कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, July 10, 2010

एक कविता



ज़मीन बिछी / क़दमों तले / तब / तलाशता रहा / खड्डे / छलने के निशान 
अब / धरती पपड़ा गई / और मैं / गिड़गिड़ा रहा--
पुरखों की मिट्टी / ना बिके  / सजावटी गमले / बनकर 
लाल ना होने दो / सुरमई शामें / आंख रखते ही / वहां / आ जाती थी नींद
डरा हूं / कहीं / चोरी ना हो जाए/ रात के नयनों का काजल
गीली मिट्टी / सन जाती थी / दांतों के साथ / चुभलाता रहा / दरदरी-सी जीभ / अपनी ही 
ना सूखने पाए / उस सुधा का रस / भंवरे / चूस ना लें / अमृत-स्रोत
ना ढहें / मेरे हिस्से के पहाड़ / इनमें कमंद फंसाकर/ नापी थी ऊंचाई /जाना जीवन सुख / हरारत भरे होंठों में भर ली/ बर्फीली ठंडक 
देखता हूं / पिघल रही / क़तरा-क़तरा बर्फ / बची रहने दो पहाड़ी / जहां फूटता है / ममता का सोता / जो भर देता है / भूख भरा पेट / अंदर के शिशु का 
सलामत है नदी / मुंह लगाते ही / बुझी हर बार / प्यास की आग / 
बनी रहने देना ज़िंदगी...















4 comments:

awesh said...

मै सिर्फ ख़ामोशी से पढ़ सकता हूँ चंडीदत्त शुक्ला ,एक एक शब्द पहली बरसात में उठती मिटटी की खुशबु से सराबोर करते हुए अपने पास बुला रहे हैं ,में बीते कल की ओर लौट रहा हूँ गनीमत है जमीन वही हैं जहाँ वो कल थी ,नदी और पहाड़ मुझे देखकर मुस्कुरा रहे हैं ,अब अजनबी चेहरे उन्हें पसंद नहीं आते |

shikha varshney said...

क्या कहूँ कुछ समझ नहीं आ रहा ...बस पढकर आँख बंद करने को जी चाहता है.

Anamikaghatak said...

shabdo ka chayan ati sundar

manzil said...

चंडी सर आप मेरे ब्लॉग गुरु हैं, आशा है भविष्य में आप इसी तरह की कविताओं के माध्यम से हमें कुछ नया सीखने का मौका देते रहेंगे...