कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, September 7, 2010

क्यूंकि आज शिक्षक दिवस नहीं है





एक नज़ारा…

- राजस्थान के अजमेर जिले के विजयनगर स्थित बड़ा आसन गांव के निजी स्कूल में छोटी-सी बात पर शिक्षक ने छात्र से ईंटें उठवाईं और फिर जमकर पीटा
- एक कला विद्यालय के छात्र की पेंटिंग्स जला दी गईं, परिणाम–भविष्य का ख़ूबसूरत कलाकार ‍विक्षिप्त हो गया…

और ये राह भी…

- गरीबी से जूझ रहे एक बच्चे की शिक्षक ने मदद की, उसे आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया…आज वही छात्र इंजीनियर है…
- पहली बार क्लास में ना बोल पाने वाले छात्र की हिचक ऐसी दूर की कि वो अब एफएम चैनल में रेडियो जॉकी है…

टीचर-स्टूडेंट के रिश्तों में बदलाव की वज़हें हैं ख़ास, इन्हें समझना भी है ज़रूरी

चौथाई सदी गुज़र गई होगी अब तो…जब मैं तीसरी-चौथी क्लास का स्टूडेंट रहा होऊंगा…जाड़े की एक थराथराती सुबह, कोहरे से दो-दो हाथ करते हुए जैसे ही प्राइमरी स्कूल के भुतहा लगने वाले कमरे में पहुंचा, बिना किसी दुआ-सलाम, हाल-चाल के हाथ पर फटाक से स्केल बज गई…बड़े हीरो बने घूम रहे हो, होमवर्क करके नहीं लाए हो ना…। ये थे घिर्राऊलाल…। नाम तो कुछ और ही होगा, लेकिन बच्चों को घसीट-घसीटकर (अवधी में घिर्राकर) पीटते थे, इसलिए उन्हें अपन सब के सब घिर्राऊलाल ही कहने लगे थे…
और इसके बारह साल बाद…बीए में सचमुच छैलाबाबू बनने के समय, एक दिन जब एक्स्टेंपोर कंप्टीशन में ज़बान लड़खड़ा गई, पांव कांपने लगे, अल्फाज़ दिमाग का साथ छोड़, हाथ छुड़ाकर भाग निकले, तो सामने से बस एक मुस्कान तैरती हुई आई और सारा काम बन गया…ये मुस्कराहट थी शैलेंद्र संभव की…हिंदी टीचर…ख़ैर, जब शील्ड को माशूका की तरह सीने से लगाए हॉल से बाहर निकला, तो मिठास से सना एक ही वाक्य कानों तक पहुंचा…ये हुई ना बात! डरते क्यों हो मेरे मिट्टी के शेर…। मस्त रहा करो।
अब मैं कोई सेलिब्रिटी नहीं, ना ही मेरे ये दोनों टीचर किसी भी पद्मश्री, श्रेष्ठ शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित गुरु कम नेता हैं, जो आप ये दास्तान और सुनना चाहें…, लेकिन मेरे जैसे लद्धड़ (बोले तो कमज़ोर) और घिर्राऊ मार्का सख़्त व शैलेंद्र जैसे ममतामयी शिक्षक पूरी हिंदी पट्टी के शैक्षणिक जगत के ज्यादातर चेला-गुरु परंपरा के प्रतीक हैं…, यानी एक नुकीले पत्थर की तरह ज़ोर-ज़बर में यक़ीन करने वाला, तो दूसरा–मिसरी घोलकर शिष्य को सही राह पर ले जाने वाला…।
यूं, ये सवाल उठ सकता है कि गुरु की याद पांच सितंबर को ही क्यों आती है? पूरे साल क्या इनकी ज़रूरत नहीं होती, मन में, दिमाग़ के किसी कोने में मास्टर जी की इमेज क्यों फ्लैश नहीं होती…? सो दिन विशेष पर ही किसी की बात क्यों हो, पूरे समय उनकी महानता-काम की चर्चा क्यों ना की जाए, ये बड़ी बहस का मुद्दा है और फ़िलहाल, इसमें ना फंसते हुए मैं तो यही कहूंगा–गुरु, तभी राह दिखा पाते हैं, जब वो बड़े भाई जैसे भरोसेमंद और मज़बूत हों…ऐसे गुरु अंधकार से बाहर नहीं निकाल पाते, जो गुरु घंटाल होते हैं, ना ही ऐसे मास्टर साहब, कोई राह दिखा पाते हैं, जो बस नाज़ुक दोस्त की तरह हां में हां मिलाते हैं…।
सो आप कहेंगे, मटुक छाप गुरु क्या हैं? और वो शाहरुख की कौन-सी फ़िल्म थी, शायद–‘मैं हूँ ना’, जिसमें वो साहब सुष से लव-लेक्चर सुनना चाहते हैं…तो ऐसों के बारे में फ़िल्मियाना अंदाज़ में ही डॉयलॉग सुना दें–ये सब गुरु जैसे प्रोफेशन पर धब्बा हैं, लेकिन इतने से तो हल निकलने वाला नहीं है…। फिर कहें क्या…समझें क्या…। समझने वाली बात ये है कि जैसी सोसायटी है, लोग हैं, रिश्तों का उलझाव है, वैसे ही आजकल के गुरु भी हो गए हैं।
वैसे भी, मास्टरी सबसे सुविधाजनक प्रोफेशन मान लिया गया है, जहां रहकर कोचिंग, ट्यूशन, छुट्टियां जैसी सौगात आसानी से हासिल की जा सकती है, वहीं जब चाहें तब पॉलिटिक्स करने निकल पड़ें। यक़ीन नहीं होता, तो देश के कई बड़े नेताओं को देख लीजिए…जो टीचर थे, या फिर अब भी हैं…लेकिन आराम से एमएलए, एमपी बन रहे हैं।
…अब उठता है बड़ा सवाल…हमें ऐसे ही गुरु चाहिए थे, जो टीचिंग जैसे नोबेल प्रोफेशन को अपनी कुंठाएं शांत करने, ख्वाहिशें परवान चढ़ाने में इस्तेमाल करें? ऐसे में प्रतिप्रश्न भी खड़ा होगा–क्या ऐसे ही स्टूडेंट होते हैं, जो अपनी टीचर को प्रपोज़ करने का मौका भी नहीं छोड़ते। सवाल बहुत हैं, कन्फ्यूजन भी हज़ार हैं, लेकिन इन सबका जवाब वही है–हर पेशा और पेशेवर सोसायटी के उलझाव से अछूता नहीं है और उसका असर ही टीचिंग जैसे प्रोफेशन पर भी दिख रहा है…। और हल–वही, टीचर बड़े भाई जैसा ही हो।
हिंदी साहित्य में जिन नौजवानों ने धमकदार हस्तक्षेप किया है, उनमें विनीत कुमार का नाम खास है, तो लगे हाथ उनकी बात सुन लेते हैं। चर्चित ब्लॉगर विनीत कुमार किसी एफएम चैनल पर दिन भर चली एक बकवास का हवाला देते हुए अपने ब्लॉग पर निजी स्कूल की टीचर का एक्सपीरिएंस सांझा करते हैं–बच्चे कैसे पहले से कई गुना स्मार्ट हो गए हैं, ऐसे बहाने बनाते हैं कि आप चाहेंगे कि आपको भी ऐसे ही बच्चे मिलें…। बीते बरस के टीचर्स डे पर विनीत को निजी रेडियो ने ऐसा-ऐसा धमाल सुनाया कि उन्हें जान तेरे नाम का गाना…माना कि कॉलेज में पढ़ना चाहिए…रोमांस का भी एक लेक्चर होना चाहिए…याद आ गया…। बात बस विनीत की ही नहीं, जो बताते हैं कि आजकल बच्चे (यानी हर उम्र के छात्र-छात्राएं) कुछ ज्यादा ही फ्रैंक हो गए हैं। वो टीचर को एक सिम्पैथी बॉक्स की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, हर युवा के दिमाग में ये सवाल पनपने लगा है कि प्राइमरी से स्कूल और फिर कॉलेज तक जाते हुए टीचर का रंग-रूप-चेहरा किस क़दर बदले, कितना बदले और ये रिश्ता कैसे परवान चढ़े…कैसा हो?
गुज़रे साल दस्तक के 41वें अंक में राजेश्वरी की एक कविता छपी थी–शिक्षक! मेरे बच्चे को रट्टू तोता मत बनाना / उसे अक्षर बताना / शिक्षक! मेरे बच्चे को लूट की तरकीब मत बताना… आज वो बहुत याद आ रही है…क्योंकि ये कविता नहीं, चिंता है…हर पिता-मां की, जो स्कूल-कॉलेज में टीचिंग के गिरते स्तर और शिक्षक-स्टूडेंट संबंधों के उलझाव में उलझा है।
आइए, इसी सिलसिले में कुछ ख़बरों पर नज़र डाल लेते हैं…
- मोहाली के नया गांव में 10 साल की एक लड़की के यौन शोषण के आरोप में स्कूल का वाइस प्रिंसिपल गिरफ्तार।
- गुस्साई भीड़ ने भांडुप के किंग जार्ज हिल्स स्कूल के आरोपी अंग्रेजी अध्‍यापक की पिटाई की…शिक्षक ने छात्राओं के अश्लील एमएमएस बनाए थे…
- धर्मनगरी कुरुक्षेत्र में छात्राओं के साथ शिक्षकों ने छेड़छाड़ की
और हां…कुछ आंकड़े भी देखने की ज़रूत है…
- 19 फ़ीसदी प्राइमरी स्कूलों में केवल एक टीचर है।
- 10 फ़ीसदी प्राइमरी स्कूलों में ब्लैक बोर्ड नहीं है।
- 25 फ़ीसदी प्राइमरी स्कूल टीचर अपने काम से ग़ैरहाज़िर रहते हैं।
हो सकता है, पाठक कहें कि बात तो रिश्तों की हो रही थी, जो आमतौर पर स्कूल (यानी हाईस्कूल) और कॉलेज में (ग्रैजुएशन, पीजी) के दौरान पनपते-बढ़ते हैं, फिर प्राइमरी पढ़ाई के समय हुए क्राइम की बात क्यों, उसके आंकड़े क्यों…इन पर नज़र डालना इसलिए ज़रूरी है…क्योंकि शुरुआती स्तर पर जो विचलन शुरू होता है, वही पूरे पारिदृश्य पर असर डालता है।
सरकार की महत्वाकांक्षी योजना शिक्षामित्र पर ग्रहण लग चुका है। गांवों के पंच-सरपंचों के रिश्तेदार इस योजना में ऐसे टीचर बन रहे हैं, जिन्हें स्कूल जाने की ज़रूरत नहीं, इच्छा नहीं है। ऐसे ही देश के हज़ारों गांवों-कस्बों में अब भी दलित टीचर्स को उचित सम्मान नहीं मिलता। यूपी के बहुतेरे स्कूलों में मुख्यमंत्री मायावती की उस योजना के परखचे उड़ा दिए गए हैं, जिसमें वो दलित महिला के हाथों का पकाया भोजन मिड डे मील में परोसने की ताकीद कर चुकी हैं…।
हमारा मंसूबा, मंतव्य और इरादा ये नहीं कि राजनीतिक-सामाजिक छुआछूत और समीकरणों की व्याख्या करें, लेकिन समस्या की जड़ें तलाशनी तो ज़रूरी हैं। अगर शिक्षक स्वार्थी, अपराधी और आलसी नज़र आ रहे हैं, तो क्या इसकी सारी वज़ह उनका अवसर-पसंद, अवसरवादी होना है? बेशक नहीं!
ढर्रे पर थमी, रटी-रटाई, नोट्स बनाने, पुर्जियां तैयार करने और कॉपी में कट-पेस्ट कर ज्ञान-वमन करने की पद्धति पर चर्चित लेखक महेश पुनेठा एक लेख में सवाल खड़ा करते हैं–स्कूलों को सृजनशीलता की कब्रगाह तो नहीं बना रहे हैं? हालांकि वो भी मानते हैं कि आज के माहौल में ना शिक्षक के लिए सृजनशील होने की परिस्थितियां हैं और ना बच्चों के लिए…पुनेठा का तर्क भी वही है कि बाजारवादी व्यवस्था मनुष्यों के पृथक्करण और अमानुषीकरण के जरिए उनकी सृजनात्मक शक्तियों को कुंठित कर रही है…।
डरा-धमकाकर जिस स्कूली शिक्षा की नींव बच्चे के कोमल मन पर पड़ती है, वो कॉलेज तक पहुंचते हुए अगर शिक्षक को भी काहिल और अवसरवादी या फिर प्रेमी-प्रेमिका समझने, मानने की समझदारी पैदा कर दे, तो इसमें किसका दोष कहेंगे? शिक्षक मटुकनाथ जैसे होने लगें? छात्राओं का एमएमएस बनाने लगें, तो क्या टीचिंग के पेशे पर ही सवाल खड़े कर दिए जाएं? साफ़तौर पर ये बात माननी होगी कि बहुत-से शिक्षक अब गुरु नहीं रहे…लेकिन उन्हें ऐसा बनने-बनाने की प्रेरणा और फ़ोर्स तरक्की-पसंदगी के नाम पर भटके हुए समाज से ही मिल रही है। उन अभिभावकों की भी कम ग़लती नहीं, जो अपने बच्चों को किसी भी क़ीमत पर रट्टू तोता बनाकर, इंजीनियर और डॉक्टर की शक्ल में ढाल देना चाहते हैं। ऐसे ही कुछ पुराने लोगों का भी कम योगदान नहीं, जो शिक्षक रहते हुए बा
की सबकुछ बन गए, भले ही टीचर नहीं रहे…। शिक्षकों को दोष देते हुए हम ये क्यों भुला देते हैं कि हम बच्चों को मास्टर बनने की प्रेरणा नहीं देते।
हिंदी फ़िल्में ही देख लीजिए, शिक्षकों के एक से एक डिब्बामार्का पोट्रेट मिल जाएंगे। यहां या तो गुरु भगवान है या फिर फटीचर। फिल्मी टीचर लाचार-कमज़ोर, आदर्शवादी बातें करते हैं या कुछ आगे बढ़ जाएं, तो हिटलर की छवि लेकर नज़र आएंगे। ‘मोहब्बतें’ और ‘मेजर साब’ में अमिताभ बच्चन कड़क हैं, लेकिन ‘कसमे वादे’ और ‘ब्लैक’ में आत्मीय गुरु का चरित्र है। अब इसमें सिर्फ ब्लैक ऐसी फ़िल्म है, जिसमें देवराज सहाय सरीखा चरित्र ही गुरु के रूप में हर स्टूडेंट चाहेगा…और हां, आमिर खान जैसा ‘तारे जमीं पर’ का टीचर…। फ़िल्मी टीचर की बात करें, तो ‘स्वदेस’ में गायत्री जोशी, ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और थ्री ईडियट्स में बोमन और ‘कल किसने देखा’ में ऋषि कपूर के किरदार भी याद आते हैं…तीनों अलग-अलग तरह के।
ये सबकुछ जानने के बाद समझना मुश्किल नहीं कि टीचर के बारे में सोचते वक्त स्टूडेंट के चेहरे पर मुस्कान कम क्यों उभरती है, खीझ या फिर किसी और किस्म की लालसा ही जगह क्यों पाती है? बच्चे भी जानते हैं, ये गुरु भगवान वाली किस्म के नहीं हैं और अध्यापक भी समझ चुके हैं कि बात उतनी सीधी-सादी और गौरवमयी नहीं रही, जितनी पुराने ज़माने में थी।
इन हालात में शिक्षक दिवस मनाने का भी तभी मतलब निकलेगा, जब टीचर अपने पेशे की ज़िम्मेदारियां समझें, छात्र उनका यथोचित सम्मान करें, समाज भी समझे कि गुरु पेड सरकारी नौकर भर नहीं है…और टीचर बदलते वक्त की ज़रूरत के मद्देनज़र छात्र-छात्राओं के साथ दोस्त जैसा नहीं, पर बड़े भाई जैसा व्यवहार ज़रूर करें।

(लेखक टीवी पत्रकार हैं और एक पत्रकारिता विद्यालय में स्क्रिप्ट राइटिंग विशेषज्ञ के रूप में पढ़ाते भी हैं)


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  चण्डीदत्त शुक्ल :  ये आलेख जयपुर के हिंदी अख़बार डेली न्यूज़ की साप्ताहिक परिशिष्ट हमलोग 
   <http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/05092010/Humlog-Article/17836.htmlमें और              पोर्टल... नेटवर्क-6 <http://www.network6.in/2010/09/06/क्यूंकि-आज-शिक्षक-दिवस-नह/> पर भी आ चुका है।



2 comments:

माधव( Madhav) said...

eye opener post

rashmi ravija said...

'शैलेन्द्र संभव' जैसे शिक्षक आजकल बहुत कम होते हैं जो बच्चों के छुपे गुणों को पहचान कर उन्हें आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करें और उनमे आत्मबल जगाएं....पर इसकी क्या वजहें हैं...क्यूँ शिक्षण का स्तर गिरता जा रहा है और क्यूँ समर्पित शिक्षकों की इतनी कमी हो गयी है...आपने अच्छी तरह प्रकाश डाल है उनपर.
बहुत ही तथ्यपरक आलेख.