कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Friday, May 28, 2010

एक कुटिल प्रेमी की आदर्श-व्याख्या


वो तुम्हारी निगाह से उतर गए...
माना कि कुछ तो कमज़ोर थे,
दृढ़ नहीं रह सके चरित्र पर
नहीं बनाए रख सके,
अपना वह सात्विक बोध
जो तुम्हारे मन में
उनके लिए रखता था स्थान सुरक्षित
वे तो निर्बल थे, निर्मम भी थे कुछ
पर...
उन्हें चरित्र च्युत कहकर क्यों छिपा रहे स्व-निर्बलता?
जिसे एक बार `माना' तुमने
उसके लिए मन में खिन्नता कैसी?
क्यों विचलन अपने कर्तव्य में
और अगर प्रिय बनकर भी
जो रह गए भ्रमर स्वभावी
तो उनकी ही गलती क्या...ये तो चलन ही बंधु
जांच-परख लेते, फिर बनाते नेह संबंध...
क्या कहा--ऐसा नहीं होता,
तो फिर अब जुड़ाव में वणिक-बुद्धि भी कैसे?
बिच्छू की प्रवृत्ति ही तो है डंक मारना,
साधु वही, जो तब भी फैलाए रहे हथेली...
विषधारी को भी भंवर से निकालने को रहे तत्पर...
अच्छा लगा...तुम्हारा स्मित हास्य देखकर
इस उपदेश का अंतर्वेद समझ गए ना तुम...
हां!
दूसरों की आड़ में
मैं बना रहा हूं...अपनी भूलों से बचने का चक्रव्यूह
जाने-अनजाने अगर,
तुम्हारे मन का अनछुआपन
मेरी कोई अनियंत्रित क़दमताल
तोड़ दे तुम्हारे चिंतन का एकांत
या मेरी आदर्शिता का भ्रम
तो कहीं मैं भी ना हो जाऊं बहिष्कृत
तुम्हारे अंतःस्थल की गहराई से...
इसीलिए तो...
गढ़ ली हैं बहानों की गाथाएं
कभी डगमग हों पग...तो
सपनों की रुनझुन में खोए तुम...
मतवाले हाथी का नर्तन देखकर ना हो व्यथित...
तब किसी भोले बच्चे की तरह
खिलखिलाकर मांग लूं माफ़ी
आश्वासन दो--तब भी रहूंगा तुम्हारे मन में स्थिर
मिलेगा अभयदान

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