कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, May 27, 2010

पनीली आंखों के आगे खुशबूदार शाम


तुमने कहा 
क्या फायदा हुआ-
इस साथ से?
हम नहीं रह पाए पास...
नहीं हो सकी
संवेदना के मुक्तप्रवाही निर्झर में-
भावनाओं की उछलकूद 
मानता हूं मित्र
हमने जाना अपने आपको एक अरसे में
पहचानने में तो और भी वक़्फा लग गया
कुछ उधेड़बुन अब भी हो रही है...
अहसास में.
लेकिन इतना पास होने पर...
भी क्यों हैं उखड़े-उखड़े से...
बिखरेपन को समेटते हुए...
आओ! जी लें...
जीवन के उतने लम्हों को
जो अपने हैं...
जितना जो कुछ नीरस है,
बना लें मधुरिम...
कभी भी...
हृदतंत्री पर बजती वीणा के सुरों को
नापकर नहीं बताया जाता
सुरदार या बेसुरा...
यानी कि 
नहीं आंका जाता, नापा जाता
अपनेपन में सार्थकता या निरर्थकता का बोध...
जितना मिला वक़्त
महसूसने का...
हमने जिया, एक-दूसरे को गर्मजोशी से...
अब दूर रहेगी तो देह...
क्या हुआ, जो माटी के बुत अलग रहे...
हम तो सदैव रहेंगे एक, इकट्ठे
महकते जज़्बात सदैव देते रहेंगे
दस्तक
मन के किवाड़ पर
आहट, ख्वाबों की-पदचापों की...
झिंझोड़ती रहेगी हमारी-तुम्हारी तंद्रा
गर्म सांसों की मलय...
अलकें उड़ाया करेगी तुम्हारी,
क्यों होते हो अधीर प्रिय...
हम हैं जन्मों के साथी..
नहीं होंगे विलग
आओ! बिखेर दो एक स्मित हास्य...
जिससे...
निराशा की दोपहरी में
एक खुशबूदार शाम हो जाए...
और तब तुम्हारी पनीली आंखों के आगे...
शायद उग सके...
हमारे सुखद भविष्य का इंद्रधनुष

रात के 2.54 बजे, गोंडा, सितंबर-1997

1 comment:

Udan Tashtari said...

जिससे...
निराशा की दोपहरी में
एक खुशबूदार शाम हो जाए...
और तब तुम्हारी पनीली आंखों के आगे...
शायद उग सके...
हमारे सुखद भविष्य का इंद्रधनुष

-बहुत उम्दा ..भावपूर्ण!