कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, January 13, 2009

मंटो के कंधे पर बंदूक रखकर महबूबा के दिल पर गोली


पता नहीं, ये जगत को दीवाना बना देने वाले सुपर-दीवाने मंटो को श्रद्धांजलि है, या मेरे ऊपरी तले के एकदम खाली हो जाने का सुबूत...पर जो है हाज़िर है। ख़ासे पढ़े-लिखे लोगों के राइटअप्स से मार-मूरकर (नकल करके) इधर-उधर की बकवास लिख डाली है। अब महबूबा के दिल पर गोली चले या न चले, मंटो को --- न--- चाहने वाले तिलमिला भर जाएं, यही मक़सद है...जैसा भी लगे, बताएं ज़रूर...


मियां मंटो, सलाम...अश्क की ज़ुबानी तुम्हें दी गई पहचान—मेरा दोस्त, मेरा दुश्मन की तर्ज पर मैं भी तुम्हें एक संबोधन दे रहा हूं—मेरे महबूब, मेरे रक़ीब। महबूब इसलिए, क्योंकि तुम्हारी क़लम, और हां यार, तुम्हारी शख्सियत से मुझे मोहब्बत है। पहले कम थी पर जैसे-जैसे मेरी समझदारी पक्की हुई (ऐसी ग़लतफ़हमी मुझे है, तो है सही) तुम और, और ज़्यादा प्यारे लगने लगे हो। (तुमसे चिढ़ता भी जबर्दस्त हूं यार) रक़ीब इसलिए, क्योंकि जिससे मुझे पक्की और ज़ोरदार मोहब्बत है, उसके सपनों में तुम आते हो...उस पर भी तौबा ये कि तुम्हें लेकर देखे गए उसके ज़बर्दस्त गर्मागर्म सपनों पर कोई सरकार, हुकूमत या रियासत मुक़दमे भी नहीं चलाती। मेरा फ़ेवर कोई नहीं करता मियां। तुम्हें ज़रूर जेल की चक्की पिसवाने के ख़्वाब तमाम हुकूमतों, अफ़सरों और रिसालों के एडीटरों ने दिखाए, तुम डरे भी थे ना एक-आधबार। तुम्हारी मौत के बाद थोकभाव में लिखे गए संस्मरणों से तो यही ख़ुलासा होता है। पर क्या करूं, मेरा महबूब, तुम्हें अपने ख़्वाबों का एक ज़बर्दस्त हिस्सा बनाए बैठा है। तुम्हीं क्यों...गुरुदत्त भी मरने के बावज़ूद उसके ख़्वाबों में आता है...। और भी न जाने कितने, पर तुम शायद सबसे ज़्यादा क़रीबी फैंटेसी-पुरुष हो। इस बारे में मैं ही नहीं जानता, बाक़ियों को भी इन वाकयात की मालुमात है, तभी तो उसे कुछ लोग तुम्हारी क़िताबें गिफ़्ट करते हैं और उस पर लिखते हैं—उस लड़की को, जो मंटो की दीवानी है। (हालांकि मोहतरमा किसी ऊल-जुलूल सपने से नाइत्तफाकी जताती हैं, वो अलग बात है...)
ख़ैर, पढ़े-लिखे समझदार लोग इस विस्तार को विषय से भटकना भले कहें पर मैं जानता हूं कि तुम न कहोगे। भला कहोगे भी क्यों, खुद भी तो शान से हमेशा भटकते रहे (समाज की निगाह में, जिसे तुमने कुछ भी तवज्जो न दी)।
नाराज़ न होना, मैं तुम्हारी पुण्यतिथि (पता नहीं, पुण्य नाम की किसी चीज़ पर तुम्हारा यक़ीन था भी या नहीं और तारीख़ों और वक़्त को तुम अपने हिसाब-क़िताब (जो तुम करते ही नहीं थे, इससे तो तुम दूर थे ही) में शामिल रखते थे या नहीं) से कदरन एक हफ़्ता पहले ही तुम्हें याद कर रहा हूं. इसमें भी ग़लती तुम्हारी महबूब (एकतरफ़ा) की है, जिसने मुझे बताया था कि मेरा रक़ीब, यानी तुम 11 जनवरी 2009 को ही अल्ला को प्यारे हुए थे. अल्ला को प्यारे होने वाली बात तो तुम्हें कुबूल ही होगी, क्यूंकि तुम भी मज़हब में न सही, आस्तिकता में यक़ीन रखने वाले थे और हां—क़माल की बात, कॉमरेड भी थे।
सो अब बात पहले तुम्हें मेरी श्रद्धांजलि की हो जाए। मैं हिंदी के दो बड़े इलाक़ाई अख़बारों में लंबे अरसे तक नौकरियां कर चुका हूं, इसलिए एडवांस में श्रद्धांजलियां लिख लेने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं है। हमारे पुराने अख़बारों में तो नहीं, लेकिन सुना है कि हिंदी-अंग्रेजी के कई मीडिया हाउसेज़ में तो जैसे ही कोई आला दरज़े का सिनेमा वाला, सियासत वाला या फिर कोई भी अव्वल नंबर वीवीआईपी बीमार होता है, उसके स्मृतिशेष तैयार करा लिए जाते हैं। एक-आधी बार गड़बड़ियां भी हो चुकी हैं। पता चला कि फलां श्री मरे भी नहीं और उन्हें छापेवालों ने श्रद्धांजलि दे दी। खैर, तुम तो तब के मर चुके हो, जब न हमारी महबूब पैदा हुई थी, न हम ही जन्मे थे, इसलिए तुम्हें श्रद्धांजलि लिख देने में कोई प्रॉब्लम नहीं है, न किसी मुक़दमे वगैरह के चलने का ख़तरा।
वैसे भी मियां, ये कोई प्रोफेशनल राइटअप नहीं है, इसलिए न तो मेरे मौजूदा मीडिया हाउस को कोई दिक्कत या शिकायत होगी, न तुम्हें। तुम्हें हो भी तो कोई बात नहीं, क्योंकि तुम वैसे भी फुल प्रोफेशनल आदमी थे। मेहनताने पहले, अफ़साने बाद में। मियां सच कहूं, तो तुम्हारी लिखी कहानियां पढ़कर ग़ज़ब की खीझ, फ्रस्ट्रेशन और चिढ़ होती है। अरे, कहां से ले आए थे इतना जादू...य़हां तो साला कुछ लिखते हैं, पढ़ते हैं और मंत्रमुग्ध होने की कोशिश करते हैं कि गधी महबूबा तुम्हारी एक छोटी-सी कहानी सुनाकर जैसे सारे कपड़े उतार देती है, असलियत बता देती है, औक़ात याद दिला देती है। तुम्हें मुकदमे मिले और हमें कई ज़िला-मोहल्ला लेबल के ईनाम पर तुम्हारी एक-एक लाइन यार हमारे और हमारे जैसे तमाम दो-कौड़ी के राइटरों के सैकड़ों पन्नों पर भारी है। लगता है, जैसे पन्नों पर हमने अलफाजों की उलटी कर दी हो और तुम्हारे शब्द ऐसे महक़ते हैं, मानों तुमने क़लम में स्याही नहीं, इत्र भर रखी हो।
तुम कहोगे कि तुमने तो बू और मुतरी जैसी सड़ांध भरी कहानियां लिखी हैं, अरे यार, इतराओ नहीं...हम जैसों और हमसे बहुत ऊंचे-ऊंचे दरजे वाले पुरस्कृत पत्रकारों का महकउआ लेखन तुम्हारी साफ़तौर पर की गई शैतानियों के आगे बहुत बचकाना है...देखो, हमारे सच की दाद दो मियां मंटो।
वैसे, मियां सच तो तुम भी जबरदस्त बोलते थे, लिखते थे। इतना कड़वा सच कि जैसे मुंह में किसी ने मिर्च का पाउडर घोल दिया हो। अमां कबीर बनने को किसने कहा था। अच्छा हुआ, जल्दी चले गए, नहीं तो सारे पढ़े-लिखे क़िताबी समझदारों को नंगा करके छोड़ते। माना कि मुल्क में तवायफ़ों की बहुतायत है और वहां जाकर सब अपने कपड़े उतार देते हैं, लेकिन इस सबको सामने लाना ज़रूरी था क्या...। एक लेखक साहब से साभार----गुण्डों-मवालियों, शराबियों, कोठेवालियों, वेश्याओं, दलालों और उन्मादियों----का महिमामंडन करके क्या पा लिया तुमने...सभ्य समाज को परेशान ही किया ना...।
हिंदुस्तान के दो टुकड़े करने वालों को टोबा टेक सिंह पढ़वाओगे, तो वो तुम्हें मुल्क में रहने देंगे क्या। अब तुम्हीं बताओ, घाटन की तुलना एक आईएएस की बेटी से कर डाली। खोल दो में बेटी के कपड़े उतरवा दिए. जिसने सच्ची मोहब्बत की, उसे चुगद बता दिया। ये भी कोई बात हुई क्या। क्या पंडित, क्या मौलवी, जिसे पाया, उसकी पगड़ी झटक दी।
दंगाई लुटेरे को भी करामात कहानी में कुएं का पानी मीठा कराने वाला पुण्यात्मा बना दिया। यार, हमारी कब्र पर तो कोई दीए नहीं जलाएगा, पक्का यक़ीन है।
यार तुम्हारी ज़ुबान बहुत तुर्श थी। अब घाटे का सौदा को ही लो..."उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया हैं हमारे ही मज़हब की लड्की थमा दी। चलो, वापस कर आएं।...जैसी कहानी लिखने का क्या मतलब है, अब दंगाई भी तो हमारे भाई हैं, वो पाकिस्तान से थोड़े ही आए हैं।
अच्छा करती थीं मम्मियां, जो बच्चों के हाथ में ''सआदत हसन मंटो'' की कहानियों की क़िताब देखकर दो टुकड़ों में बाँटतीं और फेंक देतीं कूड़े में पर चाहने वाले भी ऐसे-ऐसे, जो क़िताब चिपकाकर पढ़ने बैठे जाते। बहुत बुरा किया मंटो...एक पूरी की पूरी पीढ़ी बिगाड़कर रख दी...जो टी-टोटलर होती, दिन भर पूजा करती, लोगों का गला काटती राम-राम कहकर, उसे सुधरने....से पहले ही सारी सच्चाई बता दी। ऐसा भी करते हैं कहीं। अब तुमने तो अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जी ली, लेकिन बाकी तो 10 से पांच वाली नौकरी वाले थे, उनका भी ख़याल किया होता। अरे, घर चलाना ही मुश्किल होता है, सच की तलाश करने कौन जाए।
तुमने जब मुंह खोला, क़लम चलाई, सब आस्थावानों के दिल पर छुरियां चल गईं...अब बताओ, ये क्या हुई लिखने की वज़ह---तुम्हारे शब्दों में...मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती. लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है.
किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित बाशिंदा. इस बज़ाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा.
मतलब साफ़ है, दूसरों की सुकून भरी ज़िंदगी (चाहे कितने ही पाप करके उन्हें सुकून मिला हो) तुम्हें हज़्म नहीं होती थी। ख़ैर, अब मेरी महबूबा के सपनों में आना छोड़ो, चाहे जहां जाओ पर उसके ख़्वाबों में न आओ...रहम करो। मुझे भी चैन से सोने दो और बाकियों को भी।

19 comments:

Aadarsh Rathore said...

ठीक

योगेश समदर्शी said...

वाह! मंटो को आपने एक दम नए आंदाज में पेश किया... गालिया सुआलियां कैसे हो जाती है यह आपका अंदाजेबयां साबित करता है... बहुत अच्छा आलेख है....

roushan said...

जिसने उन्हें पढ़ लिया है उससे उन्हें दूर नही किया जा सकता

अमित द्विवेदी said...

kya likha hai. har shabd me wo ras hai jo apne se door jane hee nahee deta. aapki is lekhni ki koi kaat nahee hai. vishay koi bhee kyun naa ho sab par aapko maharat haasil hai. is adbhut lekh ke liye main aapko naman karta hoon. aur sath hee ummeed karta hoon ki aap aise hee likhte rahenge.

vijay kumar mishra said...

ulajhne kee apkee aadat se aapko rachnatmak fayda hua hai miya aur jabardast fayda hua hai iskee jankaree miltee hai aapke tajatareen post se jisme aapne manto se ulajhte hue unke sambandh me kai cheejon ko suljhaya hai... aapko bahut bahut badhai aur aage bhee isee tarah logon se anvarat ulajhte rahiye,,, bada fayda hoga miya

vishnu sharma said...

चंडीजी,
छुपे रुस्तम हो। पीएचडी की है आपने मंटो पर। और जिस पीढी का जिक्र आपने किया है, उसके रीयल रिप्रजेंटेटिव तो आप ही हो। अच्छा लिखा है, टीवी में ये भडास निकलने से बचिएगा।
vishnu Sharma

chavannichap said...

bhavpoorna,bhavittejak aur sambhav ke saath likhi shabdanjali.badhayi!!!

nidhi said...

mjjjjjjjjjjjjjjaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa agya pdh kr .manto zaroor muskurayega ise pdh kr kyunki yhi hai vo theek yhi!
uske marne ke baad di gayi roti-bisoorti shrdhanjliyon pr usne thook diya hoga or ise pdh kar khega ,"ye likhne vala hi aadmi hai".arre uske marne pr rote hue subkane valon ko uska ji chehata hoga thpped mar de lekin ye pdh kar khega,"miyaan tum bhi asli nikle".arrre vo bhut jiyaa hai bhut...paanch destaavez me jitne akshar hain utna or jitna aapne likhaa unme bhi thaka lga ke ji rha hai.vo jindaa hi rhega or safed poshon ko kaali salwaar dikhata rhega.

nidhi said...

ek or baat chauraahe itne sundar rhe to log galiyo me nhi jaayenge..chauraahe pr milenge or thake marenge

nidhi said...

phir se aagayi ek baat or khne-
manto ne jo likha sirf vhi nhi jha bhi jisne bhi manto naam tk likh diyaa maine dhoondh dhoondh kr pdha hai aapka lekh manto pr like sabse acche lekho me shaamil kyunki aapne use maara nhi,us pr aansu nhi giraaye.

युग मानस yugmanas said...

आपका ब्लाग उत्कृष्ट है । सामग्री काफी रोचक एवं विचारोत्तेजक है । मैं समय-समय पर इसे देख रहा हूँ । - डॉ. सी. जय शंकर बाबु

Arun Arora said...

वाह जी वाह फ़ौरन मंटॊ पर पी एच डी कर डालिये गालिया भी सुधर जायेगी आपकी :)

sushant jha said...

इतने बेहतरीन तरीके से मंटो का विश्लेषण आपकी कलम और समझदारी के बारे में काफी कुछ बयां कर रहा है। मंटो के बारे में जितना जानता हूं, आपके लेख ने उसमें संवर्द्धन ही किया है, लेकिन मुझे लगता है कि मंटो उस या इस पीढ़ी के लेखक नहीं थे-उन्होने मानव जीवन के शाश्वत और कटु सत्य को उजागर करने की हिमाकत की थी जो उन्हे कालजयी बना गई-हां जीते जी उन्हे गालियां जरुर मिली। एकबार फिर से आपको इतने अच्छे लेख के लिए धन्यवाद।

MEDIA GURU said...

aapne galiyon ka sundar pryog kiya hai badhai.

vishwa deepak said...

fir vahi baat kahoonga ki bajigari hai shabdonki ya fir mere baudhik star se oopar ki bat hai.

Unknown said...

शब्दावली का प्रयोग अत्यंत जटिल है । जटिलता से बचें । लेकिन एक-एक शब्द चबा जाने का दिल करता है । पहली बार कुछ नए शब्द मिले हैं । मीडिया लाइन में नई शब्दावली बहुत मायने रखता है । रोज कोई न कोई नया शब्द ढूंढ रहा हूं । वाकई आपने कमाल कर दिया है । बहुत दिनों बाद आप की मौलिक रचना पढ़ने को मिला, मजा आ गया ।

gangesh srivastav said...

manto ko apne narjiye se dekhane aur auron ko dikhane ke liye thanks, padakar bahut achcha laga

gangesh sri

अभिषेक मिश्र said...

तोबा टेक सिंह नाटक BBC पर सुना था. सच्चाई की नंगी तस्वीर और इसके रचनाकार को आडम्बरवादी समाज स्वीकार कहाँ कर पाता है! अच्छा लिखा है आपने.


(gandhivichar.blogspot.com)

आशीष कुमार 'अंशु' said...

yadi aapaka yah POST nahee padhata to Nikshit taur par ek achhi rachana se maharoom rah jata...