कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, February 15, 2011

बिना पते और स्टैंप के एक चिट्ठी

गुज़रा हुआ प्रेम बिसार पाना मुश्किल होता है, तक़रीबन नामुमकिन। कोई जगह, कोई लमहा सबकुछ लेकर आ जाता है सामने। यादों की ऐसी ही एक पोटली…एक चिट्ठी, उसके नाम, जो जिस्म से साथ नहीं है पर यादें अश्क बनकर आंख में मौजूद हैं और धड़कन की शक्ल में दिल के बीच ज़िंदा…। फिज़ाओं में प्यार की खुशबू बिखरी हुई है। फूलों, तोहफ़ों और मुस्कराहटों के मौसम में मिला है यही खत, जो अपने पते तक पहुंच नहीं पाया अब तक…।



सुनो,
तुम्हें जो लिखी थीं, वो चिट्ठियां पुरानी हो चुकी हैं…कुछ ज्यादा ही ज़र्द। पीली पड़ गई हैं चिट्ठियां। इन पर कोई स्टैंप भी तो नहीं है। बस बिना लिफाफे के यहां-वहां रखी हैं। रजिस्टरों में, डायरियों में और हां, एक तो कोट की अंदर वाली जेब में भी रखी है। वहीं सूखे गुलाब के साथ तुमने रख दी थी। मस्त हैं ना यार हम दोनों। और चिट्ठियां भी क्या…कहीं, किसी लाइन में तो आईलवयू नहीं लिखा। कंजूस! कहीं-कहीं तो अनामिका स्याही में डुबाकर लकीर भर खींच दी। पूरा, सादा पन्ना और कोने में खिंची लकीर, लेकिन मैं सबकुछ पढ़ लेता हूं। कितनी ही लालसा, इच्छाएं, इंतज़ार और अब बस…एक ठंडी सांस।
ऐसी ही एक लकीर मैंने भी खींच दी थी तुम्हारे दाएं गाल पर। चिहुंक उठी थीं तुम—धत…ये क्या करते हो। मैं भी तो कितना शैतान था, होली है भाई होली है…और रंग नहीं तो क्या हुआ…स्केच पेन तो थी हाथ में। तुम भी ग़ज़ब…दो दिन तक स्याही धुली ही नहीं। सहेलियां चिढ़ा-चिढ़ाकर पूछतीं—क्या है ये और तुम बस मुस्करा देतीं। मुझे मौसमी चटर्जी अक्सर याद आती है। मुस्कराते हुए हंसी छलका देने वाली। तुम्हारी जुड़वा तो नहीं है ना?
उफ़…अब क्या हुआ। फिर तुनक गईं। दो-चार महीनों का साथ कितना छोटा था। देखो, गुज़र गया। रूठने-मनाने में। कल शाम की बात बताऊं। बस स्टैंड पर खड़ा था। तेज़ हवा चली, लगा जैसे—शॉल उतारकर ढक दोगी। पर कहां हो तुम…। ठिठुरते हुए खड़ा रहा…कानों में गूंज रही थी खनकती हंसी। बिना बात के हंसने की कला कोई तुमसे सीखे। उल्लुओं और पाजियों की तरह…। देखो, मैं भी तो हंस पड़ा हूं तुम्हारे साथ-साथ।
लो…गुज़र गई एक बस। टूटी-फूटी, इसकी खिड़कियों पर कांच नहीं हैं। हवा के साथ कदम मिलाते हुए उड़ी जा रही है। आज तुम होतीं, तो हम दोनों फिर बैठ जाते ना इसमें। ऐसे सफ़र पर चलने के लिए, जिसका कोई ठिकाना ना हो। बस जेब में जितने पैसे होते, उतने कंडक्टर को थमाकर और जब थक जाते, तो बीच राह में उतर जाते। सस्ते से किसी ढाबे में कुछ खाने और उससे ज्यादा बातें करने।
हूं, याद आया उस कॉफी का टेस्ट। कड़वी कॉफी। उसके भी हम सत्रह रुपए चुकाते थे, लेकिन ग़ज़ब की दोस्ती निभाई। हम घंटों उसी सहारे तो जमे रहते थे। और चाय भी तो…किचन में तुम घुसतीं और मैं बुलाता—सुनो, लिपटन की चाह है क्या? तुम तुनकतीं—दादा कोंडके मत बनो, समझे।
कैसी-कैसी तो बेगैरत रातें थीं। जब आतीं, तो सता जातीं। सारी रात मोबाइल पर…पता नहीं कैसी-कैसी बातें। मूवीज़, लिट्रेचर, पोएट्री, मंटो-किशोर कुमार…ग़ज़ब-ग़ज़ब के कॉम्बिनेशन, ना ओर ना छोर…लेकिन तुम भी ना…आई लव यू नहीं बोला बस। लगातार डिस्चार्ज होती बैट्री और सॉकेट में चार्जर लटकाकर बस बातें करते जाना। यार-दोस्त पूछते भी—क्या बातें करते हो तुम दोनों? क्या जवाब देता उन्हें?
हमारी शादी नहीं हुई। चलो, अच्छा ही हुआ। नहीं क्या? हो जाती, तो तुम मेरे ड्रेसिंग सेंस पर खूब चुटकुले सुनाती। कमेंट्स पास करतीं…लेकिन ऐसा क्यों कहूं…तुमने ही तो मुझे बताया था—कपड़े सुंदर नहीं होते, इंसान होता है। मैं खुद को गांव वाला कहता और तुम हंस पड़तीं—बहुत चालू हो। ये सब इमोशनल ब्लैकमेलिंग है बस्स। थैंक्यू बोलूं क्या? सॉरी-सॉरी, यूं ही मुंह से निकल गया। पिटने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
एक कन्फेशन करूं। तुम्हारे जाने के बाद मुझे फिर प्यार हो गया है। नहीं-नहीं, कुछ ऐसा-वैसा मत सोचना। तुम्हारी यादों से प्यार कर बैठा हूं यार। खूब रोया, मिस करता रहा। अक्सर फेसबुक प्रोफाइल पर जाकर देखता हूं तुम्हें। मोबाइल में साल भर पुरानी तुम्हारी मिस्ड कॉल्स पड़ी हैं। उन्हें देखता हूं, तारीख़ वाले कोने पर से झट आंख भर हटा लेता हूं। सोचता हूं—कल ही तो तुमसे बातें हुईं थी रात भर।
तुम नहीं हो। तारीखें गुज़रती जा रही हैं। सच बोलूं, तो ज़िंदगी के बारे में सोचते ही जी कहता है…हूं…कुछ तो है जो अपनी-सी रफ्तार से गुज़र रहा है। कितनी ही प्रेम-पातियां लिखीं तुम्हारे लिए पर कभी पोस्ट नहीं कीं, ज़रूरत ही नहीं पड़ी। अब पता है, तुम्हें भेज सकता हूं, लेकिन कहां…कोई ठिकाना नहीं, जहां कोई रिसीव कर ले ये लेटर्स…। फिलहाल, चिट्ठियां बैरंग हैं, इन पर नेह का टिकट लगाया नहीं जा सका। अब जिसे भी मिलेंगी, वो मेरी नहीं है, कह के लौटा ही तो देगा…।
ऐसे हाल में कुछ तो सलाह दो। शायद फूट-फूटकर रोना चाहिए, लेकिन मैं अक्सर हंस पड़ता हूं। कल ही खूब हंसी आई। तुम्हारी बॉलकनी के नीचे से गुज़रते हुए ऊपर निगाह डाली। तुम नहीं थीं वहां, तभी किसी ने पुकारा। पता है—चाय वाला था। हमने बहुत से कप भर-भरकर चाय पी थी ना वहां। कुल 115 रुपए का हिसाब बना था। ख़ैर, मैंने दे दिए हैं। अब बकाया नहीं है। वैसे ही, तुम पर भी मेरा कुछ शेष नहीं है। हम दोनों चुका चुके हैं, जो कुछ लेन-देन था। हां, प्यार नहीं चुका। उसे चुकने भी ना देना। हर बार प्यार का मतलब साथ तो नहीं होता…और फिर साथ तो हम हैं ही। जिस्म की भला क्या बिसात…दूर है तो दूर सही…।

I-NEXT में प्रकाशित

4 comments:

Rahul Singh said...

खुद ठिकाना खोज लेने वाला खत.

संजय भास्‍कर said...

Bahut khoob

संजय भास्‍कर said...

प्रेमदिवस की शुभकामनाये !
कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
माफ़ी चाहता हूँ

डॉ .अनुराग said...

love is in the air.....

and agree with Rahul ji comment....