कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, April 16, 2012

म्यां, नाराज़ क्यूं हो?

- चण्डीदत्त शुक्ल
 
नाराज़ हो,
मेरे से.
म्यां,
कोई नई बात कही होती.
ये क्या,
भूत भगाने को,
इबादत की खातिर
लोहबान जलाना.
कभी
गुड नाइट छोड़के
मच्छर-मक्खी भगाने कू लोहबान  जलाओ न.
अमां.
दिल के जले से मूं फुल्लाने वाले तुम कोन-से नए आदमी हो
किसी टकीला वाले अंबानी से गुस्सा के देखो.
आशिक को तो गली का कुत्ता भी भूंकता है
पूरा पंचम राग में
तार सप्तक छेड़ते हुए
ऊं-ऊं-उआं करके रोता है,
किसी रात साला किसी दरोगा पे रोके दिखाए
नाराज़ मती होओ
हम इश्क के मारे हैं,
तुम्हारी नाराज़गी बेकार जाएगी।
किब्ला.
इश्क ही कल्लो
नाराज़गी फरज़ी लगैगी
फिर तो,
एक ही कंबल में मूं लपेटे हमारे साथ पड़े रहोगे.
ये रोग किसी छूत से नहीं होता
हां, इस रोग की छूत बड़ी बुरी होवे है...

2 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत बढ़िया रचना .............
और
सर मैं जानना चाहती हूँ कि अहा जिंदगी में किसी भी स्तंभ के लिए रचना क्या दिये गए ई-मेल एड्रेस पर भेजी जा सकती है??
ahazindagi@gmail.com पर??
अगर एतराज़ ना हो तो कृपया मार्दर्शन करें.

सादर
अनु

Anonymous said...

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