कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

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Sunday, July 26, 2009

देह की आज़ादी नहीं दिलाती हर पीड़ा से मुक्ति---नासिरा शर्मा


अफगानिस्तान की मजलूम औरतों के आंसुओं से लबरेज चेहरों पर उभरी दर्द की लकीरों और उनसे टपकते दुख को जब एक स्त्री ने ही अखबार के पन्नों पर रंगना शुरू किया तो पूरी दुनिया के नारीवादी एकबारगी सिहर उठे, इतना शोषण, ऐसा अत्याचार, अब तक सुना नहीं-देखना तो दूर की बात है। उन्हीं दिनों अफगानिस्तान से एक कल्चरल अटैची जेएनयू पहुंचा और कुछ लोगों से पूछने लगा, कौन है ये नासिरा, जिसने बादशाहों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत की। और जब उसने देखा, नासिरा महज 27 साल की एक साधारण युवती है तो एकबारगी चौंक गया। उसके दिमाग में तस्वीर थी, कद्दावर शख्सियत की मालिक किसी बुजुर्ग महिला की। वही नासिरा अब वय और अनुभव से पकी हुई चर्चित साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। स्त्री विमर्श के नाम पर अश्लीलता भरे बयानों की दुकानदारी करने वाले साहित्यकारों के खिलाफ कुछ खुलकर वह बोलती नहीं, लेकिन कहती हैं, कीचड़ कहां-कहां है, दुनिया जानती है, मैं क्योंकर कहूं? इन्हीं नासिरा से बेबाक बातचीत की चण्डीदत्त शुक्ल ने।

स्त्री विमर्श के नाम पर देह की जिस स्वच्छंदता की बात मौजूदा दौर की कुछ नारी साहित्यकार कर रही हैं, आप उससे कितना इत्तफाक रखती हैं?

औरत को उसकी पूरी आजादी मिलनी चाहिए। वह चाहे अपना जीवनसाथी चुनने की हो या प्रेमी के रूप में किसी के चयन की आजादी हो। हां, प्राथमिक तौर पर यह गलत है क्योंकि इससे कई घर बिखरते हैं। अपनी देह किसी को दे दें, यह कोई आजादी नहीं है। देह को लेकर तरह-तरह के बंधनों से मुक्ति ही सभी पीड़ाओं का जवाब होती तो यूरोपीय समाज, अमेरिका और लंदन की स्त्रियों की आंखों में आंसू न होते।

लेकिन साहित्य में तो इस स्वच्छंदता की खूब हिमायत हो रही है?


कुछ लोग करते हैं-सिर्फ सनसनी के लिए लेकिन उनका उत्कर्ष बहुत कम देर का होता है। बाद में कोई पूछता भी नहीं। स्त्री विमर्श से हटकर अब संपूर्ण साहित्य की बात करें। मठाधीशी, खेमेबंदी और सियासत, ये सब साहित्य का अंग तो कभी न थे। अब क्योंकर हो गए? जलन और हसरत हर एक के मन में होती है। जब कुछ अच्छा कोई लिखता है, तो एकबारगी होता ही है, काश! मैं इतना अच्छा रच पाता? जलन के भाव में कहते हैं, यह मैं क्यों नहीं कर पाया? उसने कैसे कर लिया? अब यह भाव सकारात्मक हो तब तो रचनात्मकता विकसित होती है। कुछ बेहतर सर्जन हो पाता है। एकदम अलग धरती पर जाकर सोता फूटता है। नकारात्मक चिंतन होने पर चीजें बिगड़ने लगती हैं और यहीं से साहित्य में सियासत का उद्गम होता है। दूसरे, एक बात और है, विज्ञापन युग और लेखन, बाजार व साहित्यकार-दोनों अलग-अलग चीजें हैं। इन्हें जब भी गड्डमड्ड किया जाता है तो तरह-तरह की सियासत जन्म लेने लगती है। मतलब साहित्य में सियासत बाजार के प्रभाव से ही संचालित होती है? बेशक! कई प्रकाशक कुछ बार अपनी जिम्मेदारियां निभाने से चूक जाते हैं। वे लेखक से कहते हैं, अपनी स्थिति का लाभ उठाइए, गोष्ठी कराइए, किताब हाईलाइट होगी। आदि-इत्यादि। यहीं पर सर्जन से इतर सियासत शुरू हो जाती है। किंतु कुछ जगह तो परस्पर निंदा-प्रशंसा का बहुत जोर है? अब जो लोग अपनी प्राइवेट पत्रिकाएं निकाल रहे हैं, उन्हें भी तो पैसा चाहिए? अब वे कुछ पैसा लेकर दो-चार चीजें किसी की छाप दें। इस पर कुछ विवाद खड़ा हो जाए तो यह सामान्य ही है?


किसका नाम लेंगी?

किसी का नहीं। आज का दौर हर तरह की अति के विरुद्ध है। वह चाहे किसी को प्रतिष्ठित करने के लिए की गई अति हो या किसी और तरह की? अब मैं क्योंकर किसी का नाम लूं? सच बोलने का जोखिम तो साहित्यकारों को ही उठाना है? सच किसी से छिपा है क्या? वैसे भी कीचड़ में घुसकर कमल रोपने की कोशिश मैं नहीं करना चाहती। पाठकों को सबकुछ पता है। आप यह तो नहीं कहना चाहतीं कि जो लोग साहित्य में विवाद खड़े करने की कोशिशें कर रहे हैं, वे मीडियाकर्स हैं? मुझसे किसी सनसनी की उम्मीद न कीजिए। कौन औसत प्रतिभा का है और कौन योग्य, इसका मूल्यांकन पाठक ही करेंगे। आपका काम जितना चर्चित है, उसके बरक्स आप वाद-विवाद के केंद्र में क्यों नहीं घिरतीं मैं चाहती हूं कि मेरी कलम को लोग जानें, सराहें और उससे भी ज्यादा समझें। यही वजह है कि मैं साहित्यिक सम्मेलनों में भी कम ही जाती हूं। विवादों से प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं होता।


दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरे स्तंभ--बेबाक बातचीत---की एक कड़ी