कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, March 17, 2012

कुछ कविताएं आज की...

- चण्डीदत्त शुक्ल @ 8824696345

जागती है मेरे जन्म की हर रात

हां,
बाकी है बहुत कुछ
तुम्हारा मुझ पर.
शेष हो तुम भी कहीं मुझमें,
एक जरूरी बोझ की तरह।
ज्यूं,
पनघट से घर लौटते हुए
पानी से भरी मटकी सिर दुखाती बहुत है
पर उसी तेजी के साथ
हल्का कर देती है प्यास से भरी देह।
तुम्हारी कृतज्ञताओं के कंबल में,
ठिठुरता है मेरा वर्तमान
और दहकता हुआ देखो गुलाबी अतीत।
तुम्हारा स्वप्न होना जीवन का,
किस कदर जगा गया है
मेरे जन्म की हर रात।


ठहरी रहना किसी मोड़ से गुजरते हुए


सारे अच्छे लड़के
शादीशुदा हैं,
या फिर समलैंगिक--
कहीं पढ़ा था मैंने
और
कह रहा हूं
इसी वाचिक हिंसा से भरकर
सारी लड़कियां,
जिन्हें हम प्यार करते हैं,
होती हैं कुछ दूसरे ही किस्म की।
वे या तो रहती हैं किन्हीं और चीजों के प्रेम में
या फिर
स्वप्नों के दंश से झुलसी हैं उनकी इच्छाएं।
अपने अस्तित्व में पिघलते देख
हमारी देहों का बोझ
दोहरी होती हैं हंस-हंसकर
फिर भी नहीं देती हैं खुद का एक कतरा भी!
लगाव की ये सब यात्राएं चुक गई हैं
बालू से तेल निकालते हुए।
तुम,
ठहरी रहना किसी मोड़ से गुजरते हुए
एक निर्जन रास्ते पर।
मैं आऊंगा तुम्हारे उपयुक्त बनकर,
तुम तो हो ही
सनातन मेरी प्रियपात्र।

2 comments:

अव्यक्त अभिषेक said...

तपती दोपहरी में ठंडी बयार सी कवितायें।

Unknown said...

सर जी आपका भी जवाब नहीं....