कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, January 31, 2011

घर...

आ से आशियाना
daily-news01
अब हर इंसान का पूरी दुनिया में कहीं ना कहीं घर तो होता ही है। छोटा-मोटा या फिर आलीशान, फिर हर शहर में, जहां वो रह रहा है, मकान बनाने की क्या मजबूरी है? वैसे भी, हमारी जड़ें कहीं ना कहीं तो हैं ही। किसी ना किसी गांव, कस्बे, मोहल्ले, जिले में...।

इंसान को क्या चाहिए भला? दोनों वक्त दो-दो गर्म फुलके, हंसते-खेलते बच्चे, अच्छी और लगातार बची हुई नौकरी, खूबसूरत बीवी, और? और घर। पर घर क्या सचमुच इंसान का अपना सपना है? या यूं कहें कि मकान बनाने का ख्वाब किस कदर मनुष्य स्वयं देखता है...? हां, हमें बचपन से यही समझाया गया है—रोटी, कपड़ा और मकान सबसे जरूरी चीजें हैं, तो? मकान का सपना मूलभूत सपना हुआ या नहीं? पाठक सोच रहे होंगे, कैसा लेखक है, खुद ही सवाल करता है और जवाब भी खुद दे रहा है, पर दोस्तों, सवाल गहरा है, उलझा है। क्वेश्चन और कन्फ्यूजन का फ्यूजन-सा हो रहा है। वैसे भी, जो चीज मन चाहे, ललचाए, खींचकर ले जाए, वो मूल इच्छा हो सकती है, लेकिन जिस ओर पूरा बाजार चिल्ला-चिल्लाकर कहे—यह तुम्हारी जरूरत है ही, उसे थोड़ा ठीक से, ठिठककर समझने का जी जरूर करता है। ऎसा ही हो चुका है, बना दिया गया है—घर का सपना।

छोटे-छोटे शहरों की बड़ी-बड़ी इमारतों में रात के सात-आठ घंटे गुजारने का इंतजाम करने के लिए दस-पंद्रह-सत्रह लाख की पूंजी लगाने का न्यौता बिल्डर देते हैं, बैंक लुभाते हैं और लोग समझाते हैं—अपना घर तो होना ही चाहिए। अव्वल बात समझाने तक होती, तो भी कुछ कम गम था, पर हालत डराने तक जा पहुंची है। रियल इस्टेट कंपनियां इंसान के छत" वाले ख्वाब को ना सिर्फ बेचती हैं, बल्कि धीरे-से कान में यह भी बता देती हैं—जिसका मकान नहीं, उसकी कोई हैसियत भी नहीं है। टीवी के विज्ञापन हों या फिर फिल्मों की कहानियां, सब जगह समझाया जाता है—फ्लैट नहीं तो कुछ नहीं। याद आया आपको— दो दीवाने शहर में, रात में-दोपहर में, आबोदाना ढूंढ़ते हैं, इक आशियाना ढूंढ़ते हैं। (हालांकि यहां बड़ी चतुराई से यह बात गुल कर दी जाती है कि बात शहर में मकान की हो रही है, जड़ों से जुड़ने की नहीं, घर बनाने की नहीं!)। मकान की होड़ में काम के जज्बे को भुला देने की कांस्पिरेसी होती है, सो अलग। जैसे, इंसान के लिए जीवन का कोई और लक्ष्य बचा ही नहीं है।

अब हर इंसान का पूरी दुनिया में कहीं ना कहीं घर तो होता ही है। छोटा-मोटा या फिर आलीशान, फिर हर शहर में, जहां वो रह रहा है, मकान बनाने की क्या मजबूरी है? वैसे भी, हमारी जड़ें कहीं ना कहीं तो हैं ही। किसी ना किसी गांव, कस्बे, मोहल्ले, जिले में...। बड़े शहरों में अगर रोजी-रोटी की जरूरत खींच लाई है, तो वहां जायदाद खड़ी करने की यदि सनक के सिवा और क्या है? कहीं, इस यदि को जोर इसलिए तो नहीं दिया जा रहा है कि शहरों में स्थाई निवास बनेंगे, लोग जमे रहेंगे तो क्रयशक्ति बनी-बढ़ी रहेगी, वस्तुओं की बिक्री जोर पकड़ेगी और सेवानिवृत्ति के बाद अगर लोग अपने-अपने गांव लौट गए, तो बाजार मंदा रह जाएगा? बाजार के समीकरणों के अलावा, एक अदद निजी मकान के इस ख्वाब ने और बहुत-सी जरूरी चीजें गुम कर दी हैं। इनमें से दो का हवाला हम पहले दे चुके हैं, जैसे—काम का जज्बा और जीवन का लक्ष्य।

हम अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी इस उधेड़बुन में गंवा रहे हैं कि मकान बना ही लें। उसके लिए प्रॉपर्टी तलाशने से लेकर रजिस्ट्री के इंतजाम की फि क्रऔर फिर बाकी बची उम्र ईएमआई चुकाने में गर्त होती है। इन हालात में रोजमर्रा के जीवन का आनंद कहीं फुस्स नहीं हो जाता है क्या?... सवाल उठता है, फिर कोई रहे कहां? काम से रिटायरमेंट लेने से पहले क्या किराए के मकानों में भटकता रहे? इस प्रश्न का कोई सही, सटीक जवाब नहीं है। हां, एक दोस्त की बात जरूर याद आती है—खाना होटल में, रहना किराए के कमरे में और मौत हॉस्टल में हो, इससे खूबसूरत ख्वाब कभी नहीं देखा। खैर, इसे पलायनवाद भी समझा जा सकता है, लेकिन यहीं से कई और मजेदार बातें भी सामने आती हैं।

सोचिए, बंजारों के घर कहां होते हैं। कुनबे का कुनबा सड़कों पर जीवन गुजारता है, लेकिन उनकी अलमस्ती, नाच, उल्लास और करतबों के धमाल कोई जवाब है हमारे पास? ऎसे ही यायावरों से कभी मिले हैं आप? जंगल-जंगल, गली-गली, डगर-डगर ट्रैवलर बैग लादे, आड़े- तिरछे रास्तों पर कदम संभालते-भटकने वाले लड़के-लड़कियों और बुजुर्गो से कोई पूछे— क्यों घर-परिवार छोड़कर इधर-उधर फिर रहे हो, क्या मिलता है?, तो वहां से जवाब की जगह मुस्कान मिलेगी, कानों तक चौड़े हुए होंठों की मुस्कान! ऎसा ही सुख है बिना मकान के रहने का भी।

इससे अलग एक और बात भी कुछ कम रोचक नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में ऎसे लोगों ने नायाब सफलताएं और जिंदगी का संतोष हासिल किया है, जिन्होंने अपना कुनबा और ठिकाना छोड़ दिया। महात्मा बुद्ध याद आ रहे हैं? राजपाट त्यागकर ज्ञान की तलाश में वन चल दिए। गोस्वामी तुलसीदास को भी जब रत्नावली से तिरस्कार मिला, तो वो प्रभु की खोज में डूब गए। कबीर के पास अपना मकान था ही नहीं। वो कहते हैं—कबीरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ / जो घर फूंके आपना, चलै हमारे साथ।" जगह-जगह मकान बनाने की जगह जीवन के आनंद को ज्यादा संजोने की जरूरत है और कबीर भी जड़ता को नष्ट कर देने की ही बात करते हैं। राजा जनक सरीखे लोग भी हुए हैं, जो गृहस्थ जीवन में संन्यासी की तरह शामिल हुए। हिंदू धर्म की मान्यता ही है कि संन्यास के बाद ही प्रभु से सायुज्ज होता है। आप ईश्वर से मिल पाते हैं। उनका दर्शन कर पाते हैं...। यहां तो मकान की बात ही क्या, घर की धारणा भी खत्म कर दी गई है। बिनायक सेन का नाम हाल में खूब चर्चा में रहा। उन्हें नक्सलियों से संबंध रखने के इलजाम में जेल भेज दिया गया था।

इस बात में कितनी सच्चाई है, इस पर बहस फिर कभी, फिलहाल उनके बारे में सबसे जरूरी ये जानकारी है कि बिनायक अपनी सुख-समृद्धि और शोहरत छोड़कर जंगलों में भटकते हुए गरीब-दुखियारों के घाव पर मरहम लगाते थे। उनका मुफ्त इलाज करते थे। शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह को ही लें। ना शादी की, ना गद्दारों के आगे घुटने टेके। देश को आजादी दिलाने के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने घर-परिवार सब छोड़ दिया। ये चंद उदाहरण साफ कर देते हैं—बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति करनी है, तो कंकरीट की छत के सपने से थोड़ा दूर ही रहना होगा। वैसे भी, जड़ों से बंधे रहने और जड़ हो जाने में बड़ा फर्क है। यही फर्क है—बड़े-बड़े मकान बनाकर उनमें बिना रिश्तों के रहने के जीवन का। शहरों में बनीं बिल्डिंगों में क्या सचमुच के घर बनते हैं या फिर ये वक्त काटने का ठिकाना भर होते हैं? क्यों ना, ऎसी चिंताओं से अलग, बारिश के पानी में भीगने, खिलखिलाने का हौसला बना लें। कोई एक रात किसी पार्क में गुजारने की हिम्मत कर बैठें? किसी मोड़ पे अजनबी बनकर एक-दूसरे से मिलने और मुस्कराने का करतब कर डालें? मैं तो ऎसा करने के मूड में हूं और आप?

Monday, January 10, 2011

सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा ...कुछ और किस्से

मोहब्बत के बदले मौत... 
यौन शोषण की तोहमतों  के घेरे में  आए तीन विधायकों की `प्रेम? कथा’ आपने पढ़ी, अब बारी है, एक ऐसी ही लव स्टोरी की, जिसमें बात क़त्ल तक पहुंच गई। एक बहुत पुरानी फ़िल्म का गाना है—मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए...बड़ी चोट खाई, जवानी पे रोए। कुछ ऐसी ही है सियासत और सेक्स की कॉकटेल कथा, जिसे सुनकर-पढ़कर-देखकर बस माथा पीटने का मन करता है...सिर धुनने को जी कर उठता है। ऐसी ही तो थी मधुमिता-अमर की प्रेमकथा, जिसे अमरत्व नसीब नहीं हुआ। मधु थी यूपी की एक तेज़-तर्रार कवयित्री, जो शब्दों के तीर चलाकर बड़े-बड़ों को घायल कर देती थी पर उसकी निगाहों के तीर से उत्तर प्रदेश के एक विधायक जी ऐसे घायल हुए कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारियां तक भुला बैठे।

2003 के मई महीने की एक तारीख़। अचानक यूपी के लोग ये ख़बर सुनकर थर्रा उठते हैं कि युवा छंदकार मधुमिता शुक्ला का लखनऊ की पेपर कॉलोनी स्थित घर में कोल्ड ब्लडिड मर्डर कर दिया गया है—यानी नृशंस तरीके से हत्या। किसी की समझ में नहीं आता कि मंचों की जान मानी जाने वाली मधु का मर्डर किसने और क्यों कर दिया। पंचनामा हुआ, बयान दर्ज हुए, पोस्टमार्टम किया गया, जांच हुई, सबूत तलाशे गए और फिर सामने आया—दहला देने वाला सच। मधु की हत्या के पीछे उत्तर प्रदेश के विधायक और पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी का हाथ बताया गया।

सच तो ये है कि मधुमिता को क़त्ल ना होना पड़ता, लेकिन उसने मंत्री-प्रेमी-नेता के कॉम्बिनेशन वाले अमरमणि से ज़िद कर ली—अब मुझे जन्म-जन्म का साथी बनाओ। ये छिप-छिपकर मिलते रहने से जो रुसवाई मेरे माथे पर आ रही है, वह बर्दाश्त नहीं होती। अमरमणि को अब तक जो मोहब्बत ज़िंदा रखती थी, मधुमिता का वही साथ अब उन्हें काट खाने दौड़ने लगा। जानकार कहते हैं, यही वो पल था, जब अमर ने ठान लिया—अब मधुमिता को अपने जीवन में शामिल नहीं करना है।

मधुमिता भी मज़बूर थी। उसके पेट में अमरमणि का बच्चा पल रहा था। शक की सुई उठने पर अमर ने इनकार  किया—नहीं, मेरा मधु से कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन डीएनए टेस्ट से साबित हुआ—मधु के गर्भ में पल रहे बच्चे के वही पिता हैं। 21 सितंबर, 2003 को अमर गिरफ्तार कर लिए गए। अदालत ने उनकी ज़मानत की अर्जी भी खारिज कर दी। इसके बाद 24 अक्टूबर को देहरादून की स्पेशल कोर्ट ने अमरमणि त्रिपाठी, पत्नी मधुमणि त्रिपाठी, उनके चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी और सहयोगी संतोष राय को मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में दोषी करार दिया। अदालत ने अमरमणि को उम्रकैद की सज़ा सुना दी। अमर के पास अपील के मौके हैं। वो कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन मधु किससे दुहाई दे। उसने कब सोचा था—जिस लीडर पर सबकी रक्षा करने की ज़िम्मेदारी है, वही यूं रुसवा करेगा और जान का ही दुश्मन बन जाएगा!

: एक फूल, दो माली... : एक था गुल और एक थी बुलबुल...ये नग्मा तो बहुत ख़ूबसूरत है पर गुल एक हो और बुलबुल, बल्कि भौरें  दो हो जाएं, तो मुश्किल खड़ी हो ही जाती है। अमिता मोदी के भी दो चाहने वाले थे।  एक तो उनके हमसफ़र, हमनवां और नेशनल बैडमिंटन चैंपियन  सैयद मोदी और दूसरे यूपी की सियासत के जाने-माने नाम—संजय सिंह। सैयद मोदी उन दिनों  उत्तर प्रदेश के खेल जगत  में चमकते हुए सितारे के रूप में पहचाने जाते थे। उन्होंने आठ बार राष्ट्रीय  बैडमिंटन चैंपियनशिप में  जीत हासिल की थी। इसी  तरह संजय सिंह भी अपनी ऊर्जा  व वक्तव्य की नई शैली के चलते नाम कमा रहे थे।  कहते हैं, संजय और अमिता की नज़दीकियां गहराईं और यही  अंतरंगता सैयद के लिए जान  जाने का सबब बन गई।

23 जुलाई 1988 की सुबह सैयद मोदी लखनऊ के केडी बाबू स्टेडियम से देर तक एक्सरसाइज करने के बाद बाहर निकल रहे थे, तभी कुछ अज्ञात हमलावरों ने उनका मर्डर कर दिया था। शक की सुई जनमोर्चा नेता और यूपी के पूर्व ट्रांसपोर्ट  मिनिस्टर डॉ. संजय सिंह पर उठी  और फिर सीबीआई ने उन्हें आईपीसी की धारा-302 के तहत गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई ने क़त्ल  के दो दिन बाद पुलिस से मामला अपने पास ले लिया था और डॉ. संजय सिंह, सैयद मोदी और अमिता मोदी के बीच प्रेम  त्रिकोण की जांच शुरू कर दी थी। सीबीआई को शक़ था कि प्रेम के इस ट्रांइगल की वज़ह से ही सैयद का क़त्ल हुआ है।

दस दिन बाद  सीबीआई ने दावा किया कि मामले  का खुलासा हो गया है और उसने पांच लोगों को गिरफ्तार भी किया। इनमें अखिलेश सिंह, अमर बहादुर सिंह, भगवती  सिंहवी, जितेंद्र सिंह और बलाई सिंह शामिल थे। अखिलेश पर आरोप था कि उसने हत्यारों को सुपारी दी थी और अमर, भगवती  व जितेंद्र गाड़ी लेकर सैयद की हत्या कराने पहुंचे थे। बलाई सिंह को रायबरेली से गिरफ्तार किया गया। सीबीआई ने संजय सिंह और अमिता मोदी के घरों पर छापे मारे और अमिता  की डायरी से इस खूनी मोहब्बत के सुराग तलाशने लगी। यही डायरी थी, जिसने बताया—श्रीमती मोदी और संजय सिंह के बीच `क्लोज रिलेशनशिप’ है। संजय सिंह को मामले का प्रमुख साज़िशकर्ता बताया गया। दो दिन बाद अमिता भी गिरफ्तार कर ली गईं। 26 अगस्त को उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद 21 सितंबर को डॉ. संजय सिंह भी लखनऊ की ज़िला और सेशन अदालत के निर्देश के मुताबिक, दस हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत हासिल कर जेल से बाहर आ गए।

इसके बाद सैयद मोदी के कत्ल के पीछे की कथा  इतिहास के पन्नों में कैद  होकर रह गई। आज तक इसका खुलासा नहीं हो सका है कि मोदी का मर्डर किसने किया और किसने  कराया? चंद रोज बीते, संजय और अमिता की शादी हो गई। संजय बीजेपी से राज्यसभा के सांसद बने और अमिता अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतीं। अब दोनों साथ-साथ हैं। चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं। सैयद की आत्मा अब भी इंसाफ़ का इंतज़ार कर रही है। अदालत में ये साबित नहीं हुआ कि संजय का कोई गुनाह है। अमिता भी बरी हो गईं...बस सैयद ज़िंदा नहीं हैं...।

सीडी, जिसने सनसनी  मचा दी... 
साल-2006 : उत्तर प्रदेश के एक पूर्वमंत्री का घर। बैकड्रॉप में मंत्रीजी के शपथग्रहण समारोह का चित्र लगा है। एक और तस्वीर डिप्लोमा संघ के अभिनंदन समारोह की है। यहां भी वो मौजूद हैं। इसी कमरे में हरे रंग की सलवार और कुर्ता पहने हुए एक युवती बैठी है। कुछ देर बाद वहां शिक्षाजगत के एक वरिष्ठ अधिकारी पहुंचते हैं...।

यह सबकुछ एक सीडी में दर्ज किया गया  और जब यही सीडी निजी टेलिविजन चैनल पर टेलिकास्ट हुई, तो सियासत की दुनिया में भूचाल  आ गया। सीडी में सेंट्रल  कैरेक्टर निभाने वाली युवती  थी—डॉ. कविता चौधरी। चौधरी  चरण सिंह विश्वविद्यालय  में कविता अस्थाई प्रवक्ता थी और हॉस्टल में ही रहती थी। ये उस दौर की बात है, जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। एक टीवी चैनल ने यूपी के पूर्व कैबिनेट मिनिस्टर मेराजुद्दीन और मेरठ यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर आरपी सिंह के साथ कविता के अंतरंग संबंधों की गवाही देती सीडी जारी की। सनसनी भरी इस सीडी के रिलीज होने के बाद सियासत के गलियारों में सन्नाटा छा गया और यूपी के कई मिनिस्टर इसकी आंच में झुलसने से बाल-बाल बचे। सपा सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री किरणपाल, राष्ट्रीय लोकदल से आगरा विधायक और राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त बाबू लाल समेत मेरठ से सपा सरकार में सिंचाई मंत्री रह चुके डॉ. मेराजुद्दीन इस चक्कर में खूब परेशान हुए।... हालांकि ये सीडी सियासी लोगों को परेशान करने का सबब भर नहीं थी। कई ज़िंदगियां भी इसकी लपट में झुलस गईं।

23 अक्टूबर, 2006 : कविता चौधरी बुलंदशहर में अपने गांव से मेरठ के लिए निकली। 27 अक्टूबर तक वो मेरठ नहीं पहुंची, ना ही उसके बारे में कोई सुराग मिला। इसके बाद कविता के भाई सतीश मलिक ने मेरठ के थाना सिविल लाइन में कविता के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस ने इंदिरा आवास गर्ल्स हॉस्टल, मेरठ स्थित कविता के कमरे का ताला तोड़ा। यहां से कई चिट्ठियां बरामद की गईं। एक चिट्ठी में लिखा था—रविन्द्र प्रधान मेरा कत्ल करना चाहता है और मैं उसके साथ ही जा रही हूं। कुछ दिन बाद कविता के भाई के पास एक फ़ोन आया, दूसरी तरफ कविता थी। वो कुछ कह रही थी, तभी किसी ने फोन छीन लिया...।

पुलिसिया जांच में पता चला—रविन्द्र प्रधान ही मेन विलेन था। उसने बताया—मैंने कविता की हत्या  कर दी है। रविन्द्र ने 24 दिसंबर को सरेंडर कर दिया और उसे  डासना जेल भेज दिया गया। इसके बाद कविता केस सीबीआई के पास चला गया। रविन्द्र ने बताया—24 अक्टूबर को मैं  और योगेश कविता को लेकर इंडिका कार से बुलंदशहर की ओर चले। लाल कुआं पर हमने नशीली गोलियां मिलाकर कविता  को जूस पिला दिया। बाद  में दादरी से एक लुंगी  खरीदी और उससे कविता का गला घोंट दिया। आगे जाकर सनौटा पुल से शव नहर में  फेंक दिया। रविन्द्र ने बताया  कि कविता की लाश उसने नहर  में बहा दी थी। पुलिस  ने कविता का शव खूब तलाशा, लेकिन वह नहीं मिला। भले  ही लाश रिकवर नहीं हुई, लेकिन  पुलिस ने मान लिया कि कविता  का कत्ल कर दिया गया है।

30 जून, 2008 को गाजियाबाद की डासना जेल में बंद रविन्द्र प्रधान की भी रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई। बताया गया कि उसने ज़हर खा लिया है। हालांकि रविंद्र की मां बलबीरी देवी ने आरोप लगाया कि उनके बेटे ने खुदकुशी नहीं की, बल्कि उसका मर्डर कराया गया है। ऐसा उन लोगों ने किया है, जिन्हें ये अंदेशा था कि रविन्द्र सीबीआई की ओर से सरकारी गवाह बन जाएगा और फिर उन सफ़ेदपोशों का चेहरा बेनकाब हो जाएगा, जो कविता के संग सीडी में नज़र आए थे। कविता के भाई ने भी आरोप लगाया कि चंद मिनिस्टर्स और एजुकेशनिस्ट्स के इशारे पर उनकी बहन का खून हुआ और रविन्द्र प्रधान को भी मार डाला गया।

... पर कहानी  इतनी सीधी-सादी नहीं।  इसमें ऐसे-ऐसे पेंच थे, जो दिमाग चकरा देते  हैं। कविता की हत्या  के आरोपी रविन्द्र ने  कई बार बयान बदले। पहले  कहा गया कि एक मंत्री  के कविता के साथ नाजायज़  ताल्लुकात थे, फिर यह  बात सामने आई कि कविता  का रिश्ता ऐसे गिरोह  से था, जो नामचीन हस्तियों  के अश्लील वीडियोज़ बनाकर  उन्हें ब्लैकमेल करता  था। कविता इनकी ओर से हस्तियों को फांसने का काम करती थी। एक स्पाई कैम के सहारे ये ब्ल्यू सीडीज़ तैयार की जाती थीं।

पुलिस की मानें, तो कविता के इस काम में रविन्द्र प्रधान और योगेश नाम के दो लोग साथ देते थे। उन्होंने लखनऊ में पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ. मेराजुद्दीन  की अश्लील सीडी बनाई और उनसे पैंतीस लाख रुपए वसूल किए। रवीन्द्र ने बताया था कि कविता के कब्जे में चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर आर. पी. सिंह और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष कुंवर बिजेंद्र सिंह की अश्लील सीडी भी थी।

ब्लैकमेलिंग के एवज में मिले पैसे के बंटवारे को लेकर तीनों के बीच झगड़ा  हुआ, तो कविता ने धमकी दी कि वो सारे राज़ का पर्दाफ़ाश कर देगी। रविन्द्र और योगेश ने फिर योजना बनाई और कविता को गला दबाकर मार डाला।  पुलिस की थ्योरी मानें, तो कविता को भी इसका इलहाम  था और उसने अपने कमरे में कुछ चिट्ठियां लिखकर रखी थीं। इनमें ही लिखा था—मुझे रविन्द्र से जान का ख़तरा है। इस मामले में योगेश और त्रिलोक  भी कानून के शिकंजे में आए। जांच में पता चला कि कविता के मोबाइल फोन की लास्ट कॉल में उसकी राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त बाबू लाल से बातचीत हुई थी।

सीबीआई और पुलिस ने बार-बार कहा कि कई मंत्री इस मामले में इन्वॉल्व हैं और उनसे भी पूछताछ होगी। विवाद बढ़ने के बाद राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ. मेराजुद्दीन ने राष्ट्रीय लोकदल से इस्तीफा दे दिया, वहीं बाबू लाल ने भी पद से त्यागपत्र दे दिया। सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल ने खुलासा किया कि महत्वाकांक्षा की शिकार महिलाएं, वासना के भूखे लोग और आपराधिक मानसिकता के चंद युवा...ये सब पैसे और जिस्म के लालच में इतने भूखे हो चुके हैं कि उन्हें इंसानियत की भी फ़िक्र नहीं है। दागदार नेताओं को कोई सज़ा नहीं हुई, रविन्द्र और कविता, दोनों दुनिया में नहीं हैं, अब कुछ बचा है... तो यही बदनाम कहानी!

लेखक चण्डीदत्त शुक्ल स्वाभिमान टाइम्स हिंदी दैनिक में समाचार संपादक के पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा चार किश्तों में स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है. सियासत और सेक्स के काकटेल पर सीरिज जारी है.

Saturday, January 8, 2011

सियासत और सेक्स का कॉकटेल-1

 सेक्स का कॉकटेल देश के तीन माननीय विधायक आरोपों के घेरे में हैं। एक यौन शोषण की तोहमत ङोलते हुए जान से हाथ धो बैठे, दूसरे बता रहे हैं-मैं नपुंसक हूं, रेप कैसे करूंगा और तीसरे पर लगा है किडनैपिंग का चार्ज। दुहाई है-दुहाई है..



ये महामहिम हैं, माननीय विधायक जी हैं, इनके दम से ही लोकतंत्र ज़िंदा है। पचास बरस से भी ज्यादा बूढ़ी हो चुकी मुल्क की आज़ादी ने हमें यही बात सिखाई है, लेकिन हाय रे राम, दुहाई है-दुहाई है..लोकतंत्र के रखवालों पर यह कैसी शामत आई है?दो दिन पहले बिहार में भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी को एक महिला टीचर ने चाकू मारकर हलाल कर डाला, तो बुधवार को यूपी के एक एमएलए दुहाई देते नज़र आए। प्रेसवालों से कहने लगे—साहब, मैं तो नपुंसक हूं। भला रेप कैसे कर सकता हूं? बात यहीं खत्म नहीं होती। लोकतंत्र के रखवाले तमाम हैं, उनके किस्से भी हज़ार हैं। ऐसे-कैसे ख़त्म हो जाएं। बुधवार को ही सुल्तानपुर के एमएलए अनूप संडा पर आरोप लगा है कि उन्होंने अपनी प्रेमिका की बेटी को किडनैप करा लिया है..। वाह रे एमएलए साहब, आपको तो पब्लिक ने चुना था इसलिए, ताकि आप सड़कें बनवाएं, पुल बनवाएं, इन्क्रोचमेंट हटवाएं, बिजली-पानी मुहैया कराएं और यह तो आपका क्या हाल हो रहा है? आरोपों की सफ़ाई देते-देते हलकान हो रहे हैं..ये क्या हो रहा है आपके साथ?चलिए, सुन लेते हैं सियासत और सेक्स के कॉकटेल की ताज़ातरीन टॉप थ्री स्टोरीज़—पहले बात दिवंगत भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी की। दो दिन पहले पूर्णिया के एक स्कूल की प्रिंसिपल रुपम पाठक ने चाकू मारकर उनकी जान ले ली थी। उसका आरोप था कि विधायक जी यौन शोषण कर रहे थे और शिकायत करने पर पुलिस कोई सुनवाई नहीं कर रही है। अब लालूप्रसाद जैसे बड़े नेता इस हत्याकांड की उच्चस्तरीय जांच की मांग कर रहे हैं। पूर्णिया के उप महानिरीक्षक अमित कुमार कह रहे हैं कि आरोपी का कैरेक्टर संदिग्ध था। ..और विधायक जी तो अब रहे नहीं, लेकिन उनके चरित्र पर जाते-जाते जितने धब्बे लग चुके हैं, उनकी सफाई कौन देगा? बिहार के भाजपा विधायक के बाद अब यूपी में बांदा के बीएसपी विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी की बात। उन पर एक नाबालिग लड़की को बंधक बनाकर रेप करने का आरोप लगा है। फिलहाल, द्विवेदी जी कह रहे हैं कि वो नपुंसक हैं। उनका दावा है—मेरे ऊपर दुष्कर्म का आरोप आधारहीन है। मैं बलात्कार करने में समर्थ नहीं हूं। उन्होंने तो ये भी कह डाला है कि जो मैं ये बात साबित करने के लिए किसी भी मेडिकल स्पेशलिस्ट से जांच कराने के लिए तैयार हूं। और चलते-चलते सुन लीजिए सुल्तानपुर (यूपी) के सदर विधायक अनूप संडा जी से। संडा पर उन्हीं के शहर की एक महिला समरीन ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था और विधायक ने उस पर ब्लैकमेलिंग का। दोनों के खिलाफ मुकदम चल रहे हैं। समरीन जेल भी काट चुकी है। चंद रोज पहले उसके ब्यूटी पार्लर पर कुछ लोगों ने हमला किया था। इससे पहले समरीन ने भी विधायक के पेट्रोल पंप पर तोड़-फोड़ की थी और अब बुधवार को समरीन की ओर से आरोप लगाया गया है कि उसकी मासूम बेटी को विधायक के इशारे पर अगवा कर लिया गया है। इन सब विधायकों (केसरी तो रहे नहीं, सो उनके समर्थकों) का कहना है कि आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। सच क्या है, न्यायपालिका तय करेगी। हम तो यही कहेंगे—सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल में कुछ तो काला है और वो इतना काला है कि लोकतंत्र की अस्मिता पर, उसके चेहरे पर शर्म की कालिख पुतती ही जा रही है।