कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, January 31, 2011

घर...

आ से आशियाना
daily-news01
अब हर इंसान का पूरी दुनिया में कहीं ना कहीं घर तो होता ही है। छोटा-मोटा या फिर आलीशान, फिर हर शहर में, जहां वो रह रहा है, मकान बनाने की क्या मजबूरी है? वैसे भी, हमारी जड़ें कहीं ना कहीं तो हैं ही। किसी ना किसी गांव, कस्बे, मोहल्ले, जिले में...।

इंसान को क्या चाहिए भला? दोनों वक्त दो-दो गर्म फुलके, हंसते-खेलते बच्चे, अच्छी और लगातार बची हुई नौकरी, खूबसूरत बीवी, और? और घर। पर घर क्या सचमुच इंसान का अपना सपना है? या यूं कहें कि मकान बनाने का ख्वाब किस कदर मनुष्य स्वयं देखता है...? हां, हमें बचपन से यही समझाया गया है—रोटी, कपड़ा और मकान सबसे जरूरी चीजें हैं, तो? मकान का सपना मूलभूत सपना हुआ या नहीं? पाठक सोच रहे होंगे, कैसा लेखक है, खुद ही सवाल करता है और जवाब भी खुद दे रहा है, पर दोस्तों, सवाल गहरा है, उलझा है। क्वेश्चन और कन्फ्यूजन का फ्यूजन-सा हो रहा है। वैसे भी, जो चीज मन चाहे, ललचाए, खींचकर ले जाए, वो मूल इच्छा हो सकती है, लेकिन जिस ओर पूरा बाजार चिल्ला-चिल्लाकर कहे—यह तुम्हारी जरूरत है ही, उसे थोड़ा ठीक से, ठिठककर समझने का जी जरूर करता है। ऎसा ही हो चुका है, बना दिया गया है—घर का सपना।

छोटे-छोटे शहरों की बड़ी-बड़ी इमारतों में रात के सात-आठ घंटे गुजारने का इंतजाम करने के लिए दस-पंद्रह-सत्रह लाख की पूंजी लगाने का न्यौता बिल्डर देते हैं, बैंक लुभाते हैं और लोग समझाते हैं—अपना घर तो होना ही चाहिए। अव्वल बात समझाने तक होती, तो भी कुछ कम गम था, पर हालत डराने तक जा पहुंची है। रियल इस्टेट कंपनियां इंसान के छत" वाले ख्वाब को ना सिर्फ बेचती हैं, बल्कि धीरे-से कान में यह भी बता देती हैं—जिसका मकान नहीं, उसकी कोई हैसियत भी नहीं है। टीवी के विज्ञापन हों या फिर फिल्मों की कहानियां, सब जगह समझाया जाता है—फ्लैट नहीं तो कुछ नहीं। याद आया आपको— दो दीवाने शहर में, रात में-दोपहर में, आबोदाना ढूंढ़ते हैं, इक आशियाना ढूंढ़ते हैं। (हालांकि यहां बड़ी चतुराई से यह बात गुल कर दी जाती है कि बात शहर में मकान की हो रही है, जड़ों से जुड़ने की नहीं, घर बनाने की नहीं!)। मकान की होड़ में काम के जज्बे को भुला देने की कांस्पिरेसी होती है, सो अलग। जैसे, इंसान के लिए जीवन का कोई और लक्ष्य बचा ही नहीं है।

अब हर इंसान का पूरी दुनिया में कहीं ना कहीं घर तो होता ही है। छोटा-मोटा या फिर आलीशान, फिर हर शहर में, जहां वो रह रहा है, मकान बनाने की क्या मजबूरी है? वैसे भी, हमारी जड़ें कहीं ना कहीं तो हैं ही। किसी ना किसी गांव, कस्बे, मोहल्ले, जिले में...। बड़े शहरों में अगर रोजी-रोटी की जरूरत खींच लाई है, तो वहां जायदाद खड़ी करने की यदि सनक के सिवा और क्या है? कहीं, इस यदि को जोर इसलिए तो नहीं दिया जा रहा है कि शहरों में स्थाई निवास बनेंगे, लोग जमे रहेंगे तो क्रयशक्ति बनी-बढ़ी रहेगी, वस्तुओं की बिक्री जोर पकड़ेगी और सेवानिवृत्ति के बाद अगर लोग अपने-अपने गांव लौट गए, तो बाजार मंदा रह जाएगा? बाजार के समीकरणों के अलावा, एक अदद निजी मकान के इस ख्वाब ने और बहुत-सी जरूरी चीजें गुम कर दी हैं। इनमें से दो का हवाला हम पहले दे चुके हैं, जैसे—काम का जज्बा और जीवन का लक्ष्य।

हम अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी इस उधेड़बुन में गंवा रहे हैं कि मकान बना ही लें। उसके लिए प्रॉपर्टी तलाशने से लेकर रजिस्ट्री के इंतजाम की फि क्रऔर फिर बाकी बची उम्र ईएमआई चुकाने में गर्त होती है। इन हालात में रोजमर्रा के जीवन का आनंद कहीं फुस्स नहीं हो जाता है क्या?... सवाल उठता है, फिर कोई रहे कहां? काम से रिटायरमेंट लेने से पहले क्या किराए के मकानों में भटकता रहे? इस प्रश्न का कोई सही, सटीक जवाब नहीं है। हां, एक दोस्त की बात जरूर याद आती है—खाना होटल में, रहना किराए के कमरे में और मौत हॉस्टल में हो, इससे खूबसूरत ख्वाब कभी नहीं देखा। खैर, इसे पलायनवाद भी समझा जा सकता है, लेकिन यहीं से कई और मजेदार बातें भी सामने आती हैं।

सोचिए, बंजारों के घर कहां होते हैं। कुनबे का कुनबा सड़कों पर जीवन गुजारता है, लेकिन उनकी अलमस्ती, नाच, उल्लास और करतबों के धमाल कोई जवाब है हमारे पास? ऎसे ही यायावरों से कभी मिले हैं आप? जंगल-जंगल, गली-गली, डगर-डगर ट्रैवलर बैग लादे, आड़े- तिरछे रास्तों पर कदम संभालते-भटकने वाले लड़के-लड़कियों और बुजुर्गो से कोई पूछे— क्यों घर-परिवार छोड़कर इधर-उधर फिर रहे हो, क्या मिलता है?, तो वहां से जवाब की जगह मुस्कान मिलेगी, कानों तक चौड़े हुए होंठों की मुस्कान! ऎसा ही सुख है बिना मकान के रहने का भी।

इससे अलग एक और बात भी कुछ कम रोचक नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में ऎसे लोगों ने नायाब सफलताएं और जिंदगी का संतोष हासिल किया है, जिन्होंने अपना कुनबा और ठिकाना छोड़ दिया। महात्मा बुद्ध याद आ रहे हैं? राजपाट त्यागकर ज्ञान की तलाश में वन चल दिए। गोस्वामी तुलसीदास को भी जब रत्नावली से तिरस्कार मिला, तो वो प्रभु की खोज में डूब गए। कबीर के पास अपना मकान था ही नहीं। वो कहते हैं—कबीरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ / जो घर फूंके आपना, चलै हमारे साथ।" जगह-जगह मकान बनाने की जगह जीवन के आनंद को ज्यादा संजोने की जरूरत है और कबीर भी जड़ता को नष्ट कर देने की ही बात करते हैं। राजा जनक सरीखे लोग भी हुए हैं, जो गृहस्थ जीवन में संन्यासी की तरह शामिल हुए। हिंदू धर्म की मान्यता ही है कि संन्यास के बाद ही प्रभु से सायुज्ज होता है। आप ईश्वर से मिल पाते हैं। उनका दर्शन कर पाते हैं...। यहां तो मकान की बात ही क्या, घर की धारणा भी खत्म कर दी गई है। बिनायक सेन का नाम हाल में खूब चर्चा में रहा। उन्हें नक्सलियों से संबंध रखने के इलजाम में जेल भेज दिया गया था।

इस बात में कितनी सच्चाई है, इस पर बहस फिर कभी, फिलहाल उनके बारे में सबसे जरूरी ये जानकारी है कि बिनायक अपनी सुख-समृद्धि और शोहरत छोड़कर जंगलों में भटकते हुए गरीब-दुखियारों के घाव पर मरहम लगाते थे। उनका मुफ्त इलाज करते थे। शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह को ही लें। ना शादी की, ना गद्दारों के आगे घुटने टेके। देश को आजादी दिलाने के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने घर-परिवार सब छोड़ दिया। ये चंद उदाहरण साफ कर देते हैं—बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति करनी है, तो कंकरीट की छत के सपने से थोड़ा दूर ही रहना होगा। वैसे भी, जड़ों से बंधे रहने और जड़ हो जाने में बड़ा फर्क है। यही फर्क है—बड़े-बड़े मकान बनाकर उनमें बिना रिश्तों के रहने के जीवन का। शहरों में बनीं बिल्डिंगों में क्या सचमुच के घर बनते हैं या फिर ये वक्त काटने का ठिकाना भर होते हैं? क्यों ना, ऎसी चिंताओं से अलग, बारिश के पानी में भीगने, खिलखिलाने का हौसला बना लें। कोई एक रात किसी पार्क में गुजारने की हिम्मत कर बैठें? किसी मोड़ पे अजनबी बनकर एक-दूसरे से मिलने और मुस्कराने का करतब कर डालें? मैं तो ऎसा करने के मूड में हूं और आप?

2 comments:

Alok pandey said...

hamare dil ki bat kah di hai sir ji aapne

अभिषेक मिश्र said...

वाकई बात समझाने की है.