कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, October 5, 2010

अफसानों में अपने बुजुर्ग



`अहदे-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आंखें मूंद / यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया' ... मीर तकी मीर का ये शेर बताता है--जवानी तो मरते-मिटते, नावां और नाम कमाते, बस जुटे रहने का नाम है, बुढ़ापा वक़्त है आराम से ठहरकर सोचने का...ये महसूस करने का--क्या था, जो दौड़भाग में छूट गया, वो वक्त कैसा था, जो हाथ से फिसल गया और फिर ये फैसला करने का--यादों की धुंधली तस्वीरों को फिर ताज़ा किया जाए और कोशिश की जाए, उन सब ख्वाबों को पूरा करने की, जो अधूरे रह गए। सच है...बुढ़ापा थककर निढाल हो जाने का सबब बनकर नहीं आता। ये वो सांझ है, जिसे मीर जैसे शायर सुबह का नाम देते हैं, जिसमें--मज़बूरी वाली ज़िम्मेदारी नहीं...खुला आसमान है...जो बुला रहा है--मन परिंदा तोड़ के पिंजरा, आ जा खुली हवा में झूमें।
यूं तो, शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ज़ौक जैसे शायर ठंडी आहें भरते हुए शेर सुनाते हैं-- वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें / ऐसे हैं जैसे ख़्वाब की बातें..., वहीं आशापूर्णा देवी के उपन्यास मन की उड़ान का नायक प्रभुचरण भी सोचता है--`बुढ़ापा जाड़े के मौसम जैसा है। प्रति क्षण स्मरण करा देता है कि अब रोशनी का खजाना खत्म होने को है, अंधकार छाने ही वाला है।' लेकिन ऐसी निराशा को तोड़ते हुए अगले ही चौराहे पर गुलज़ार टकरा जाते हैं...वो कहते हैं--सारी जवानी कतरा के काटी पीरी में टकरा गए हैं...हां, कई ख्वाब ऐसे ही यादों की संदूक से बाहर निकलते हैं और धुंधलाते चश्मे पर आकर ठहर जाते हैं, ऐन निगाह के सामने, कहते हैं--अब तो मियां वक्त है, हमें पूरा करो ना।
अर्नेस्ट हेमिंग्वे के 'ओल्ड मैन एंड द सी' का बूढ़ा मछुआरा ही कहां झुकता है? ना वो खुद का भरोसा टूटने देता है, ना हमारा। हेमिंग्वे कहते भी थे--इंसान को बर्बाद किया जा सकता है, लेकिन हराया नहीं जा सकता, सो उनके उपन्यास का हीरो भी हारता नहीं है।
तो ज़िंदगी की ये दूसरी पारी क्या है, कैसी है...ये जानना, समझना खूब दिलचस्प है और हिंदी समेत दुनिया भर के हर साहित्य में बुजुर्गों की खूब, खू़बसूरत दास्तान भी है। चेखव की ओल्ड एज के साथ ही एक और मशहूर नॉवेल याद आ रही है गाब्रिएल गार्सिया मर्कुएज़ की `लव इन द टाइम ऑफ़ कोलेरा'। इस कृति में पकी हुई उम्र, बढ़ी हुई बीमारी और बिगड़ी हुई दिल की हालत का एकसाथ ज़िक्र है, लेकिन नायिका यहां अंत तक हर उस बात से जूझती है, जो उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा सकती है।
और, प्रेमचंद का भगत? मंत्र का कथानायक, उसकी आंखों से ही तो हम देखते हैं डॉक्टर चड्ढा का घमंड, जब वो एक गरीब आदमी का बीमार लड़का देखने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि यह उनके खेलने का समय होता है। `बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भांति निश्चल खड़ा' रहकर लौट जाता है...उसी दिन उसका बेटा गुज़र जाता है पर वक्त लौटता है। एक दिन चड्ढा का बेटा कैलाश प्रेयसी की ज़िद में सांप की गरदन पकड़कर जोर से दबा देता है और फिर सांप उसे डस लेता है। बहुत-सी कोशिशें होती हैं। नामी-गिरामी वैद्य, डॉक्टर, तांत्रिक आते हैं पर कैलाश को कोई जिला नहीं पाता, इसी समय आता है भगत। वही बूढ़ा, जिसके बेटे को देखने से डॉक्टर चड्ढा ने मना कर दिया था। वो कैलाश के ठंडे पड़े बदन में सांसें फूंककर लौट आता है, लेकिन बदले में एक बीड़ी तक नहीं पीता...। ऐसे बुढ़ापे पे तो हज़ार ज़िंदगियां कुर्बान...है कि नहीं?
प्रेमचंद की एक और कहानी अक्सर याद आती है--बूढ़ी काकी। 1921 में लिखी गई इस कहानी की शुरुआत में ही वो बताते हैं--`बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही।' अब कोई बच्चा रो-रोकर, गला फाड़कर अपनी ओर खींच लेता है, तो कोई बुज़ुर्ग अगर अपना हाल-ए-दिल बयां करना चाहे, तो हम उससे आंख क्यों चुराएं। `बूढ़ी काकी' में कथा सम्राट बताते हैं काकी के बारे में, जिनकी `...समस्त इन्द्रियां, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं।'
काकी के पति थे नहीं, बेटा भी स्वर्ग सिधार चुका था। भतीजे के नाम सारी जायदाद लिख दी थी, जिसे अब उनसे कोई मतलब नहीं था, यूं तो भतीजे `बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था'...लेकिन काकी से सचमुच कोई प्रेम करता था, तो वो थी बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली। कहानी का सबसे दिलचस्प मोड़ है बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम के तिलक का मौक़ा। काकी इंतज़ार करती हैं कि उन्हें पूड़ी मिले। देर हो गई, तो बेचैन हुईं पर रोईं नहीं कि अपशकुन होगा। अजवाइन और इलायची की महक बता रही थी कि पूड़ी गरम-गरम और जायकेदार है।आखिरकार, सब्र नहीं रहा, तो चौखट से उतरीं और कड़ाह के पास जा बैठीं। भतीजे की पत्नी ने देखा, तो बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोलीं-- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? बूढ़ी काकी चुप रहीं...कुछ ना बोलीं...चुपचाप लौट गईं। फिर भी देर रात तक पूड़ियों का इंतज़ार था। फिर से आंगन में आ गईं, तो एक मेहमान चिल्लाने लगा। इस बार भतीजे ने उन्हें कोठरी में ले जाकर पटक दिया। आखिरकार, लाडली अपने हिस्से की पूड़ियां बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली। 
यहीं पर सतीश दुबे की लघुकथा ‘बर्थ-डे गिफ्ट’ की याद भी आ जाती है। दादाजी के लिए उनकी पांच साल की पोती एक टॉफी छुपाकर रख देती है। फ़िलहाल बात लाडली की, वो काकी के पास पहुंची और बोली-- 'काकी उठो, मैं पूड़ियां लाई हूँ।' काकी पूड़ियों पर टूट पडीं। उनका पेट ना भरा, तो पोती ने उन्हें जूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। `दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी।'  भतीजे की बहू रूपा ने ये सबकुछ देखा, तो स्तब्ध रह गई। रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली।' उसने माफ़ी मांगी और फिर तो `भोले-भोले बच्चों की भांति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है , बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थीं'।
चलिए, रूपा ने देर से ही सही, काकी की इच्छा का सम्मान किया। ऐसे ही ज़रूरी है कि सब समझें अपने बुज़ुर्गों को, उनके सपनों को। 
फ्रांस की चिंतक सिमोन द बउवा की किताब है--‘ला विल्लेस’, इसका अंग्रेज़ी अनुवाद है--‘ओल्ड एज’ (अनुवादक-पैट्रिक ओ ब्रैन)। सिमोन साफ़ कहती हैं कि `बूढ़े लोगों के मामले में यह समाज न केवल दोषी है, बल्कि अपराधी भी है...फ्रांस की बारह प्रतिशत जनता पैंसठ वर्ष पार कर चुकी है और इतनी बड़ी संख्या गरीबी, उपेक्षा और निराशा झेल रही है। अमेरिका में भी लगभग यही स्थिति है।...बुढ़ापे को समाज में एक ही तरह से नहीं देखा जाता है। प्रायः बचपन से युवावस्था में कदम रखने की आयु 18 से 29 वर्ष की मानी जाती है, जबकि बुढ़ापे में कदम कोई किस आयु में रखता है, इसकी लकीर कहीं भी नहीं खींची गई है।' सिमोन सवाल करती हैं, `जब इन वृद्धों में वही ख्वाहिशें, वही संवेदनाएं और वही आवश्यकताएं हैं, जो युवाओं की हैं, तो फिर क्यों दुनिया इनको घृणा की नज़र से देखती है?'... ऐसे में तो ये बात एकदम सच्ची-पक्की-दुरुस्त है कि क्या समझें, रूपा की तरह बहुत-से लोग, सरकारें, कानून सब नींद में सोए हुए हैं।
वैसे, नींद में सिर्फ नौजवान नहीं हैं। कई जगह माता-पिता भी अपेक्षाओं से इस कदर घिरे हैं कि सच्चाई से दूर भागते हैं। पृथ्वीराज अरोड़ा अपनी लघुकथा ‘कथा नहीं’ में ऐसा ही सवाल खड़ा करते हैं। उनके कथानायक बूढ़े मां-बाप हैं, जो दुखी हैं, क्योंकि बेटा उनकी देखभाल नहीं करता, लेकिन वो ये नहीं देखते कि बेटे की हालत कैसी है...पर भला हो साहित्यकारों का कि वो हर तरह की नींद ख़त्म करने में लगातार जुटे हैं। 
उषा प्रियंवदा की कहानी `वापसी' में हम उस बुज़ुर्ग से मिलते हैं, जो पूरी जवानी खर्च कर घर लौटा है, लेकिन यहां भी एक सत्ता उसके लिए तैयार है--उपभोक्तावादी संस्कृति की, जहां वो बेकार है, बिना काम का है। पैंतीस साल तक परिवार पालने वाले गजाधर बाबू को रिटायरमेंट के बाद बेटे, बेटी, बहू और पत्नी तक के सामने खुद का वज़ूद साबित करने की जद्दोज़हद झेलनी पड़ती है। आख़िरकार, वो ऐसा रास्ता तलाशते हैं, जहां उनके अपने सपनों के लिए बची हुई ज़मीन है।... तो एक कोण ये भी है, जहां बुजुर्ग अपने लिए अंत तक लड़ते-भिड़ते हैं।
चित्रा मुद्‌गल का उन्यास `गिलिगडु' बुज़ुर्गों के लिए चिंता और उन्हें समझने की ज़रूरत पर ही जोर देता है। एक साक्षात्कार में चित्रा ने कहा था--जब उन्हें पता चला कि 225 लोगों की क्षमता वाले वृद्धाश्रम के लिए पांच हज़ार आवेदन आए, तो वो स्तब्ध रह गईं। आख़िरकार, जिन लोगों ने सारी ज़िंदगी अपनों को बनाने-तराशने में खर्च कर दीं, उन्हें ही जीवन-संध्या में खुद के लिए ठिकाना तलाशने की ऐसी जद्दोज़हद करनी पड़ रही है?
हालात ऐसे हों, तो बुज़ुर्ग क्या करें, क्या दुख से धधकने लगें और खुद में ही सिमट जाएं? भीष्म साहनी की यादें और चीफ की दावत याद कीजिए। एक जगह दो बुजुर्ग लखमी और गोमा यादों की संदूक खोलते हैं और सबकुछ भुलाकर खिलखिलाने लगते हैं, वहीं चीफ की दावत में मां घर में फालतू सामान-सी मौजूद है।
ऐसे ही समय में बुजुर्ग सोचते हैं, जब हमारी किसी को ज़रूरत नहीं तो क्यों ना हम अपना आसमान खुद तलाश करें। मोहन राकेश की कहानी `मलबे का मालिक' में एक बुढ़िया हर मोड़ पर भटकते हुए जानना चाहती है कि दंगों में मारे गए बेटे की जायदाद की वारिस उसे होना है, वो क्या करे।
यूं, बहुतेरे लोग ज़िंदगी इसी जद्दोज़हद में काट देते हैं कि बुढ़ापे में क्या करेंगे। असमिया लेखक लक्ष्मी नंदन बोरा की नॉवेल  ‘कायाकल्प’ यौवन फिर हासिल करने के लिए वृद्धावस्था को रोकने की कवायद का बयान करती है। ऐसी कोशिशें इसी विचार से उपजी हैं कि बुढ़ापा वो हालत है, जो लाचारी लेकर आती है...काश! कोई समझे कि पीरी तो ललक लाने वाली उम्र है...सपनों को फिर बुनने की रस्म है...बस इस सांझ को थोड़ा गुलाबी बना दिया जाए। जिन कंधों ने हमें बचपन में सहारा दिया था, उन्हें अपनी बाहों का, सीने के दम का बल दिया जाए, फिर देखिएगा...उम्मीद, आशा, अनुभव का संगम सिर चढ़कर बोलेगा।

(दैनिक भास्कर की विशेष परिशिष्ट में प्रकाशित, इसे यहां भी पढ़ सकते हैं http://www.bhaskar.com/article/ABH-elderly-in-mistries-1418130.html)

3 comments:

shikha varshney said...

काफी कुछ समेट लिया आपने ..अच्छा लगा आपका चिंतन ..
हाँ बागवान के अमिताभ को भूल गए :)

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर चिन्तनपरक आलेख। धन्यवाद।

वीरेंद्र सिंह said...

सर जी ..... शब्द ही नहीं नहीं मिल रहे हैं इस पोस्ट की तारीफ़ के लिए ......
बेहद उम्दा और भावनात्मक प्रस्तुति ...
आपकी लेखनी को नमन.