कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Showing posts with label फिर वही तलाश. Show all posts
Showing posts with label फिर वही तलाश. Show all posts

Monday, February 2, 2009

साथी...कहां हैं वो चित्र


साथी
कहां हैं वो चित्र
जो बुनने थे तुम्हें
भरने थे जिन रेखाओं में रंग
देखता हूं वो उंगलियों से छनकर काग़ज़ों तक उतर नहीं पाईं
मन के काले गड्ढों में गहरी हो रही और कालिख
क्या यही थी रेखाओं की नियति
उलझनों में तब्दील हो जाना
अलमारी पर तह किया रखा रह गया है कैनवॉस
फ्रेम की लकड़ियों पर लग रही दीमक
साथी
मन को तो नहीं लगा घुन
बचाकर रखना ज्वार
उफान मारे तो संजोना
उलटने, छलकने न देना
आंसू बनकर
पता है ना
तुम्हारे रंग छंद बनकर उतरेंगे कविताओं में
शब्द बन बुनेंगे कहानियां
उम्मीद फिर जन्म लेगी
मारेगी किलकारियां
खूब ख़ूबसूरत होगा कल
बस, संभालो अपने आपको
छोटी तुनकमिज़ाजी से कहीं बड़ा है प्यार

फिर चलना उस ओर, जिसका नहीं है पता...


वसंत की वो उदास शाम
रफ़्ता-रफ़्ता रफ़्तार भरती बस पर
ओस से भीगी सड़क देखते हुए
अश्कों से नहाया चेहरा
ज़मीन की ओर झुकाए
यूं चल देना
तय मंज़िल की ओर
पीले चावलों की चाह भर नहीं
कहीं न कहीं पीली पड़ गई हैं
गुलाबी मन की अंखुआई चाहतें
इस भटकन से
नहीं मिलेगी राह, न मंजिल
अच्छा हो
फिर कटाएं उस बस का टिकट
जिसके बोर्ड पर नहीं पढ़े
गंतव्य के निशाँ
नहीं जानते
कहां रुकना, कहां है उतरना
बस में न हो जब राह
तभी तो है चलने का मतलब
तब नहीं पड़ता पीला मन
बच पाता है मन का अंखुआयापन
खिला रहता है
दिल का गुलाब

बस इतना ही
बाकी उस बस में
जो अब तक राह से दूर है
चलेंगे फिर उसमें
कालीबंगा, या फिर ऋषिकेश की अधूरी यात्राओं पर
नहीं...
तय कैसे हो सकती है
उस प्रेम की मंज़िल
जिसकी सचमुच कोई नियति नहीं होती
न अधूरा रहना, न पूरा

फिर चलेंगे
एक अनजाने सफर पर
इसलिए
लौट आओ
वही अकुलाता मन लेकर
जिसमें उसकी तलाश है
जिसका पता नहीं