कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, November 19, 2010

ज़िंदगी की धुन पर मौत का नाच

सारी दुनिया बंधी है कालबेलिया के जादू में पर इसके फ़नकार अब भी तलाश रहे अपनी पहचान

धीरे-धीरे रात गहरा रही है। दिन भर खेल-कूदकर बच्चे थक गए हैं पर निंदिया रानी पलकों से दूर हैं। बच्चे जब सोते नहीं, बार-बार शरारतें करते हैं, तब दादी शुरू करती हैं—एक राजकुमारी की कहानी। राजकुमारी, जिससे प्यार करता है राजकुमार। सफेद घोड़े पे आता है, उसे अपने साथ ले जाता है। बच्चे जब तक सपनों में डूब नहीं जाते, `हां...’, `और क्या हुआ...’, `आगे...’ बुदबुदाते हुए, आंखें खोले, टकटकी लगाए सुनते रहते हैं। कमाल है कि दादी की किस्सों वाली पोटली कभी खाली नहीं होती। उसमें से निकलते जाते हैं एक के बाद एक अनूठे, मज़ेदार, अनोखे किस्से। राजकुमारी के बाद जादूगर, जिसकी जान चिड़िया के दिल में कैद है और फिर नाग-नागिन की बातें। हां...डर रहे हैं बच्चे, सिमट रहे हैं खुद में, सट रहे हैं एक-दूसरे से और सुनते ही जा रहे हैं नाग-नागिन के जोड़े के बारे में। उनसे जुड़ी कितनी ही कहानियां...। मन मोह लेती हैं नाग-नागिन की रहस्यमयी कथाएं। इच्छाधारी नागिन का प्रेमी नाग से मिलना, फिर नाग की हत्या, नागिन का बदला और भी पता नहीं क्या-क्या।
जितनी पुरानी दुनिया है, कुदरत है, उतनी ही तो पुरानी हैं नाग-नागिन की कहानियां। उनके किस्से, अफ़साने और हां, उसी तरह प्राचीन हैं सपेरे और उनका संसार।
बीन बजाता संपेरा याद है? उसकी वो पोटली, जिसमें से पूंछ पकड़कर, कभी गर्दन से थामकर संपेरा सांप निकालता है। ओह...ये क्या, कैसा डरावना सांप है, पर संपेरे नहीं डरते। खेलते हैं ज़हरीले सांपों से। वही क्यों...उनके छोटे-छोटे बच्चे तक, जो बोल तक नहीं पाते, फिर भी नाग का मुंह खोलकर उसके दांत गिनने की कोशिश जो करते हैं।
ये हैं संपेरे, जो मौत के सौदागर सांपों को थामकर, उनका नाच दिखाकर रोजी-रोटी की लड़ाई लड़ते हैं। दिन भर सांपों की तलाश करने या फिर घर-घर उनकी नुमाइश कर शाम तक जुटाते हैं दो रोटी लायक थोड़ा-सा पैसा।
ये हालत यूपी-बिहार के ही संपेरों की नहीं, पूरे देश में संपेरे खुद का अस्तित्व बचाने की जद्दोज़हद कर रहे हैं, लेकिन वो हुनर ही क्या, जो गरीबी के अंधेरे में गुम हो जाए। यही वज़ह है कि संपेरों के फ़न की चमक कहीं कम नहीं हुई है।
इसी सिलसिले में एक सवाल पूछ लें आपसे? राजस्थान की घुमक्कड़ जनजाति कालबेलिया का नाम सुना है? वही कालबेलिया, जिसके नृत्य की धमक से सारी दुनिया गुलज़ार हो रही है। काले कपड़े पहनकर जब कालबेलिया समुदाय की लड़कियां तेज़-तेज़ कदमों के साथ लयात्मक नृत्य करती हैं, तो जैसे कुदरत की हर हरकत ठहर जाती है। सासें थमकर सुनती हैं—जादुई धुन, आंखें देखती हैं अनूठे लोकनृत्य की धूम।
रेतीले रेगिस्तान के बीच बसे गांवों में हर दिन गर्मी से झुलसाता है और रातें ठिठुरन से भर जाती हैं। ऐसे में, कहीं, किसी मौके पर सजती है महफ़िल। महफ़िलें जवान होने के लिए किन्हीं खास मौकों का इंतज़ार कहां करती हैं...ऐसे ही धीरे-धीरे सुलगती लकड़ियां चटखती हैं और फिर धीरे-धीरे शोले परवान चढ़ते हैं। फिर उनके सामने आ जाती हैं दो महिलाएं। ये किसी भी उम्र की हो सकती हैं, यूं, ज्यादातर ये युवा ही होती हैं। 
कालबेलिया जनजाति की युवतियां थिरकना शुरू करती हैं और उनके साथ-साथ ढोरों से होती हुई कसक भरी आवाज़ गूंजती है।
सपेरों का ये नाच ग़ज़ब है। कालबेलिया युवतियों की लोच से भरपूर देह बल खाती है और उन्हें देखने वाले सांसें रोककर जिस्म की हर हरकत देखते हैं...सुध-बुध भुलाकर देखते हैं ग़ज़ब का कालबेलिया नाच।
कसीदाकारी की कलाकारी से भरपूर घेरदार काले घाघरे पर लगे कांच में लपटों की झलक दिखती है। इकहरी-पतली लचकदार देह पे सजा होता है खूब घेरदार घाघरा...घेरदार परतों के बीच लाल, नीली, पीली और रूपहले रिबन से सजी गोट और गोल-गोल शीशे।
जिस्म लहराता है, साथ ही हाथ ज़मीन पर टिक जाते हैं। नर्तकी पीछे को झुकती हुई घूम जाती है। जैसे बदन हाड़-मांस से नहीं बना, रबड़ से तैयार किया गया हो। पैर और गर्दन एक लय पर घूमते हैं। मुस्कराती हैं आंखें और होंठ भी साथ-साथ। नैनों की कटार खाकर हर कोई एकसाथ कह उठता है—`आह और वाह’!

'म्हारो अस्सी कली को घाघरो' की तान छेड़ती नर्तकियां क्या हैं। हर चक्कर के साथ जैसे केंचुल छोड़कर जन्म लेती हुई सांप की बेटी, ताज़ा-ताज़ा पैदा हुई नागिन-सी। मोहक, रहस्यमय, धारदार और उल्लास से भरा यौवन। कौन सोचेगा...अभावों में निखरा हुआ सौंदर्य है ये।
रात गुज़रती जाती है पर कालबेलिया की थिरकन कम नहीं होती। ओढ़नी ओढ़े कालबेलिया युवतियां गोल-गोल घेरे में नाचती हैं, फिरकनी की तरह। उनकी रफ्तार में तब-तब बदलाव आता है, जैसे-जैसे राजस्थानी लोकगीतों की सुरलहरियों में उतार-चढ़ाव शामिल होता है। संगीत भी मादक होता है। एक तरफ बीन की मदमाती धुन, दूसरी ओर ढपली का जादू...। लड़कियां नृत्य करती हैं और साज़ पर तैनात होते हैं सपेरे, यानी पुरुष। ये महिला सशक्तीकरण की मिसाल है, जहां पुरुष सहयोगी की मुद्रा में है। वो नेता नहीं, साथी है, सरदार नहीं, सिपाही है।
पुरुष सहयोगी के हाथ बाज़ों पर तड़पते हैं और बिजली कड़कने जैसी ताल के साथ कालबेलिया लड़कियां नाचती जाती हैं। कहीं कोई पास में ही बैठा तान देता है। ये कोई भी हो सकता है, कोई पुरुष या फिर स्त्री। 
कालबेलिया मनोरंजन के लिए किया जाने वाला कोई आम नृत्य नहीं है। थिरकन के इस जादू में छिपा है जीवन का गहरा संदेश...मृत्यु सत्य है। वो आनी ही है। उसका सामना करो।
जैसे, शिव ने संसार की रक्षा के लिए विष पिया। ज़हर को गले में रोकने के लिए नीलकंठ हो गए, वैसे ही तो संपेरन लड़कियां कालबेलिया नृत्य करती हैं। यही बताती हुई—मृत्यु का सामना करना जानो। उनकी मुद्रा बताती है—हम अभाव में जीते हैं, फिर भी ज़िंदगी को ज़हर नहीं समझते।
कालबेलिया घुमक्कड़ जाति है। नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे सांप पकड़ने, उनका प्रदर्शन करने के अलावा, और कोई हुनर उनके पास नहीं है। हां, कुछ कालबेलिया आटा पीसने की चक्की और खरल-बट्टा भी बनाते रहे हैं। बीते कुछ साल में ज़रूर उनमें ठहराव आया है, लेकिन रोजमर्रा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए अब भी जद्दोज़हद करनी पड़ती है।
राजस्थान की तमाम घुमंतू जातियां पुख्ता पहचान के लिए जूझ रही हैं। ये मूलभूत सुविधाओं के लिए सरकार का मुंह देखते हैं और बस बिसूरते रहने को मज़बूर हैं।
बंजारा, कालबेलिया और खौरूआ जाति के लोगों के पास राशन कार्ड और फोटो पहचान पत्र तक नहीं होते, ऐसे में उन्हें नरेगा जैसी योजनाओं का फायदा नहीं मिल पाता। राजस्व रिकॉर्ड में कालबेलिया के नाम के साथ नाथ या जोगी लिखा जाता है। वो गरीबी रेखा से नीचे के वर्ग में भी शामिल नहीं किए जाते। ऐसी हालत में संपेरे अपने सुनहरे दिनों के आने का कभी ना खत्म होने वाला इंतज़ार ही करते जा रहे हैं।
ये दीगर बात है कि कालबेलिया नृत्य ज़रूर संपेरों के ख्वाबों, ज़िंदगी की यात्रा और सोच को ऊंचाई तक ले जा रहा है। ऐसी ऊंचाई, जिस तक पहुंचने का ख्वाब दुनिया के बड़े-बड़े कलाकार देखते हैं।
इन्हीं संपेरों के बीच की एक लड़की है धनवंती। धनतेरस के दिन जन्मी थी, इसलिए नाम पड़ा धनवंती। बचपन और जवानी दोनों मुफलिसी में गुज़री पर आज के दिन वो धन और शान, दोनों का पर्याय बन गई है। 1985 में हरियाणा की एक पत्रिका ने उसे पहली बार गुलाबो नाम दिया और फिर तो यही नाम कालबेलिया का पर्याय बन गया।
153 देशों में प्रस्तुतियां दे चुकीं गुलाबो को 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वो लंदन के अलबर्ट हॉल में परफॉर्म कर चुकी हैं, ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ तक से सराहना पा चुकी हैं, लेकिन 90 के दशक से पहले वो ख़तरनाक सांपों की खिलाड़न भर थीं। सांप नचाकर लोगों का मनोरंजन करती गुलाबो आज राजस्थानी लोकनृत्य कालबेलिया की पहचान बन गई हैं। देश की सरहदों से पार, परदेस में जगह-जगह कालबेलिया पेश कर वाहवाही हासिल कर चुकी गुलाबो का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। राजस्थान के लोग अपनी संपेरन-जादूगरनी-कलाकार गुलाबो का ज़िक्र बड़ी इज़्ज़त के साथ करते हैं। वो चाहती हैं, इस नृत्य का सम्मान और बढ़े। अपने पिता को याद करते हुए गुलाबो कहती हैं—बापू मुझे समझाते थे, कुछ भी करना पर चोरी की राह पर ना चलना। मेरे लिए जीवन का यही मूलमंत्र है।
गुलाबो और उन जैसी दीवानी नृत्यांगनाओं के ज़रिए कालबेलिया की धमक कहां नहीं पहुंची। मौजूदा साल में भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी की। खेलों के उद्घाटन समारोह की शान भी कालबेलिया नृत्य ने ही बढ़ाई। गुलाबो के दल का हिस्सा पुष्कर की पांच कालबेलिया नर्तकियां बनीं। उन्होंने सारी दुनिया को एक बार फिर कालबेलिया के सम्मोहन से जकड़ दिया। ये लड़कियां हैं—कुसुमी, मीरा, सुनहरी, रेखा और उनके साथ गुलाबो भी। ये अजमेर के गनाहेड़ा रोड पर न्यू कॉलोनी और देवनगर के बीच के इलाके में झोपड़ों में रहती हैं। 
इन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों के उद्घाटन के मौके पर नृत्य का जादू दिखाया। एक तरफ ढपली, झांझरी, रावणहत्था और अलगोजा की धुन थी और दूसरी तरफ कालबेलिया की थिरकन। लोग वाह-वाह कर उठे।
यूं तो राजस्थान का कालबेलिया ने बड़ा नाम किया है, लेकिन इसके कलाकारों की फ़िक्र किसी ने भी नहीं की। साल 2007-08 के बजट में कालबेलिया स्कूल ऑफ डांस की शुरुआत करने की घोषणा की गई थी। इसके लिए एक करोड़ रुपये आवंटित भी किए गए थे पर कई साल गुज़र जाने के बाद भी इस स्कूल की शुरुआत तक नहीं हो सकी है।
संस्थान बनाने के लिए जयपुर के हाथीगांव के पास जयपुर विकास प्राधिकरण ने 1.25 हेक्टेयर ज़मीन का आवंटन किया। चारदीवारी भी बनवाई गई पर अब ये ज़मीन बेकार पड़ी है। 7 करोड़ रुपये के इस प्रोजेक्ट में बाद में कोई राशि जारी नहीं की गई। प्रशासन एक बार फिर सुस्त पड़ा है। किसी को कालबेलिया के उत्थान की फ़िक्र नहीं है। अफ़सोस, जो नृत्य राजस्थानी लोकसंगीत की पहचान है, उसके फ़नकारों की ही कोई पहचान नहीं। कम से कम सरकारी फाइलों में तो वो अब भी अपना वज़ूद तलाश रहे हैं।
कहने की बात नहीं कि कालबेलिया नृत्य का संस्थान बन जाता, तो सरकार की आमदनी बढ़ती और इस फ़न से जुड़े फ़नकारों का नाम भी होता। यही नहीं, इस नृत्य को संरक्षित रखा जा सकता, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सच यही है कि कालबेलिया की नृत्यशैली और इसके कलाकार अब तक अपना संरक्षक ढूंढ़ रहे हैं, जो सत्ता और सियासत के बीच कहीं खो सा गया है। कबीलाई संस्कृति से निकलकर कालबेलिया नृत्य की चमक बिखेरने वाले युवक-युवतियां चाहते हैं—उनके जीवन में भी थोड़ी-सी रोशनी भर जाए। क्या ऐसा होगा?


दैनिक स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित आलेख