कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

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Monday, February 2, 2009

फिर चलना उस ओर, जिसका नहीं है पता...


वसंत की वो उदास शाम
रफ़्ता-रफ़्ता रफ़्तार भरती बस पर
ओस से भीगी सड़क देखते हुए
अश्कों से नहाया चेहरा
ज़मीन की ओर झुकाए
यूं चल देना
तय मंज़िल की ओर
पीले चावलों की चाह भर नहीं
कहीं न कहीं पीली पड़ गई हैं
गुलाबी मन की अंखुआई चाहतें
इस भटकन से
नहीं मिलेगी राह, न मंजिल
अच्छा हो
फिर कटाएं उस बस का टिकट
जिसके बोर्ड पर नहीं पढ़े
गंतव्य के निशाँ
नहीं जानते
कहां रुकना, कहां है उतरना
बस में न हो जब राह
तभी तो है चलने का मतलब
तब नहीं पड़ता पीला मन
बच पाता है मन का अंखुआयापन
खिला रहता है
दिल का गुलाब

बस इतना ही
बाकी उस बस में
जो अब तक राह से दूर है
चलेंगे फिर उसमें
कालीबंगा, या फिर ऋषिकेश की अधूरी यात्राओं पर
नहीं...
तय कैसे हो सकती है
उस प्रेम की मंज़िल
जिसकी सचमुच कोई नियति नहीं होती
न अधूरा रहना, न पूरा

फिर चलेंगे
एक अनजाने सफर पर
इसलिए
लौट आओ
वही अकुलाता मन लेकर
जिसमें उसकी तलाश है
जिसका पता नहीं