कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, October 21, 2009

पहिला इंजेक्शन तो डीडीएलजे ही दिहिस

बताने की बात नहीं कि चवन्नीचैप हिंदी का मशहूर ब्लॉग है, समय, सिनेमा और संवेदना को समझने के लिहाज से. इस ब्लॉग के मॉडरेटर व चर्चित फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज जी ने दिलवाले दुल्हनिया ले के चौदह साल पूरे होने पर कुछ लिखने-यादें सांझा करने का न्योता दिया. उनका आदेश मानना ही था, सो लिख मारा. इसमें अवधी की भरपूर छौंक है. चवन्नी से ही साभार यहां वही पीस उद्धृत है...टिप्पणियाएं जमकर, चाहे भलाई करें, या बुराई...ये आपकी मर्जी, आपका हक़.

चण्डीदत्त





Tuesday, October 20, 2009

पहिला इंजेक्शन तो डीडीएलजे ही दिहिस

-चण्डीदत्त शुक्ल
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे से जुड़ी चण्डीदत्त शुक्ल की भी एक याद.

यूपी के गोंडा ज़िले में जन्मे चण्डीदत्त की ज़िंदगी अब दिल्ली में ही गुज़र रही है. लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने, दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे. अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. लिखने-पढ़ने का वक्त नहीं मिलता, लेकिन जुनून बरकरार है. एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है. सुस्त से ब्लागर भी हैं. इनका ब्लॉग है... www.chauraha1.blogspot.com..इनसेchandiduttshukla@gmail.com पर भी मुलाकात की जा सकती है.

20 अक्टूबर, 1995. पक्का यही तारीख थी...याद इसलिए नहीं कि इस दिन डीडीएलजे देखी थी...भुलाइ इसलिए नहीं भूलती, क्योंकि इसी तारीख के ठीक पांच दिन बाद सलीम चच्चा ने पहली बार इतना ठोंका-पीटा-कूटा-धुना-पीसा था कि वो चोट अब भी सर्दी में ताज़ा हो जाती है...। हुआ यूं कि सलीम चच्चा बीज के लिए लाया पैसा अंटी में छुपाए थे और हम, यानी हमारे दोस्त अंजुमन और मैं उनकी अंटी ढीली करके ट्रेन से फरार हो लिए थे...डब्ल्यूटी (ये कोई पास नहीं है, विदाउट टिकट!), का करने—अरे डीडीएलजे देखने। अब सिटी तउ याद नहीं, पता नहीं लखनऊ रहा कि बहराइच...पर रहा पास के ही कउनउ शहर।

नास होय अंजुमनवा के (लोफड़, हमके भी बिगाड़ दिहिस....अब ससुरा जीएम है कहीं किसी कंपनी में अउ हम अब तक कलमै (बल्कि की-बोर्ड) घिसि रहे हैं...), वही सबेरे-सबेरे घर टपकि पड़ा—गुरू... चलउ...नई फ़िलिम रिलीज़ भई है...। आज दुइ टिकट कै इंतजाम एक चेला किहे हइ।

पइसा कइ का इंतज़ाम होई, पूछे पे ऊ अपने ही बापू के अंटी का पता बता दिया। आगे का हुआ, बतावै के कउनउ ज़रूरत बा?
चुनांचे.. ट्रेन में टीटी से बचते-बचाते हम उस पवित्र शहर में पहुंचे...जहां डीडीएलजे लगी थी. चेला से दुइ टिकिट लिहे अउ मुंह फाड़ के, रोते-गाते-सिसकते-आंसू और नाक सुड़कते हम लोग भावुक होके डीडीएलजे देखने लगे.

संस्मरण कुछ खास लंबा ना होने पाए, सो in-short हम लोग डीडीएलजे देखे अउर घर लौटे. ठोंके-पीटे गए, लेकिन जो ज्ञान इस फिलिम से, बल्कि साहरुख भइया से पाए, वोह अक्षुण्ण है...अनश्वर है...अनंत है. ज्ञान के बारे में बताएंगे हम, अभी वक्त है कुछ प्रॉब्लम डिस्कस करने का.

प्रॉब्लम नंबर एक—95 में हारमोंस कम रहे होंगे, सो चेहरे पर मूंछ ढूंढे नहीं मिलती... लोगबाग ऐसे ही लड़का ना समझ लें, इसके लिए हमने सारे जतन किए थे. जवान दिखने की खातिर अगर ज़रूरत पड़ती तो शायद शंकर-पारबती का व्रत भी रखे होते. भगवान जिलाए रखें शिवपाल बारबर के, जो अस्तुरा घिस-घिसकर ऊपरी होंठ के ऊपर थोड़ा-बहुत कालापन पैदा कर दिए. दूसरी दिक्कत ई रही कि शुरू से लड़का-लोहरिन के बीच में पढ़े, सो रोमांस कौन-खेत के मूली होत है, ये पता नाही रहा.

1995 में रिलीज़ भई डीडीएलजे और ज़िंदगी जैसे बदल गई! हम भी तब नवा-नवा इंटर कॉलेज छोड़िके डिग्री कॉलेज पहुंचे रहे. रैगिंग भी खत्म होइ गई और लड़कियन के पहली बार अतनी नज़दीक से देखेके मिला. ये प्रॉब्लम भी सुलझि गई थी कि मोहल्ले की लड़कियां बहिन होती हैं, उन्हें बुरी नज़र से नहीं देखा जा सकता. असल में बाहर से आने वाली लड़कियों के साथ ऐसी कोई शर्त नहीं थी ना...। दूर-दूर से जो आती थीं लड़कियां, पहले तो हम उन्हें कॉलेज के बाद आंख उठाकर देखते भी नहीं, डीडीएलजे ने जो सबसे बड़ा कमाल किया, वो ये कि लड़कियां बस पकड़ने स्टैंड पे जातीं और हम उनके पीछे-पीछे जाते। अरे भाई, ज़िम्मेदारी वाली बात थी...भला कोई दूसरा कैसे हमारे कॉलेज की लड़कियों को छेड़ देता! (एक सफाई दे दें...झुंड में रहते तो हम भी थे, लेकिन अइसा कुछ हम नहीं किए थे...ना यकीन हो, तो अंजुमनवा से पूछ लीजिए...ससुरा, चार बार हाकी खाइस हइ, यही चक्कर में.)


हां, तउ अब बारी डीडीएलजे और साहरुख भइया से मिले ज्ञान की...


साहरुख भइया हमको बहुत सारा रास्ता बताए...पहिला ये कि बिना मूंछ के भी जवान होत हैं और दुसरा ये—रोमांस बहुत ज़रूरी है जिन्नगी के लिए।

हम ठहरे एकदम पक्के दिहाती...कहने को गोंडा ज़िला मुख्यालय रहा, लेकिन मैसेज एकदम क्लियर था—आस-पड़ोस की सारी लड़कियां बहिन हैं...और तू उनके भाई! मतलब इमोशंस की भ्रूणहत्या...ख़ैर, हमको तो रोमांस का ही पता नहीं था कि ये बीमारी होती का है, सो कोई तकलीफ़ भी नहीं हुई...लेकिन साहरुख भइया अउ काजोल भउजी, ऐसी तकलीफ़ पैदा किए हैं कि आज तक ऊ पीर जिगर से बाहर नहीं होइ रही है.

बात कम अउ मतलब ज्यादा ई कि 90 का दशक आधा बीत चुका था, तभी प्रेमासिक्त होने की बीमारी डीडीएलजे की बदौलत खूब सिर चढ़कर बोली...और ऐसी बोली कि अब तक लोग दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के गीत सुनते हैं और प्रेमी बन जाते हैं...(अतिशयोक्ति हो, तो माफ़ कीजिए...वैसे, मुझे तो लवेरिया का पहला इंजेक्शन तभी लगा था.) रोमैंटिक फ़िल्में तो हमने पहले से हज़ार देखीं थीं, लेकिन भला हो घर-परिवार से मिले संस्कारों का कि हम भी रोमैंस का मतलब थोड़ा-बहुत समझने लगे।

अब इस ज्ञान के चलते कितनी हड्डियां टूटीं, ये बताने लगे, तो मामला गड़बड़ाय जाएगा, लेकिन इतना ज़रूर समझ लीजिए कि डीडीएलजे ना होती, तउ हम कभी आसिक बन पाने का जोखिम ना उठाते। भला होय आदित्य भइया तोहरा भी कि ऐसी फिलिम बनाए...खुद तउ डूबे ही सनम...हमका भी लइ डूबे

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Labels: चण्डीदत्त शुक्ल, दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे, सिने संस्‍कार

Tuesday, October 20, 2009

बीमारी या फिर प्रेम में दाखिल होना

केमिस्ट को याद हो गया घर का पता
रफ्तार के साथ चलता है पंखा
तेजी से धड़क रहा दिल
बिजली के साथ दवा का बिल भी बढ़ा
सौभाग्य ऊपर फ्लैक्चुएट कर रहा
या फिर दुर्भाग्य जोर-जोर से दरवाजा खटखटाने लगा यानी
बुरी तरह बीमार हूं
या प्रेम में हूं
अब ये न कहना
प्रेम भी तो एक बीमारी ही है...
(मूलतः 5 मार्च, 2009 को लिखा)

Saturday, October 17, 2009

दीवाली पर दिल-से



और मौका-ए-दीवाली की रात...कुछ हलका-फुलका. घर से दूर हूं, घरवाले-वालियां भी पास नहीं हैं...पर वो हैं, हमदम, जिनके दम पर बचा है हमारा दम...! अब `गेस' करने में समय खर्च ना कीजिए...इन फुलके जैसी लाइनों का मज़ा लीजिए...।


मुबारक हो ये दीवाली....


हर तरफ हो मिठास, भरे खुशियों की प्याली
अब लबालब दिखे घर में चांदी की थाली
चहकें भाई बहन सब, अम्मा-पापा के संग
महकें सजनी-सजन, खुश हों जीजा और साली
मन में फूटें धमाधम हंसी के पटाखे
गम का निकले दीवाला, मने यूं दीवाली

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दीवाली पर खुशियां छाएं
बिछड़े मीत जो, घर को आएं
छोड़ पटाखे, दीए जलाएं
आओ हम सब नाचें, गाएं


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दीए जलते हैं रोशनी के लिए
चांद चमके गगन, चांदनी के लिए
फ़िक्र है बहुत ज़िंदगी में अभी
आओ हंस लें इस दीवाली के लिए

Friday, October 16, 2009

कुछ और बातें


विडंबना
टपकती है जब आंख
नम होती है ज़मीन मन की
बोना चाहता हूं उल्लास के बीज
पर फिर यूं सुलगती हैं नसे
खोदने लगता हूं वासना की खाई

कलाई
आज फिर उड़ी पतंग
और डोर मेरे हाथ में नहीं
उलाहना क्या दूं
मैं ही कहां थाम सका
तुम्हारी कलाई

निगरानी
हां, फिर आया मैं पीछे-पीछे
क़दमों के निशान और धड़कने गिनते हुए
कितना बुरा होता है
प्रेमी का वाच डॉग में तब्दील हो जाना

बंजर
ज़हर की तासीर भी कम हो गई
हलक से उतरा पर काम ना आया
जैसे मेरा प्यार
स्वार्थ की ज़मीन थी, तो वासना की फसल उगी
अफ़सोस कैसा, जो लगाव के फूल नहीं खिले

इंतज़ार
अब तक हूं प्रतीक्षा में
पर मौसम की तरह
बदलती जा रही हैं घड़ी की सुइयां
और लंबा होता जा रहा है पतझड़

आह
अक्सर ख्वाब देखे हैं मैंने
और पाया है
लाल हो गई है तुम्हारी पुतली
जैसे
दर्द मुझको हो
और आह उठे तुम्हारे सीने में

जवाब

कहां हो तुम
और कब तक?
कुछ सवालों की नियति है
अनुत्तरित रहना


यूं मिलो

कितना वक्त गुज़र गया है हंसे हुए
अब तो घोल दो
प्रेम की लस्सी
चुंबन की चीनी
और आलिंगन का दही
फेंट दो, मिल जाएं, हो जाएं एकसार
जैसे मिले हैं हमारे दिल
हंसो कि मैं भी हंसना चाहता हूं!

Saturday, October 10, 2009

कुछ कविताएं...चंद अहसास


इसी साल, यानी 2009 के के मार्च महीने में, पता नहीं किन मनःस्थितियों, भावनाओं, अहसास और कल्पना के अजीब-से सामंजस्य के बीच कुछ कविताएं लिखी थीं. जब पढ़ा, तो लगा कि इनमें कई जगह वैयक्तिकता इतनी हावी है कि साहित्य तो छीज गया है...गायब हो गया है. कितने ही दिन गुज़र गए. आज फिर कहीं मिल गईं ये पंक्तियां...चलताऊ भाषा में कहूं, तो अजब गुस्सा आया...खूब धोया-पटका-छांटा-निचोड़ा और फिर जो कुछ बचा, उसे पेश कर रहा हूं. अब इसमें से मैं और मेरी वैयक्तिकता तकरीबन गायब है...हां, अहसास तो हैं ही, क्योंकि वो ना हों, तो कविता कैसे बने?




द्वंद्व

चरित्र?
हड्डियों की ठठरी, मांस-मज्जा...
या मन भर
या इनसे बनी-बुनी भाव-भूमि
साथ की तलाश में देह के बिंधने की विवशता!
शरीर रोटी नहीं, जो बासी हो
फिर भी
शुचिता और अपवित्रता बोध के बीच उफनना?
चेहरा पानी से धुल क्यों नहीं हो पाते हम ताज़ा?


नहा लें...
चुंबनों से सराबोर होकर भीगें
हों गो-मुखी गंगा सरीखे पवित्र
मिलें तर्क, झूठ और आवरण के बिना...
फेंक दें तन और मन की पोटलियां
कोहरे से ठिठुरे किसी झुरमुट के पीछे
नहा जाएं नेह-नीर से।


दोहरापन
आंखों से टूटते दो बूंद
थरथराते-सहमते होंठ, कांपते हाथ
हाथ, जिन्हें थाम सिहर उठा मन
कहां समझ पाया...
घुटन के बाद भी जुड़े रहे तार
प्रीति कहां हो सकती है छलावा!
माफ़ करना दोहरेपन के लिए!


गुड़िया
ज़ुबान से रिसते संबोधन
आंखों में तिरती पीड़ा
होंठ से बरसती मुस्कान
सीने से चिपकी, स्नेह और भरोसा पीती
गोद में छिपी पच्चीस साल की उम्र
शुक्रिया...
गुड़िया संभालकर रखने के लिए
कहीं खुद की बुनाई उधेड़ देती
तो नुच जाता मेरा भी तन-मन!

गुड्डा
नहीं ओढ़ी चमकदार खाल
लपेटे रहा खुरदुरापन, दहकता हुआ सीना,
उबलती आंखें लगातार,
फिर क्यों
चेहरे के खेत में नहीं उगी
गुड़िया के साथी की शक्ल?


कहां देखा वसंत?
मुरझाई शाख पर खिला
बस आंख के साथ के सहारे
कहां देखा वो वसंत
कहां सुनीं वो कविताएं
जो रची किसी ने भी हों
पर कही-पढ़ीं साथ-साथ
कहां देखा उन्माद और वासना पर
प्यार की उछाल का असर
देखी-परखी चीज़ों के बीच गढ़े नए प्रतीक
घास पर उतर आया कोहरा
भेल में नवरस का मज़ा
और ऑटो में विमान-सी रफ़्तार
तब कहां रह गए हम
नीम-बेहोशी में जब प्रेम के सिवा कुछ भी बाकी नहीं था!


कैसा जीवन-कैसे साथी?
एक चुटकी सिंदूर
सात फेरे
और सोलह साड़ियां
साथ की आस में चले जीवन भर के साथी
झूठ कहा नहीं
हरदम गढ़ा असत्य
पल-पल झुलसा सलोनापन
बहेलिए और बटोही के बीच जैसी फ़ितरतें
कैसा जीवन, कैसे साथी?

चाय और चाह
याद हैं ना वो चाय के घूंट
कभी प्लास्टिक, कभी ग्लास और कई बार कुल्हड़ों में सिमटे
दूध नहीं, ना ही पत्ती और चीनी
पर कैसे गले के नीचे उतरता जाता था वो गर्म पानी
चाय के किसी अहसास के बिना
बस गर्म होती चाह की अनुभूति...
अब कहां वो चाय और कहां वो चाह
काश, लौट आए गर्म पानी में कैपेचीनो सा मज़ा
आह...ये तो उपमा ही गलत हो गई, चाय के बीच कॉफी की बात!
कोई बात नहीं...यही सब होता है प्रेम और बावलेपन में…