कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, September 28, 2009

मैं और तू...

प्रेम नहीं है 99 साल की लीज

मैं : प्रेम का क्या होगा, जब साथ नहीं रह पाएंगे
तू : चुप कर, चूम ले बस
मैं : पर कब तक
तू : एक ये पल जीवन से बड़ा नहीं है क्या?

या तो यक़ीन, या फिर...

मैं : आज फिर तू उससे मिली
तू : हां! तूने देखा!
हां : कोई बात नहीं, मुझे तुझ पर यक़ीन है
तू : यक़ीन? फिर सवाल कैसे जन्मा?

जीवन से अलग?

मैं : मेरे लिखे डायलॉग सब बोलेंगे
तू : और कहानी का क्या होगा?
मैं : कहानी से ही तो निकलेंगे...
तू : फिर अलग से क्यों लिखने पड़ेंगे?

Friday, September 25, 2009

इन्हें क्या नाम दूं?

मैली कमीज
नई-नकोर, शफ्फाक शर्ट
मल-मलकर छांट दी थीं मैल की परतें
फिर भी अच्छी नहीं लग रही ये
आज क्यों नहीं पोंछ दिए तुमने जूठे हाथ?

सिनेमा / कॉफी घर
बत्तियां बुझते ही
सुलग उठता है सफ़ेद परदा
और दूसरे ठौर
ठंडे प्याले के नीचे से सरक जाती है सफ़ेद चादर

जर्जर आडंबर
बंद करो प्रेम प्रहसन
आओ भोगें एक-दूसरे को
कहा तूने, जड़ा ज़ोरदार तमाचा
नैतिकता का बहाना खील-खील!

Wednesday, September 23, 2009

चार-चार पंक्तियां

माफ़ कीजिएगा...अरसा हुआ, कुछ लिखे हुए। आज कुछ पंक्तियां उभरी हैं...लिखा नहीं है इन्हें...नकली लेखन जैसे करता रहा हूं, वैसा नहीं है, इसलिए ना तो लालित्य दिखेगा ना शब्द चमत्कार। हो सके, तो मान लीजिए, ये सचमुच दिल से निकली हैं...!


आंसू

तुम्हारी आंख से टपका
पलक में अटका मेरी
नहा गया रोम-रोम
जन्म-जन्म को



निवेदन

सांस भर हूक
यक़ीन भर सब्र
खाली झोली
भर डालो अब

अप्रत्याशित

तुम जीवन हो
कहा हरदम
घृणा के ज्वार तुमसे
अब सहे जाते नहीं

अहसास

हृदय-तार झनझनाते हैं
वधिक के भी
जब छू लेता है वो
कोई मासूम आंसू

अनाकांक्षा

नहीं चाहिए दिशा
न मंज़िल
तुम्हीं तुम सबकुछ
ना चाहो तो ना मानो

मैकेनिक!

सूखे आलू, जली दाल
पंक्चर साइकिल
संभालो सबकुछ
जीवन के जादूगर