पंद्रह सौ साल पहले
अनजान कबीले की उस औरत ने
पहनी होगी कलाई में चूड़ी
टेराकोटा से बनी
टेराकोटा, जो होती है लाल और काली
उससे बुनीचूड़ी का एक टुकड़ा
जो न बताओ तो नहीं लगता
श्रृंगार का जरिया
वो चूड़ी पहनकर वो औरत हंसी होगी
होंठों को एक दांत से दबाकर
पर तुम्हारी तो आंख से काजल बहने लगता है
तुम थर्राए होंठों से
पूछती हो
जिन हाथों में रही होगी ये चूड़ी
उन्हें किसी ने चूमा होगा ना
तुम सिहर उठती हो ये सोचकर
वक्त में घुल गई होगी वो औरत
मिट गया होगा उसका अस्तित्व
पर सुनो...चूड़ी कहां घुली?
नहीं नायकीन मानो
मिट्टी कभी नष्ट नहीं होती
चूड़ी टुकड़ा-टुकड़ा टूटी
लेकिन खत्म नहीं हुई
तुमने ही तो मुझे बताया था वसंतलता
ऐसे ही प्रेमियों और प्रेमिकाओं के तन नष्ट हो जाते हैं
पर कहां छीजता है प्रेम?
काली बंगा से लौटते वक्त
तुम बीन लाईं कहीं से चूड़ी का वो टुकड़ा
और मुझसे पूछती रही,
क्या होता है टेराकोटा
और ये भी
पंद्रहवी सदी में किस कबीले की औरत ने पहनी होगी
टेराकोटा से बनी ये चूड़ी
मेरे पास नहीं है कोई जवाब
बस, तुम्हारी लाई चूड़ी का वो टुकड़ा रखा है मेरे पास
सदा रहेगा शायद
मैं नहीं जानता काली बंगा के बारे में
न ही उन औरतों के बारे में
बस पता है प्रेम
जो पता नहीं कहां,
पेट में, दिल में, मन में या फिर आंसुओं में
पीर पैदा करता है
यकीन मानो
वो नष्ट नहीं होता कभी
11 comments:
waah sir. bahut badhiya
बहुत अच्छी कविता है
khoob khoobsurat kaveeta likh di aapne,churii bhut sundar rhee hogi
bhoooot bhoooot sundar kaveeta hai .ab tk pdhi aapki kavitaao me sabse sundar.kai baar pdh gai.
khoob khoobsurat kaveeta likh di aapne,churii bhut sundar rhee hogi
Kalibanga se dhundh hi laye in chudiyon ko aap! badhai ho. us samay ke kuch aur tathyon ko dhoondhne ki koshish mere blog par bhi hai. Swagat aapka bhi.
Bahut achche.
ati sundar rachna .
kya khoob likha hai ,pyar aisa he hota hai,pandra sau saal pahle bhi aaj bhi utna he hara ,yhaan ek baat aur , ye sach hai ki sirf ye ek kavita aapko chahne ki wajah ban sakti hai
ek anokhi kavita!!
पर कहां छीजता है प्रेम?
सुन्दर. काल बीतेगा नहीं बीतेगा तो प्रेम.
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