कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, January 25, 2012

बहुत मेले देखे, लेकिन ये मेला कुछ खास है!

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

भास्कर ब्लॉग. .अदाएं दिखा रही है जालिम सर्दी। कभी कहर बरपाती है तो अगले ही पल गुलाबी हो जाती है। हम भी कभी ठिठुरते, कहीं सूरज की गुनगुनाहट के संग संवरते हुए, मेले में जाने को तैयार हो रहे हैं। आज जयपुर में साहित्य के मेले का आखिरी दिन है..।

और दिमाग की सिल्वर स्क्रीन पर बीते वक्त की यादों की रील चलने लगी है। कैसे-कैसे तो होते थे बचपन के मेले। डरते-डरते हुए भी, चिल्ला-चिल्लाकर हवाई झूले की सैर। टॉकीज और आर्केस्ट्रा में घुसने का रोमांच, जादूगर के हैरतअंगेज करतब। नींबू, धनिया, पुदीना, टमाटर से सजा चना मसाला खाना, गुब्बारों पे निशाना लगाना, गोलगप्पे का जायका, धार्मिक गीत, आरती, चालीसा और फिल्मी गानों की किताबें खरीदना, बीच-बीच में खूब शोर-शराबा और फिर एकाएक किसी बच्चे का गुम हो जाना..!

कभी सोचा नहीं था कि लिखने-पढ़ने-कहानी-किताबों-कविता का भी मेला लगेगा। जयपुर में लगता है हर साल। दुनिया भर से लिखने-पढ़ने वाले आते हैं और उनकी फैन-फॉलोइंग जुटती है। इस साल मेले के चार दिन बीत चुके हैं। देश-दुनिया के हजारों लोगों की भीड़ डिग्गी पैलेस का रुख कर चुकी है। बाहर चाय सात रुपए में बिक रही है और अंदर के तो भाव ही न पूछिए। लंदन से आईं कैरिना कुल्हड़ की चाय पीने के लिए पंद्रह मिनट तक जद्दोजहद करती हैं, लेकिन जैसे ही ओप्रा विन्फ्रे मंच पर आती हैं, वे सब भूल-भालकर कुल्हड़ और ब्रोशर संभालतीं स्टेज की तरफ बढ़ चलती हैं।

कल की ही तो बात है। शानदार हवेली जैसे होटल डिग्गी पैलेस में दीवारें गुलाबी रंग से रंगी थीं। संतरी-लाल, पीली-हरी झालरों से आसमान ढंका था। हर तरफ बड़े-बड़े कैमरे घूर रहे थे, लेकिन फ्रंट लॉन के बाहर, झरोखे में बैठी एक गोरी-चिट्टी अंगरेज लड़की एक किताब पढ़ने में ऐसी मशगूल थी, ज्यूं ध्यान लगा रही हो। उसे देखते ही जैसे कानों में गूंजने लगा — एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा.. ए लो, तभी बगल से इस गीत के गीतकार जावेद अख्तर निकल लिए।

गुलजार की झलक भर ही मिली। भीड़ उन्हें छू लेने को बेताब थी, पर शेखर कपूर, दीप्ति नवल, अशोक चक्रधर और अशोक वाजपेयी बगल की कुर्सियों पर बैठे थे। अपनी मशहूरियत, ऊंचे कद के बोध से एकदम अलग। खुशी तब भी होती है, जब आप देखते हैं, दरबार हॉल में घुसने के लिए जितनी मशक्कत आपको करनी पड़ रही है, केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल भी उतनी ही कोशिश में जुटे हैं। अगर आप सिब्बल से पहले अंदर घुस गए तो ‘हुर्रा’ करेंगे ही।

साल-दर-साल लिटरेचर फेस्टिवल में भीड़ बढ़ रही है। कहने वाले कहते हैं, लिटरेचर मिसिंग है, बस फेस्टिवल बचा है, लेकिन ये महज बातें हैं। क्या खुशी की बात ये नहीं है कि जिस साहित्य को लेकर दैन्यता, मुफलिसी की बातें होती हैं, उसके आकर्षण में सारी दुनिया की सेलिब्रिटीज खिंची चली आती हैं। हम भारतीय स्वभाव से ही उत्सव प्रेमी होते हैं, सो अक्षरों के उत्सव में भी शामिल हो रहे हैं, जोर-शोर से। आदतन खाते-पीते-बतियाते, तारीफें कर रहे हैं और जरूरत के हिसाब से आलोचना भी।

वैसे, मुझे तो जेएलएफ में शामिल होकर बचपन में सुनी, कवि कैलाश गौतम की कविता अमौसा का मेला की ये पंक्तियां याद हो आईं - एही में चंपा-चमेली भेंटइली/बचपन के दुनो सहेली भेंटइली/ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें/दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें..

शादी के दस साल बाद कहीं मिली सहेलियां जैसे बतिया रही हों, वैसे ही मेले में कितने ही पुराने परिचित मिले और गपियाने लगे। आए तो थे सब के सब किताबों की महक को दिमाग में बसा लेने, लेकिन जब मिले तो सारे काम भूलकर एक-दूसरे को खुद में समेटने लगे। ऐसे में कहें तो बड़े काम की चीज है ये मेला.. विचारों का मेला और यारों का मेला।

 
 

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