग के साथ। फाल्गुनी ने फ्लैट भी बदल दिया है। निहार कहां गया, पता नहीं। अब कभी उसके ख्वाबों में गुलमोहर का पेड़ दाखिल होता है, तो वह चिल्ला पड़ती है चुपचाप रहो गुलमोहर। उसके सीने में समंदर नहीं जागता, हां... कंप्यूटर के वॉल पेपर पर जरूर समंदर की तलहटी की तसवीर है। जाने तो क्या नाम है उस समुद्र का... शायद, अरैबियन सी!



(चण्डीदत्त शुक्ल। गोण्डा, उप्र में जन्म। जयपुर में निवास। अमर उजाला, दैनिक जागरण, स्वाभिमान टाइम्स, फोकस टीवी जैसे अखबारों-पत्रिकाओं-टेलीविजन चैनलों में चाकरी और दूरदर्शन-रेडियो पर तरह-तरह का काम करने के बाद, तकरीबन हर पद पर नौकरी बजाते हुए इन दिनों दैनिक भास्कर की मैगज़ीन डिवीज़न में फीचर संपादक के रूप में अहा! ज़िंदगी पत्रिका के संपादकीय विभाग में कार्यरत। दूरदर्शन-नेशनल के साप्ताहिक कार्यक्रम कला परिक्रमा की लंबे अरसे तक स्क्रिप्टिंग की है। दो फिल्मों में अभिनय और स्क्रिप्ट लेखन का अनुभव भी है। रंगमंच और साहित्य से गहरा जुड़ाव। चौराहा.ब्लॉग का संचालन. संपर्क 08824696345)

Wednesday, February 29, 2012

मत रोओ रामकली की अम्मा

- चण्डीदत्त शुक्ल

मुंह जैसा मुंह नहीं तुम्हारा

फिर क्यों गला फाड़के रोती हो

रामकली की अम्मा?

तुम्हारे रोने से कोई भला नहीं होगा

क्या सोचती हो, हाथी का दिल दहलेगा?

या कि कांपेंगे टेलीविजन और अखबार वाले...।

सब निश्चिंत और नपुंसक हैं, मेरी तरह।

बहुत शोर हुआ तो हाशिए के सिंगल कॉलम में निपटा दी जाएगी तुम्हारी बेटी

और किसी साफ-सुथरी जगह पर रिकॉर्ड पीटूसी में

बाकी एक सौ निन्यानबे लाशें।

दूर, परासपानी में करमा गाते-गाते ठहर गया है बलिराम खरवार उर्फ परगट बाबा

तुम भी चुप हो जाओ।

झारखंड तक लाश भी नहीं लौटेगी रामकली की।

वहीं, कहीं दफना दी गई होगी...।

बिचौलियों से बचेंगे तो कुछ हरे नोट तुम्हें भी मिलेंगे।

रामप्रताप की बीवी देखो न, चुप है।

बड़ा बेटा जानता है, उसे भी यहीं आना होगा,

किसी पहाड़ की छाती चीरकर लाइमस्टोन निकालते, दफ़न होने के लिए।

एक सौ बीस किलोमीटर दूर बनारस के लहरतारा में जब कबीर चुपचाप हैं

तब तुम ही रोकर क्या करोगी रामकली की अम्मा?

पहाड़ गिरने के बाद छींकते-छींकते हाल बुरा है,

कुछ तो उनकी फिक्र करो।

लाशें गिनने आए साहब को गन्ने का रस तो पी लेने दो।

सुना है, दुकानें सजी हैं वहां, अंगूर बिक रहा है।

रात तक अंगूरी भी मिलेगी।

तुम्हारी मंजरी के लिए कोई लोरिक पत्थर का सीना नहीं तोड़ेगा...

वो यहीं कहीं बिकेगी

काम से लौटते हुए बीस, चालीस या हद से हद सौ रुपए में।

खेत में ही नीलाम करेगी अपनी अस्मत।

तुम्हारी ढपाई में खरीदार सिर झुकाकर घुसेंगे तो है नहीं।

एक तो कच्ची बनी है, दूसरे कोई देवी स्थान थोड़े है...

वहां खड़े होना तो दूर, बस लेटा जा सकता है...।

मत रोओ, तुम मज़दूर हो.

ऐसी मौतें हमारे सफेद रजिस्टरों में दर्ज नहीं होतीं।

नेता जी की खादी पर रामप्रताप के खून के छींटे नहीं दिखेंगे, वो ड्राईक्लीन करा लेंगे।

बहुत महंगी मशीन में धुलता है उनका कुरता-पायजामा।

मत रोओ रामकली की अम्मा,

इत्ता शोर काहे करती हो...

सोनभद्र में नक्सली पैदा होते रहेंगे

कुछ जिएंगे मरते हुए,

कुछ मरेंगे फिर जी जाने के लिए।

नेता नोट छापते रहेंगे,

पहाड़ खोदते रहेंगे।

सब कुछ ऐसा ही होगा,

बस बिजलीघर के बगल के गांव में बत्ती नहीं जलेगी।

जंगल से शहर तक आने को पुल नहीं बनेगा।

कई मौतें दवा के इंतज़ार में रास्ते में ही होंगी।

और मैं

अगली बार, सीमेंट फैक्टरी के गेस्टहाउस में मुफ्त की चाय पीते हुए भी शर्मिंदा नहीं होऊंगा...

तुम कोई रानी नहीं हो, जो तुम्हारे महल के डूबने पर मैं कहानियां रचूं

चुप हो जाओ रामरती की अम्मा,

धूल भरे कस्बे में रात हो गई है

और जेसीबी मशीन भी कितनी देर तक रामप्रताप की लाश टांगे रहेगी,

उसे शहर लौटना है...

सुना है, मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है...।


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सोनभद्र में लाइमस्टोन खनन के दौरान पहाड़ धसकने से कई मज़दूर मारे गए। खबरों में वे या तो हाशिए पर हैं, या फिर वहां से भी गायब। उनके लिए, ये शब्द-श्रद्धा।
0 लोरिक-मंजरी सोनभद्र के प्रेमी हैं, पुरातन कथा चरित्र
0 परगट बाबा जीवित हैं, 94 साल के, कर्मा गायक

Friday, February 17, 2012

सिनेमा की इबारत संजोने वाले चंद जिद्दी ख्वाब

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

भास्कर ब्लॉग.


- चण्डीदत्त शुक्ल * 08824696345

ख्वाब भी क्या खूब होते हैं। कुछ बेहद नाजुक और कुछ ऐसे, जो जागी आंखों से देखे गए..। न पूरे हों तो टूट जाते हैं। सिनेमा ख्वाबों की इसी बारात में शामिल होने की तरह है। सपनों की सिनेमाई रील पर सोए रहते हैं कुछ अरमान। बचपन में यही अरमान हौसले के खाद-पानी से लहलहाए रहते थे।

घर से स्कूल और छुट्टी के बाद फुर्र कर चिड़ियों की तरह वापस उड़ आने के दिनों में ये खबर मिलते ही कि रात को वीडियो लगेगा, थकान और नींद काफूर हो जाती थी। सिनेमा और सपनों की जुगलबंदी अब तक मन में जागती है। पलक जो कहीं झपक भी गई तो ख्वाबों में फिल्म चलती रहती है। ऐसी ही हालत उन हजारों लोगों की है, जो सिनेमा से मोहब्बत करते हैं। कुछ महज देखने तक तो कई अपने मन में ऐसे ख्वाब भी पालते हैं, जिनमें फिल्म बनाने की इबारत लिखी होती है।

कई जुनूनी लोगों के लिए फिल्म मेकिंग वैसी ही है, जैसे चित्रकार के लिए कलाकृति या कवि के लिए कविता। अब फिल्म निर्माण सस्ता काम तो है नहीं कि ख्वाब देखे और झट-से बुनकर साकार भी कर दिए। बावजूद इसके हजारों फिल्में बनती हैं। जानते हैं कैसे? महज हौसले की ताकत से। ये वे फिल्में हैं, जो कैमरे से ज्यादा मन में शूट होती हैं। एडिटिंग टेबल से पहले ख्वाबों का हिस्सा बनती हैं और सिनेमाघरों में रिलीज होने से पहले दोस्तों की महफिल में कई बार दिखाई जा चुकी होती हैं।

कुछ अरसा पहले एक फिल्म रिलीज हुई थी 'आई एम'। इसमें 45 देशों के 400 लोगों ने बतौर निर्माता पैसा लगाया और फंड जुटाने का काम फेसबुक के जरिए हुआ। श्याम बेनेगल भी गुजरात के दूध विक्रेताओं की मदद से 'मंथन' बना चुके हैं, लेकिन अपनी फिल्म बुनने का ख्वाब देखने वाले जुनूनी लोग इनसे जरा-से अलग हैं।

मालेगांव का नाम याद कीजिए। क्या आप जानते हैं कि यहां एक छोटा-सा फिल्म उद्योग भी चलता है, जो वीडियो कैमरे से बनाई फिल्मों के लिए मशहूर है? इसी इंडस्ट्री पर आधारित, महज एक लाख रुपए में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'मालेगांव का सुपरमैन' अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोर चुकी है।
मेरठ के आसपास, हरियाणा और बिहार में ऐसे प्रयास खूब होते हैं। लगे हाथ एक और फिल्म याद कर लें 'श्वास'। ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली यह पहली मराठी फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए बाकायदा एक सहकारी संस्था बनाई गई और निर्माता ने कई लोगों से पैसे उधार लिए।

जयपुर में भी कुछ जुनूनी नौजवानों ने सिनेमा रचने का सपना देखा। उन्होंने एक फिल्म बनाई है 'भोभर'। किसान रेवत और उसके परिवार के संघर्षो के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फिल्म के निर्माण की अंतर्कथा सिर्फ और सिर्फ हौसले के जादू-मंतर की कहानी है। गजेंद्र एस. श्रोत्रिय इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं, लेकिन फिल्म बनाने का जुनून इस कदर चढ़ा कि सब कुछ भुलाकर सपना साकार करने में जुट गए। गांव बिरानिया में सेट लगा। दिन-रात शूटिंग हुई। बजट बढ़ न जाए, इसलिए निर्माता से लेखक तक, हर कोई तैयार था कि जरूरत पड़ने पर खुद एक्टिंग कर लेंगे। शूट शुरू होते ही हीरो ने हाथ खड़े कर दिए। आनन-फानन में दूसरा कलाकार तलाशा गया। हीरोइन बनने के लिए जयपुर की रंगमंच कलाकार उत्तरांशी पारीक तैयार हुईं। आखिरकार, फिल्म पूरी हुई और यूनान में इंटरनेशनल प्रीमियर होने के बावजूद वितरण में अड़चन हुई तो खुद ही डिस्ट्रीब्यूशन का जिम्मा संभाला। 'वो तेरे प्यार का गम' जैसे प्रसिद्ध गीत का संगीत देने वाले दिवंगत संगीतकार दान सिंह की धुनों से सजी 'भोभर' आज रिलीज हो रही है।  पहले भी हौसले की मिसाल देती ऐसी फिल्में रिलीज हुई हैं। कुछ चली हैं, कई का नामलेवा भी नहीं बचा। 'भोभर' का भविष्य भी दर्शक तय करेंगे, लेकिन हौसले का जादू-मंतर सिर चढ़कर बोल रहा है। वो बता रहा है 'जुनून' हो तो सब कुछ किया जा सकता है। फिल्म भी बनाई जा सकती है!
 
 

ज़िंदगी हो कलाकृति की तरह, हम बन जाएं कलाकार

-         चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345

 

ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय... कभी ये हंसाए, कभी ये रुलाए। सच... ज़िंदगी की पहेली हल करना बहुत मुश्किल काम है... लेकिन जीवन को उलझन मान लेने से तो हल निकलेगा नहीं... फिर क्या किया जाए?  क्यों न, जीवन जीने की कला हम सीख ही लें। जान लें, वो अंदाज़, जिससे ज़िंदगी खूबसूरत हो जाती है... खुशनुमा बन जाती है...

सोचिए, ज़िंदगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तस्वीरें अपनी रंगत बिखेरती नज़र आएंगी।

 

ज़िंदगी जीना अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप एक कलाकार की तरह ज़िंदगी को महसूस करें। जीवन का सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में महसूस करें।

एक श्लोक बचपन में सुना था साहित्य संगीत कला विहीन:

साक्षात् पशु: पुच्छ विषाण हीन:। इसमें कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है...।

सत्यम्, शिवम्, सुंदरम का ज्ञान भी यही है। सुंदर और शुभ का बोध कराने वाला... यानी जो सुंदर है, वह शुभ है और वही सत्य है... और यकीनन, ये कला ही तो है। ज़िंदगी को ज़िंदादिली के साथ महसूस करने, उसे आगे बढ़ाने की कला। कोई अच्छी तसवीर देखते हुए नज़रों से होते हुए दिल तक बह चली खुशी की गंगा आखिर कहां से फूटती है? एक सुंदर कलाकृति आखिरकार, सुंदर कब होती है... तभी तो, जब उसमें सच्चाई हो, सुंदरता हो और वह हमारी ज़िंदगियों से जुड़ी हो।

 

जीवन में कला कितनी ज़रूरी है... इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं। राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह कराने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का ज़माना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से अपनी बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता... लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा कि वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी मैं अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा था।

 

सोचने वाली बात है... हम सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं?  क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए?

और यह बात खुद को खास करने तक ही सीमित नहीं है। सच तो ये है कि जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव बना नहीं रहेगा, हम ज़िंदगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। यूं, ऐसा भी नहीं है कि हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए... जरूरी ये है कि कला-साहित्य और संगीत के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उसे सराहने का भाव पैदा किया जाए।

 

एक बहुत पुराना किस्सा याद आता है... एक बहुत बड़े संगीतकार किसी महफिल में गायन कर रहे थे। कुछ लोग बार-बार वाह-वाह कह रहे थे। उन्होंने गायन बीच में ही बंद कर दिया।  आयोजक ने गायक महोदय से सवाल पूछा कि आपने कार्यक्रम रोक क्यों दिया। गायक ने विनम्रता से कहा गलत जगह पर मिली तारीफ निंदा से कम नहीं होती।

 

अब ये सवाल हमारे लिए है... क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती है?  कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंख में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं। कोई चित्र देखते समय हम मंत्रमुग्ध हो पाते हैं... अगर हां तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िंदगी हमारे लिए प्यार का गीत है... लेकिन जवाब न में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िंदगी के रास्ते से कला का भाव भटक गया है... ये ज़रूरी है कि हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाएं और ज़िंदगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सीख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी...इसकी चमक कुछ और ही होगी।

 

(जयपुर आकाशवाणी के कार्यक्रम चिंतन के लिए तैयार आलेख का मूल पाठ)