कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

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Sunday, August 22, 2010

मैत्रेयी से एक पुरानी गुफ्तगू...

प्रवक्ता.कॉम से साभार

सेक्स की तलाश में नहीं रहती मेरे उपन्यासों की स्त्री : मैत्रेयी पुष्पा



साल-2007 के आख़िरी दिनों या फिर 08 के शुरुआती महीनों में कभी, दिन-तारीख़ तो अब याद नहीं…दैनिक जागरण के अपने स्तंभ बेबाक बातचीत के लिए मैत्रेयी पुष्पा से ये गुफ्तगू की थी. आज के संदर्भों में भी ये सवाल उतने ही ख़रे हैं…
मैं अपना टेप रिकार्डर खोलती हूं, इसमें उन सच्ची औरतों की आवाजें हैं, जो नि:शंक भाव से मानती हैं कि जरूरी नहीं, पति ही उनके बच्चों का पिता हो…ये पंक्तियां हैं मैत्रेयी पुष्पा के एक लेख की। उनके उपन्यासों की स्त्री इतनी बेबाक है कि समाज के ठेकेदारों को कई बार निर्लज्ज भी नज़र आने लगती है। हालांकि, मैत्रेयी अपने पात्रों के ऐसे नामकरण का सख्ती से प्रतिकार करती हैं। अल्मा कबूतरी, चाक, कस्तूरी कुंडल बसै, इदन्नमम और हालिया चर्चा में आई कही ईसुरी फाग समेत तकरीबन 14 साल में 13 रचनाएं लिख चुकी पुष्पा ने माना कि स्त्री विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय अन्य महिला साहित्यकारों के वे सीधे निशाने पर हैं, साथ ही उन्होंने यह भी बताया, ऐसा क्या है, जिसकी वजह से वह कड़वा-कड़वा लिखने को मजबूर हो जाती हैं? प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश :
चर्चा है कि सिर पर एक बड़े साहित्यकार का हाथ न होता तो आप इतनी प्रसिद्ध न होतीं..
अगर यही सच होता तो मेरे लेखन को सारे संसार में पसंद करने वालों की लंबी तादाद न होती। फिर तो (उक्त साहित्यकार का नाम लेकर कुछ झुंझलाते हुए) वही मेरी किताबें पलटते और रख देते..आप तक उनकी चर्चा भी न पहुंचती।
आपकी नायिकाएं अपनी मुक्ति देह की आजादी में तलाशती है और आप बिना वजह अपने रचनाकर्म को सेक्स केंद्रित करती हैं?
यह बेकार की बात है..दरअसल स्त्री को घेरने की कोशिश उसकी देह को लेकर ही की जाती रही है, मेरे बारे में भी इसीलिए यह सबकुछ कहा जाता है ताकि अपनी जुबान बंद कर लूं। एक चीज साफ जान लीजिए, मुझे ऐसा कोई डर नहीं कि सच कहने से मुझे मिलने वाले कितने पुरस्कार रुकवा दिए जाएंगे या विरोध में समीक्षाएं लिखी जाएंगी। यह तो होता ही रहा है। जहां तक रचनाओं में सेक्स उड़ेलने की बात है, इस तरह कुछ भी नहीं हुआ है। जहां घटनाक्रम ऐसा है, परिस्थितियों की मांग हुई है, वहीं मेरी नायिकाओं ने ऐसा किया है। अगर मैं जान-बूझकर सेक्स को कथा का सूत्र बनाने वाली मानसिकता रखती तो कहीं ईसुरी फाग में तो इसकी अपार संभावना थी। पूरी पुस्तक में कई जगह शरीर को लेकर फाग कही गई है। ऐसे तो काम दृश्यों की भरमार हो जाती।
… लेकिन आपकी एक नायिका तो दुष्कर्म का शिकार होते हुए भी आनंद अनुभव करती है? क्या वह हर वर्जना से मुक्त है?
यह कहना आसान है कि वह वर्जनाओं से मुक्त है लेकिन क्या अल्मा या अन्य स्त्रियां सिर्फ साधारण वर्जना से घिरी हैं? यह तो यातना और यंत्रणा है। सांरग चाक में जिस स्थिति में वर्जनाएं तोड़ती नजर आती है, दरअसल वह उस समय की सामाजिक-शैक्षणिक व्यवस्था की यंत्रणाएं तोड़ रही होती है। फिर अल्मा की तुलना आप अपने समाज से क्यों करते हैं? कबूतरी एक अपराधी जनजाति की महिला है। कबूतरा या तो जंगल में रहता है या फिर जेल में। अल्मा एक मादा भी तो है। उसकी नस्ल खत्म हो रही है। फिर दुष्कर्मी के खेतों में उसके डेरे हैं। अब वह क्या करे? आप ही बताइए, जब स्त्री की जान ही सांसत में आ जाए तो वह जीने के रास्ते तो तलाशेगी ही।
…पर स्त्री की शुचिता का सवाल कहीं पीछे नहीं छूट जाएगा?
आखिर अकेली स्त्री से ही क्यों उम्मीद करते हैं कि वही शुचिता का खयाल रखेगी? मैं इतनी उम्र में भी रात के 12 बजे तक घर से बाहर रहने की बात कहूं तो लोग आसमान सिर पर उठा लेंगे लेकिन पति तीन बजे रात में भी घर आना चाहें तो स्वागत है, ऐसी विसंगति क्यों है? स्त्री को पता है कि वह कितनी पवित्र है और रहना चाहती है। उसकी परिभाषाएं पुरुष नहीं गढ़ सकते। पुरुष वर्चस्व के दायरे में स्त्री की देह ही होती है। जन्म से शादी के पहले तक उसी देह की रक्षा होती है और विवाह के बाद उसका उपभोग। इस पूरे चक्र में स्त्री की योग्यता क्यों नहीं देखी जाती? देह से हटकर सोचें तो पता लगेगा कि स्त्री क्या है?
चौदह साल के लेखकीय जीवन में तेरह रचनाएं? ऐसे में रचनात्मक उत्कृष्टता की गुंजाइश बचती है?
आपने तो यह प्रश्न साफ-सुथरे ढंग से पूछा है। मुंबई की एक महिला साहित्यकार ने कहीं कहा था, मैत्रेयी हर साल बच्चे पैदा करती हैं। मेरे उपन्यास निश्चय ही मेरी संतान हैं और किसी से कमजोर भी नहीं हैं। जब तक मुझे लगेगा मैं सशक्त बात रख रही हूं, लिखती रहूंगी।
आपके एक बयान को लेकर इन दिनों खूब विवाद है, जिसमें कथित तौर पर आपने एक साहित्यकार की कृपादृष्टि हासिल करने के लिए किए गए उपक्रमों की चर्चा की है? इसमें कितना सच है?
यह पीत पत्रकारिता का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं है।
आप अन्य महिला साहित्यकारों के हरदम निशाने पर ही क्यों रहती हैं?
(हंसते हुए) मैं चाहती हूं कि निशाने पर रहूं। मैं यहां स्त्री का सच कहने आई हूं, सुविधाभोगी स्त्री का नहीं, उस ग्रामीण स्त्री का सच, जिसकी ओर अन्य महिला साहित्यकारों की निगाह नहीं गई है। निशाने साधे जाने से मैं भयभीत नहीं होती।

Sunday, July 26, 2009

देह की आज़ादी नहीं दिलाती हर पीड़ा से मुक्ति---नासिरा शर्मा


अफगानिस्तान की मजलूम औरतों के आंसुओं से लबरेज चेहरों पर उभरी दर्द की लकीरों और उनसे टपकते दुख को जब एक स्त्री ने ही अखबार के पन्नों पर रंगना शुरू किया तो पूरी दुनिया के नारीवादी एकबारगी सिहर उठे, इतना शोषण, ऐसा अत्याचार, अब तक सुना नहीं-देखना तो दूर की बात है। उन्हीं दिनों अफगानिस्तान से एक कल्चरल अटैची जेएनयू पहुंचा और कुछ लोगों से पूछने लगा, कौन है ये नासिरा, जिसने बादशाहों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की। और जब उसने देखा, नासिरा महज 27 साल की एक साधारण युवती है तो एकबारगी चौंक गया। उसके दिमाग में तस्वीर थी, कद्दावर शख्सियत की मालिक किसी बुजुर्ग महिला की। वही नासिरा अब वय और अनुभव से पकी हुई चर्चित साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। स्त्री विमर्श के नाम पर अश्लीलता भरे बयानों की दुकानदारी करने वाले साहित्यकारों के खिलाफ कुछ खुलकर वह बोलती नहीं, लेकिन कहती हैं, कीचड़ कहां-कहां है, दुनिया जानती है, मैं क्योंकर कहूं? इन्हीं नासिरा से बेबाक बातचीत की चण्डीदत्त शुक्ल ने।

स्त्री विमर्श के नाम पर देह की जिस स्वच्छंदता की बात मौजूदा दौर की कुछ नारी साहित्यकार कर रही हैं, आप उससे कितना इत्तफाक रखती हैं?

औरत को उसकी पूरी आजादी मिलनी चाहिए। वह चाहे अपना जीवनसाथी चुनने की हो या प्रेमी के रूप में किसी के चयन की आजादी हो। हां, प्राथमिक तौर पर यह गलत है क्योंकि इससे कई घर बिखरते हैं। अपनी देह किसी को दे दें, यह कोई आजादी नहीं है। देह को लेकर तरह-तरह के बंधनों से मुक्ति ही सभी पीड़ाओं का जवाब होती तो यूरोपीय समाज, अमेरिका और लंदन की स्त्रियों की आंखों में आंसू न होते।

लेकिन साहित्य में तो इस स्वच्छंदता की खूब हिमायत हो रही है?


कुछ लोग करते हैं-सिर्फ सनसनी के लिए लेकिन उनका उत्कर्ष बहुत कम देर का होता है। बाद में कोई पूछता भी नहीं। स्त्री विमर्श से हटकर अब संपूर्ण साहित्य की बात करें। मठाधीशी, खेमेबंदी और सियासत, ये सब साहित्य का अंग तो कभी न थे। अब क्योंकर हो गए? जलन और हसरत हर एक के मन में होती है। जब कुछ अच्छा कोई लिखता है, तो एकबारगी होता ही है, काश! मैं इतना अच्छा रच पाता? जलन के भाव में कहते हैं, यह मैं क्यों नहीं कर पाया? उसने कैसे कर लिया? अब यह भाव सकारात्मक हो तब तो रचनात्मकता विकसित होती है। कुछ बेहतर सर्जन हो पाता है। एकदम अलग धरती पर जाकर सोता फूटता है। नकारात्मक चिंतन होने पर चीजें बिगड़ने लगती हैं और यहीं से साहित्य में सियासत का उद्गम होता है। दूसरे, एक बात और है, विज्ञापन युग और लेखन, बाजार व साहित्यकार-दोनों अलग-अलग चीजें हैं। इन्हें जब भी गड्डमड्ड किया जाता है तो तरह-तरह की सियासत जन्म लेने लगती है। मतलब साहित्य में सियासत बाजार के प्रभाव से ही संचालित होती है? बेशक! कई प्रकाशक कुछ बार अपनी जिम्मेदारियां निभाने से चूक जाते हैं। वे लेखक से कहते हैं, अपनी स्थिति का लाभ उठाइए, गोष्ठी कराइए, किताब हाईलाइट होगी। आदि-इत्यादि। यहीं पर सर्जन से इतर सियासत शुरू हो जाती है। किंतु कुछ जगह तो परस्पर निंदा-प्रशंसा का बहुत जोर है? अब जो लोग अपनी प्राइवेट पत्रिकाएं निकाल रहे हैं, उन्हें भी तो पैसा चाहिए? अब वे कुछ पैसा लेकर दो-चार चीजें किसी की छाप दें। इस पर कुछ विवाद खड़ा हो जाए तो यह सामान्य ही है?


किसका नाम लेंगी?

किसी का नहीं। आज का दौर हर तरह की अति के विरुद्ध है। वह चाहे किसी को प्रतिष्ठित करने के लिए की गई अति हो या किसी और तरह की? अब मैं क्योंकर किसी का नाम लूं? सच बोलने का जोखिम तो साहित्यकारों को ही उठाना है? सच किसी से छिपा है क्या? वैसे भी कीचड़ में घुसकर कमल रोपने की कोशिश मैं नहीं करना चाहती। पाठकों को सबकुछ पता है। आप यह तो नहीं कहना चाहतीं कि जो लोग साहित्य में विवाद खड़े करने की कोशिशें कर रहे हैं, वे मीडियाकर्स हैं? मुझसे किसी सनसनी की उम्मीद न कीजिए। कौन औसत प्रतिभा का है और कौन योग्य, इसका मूल्यांकन पाठक ही करेंगे। आपका काम जितना चर्चित है, उसके बरक्स आप वाद-विवाद के केंद्र में क्यों नहीं घिरतीं मैं चाहती हूं कि मेरी कलम को लोग जानें, सराहें और उससे भी ज्यादा समझें। यही वजह है कि मैं साहित्यिक सम्मेलनों में भी कम ही जाती हूं। विवादों से प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं होता।


दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरे स्तंभ--बेबाक बातचीत---की एक कड़ी