कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, March 27, 2009

शेर के नाम पर कुछ ढेर...

मज़े की बात...
जब ताज़ा-ताज़ा जवान होने लगा था, तब भी हमउम्रों का मज़ाक उड़ाता था--मियां, आजकल इश्क फ़रमा रहे हैं, जल्द ही शायर हो जाएंगे। उम्र ढली, अब तो शक्ल से भी पता चल जाता है कि मियां ढेर हो रहे हैं, अब क्या करें दिल का, जो इस उम्र में शायराना हो रहा है। ख़ैर, इन दिनों शायरी के नाम पर कुछ भी अल्लम-गल्लम तान दे रहा हूं। चूंकि, ब्लॉग पर कितनी भी गुंडागर्दी, अदब का सत्यानाश, काफिए-बहर की दुर्दशा की जा सकती है, इसलिए यहां चेंप भी दे रहा हूं। वैसे, भगवान जिलाए रखे शुभचिंतकों को, वो तो अब भी कह देंगे--कोई बात नहीं म्यां...लिखते रहो, कभी न कभी शायर भी बन जाओगे...वैसे सच्ची-सच्ची बोलूं...मुझे पता है, ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि ग़ज़लें लिखने, शेर गढ़ने में जिस कदर अनुशासन नाम की चीज की ज़रूरत होती है, वो हमारी तबीयत से सिरे से ही गायब है...ख़ैर, जितने ज्यादा शेर के नाम पर ढेर नहीं, उनसे ज्यादा तो भूमिका ही हो गई...अब डायरेक्ट शेर



अब रात भी चुकी तमाम, न सहर का है नामोनिशां...
रुक जाएं अब हों हमक़दम, फिर बन सकें जान-ए-जां



तिरे होंठों पे छाए दर्द का है मुझको भी ग़िला
...चलो हो चुकीं शिकायतें, अब खत्म हो ये सिलसिला


तेरी आंख में जो अश्क हैं, उन्हें तू यूं ही जार-जार बहने दे...
मेरे सीने में भी है आग खूब, ये भी यूं ही तो बुझ पाएगी

जो जख़्म दिए हैं सीने पे, उन्हें सोच के तू ये भूल जा...
मेरी निगाह से खिले थे ग़ुल, जो झुलस गए, तो झुलस गए

4 comments:

"अर्श" said...

BHAEE SAHIB KYA KAMAAL KE SHE'R KAHE HAI AAPNE.. 3RD AUR 4TH KO KAMAAL HI KARDIYA AAPNE... BAHOT KHUB AAGE BHI LIKHTE RAHE...


ARSH

दिगम्बर नासवा said...

अच्छे हैं सारे शेर

अर्चना said...

tere aankh men jo.......yun hi to bujh payegi ---bahut hi achchhi lagi.

Anonymous said...

sher to waakai kaabil-e-taareef the sachhi acchhe the chndi jeeeeee