कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, July 26, 2009

हिंसा है गीतों में अश्लीलता--शारदा सिन्हा


सरसों के खेतों की खुशबू से लहकी पुरवाई, कूकती कोयल, परदेसी पति को याद कर बिदेसिया गाती पनिहारिनें और मेड़ किनारे गमछा बिछाए कलेवा करते किसानों की परछाइयां, इस परिवेश का ही असर था जो होश संभाला तो पता चला कि कदम खुद ही कला की राह पर चल चुके थे। पांच-छह साल की उम्र रही होगी। मैं अकसर एकांत में कोई न कोई गीत गुनगुनाती, गीत पर अभिनय करती और झूमती रहती। एक दिन पिता श्री शुकदेव ठाकुर ने ऐसे नृत्य करते देख लिया। बोले, 'नृत्य सीखना चाहती हो?' मैंने सिर हिला दिया और शुरू हो गया यह सफर।
हंगामा हो गया
उन दिनों गांवों में दुर्गापूजा का भव्य आयोजन होता था। इसी आयोजन में मैंने एक बार भजन पेश किए। उसी बीच पिता ने पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में दाखिला करा दिया था। गांव की लड़की गायन या नृत्य सीखे, यह बात किसी के गले नहीं उतरी थी। मेरी मां भी इसके पक्ष में नहीं थीं, लेकिन पिताजी के आगे किसी की नहीं चली। भारतीय नृत्य कला मंदिर में मैंने मणिपुरी नृत्य सीखा। तब हरी उप्पल उसके निदेशक थे। वे हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते। उन्हीं दिनों तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन आए। मैंने उनके सामने मणिपुरी की एक शैली कृष्णविसार प्रस्तुत की। दूसरी पेशकश थी राधाविसार की। उसी समय मेरे दाएं हाथ में फ्रैक्चर हो गया था। गुरु अंतरेंबा दास भी वहां मौजूद थे। नृत्य करने से मना करने का प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन संकट यह था कि कृष्णविसार और राधाविसार की प्रस्तुतियों में तेज गति से दौड़ते हुए मंच पर आना था और मुद्राओं की पेशकश के लिए हाथ सही होना जरूरी था। फिर भी मैंने नृत्य किया और मुद्राओं की सही अभिव्यक्ति भी। बाद में गुरु जी को पता चला तो उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'शारदा, तुम जरूर नाम करोगी।'
इस बीच शादी हो गई। पति बृजकिशोर सिन्हा उन दिनों साइंस कॉलेज, समस्तीपुर में राजनीति शास्त्र के लेक्चरर थे। वे हमेशा प्रोत्साहित करते। शादी के बाद भी मैंने दो नृत्य प्रस्तुतियों में हिस्सा लिया। एक बार तब जब बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग हुआ था। मैंने शांति सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए नृत्य कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। दूसरी बार बांकीपुर में एक नृत्य कार्यक्रम दिया।
मिला जीवनसाथी का साथ
पिता की तरह ही पति का भी सहारा अगर न मिला होता तो शायद मैं इस मुकाम पर न पहुंच पाती। मुझे याद है, पहली बार जब मैं ससुराल गई, तो सास ने स्पष्ट कहा, 'गाना है, तो भजन गाओ। वह भी घर की दहलीज में या फिर घर छोड़ दो।' उस मुश्किल में किसी ने साथ दिया, तो वह ससुर जी थे। पति ने भी सासू मां से कहा, 'शारदा मेरे लिए किसी वरदान की तरह है। उसकी प्रतिभा का सम्मान कीजिए।' जब सास ने देखा कि सब साथ दे रहे हैं, तो वे भी शांत हो गई।
जीवन में सबको एक मौका जरूर मिलता है, जब वह खुद को साबित कर सकता है। मुझे भी मिला। 1971 में एचएमवी ने एक टैलेंट सर्च किया था। लखनऊ में ऑडिशन होना था। ट्रेन देर से पहुंची, इसलिए आराम भी न कर पाई और जाते ही ऑडिशन में बैठना पड़ा। तरह-तरह के लोग इकट्ठा हुए थे। कुछ तवायफें भी पहुंची थीं और भी कई तरह के गवैए। उस समय एचएमवी की ओर से रेकॉर्डिग मैनेजर जहीर अहमद, संगीतकार मुरली मनोहर स्वरूप वगैरह मौजूद थे। भीड़-भड़क्का देखकर जहीर अहमद घबरा ही गए। उन्होंने सबको एक सिरे से अयोग्य घोषित कर दिया। मैं तो बहुत घबराई लेकिन पति ने दिलासा दिया। वे जहीर अहमद से मिले। खैर, किसी तरह दोबारा रिकार्डिग हुई। मैंने गाया, 'द्वार के छेकाई नेग पहिले चुकइयौ, यौ दुलरुआ भइया।' यह भी संयोग ही है कि एचएमवी के वीके दुबे उसी समय पहुंचे। मेरी आवाज सुनी तो लगभग चिल्लाते हुए बोले, 'रेकॉर्ड दिस आर्टिस्ट!' उस समय एक डिस्क में दो ही गाने होते थे। संस्कार गीतों की डिस्क एचएमवी ने रेकार्ड की। 'सीता के सकल देखी..' गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। फिर जो कदम चल पड़े तो रुके नहीं। अब तो जैसे जमाना बीत गया है, गाते हुए।
कहे तोसे सजना
मेरा सबसे प्रसिद्ध फिल्मी गीत है, 'कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनियां..।' संस्कार गीतों का स्पर्श यहां भी साफ है। विद्यापति के गीतों पर आधारित एक सेमी क्लासिकल सीडी, 'ए ट्रिब्यूट टु मैथिल कोकिल विद्यापति' को मैंने स्वर दिया था। पंडित नरेंद्र शर्मा ने उसमें कमेंट्री की थी। राजश्री प्रोडक्शंस के ताराचंद बड़जात्या ने वह एलबम सुना और मुझे पत्र लिखा। उन दिनों 'माई' फिल्म की रिकार्डिग चल रही थी। मैं बड़जात्या जी से मिली। उन्होंने कहा, 'मैं एक फिल्म बना रहा हूं, 'मैंने प्यार किया'। उसमें लोकधुन पर आधारित एक गीत है। आप वह गीत गा दें।' गीत की रिहर्सल होने लगी। इस गीत की धुन तैयार करते वक्त संगीत निर्देशक रामलक्ष्मण ने टी सीरीज द्वारा रिलीज मेरे ही एक एलबम 'खइलीं बड़ा धोखा..' के गीत 'कइनीं का कसूर तनी अतनै बता दा..' के संगीत का इस्तेमाल किया। फिल्म की थीम को प्रोजेक्ट करते हुए गीत को लोगों ने बहुत पसंद भी किया।
इसी तरह 'हम आपके हैं कौन' फिल्म का गीत 'बाबुल जो तुमने सिखाया..जो तुझसे पाया, सजन घर ले चली..' भी मेरे ही एक गीत की ट्यून पर आधारित था। ये दोनों गीत मेरे लिए अथाह लोकप्रियता लेकर आए और यह विश्वास भी दिलाया कि सारे देश को अपनी मिट्टी की छुअन अपनी ओर अब भी खींचती है।
इस हवा में खुशबू कहां
इस खुशी के बावजूद दुख इस बात का है कि भोजपुरी गीतों की हवा अब जहरीली होती जा रही है। जिस तरह लोग शब्दों की हिंसा कर रहे हैं, भाव-भंगिमाओं से लेकर गायन के अंदाज तक अश्लीलता को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे निराशा तो होती ही है। यह अश्लीलता संगीत के साथ हिंसा ही है, लेकिन एक बात साफ है। अच्छी चीज ही टिकती है। मुझको याद है, पहले भी अश्लीलता फैलाई जाती थी, लेकिन वह टिकी नहीं। इसलिए मुझे उम्मीद है कि यह अश्लीलता भी टिक नहीं पाएगी। अपने देश की परंपरा बहुत समृद्ध है, उसका आनंद लेने के लिए अश्लीलता की छौंक लगाने की जरूरत नहीं है। ऐसा करके हम भविष्य के सामने कुछ खराब उदाहरण ही रखेंगे।
हर ओर व्यावसायिकता
एक बात पर और दुख होता है कि लोग व्यावसायिक बहुत हो गए हैं। महानगरों में धुनें बनती हैं। ऐसे लोग उन्हें कंपोज करते हैं, जो कभी बिहार, बनारस गए तक नहीं। अब तो डर लगता है, कोई आपकी चीज लेकर खुद की न बता दे और उसमें अपनी मनमानी बात भी न डाल दे। आजकल के बच्चे तो जन्म लेते ही गायक-गायिका बन जाना चाहते हैं। अब तालीम है नहीं और सफल भी होना चाहते हैं, तो करेंगे क्या? कुछ इधर-उधर से जोड़-जाड़कर गा-बजा लेते हैं। नतीजा सामने है। पहले के गीतों में मधुरता होती थी, जीवन के एहसास होते थे। अब के गानों की जिंदगी तो 15 दिन और एक महीने की होकर रह गई है। हर तरफ शोर ही शोर है। यह और भी ज्यादा दुखद है, क्योंकि अब तो सुविधाएं बढ़ी हैं, उस लिहाज से गुणवत्ता भी बढ़नी चाहिए, लेकिन वह तो रसातल में जा रही है। इन दिनों मैं चैतन्य श्री के निर्देशन में भिखारी ठाकुर पर बन रही फिल्म, 'चल तमाशा देखें' के सभी गीत गा रही हूं। संजय उपाध्याय ने बहुत बढि़या संगीत दिया है और मुझे भी इस फिल्म में बारहमासा और बिदेसिया गाकर बहुत अच्छा लगा। ऐसे गीत गाकर लगता है कि हमने अपनी जमीन को कुछ दिया है। आजकल तो सूरत ही बदल गई है। संगीत निर्देशक कलाकारों पर हावी होने लगे हैं। अब हर कलाकार विरोध नहीं कर पाता, लेकिन ऐसा होना चाहिए।
सम्मान की तलाश में स्त्री
जहां तक स्त्री को सम्मान मिलने की बात है, उसके लिए संघर्ष अब भी जारी है। खुशी की बात है कि स्त्री अपनी शक्ति को समझ रही है। जहां तक मेरी अपनी बात है, मुझे बचपन से लेकर आज तक बहुत संघर्ष झेलना पड़ा है, लेकिन इससे हताश होकर भी काम नहीं चलता। यही वजह है कि मैं कभी नहीं झुकी। अब स्थितियां बदली हैं। आज की स्त्री को ऐसी साधारण समस्याओं का सामना उतनी तीव्रता में नहीं करना पड़ रहा, लेकिन प्रतिष्ठा और स्थापना की समस्या अब भी है ही। कई बार आपको अपनी मौलिकता बचाए रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। पिछले 10 साल से मैं खुद अपने गीतों का दुरुपयोग रोकने के लिए संघर्ष कर रही हूं। इतने यत्न से हम गीत तैयार करते हैं, पता चलता है कि रिकार्ड रिलीज होने के अगले ही दिन किसी अनजाने से गायक का रिकार्ड बाजार में आ जाता है, लेकिन इससे हताश होकर चुप बैठ जाने से धोखाधड़ी के मामले और बढ़ेंगे। जहां तक प्रतिष्ठा पाने की बात है, तो उसे हासिल किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए दो बातें जरूरी हैं। एक तो हमारा लक्ष्य पक्का हो, दूसरे हम किसी की अनुचित बात न मानें और डटे रहें। अगर ऐसा हम कर पाए, तो एक न एक दिन मंजिल जरूर मिलेगी।

दैनिक जागरण की पत्रिका सखी में प्रकाशित साक्षात्कार

1 comment:

Anonymous said...

शारदा सिन्हा जी को अक्सर सुनती हूं .मेरे एक मित्र उनके जबरदस्त फेन है .ये अफ़सोस की ही बात है कि प्रादेशिक कलाकार की लोकप्रियता क्षेत्र विशेष तक सिम्त कर रह जाती है. हिंदी फिल्मे एक बहुत बड़ा मंच है अपनी राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए. शारदा जी ही को नही किसी भी लोक कलाकार को हिंदी फिल्स को एक मंच जो उनकी कला को अधिक अधिक से लोगों तक पहुंचाए,उसका सहारा लेना ही चाहिए.
आपके गीतों का एक स्तर आपने हमेशा कायम रखा .मैं इसी करण शारदा जी को दिल से प्यार भी करती हूं.