कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, April 25, 2010

फिर गूंजे चाहत संगीत


तुम मेरे लिए नहीं थे पड़ाव भर
ना ही किसी तृष्णा की तुष्टि का साध्य
फिर क्यों
कुंठाओं की धरती पर बलिदान हुआ हमारा प्रेम
पूछता है मेरे प्रेम का ज़िद्दी राग, मुझसे ही जोर-जोर से
हृदय अब भी चाहता है...
बना रहे राग
पर
रात भर, मंद-मंद कर रिसता है
कानों में
कुहुक नहीं,
कसक बन
काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत

3 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

रात भर, मंद-मंद कर रिसता है
कानों में
कुहुक नहीं,
कसक बन
काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत
बहुत सुन्दर कविता. बधाई. कोलाहल थमने की ये इच्छा काश, पूरी हो सकती!!

अजय कुमार झा said...

ओह फ़िर गूंगे चाहत संगीत .........सुनने को उद्दत बैठे हैं हम

Alpana Verma said...

काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत

-बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति.