कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Saturday, July 27, 2013

करोड़पति बेस्टसेलर लेखक - अमीश त्रिपाठी से चण्डीदत्त शुक्ल की बातचीत



यह साक्षात्कार अहा! ज़िंदगी के साहित्य महाविशेषांक में छपा है, तब मैं अहा! का फीचर संपादक हुआ करता था :) पिछले दिनों इंटरनेट के पन्ने पलटते हुए मैंने देखा कि रचनाकार पर यह साक्षात्कार अपलोड किया गया है। वहीं से चौराहा के पाठकों के लिए पुनःप्रस्तुत कर रहा हूं। नीचे दी गई टिप्पणी रचनाकार के मॉडरेटर की है। यह अविकल साक्षात्कार नहीं है। कुछ अंश संभवतः वेबसाइट संचालक ने छोड़ दिए हैं। उन्हें पढ़ने के लिए अहा! ज़िंदगी का साहित्य महाविशेषांक खरीदकर पढ़ सकते हैं...
- चण्डीदत्त शुक्ल



रचनाकार की टिप्पणी

(अमीश त्रिपाठी को उनके नए, अनाम उपन्यास, जिनके लिए उन्होंने अभी विषय भी नहीं सोचा है, पांच करोड़ रुपए का एडवांस प्रकाशक की ओर से मिला है. किसी भी लेखक के लिए इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है भला! इन्हीं अमीश त्रिपाठी से अहा! जिंदगी के फ़ीचर संपादक चण्डीदत्त शुक्ल ने लंबी बातचीत की और उसे अहा! जिंदगी के साहित्य महाविशेषांक {जी हाँ, अब विशेषांकों का जमाना खत्म हो गया, महा-विशेषांक आने लगे  हैं और शायद जल्द ही अति-महा-विषेशांक भी देखने को मिलें!} में छापा है. रचनाकार के पाठकों के लिए उनकी यह विचारोत्तेजक, मनोरंजक बातचीत साभार प्रस्तुत है.लगे हाथों बता दें कि अहा! जिंदगी का 100 रुपए कीमत का यह साहित्य महाविषेशांक पूरा पैसा वसूल है - 10 हंस+वागर्थ+वर्तमान साहित्य इत्यादि पत्रिकाओं से भी वजन में ज्यादा. मंटो पर भी कुछ बेहतरीन पन्ने हैं, तो विश्व स्त्री साहित्य पर विशेष खंड. साथ ही विदेशी कविताएं भी खूब हैं, जिनसे देसी कवियों को विषय-वस्तु-ज्ञान मिल सकता है.)



पांच करोड़ रुपए का एडवांस - वह भी ऐसी किताब के लिए जिसका विषय तक नहीं सोचा.. खुश तो बहुत होंगे आप?
खुश हूं पर करोड़ों का एडवांस पाने की वजह से नहीं, बल्कि अपने विश्वास की पुष्टि होने पर! मैं हमेशा सोचता था कि अच्छे मन से कुछ किया जाए तो ईश्वर साथ देते हैं और अब वह यकीन और ज्यादा मजबूत हो गया है। जहां तक उपलब्धियों की बात है तो यह बेहद अस्थायी वस्तु है। कभी भी आपके हाथ से फिसलकर गिर सकती है। आज कामयाब हूं तो प्रकाशक पीठ थपथपा रहे हैं। कल को असफल हो गया तो कोई मुड़कर भी नहीं देखेगा, इसलिए व्यर्थ का अहंकार या प्रसन्नता का भाव मन में नहीं पालना चाहिए।

. ... पर प्रसिद्ध तो हो गए हैं आप!
मैं ऐसा नहीं सोचता। रास्ते से निकलता हूं तो भीड़ इकट्ठी नहीं होती। खं, कुछ लोग पहचान लेते हैं, लेकिन किताबों की वजह से ।

अब, आप विनम्र हो रहे हैं..
मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर रहा हूं! असल प्रसिद्धि पुस्तकों को मिली है। मुझसे वह दूर ही है। सच को जितनी जल्दी समझ लिया जाए बेहतर होता है और मैंने यह हकीकत समझ ली है।

खैर, बड़ी कंपनी में ऊंची तनख्वाह की नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक लेखक बनने का फैसला करना छोटी-मोटी बात नहीं होती!
लंबे संघर्ष के बाद ऐसा हुआ है। वैसे भी, आप जानते हैं कि मैं मैनेजमेंट की फील्ड से हूं (हंसते हैं) । पहली दो किताबें जॉब में रहते हुए लिखी हैं जब देखा कि रायल्टी के चेक की रकम तनख्वाह से ज्यादा हो रही है तब नौकरी छोड़ी। आखिरकार, मेरा एक परिवार है। उसका भविष्य सुरक्षित किए बिना जॉब कैसे छोड़ सकता था? बाबा कहते थे - दो तरह की भाषा होती है एक - पेट की भाषा और दूसरी दिल की । पहले पेट की जबान सुनी और अब दिल के रास्ते पर चलने लगा हूं।

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?
हर स्तर पर संघर्ष। पल्ले तो यही कि लिखना कैसे है। जब वह हुनर आ गया तो प्रकाशन का। पस्ती किताब - 'द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' बहुत-से प्रकाशकों ने रिजेक्ट कर दी थी, लेकिन आप संख्या न पूछिएगा, क्योंकि बीस प्रकाशकों की ओर से मना किए जाने के बाद मैंने गिनती करनी बंद कर दी थी। बाद में खुद ही चुनौती मोल ली और पाठकों ने इसे पसंद किया।

क्या ऐसा फैसला करने के लिए नैतिक साहस देने वाला, सही समय आ चुका था?
यकीनन, बदलती आर्थिक परिस्थितियों में सबकी हिम्मत बढ़ी है। लोग जोखिम ले सकते हैं। मैं मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं जहां पढ़ाई-लिखाई का पूरा जोर करिअँर बनाने पर होता है। मेरे सामने इंजीनियरिंग, बैंकिंग, एमबीए जैसे विकल्प ही थे, इसलिए इतिहासकार बनने की इच्छा कहीं दबा दी थी । यह वह समय था, जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी । अब, हालात बदले हैं और अवसर बढ़े हैं।

एक व्यक्ति के रूप में, दबाव से बाहर आकर, बेहतर प्रदर्शन कर सकता हूं जब यह लगा तो लेखन करने की ठान ली।
यूं भी, इन दिनों बैंकिंग, फाइनेंस के क्षेत्र से कई लेखक बाहर आ रहे हैं..बात महज इन तकनीकी क्षेत्रों की नहीं है। बदलाव हर जगह आया है। आम भारतीय में आत्मविश्वास बढ़ा है और यकीनन, जब खुद पर भरोसा बढ़ेगा तो वह रचनात्मक तरीके से बाहर आएगा।

आत्मविश्वास में, इजाफा क्या नई बात है? भारत तो सोने की चिड़िया था ही...
हम सैकड़ों साल गुलामी से जूझते रहे हैं। गुलामी भी तरह-तरह की। आर्थिक, वैचारिक... सब। इसकी वजह से इतने पीछे आ गए थे कि सोने की चिड़िया वाली बात महज इतिहास में ही दर्ज होकर रह गई। हमारे महान अतीत का रहस्य यही है कि समाज नई चीजों को स्वीकार करता था। बाद में हम खुले तो थोड़े और, लेकिन पश्चिम के प्रभाव में अपनी मौलिकता खो बैठे।

वैसे, आधुनिक जमाने में, ज्यादातर अंग्रेजी पाठक युवा हैं ऐसे में मिथकों पर लिखना कितना चुनौतीपूर्ण था?
यह सोचना गलत है कि युवा पाठकों की मिथक, धर्म या अध्यात्म में रुचि नहीं है। धारणा हमने बना ली है, वह भी मजेदार बात बिना आधार के। नौजवान अपनी जड़ों के बारे में जानना चाहते हैं। हां, उन्हें उबाऊ तरीके से सब कुछ बताया जाता है, इसलिए उनकी रुचि नहीं बन पाती। युवा तार्किक तौर पर चीजें परखना चाहते हैं। हम जहां पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाते, वह वहीं पर सवालिया निशान लगा देता है। इसके अलावा, जातिवाद और महिलाओं के लिए अपमानजनक प्रसंगों को भी वे पसंद नहीं करते । खैर, मैं जितने नौजवानों को जानता हूं वे सब अपनी संस्कृति से जुड़े हैं। कुछ जरूर बेहद वेस्टर्न हैं, खुद को इलीट समझते हैं - वे जानकर भी धार्मिकता और संस्कृति की बात नहीं करना चाहते।

फिर भी, पॉपुलर लिटरेचर में मिथक..!
इतनी हैरत की जरूरत नहीं है। भारत में मिथक-आधारित कथा लेखन नया नहीं है। बुजुर्गों से हमने बार-बार कथाएं सुनी हैं और उनमें हो रहा बदलाव देखा है। अलग-अलग इलाकों में एक ही कथा के परिवर्तित रूप सुनने को मिलते हैं। वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसी का रामचरित मानस बदलाव साफ नजर आता है। उत्तर भारत के श्रीराम अलग हैं और आदिवासियों के समाज के राम अलग । दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र की रामकथाएं हों और उत्तर प्रदेश व बिहार की रामगाथा, कबा रामायण, गोंड कथा आप विभिन्नता महसूस कर सकेंगे। जैसा समाज, जिस तरह का सामाजिक-आर्थिक स्तर, कथाओं में वैसा ही अंतर! कहानी सुनाना और सुनना हमारे डीएनए का हिस्सा रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मिथक कथा की परंपरा है। नरेंद्र कोहली ने अपने तरीके से श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया। अंग्रेजी में अशोक बैंकर ने। दीपक चोपड़ा ने कामिक्स का माध्यम अपनाया। अमर चित्रकथा आदि ने तो महापुरुषों से परिचित कराया ही। अंग्रेजी भाषा में इसे मैंने आगे बढ़ाने की कोशिश की है लेकिन नया कम नहीं कर रहा हूं। खाली जगह बन गई थी, जिसे भरने में जुटा हूं। एक और तथ्य स्पष्ट कर दूं - लिखने से पहले मैंने इस बात को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की थी कि किसे पसंद आएगा और किसे नहीं ।

आप प्रभु को ही सब श्रेय देते हैं। ऐसा श्रद्धा के कारण है या तार्किक ढंग से मानते हैं?
मेरा स्वभाव बेहद चंचल था, शायद खेलकूद से प्रेम करने की वजह से। ईश-कृपा न होती तो संयत और स्थिर होकर लिख ही नहीं सकता था।

हमेशा इतने ही आस्तिक थे?
बचपन में तो था, पर बाद में भक्ति का भाव कुछ डगमगा गया था। खैर, पहले बचपन की बात करूं। उस समय घर में भक्ति-भाव की बयार बहती थी। पूरा समय मंत्रपाठ होता रहता। पूजा-आरती, घटियों की ध्वनि शंख का नाद - दादा और पिताजी के पास देवी-देवताओं से जुडे किस्से-कहानियों का भंडार था। हालांकि थोड़ा-सा बड़ा होने पर मुझे कर्मकांड और इससे जुड़ी सांप्रदायिक सोच से काफी उलझन हो गई थी । मुंबई में आए दिन दंगे होते, आतंकी हमलों की खबर भी सुनाई देती। पर पिताजी ने मन में आस्तिकता की ली बुझने नहीं दी। उन्होंने गीता का ही उपदेश सुनाया कि सब प्रभु इच्छा से होता है। हम अपना कर्म न भुलाएं ये आवश्यक है। लगातार अंतर्द्वंद्व में रहा पर पहली किताब लिखने से पहले फिर से पूर्ण आस्तिक हो चुका था।

पिता ने धार्मिकता की ओर लौटाया और पत्नी ने? मान्यता है कि एक सफल व्यक्ति के पीछे पत्नी का बड़ा हाथ होता है। आपकी क्या राय है?
प्रीति से मेरी मुलाकात 1990 में हुई थी। उनसे मिलने से पहले मैं एकदम उबाऊ इंसान था। लोगों को अब जितना विनम्र दिखता हूँ उसकी तुलना में बेहद चीखने-चिल्लाने वाला आदमी था। जरा-सी बात में धैर्य खो देता था। प्रीति ने जीवन को जीना और इसका आनंद उठाना सिखाया है। पेश उपलब्धियों के पीछे इनका जो हाथ है, वह मैँ शब्दों में व्याख्यायित नहीं कर सकता। मुश्किल समय में वे अचूक और सटीक सलाह देती हैं। उनके जैसी मार्केटिंग मुझे भी नहीं आती। हम दोनों साथ में खुश हैं। हां, कई बार वे चुटकी लेते हुए कहती हैं कि एक सक्सेस फुल राइटर से शादी करके ज़िंदगी का चैन गायब हो गया है। जिस वक्त उन्हें टेलीविजन पर एक्शन शो देखना होता है, वे मेरे लिए रिसर्च कर रही होती हैं या फिर मार्केटिगं की योजनाओं में व्यस्त होती हैं।

पत्नी धर्म की बात तो हुई, लेकिन अब बात करते हैं भारत में धर्म और समाज के अंतर्संबंध की। यह तो अब भी मजबूत है पर हम पाते हैं कि साहित्य और समाज के बीच दूरी बढ़ गई है..
थोड़ी दूरी जरूर आ गई थी, लेकिन कुछ अरसे में ये खाई पटी है। आर्थिक परिस्थितियां सब कुछ बदल देती हैं रिश्तों और समाज पर भी असर डालती हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन आ रहा है, भविष्य में सबंध निश्चित तौर पर और मजबूत होंगे - आपसी रिश्तों और साहित्य के साथ समाज के भी।

आम आरोप है कि साहित्य में जो कुछ बयान हो रहा है हकीकत में वह कहीं रहता ही नहीं, यानी लिटरेचर से 'सच' गायब हो चुका है..
कुछ मायनों में यह बात सही हो सकती है पर धीरे-धीरे लोग यथार्थ की मांग जोर-शोर से करने लगे हैं। पढ़ना-लिखना केवल अपने सुख के लिए नहीं रह गया है। नए दौर के लेखक स्वांत: सुखाय या कुछ महान कर रहे हैं - के भाव में नहीं लिखते रह सकते। बुक पब्लिशिंग बड़ा व्यवसाय है। पहले प्रकाशक दस-बीस हजार प्रतियों की बिक्री को बड़ा आंकड़ा मानते थे, लेकिन वे भी जोर देकर कहने लगे हैं कि एक लाख से अधिक प्रतियां जिस किताब की बिकेंगी, वही बेस्टसेलर होगी। लेखकों को तय करना पड़ रहा है कि वे पाठकों की रुचि के मुताबिक रचे। प्रकाशक ऐसी ही कृतियां प्रकाशित करें। पाठक समझते हैं कि उन्हें क्या पढ़ना चाहिए। सही मायने में इलीट राइटिंग का कॉन्सेप्ट खत्म हो रहा है। सबके लिए लिखना ही होगा । ऐसी हजारों किताबें हैं, जिन्हें बेस्टसेलर होना चाहिए था, लेकिन उनका किसी ने नाम तक नहीं सुना। सुनेंगे ही नहीं तो खरीदेंगे कैसे? अब वक्त आ गया है जब लेखक बाजार को समझें और खुद में सिमटे रहने की अंधेरी दुनिया से बाहर आएं।

अच्छा! लिटरेचर फेस्टिवल्स की बढ़ती संख्या से भी साहित्य को कुछ लाभ पहुंचेगा?यकीनन। जितने लोग लिखने-पढ़ने की बातें करेंगे, उनमें से कुछ तो किताबों तक पहुंचेंगे ही। हमारी सोच में परिवर्तन लाना लाजिमी हो गया है। हम बुक और लिटरेचर फेस्टिवल्स को संदेह की निगाह से देखते हैं, जबकि बाजार कोई बुरी चीज कभी थी ही नहीं। अतीत में झांककर देखिए - पुराने जमाने में भी हाट-बाज़ार के बिना जीवन एक कदम भी आगे नहीं खिसकता था।

लोग यह भी कहते हैं - अपनी किताबें बेचने के लिए अमीश कोई भी दांव आजमाने से नहीं चूकते।बुरा क्या है? आप कुछ भी लिखें, अगर वह किसी तक पहुँचे नहीं तो उसका क्या लाभ होगा। मैं सोशल कम्यूनिटीज के जरिए युवाओं से जुड़ा हूं। जरूरत के हिसाब से प्रमोशन करता हूं और इसमें कुछ भी खराब है ऐसा नहीं समझता।

वैसे, यह विचार कैसे जन्मा कि धर्म-अध्यात्म-संस्कृति से जुड़े किसी विषय पर उपन्यास लिखा जाए?विचार बस लिखने का था... वह उपन्यास होगा या शोध, तब तक पता भी नहीं था। यूं लेखन का इरादा भी एक घटना से जुझ है। एक दिन शाम के वक्त हम सब घर पर खाना खाते हुए टीवी देख रहे थे। तभी ईरानी संस्कृति से संबंधित एक कार्यक्रम आने लगा और फिर उस पर चर्चा शुरू हो गई। जोरदार बहस। सही कौन और गलत कौन? बात फिर भारतीय संस्कृति तक पहुंची। सारे यहां सबके देवता अलग-अलग हैं। कोई आपको प्रिय होगा, पर दूसरे को नापसंद हो सकता है। स्वाभाविक तौर पर सवाल खड़ा हुआ कि उचित कौन है? शायद दोनों पक्ष? कुछ अच्छ या बुरा है ही नहीं। प्रश्न महज सोच का है। देवता और दानव, खराब और सही - यह नज़रिए का सवाल है लेकिन सब तो यह बात नहीं समझते। चर्चा इतनी आगे तक गई कि मैंने सोच लिया इस विषय पर कुछ लिखूंगा। ऐसा, जिससे अच्छे बुरे, देवता-दानव की कुछ परिभाषा स्पष्ट हो सके।

चलिए, इरादा बना... इसके बाद?भाई-बहन को बताया कि मैं अच्छाई और बुराई के कोण पर कुछ लिखना चाहता हूं तो उन्होंने सुझाव दिया कि जो कुछ लिखे, वह दार्शनिकता से इतना न भर जाए कि उबाऊ लगने लगे। आप अपने विचार व्यक्त कीजिए लेकिन कहानी की शैली में। ऐसा होने पर ही पाठकों के साथ बेहतर संवाद स्थापित हो सकेगा। मैंने उनके सुझावों पर गौर किया और लिखना शुरू कर दिया, लेकिन कहानी की भाषा में विचार और शोध करना आसान नहीं था।

किस तरह की मुश्किलें सामने आई?मैंने पहले कुछ भी नहीं लिखा था । स्कूल में भी छोटी-सी कहानी तक नहीं । विस्तार से पढ़ने जैसा काम नहीं किया था। अपने प्रोफेशन से संबंधित ई-मेल्स लिखने के अलावा! हां, जब सोच लिया कि अच्छाई-बुराई के बारे में एक विचार परक पुस्तक लिखनी है तब 'सेल्फ हेल्प' जैसी कुछ किताबें जरूर खरीदीं। लंबी-चौड़ी तैयारी के साथ, लिखना शुरू किया। ठीक वैसे ही, जैसे कोई एमबीए पर्सन प्रोजेक्ट तैयार करे, लेकिन पता नहीं कितनी बार, लिखा और फाड़कर फेंक दिया। कुछ रुचता ही नहीं था। आखिरकार, पत्नी ने मार्के की सलाह दी - तुम इसलिए अच्छ नहीं लिख पा रहे हो, क्योंकि तुम्हारे मन में 'क्रिएटर' होने का दंभ पल रहा है। उसे त्याग दो। खुद को गवाह मानो और सोचो - भगवान विचारों की गंगा को तुम्हारे मन की धरती के लिए मुक्त कर रहे हैं। उस प्रवाह को रोको नहीं, पन्नों पर बिखर जाने दो। मैंने ऐसा ही किया और फिर देखते ही देखते किताब पूरी हो गई।

आपकी रचनाओं में प्रमुख तत्व क्या है - शोध, विचार या कहानी?एक ही शब्द में कहूंगा - आशीर्वाद। ये किताबें वरदान हैं। वैसे भी, यदि कोई लेखक यह सोचता है कि वह अपने मन से कुछ कर सकेगा तो यह संभव नहीं है। कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं । खुद को निर्माता मान लेना अहंकार है। जहां तक आपका प्रश्न है, मेरी प्राथमिकताओं में विचार और कहानी एक-दूसरे के पूरक हैं। बाकी लिखते समय बहुत-सी चीजें बिना कोशिश के होती हैं और उनकी खूबसूरती का कोई सानी नहीं होता। आपके विचार एक संदेश के रूप में सामने आते हैँ और कहानी उस प्रवाह को बनाए रखने में मदद करती है।

इतिहास की पुनर्व्याख्या में बहुत-से खतरे होते हैं। वह भी तब, जब इतिहास धर्म से जुड़ा हो। इसके मद्देनज़र अपनी पहली किताब के लिए आपने कितना शोध किया?मैं स्पष्ट कर दूं कि हिंदू धर्मावलंबी, बल्कि ज्यादातर भारतीय, बहुत सहिष्णु हैं। धर्म की बात होने पर या उसकी किसी भी तरह की आलोचना सुनते ही संयम खो देने वाले और लोग होंगे कम से कम भारत में ऐसा नहीं है। शोध की बात पर जवाब दोहराना चाहूंगा - सोच-समझकर, योजना बनाकर कभी पढ़ाई नहीं की । ऐसा नहीं है कि मैं किताब लिखने के लिए महादेव से संबंधित जगहों की यात्रा पर गया हूं। हां, पूरे देश का भ्रमण और बहुत-सी चीजों को समझने का 25 साल से जारी है। पर वह पढ़ना-समझना और घूमना बेइरादा था। परिवार में पठन-पाठन और धार्मिकता का माहौल शुरू से था । मेरे दादा वाराणसी के हैं। वे पूजा-पाठ में खासी रुचि लेते थे । हमेशा धार्मिक प्रतीकों, कथाओं की बातें करते । तो वह एक बीज था, जो मन में पड़ गया था । धार्मिकता का यह अंकुर ही बाद में विचार यात्रा में परिणत हुआ, जिसके कुछ अंश आप ‘द इमॉर्टल्स ऑफ मेलुहा' जैसी किताबों में देख सकते हैं।

दादाजी के बारे में कुछ और बताइए..वे धर्म की जीती-जागती किताब थे । धार्मिकता से भरपूर, पांडित्यपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षक भी रहे। मेरे माता-पिता ने भी धर्म में विश्वास के गुण उनसे ही प्राप्त किए हैं। उनसे मैंने प्रचुर मात्रा में पौराणिक कथाएं सुनीं । धार्मिकता का भाव समझा । हालांकि उनके व्यक्तित्व की एक और खासियत थी उदार होना । घर में सभी आस्तिक हैं, लेकिन उतने ही लोकतांत्रिक भी । वे दूसरों के विचारों का भरपूर सम्मान करते हैं। हम अक्सर दिलचस्प बहसें करते । अलग-अलग मुद्दों पर विचार-विमर्श करते रहते। यही कारण है कि मैं अलग-अलग धर्मों और मान्यताओं के बारे में तार्किकता से समझ सका । वह भी तब, जबकि पस्ती किताब लिखने से पहले मैं खुद नास्तिक था।

क्या?यह तो मानता था कि संपूर्ण प्रकृति के संचालन की एक व्यवस्था है, लेकिन ईश्वरीय सत्ता या अस्तित्व को लेकर जिस तरह के विचार थे, उनके हिसाब से मैं नास्तिक ही कहलाऊंगा ।

बदलाव कैसे आया?यह भी ईश्वरीय आशीष है। उन्होंने मन में आस्था पैदा की, फिर इतनी दृढ़ कर दी कि शिव के अतिरिक्त किसी और बात का विचार ही मन में नहीं ला सकता । एक बार आस्तिक बनने के बाद मैंने अन्य धर्मों में भी विश्वास रखना शुरू कर दिया । सभी धर्म समान रूप से सुंदर हैं।

अच्छाई और बुराई के संधान को कथारूप देते हुए प्रमुख पात्र के रूप में शिव को ही क्यों चुना? किसी और ईश्वरीय स्वरूप पर विचार न करने की वजह क्या थी?देखिए बुराई के संहार की जब बात होती है तो निगाह के सामने एक ही देवता का चेहरा घूमने लगता है, वे हैं - शिव । मैं बुराई के सिद्धांतों की व्याख्या करने में लगा था और तब मुझे शिव से बेहतरीन किरदार दूसरा कोई भी नहीं दिखा। इसके अलावा, जब आप मिथक में 'हीरो' तलाशते हैं तो वे एक आदर्श चरित्र हैं। शिव 'माचो' हैं, औघड़ है और उतने ही रहस्यमयी भी हैं। पूरे संसार में वे अनगिनत रूपों और तरीके से पूजे जाते हैं। वे आज़ाद और अकेले हैं। कांवड़ से लेकर पॉप तक पूरी तरह 'फिट' हो जाते हैं। तानाशाह ईश्वर की तरह नहीं दिखते । उनकी सहजता प्रभावित करती है।

अगला कदम क्या था?लिखना शुरू हो पाना ही मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी। एक-एक कदम चलते हुए मंजिल तक पहुंच तो गया, लेकिन पहले शुरुआत और फिर प्रवाह का बने रहना और अंततः शिव के पात्र के साथ न्याय कर पाना सबसे बड़ी चुनौती थी। एक घटना याद आती है सुबह के समय मैं स्नान कर रहा था। कथा-सूत्र कुछ अटक-सा गया था। यकायक, मन में विचार कौंधे। मैं खुशी से कांप उठा। बाहर निकलकर रोना शुरू कर दिया। जोर-जोर से रुदन। वह एक ऐसी भावुक स्थिति थी, अकल्पनीय और अवर्णनीय, जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। यूं भी शिव सबमें हैं। उनकी अनुश्रुति न होने तक ही सब संकट मौजूद हैं। जैसे ही शिवत्व को आपने पहचान लिया, उसके बाद एक ही नाद नस-नस में गूंजता है हर हर महादेव, हर एक में महादेव, हम सब महादेव हैं!

कभी ऐसा नहीं लगा कि तीन अलग-अलग किताबों में कथानक बिखेर देने की वजह से पाठकों को असुविधा होगी?मुझे ऐसा नहीं लगता है बल्कि तीन खंडों की वजह से पाठकों को कुछ सोचने-समझने और विराम लेने का अवसर मिला है। दूसरे - प्रकाशक के लाभ, मार्केटिंग की संभावना और लेखक को भी कुछ चिंतन का मौका मिलने का ध्यान रखना होता है।

एक सफल रचनाकार, इतिहासकार या धार्मिक व्यक्ति - खुद को क्या कहलाना पसंद करेंगे?एक शिवभक्त और पारिवारिक व्यक्ति, उसके बाद बाकी सब कुछ। परिवार मेरी ताकत है और शिव कृपालु। इनके बिना मेरी कोई गति नहीं है।

'शिव-त्रयी' के बाद अगली श्रृंखला के लिए कोई विषय सोचा?फिलहाल, प्राचीन ग्रीक और मिस्र संस्कृतियों पर अध्ययन कर रहा हूं। मनु और अकबर पर चिंतन कर रहा हूं। रामायण और महाभारत के अलग-अलग संस्करणों और व्याख्याओं पर भी लिख सकता हूं। बहुत-से विचार हैं। देखते हैं। भविष्य में कौन-सी सोच ज्यादा मजबूत होकर किताब बन सकेगी। बैंकर साहब और देवदत्त पटनायक ने मिथकों पर अच्छ शोध किया है और दिलचस्प किताबें लिखी हैं। आजकल उनके भी पन्ने पलट रहा हूं।

(विस्तार से पढ़ें - अहा! ज़िंदगी के साहित्य महाविशेषांक में)

Wednesday, April 17, 2013

हर साल बस इंतज़ार






- चण्डीदत्त शुक्ल

धुंधली होती गई धीरे-धीरे गुलाबी जनवरी.
कोहरे की चुन्नी में बंधी रही,
जाती हुई फरवरी के चांद की हंसी.
मार्च की अलगनी पर टंगी रह गई,
तुम्हारी किलकन की चिंदी-चिंदी रुमाल।
अप्रैल, मई और जून पकते हैं मेरे दिमाग में,
सड़े आम की तरह,
बस अतीत की दुर्गंध के माफिक,
पूरी जुलाई बरसती है आंख
और कब बीत जाते हैं,
अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर
कांपते हुए,
जान भी नहीं पाता।
तुम्हारे बिना मिला सर्द अकेलापन मौसमों पर भारी है.
नवम्बर के दूसरे हफ्ते की एक बोझिल शाम में याद करता हूं,
चार साल पहले के दिसम्बर की वो रात,
जब तुमने हौले-से
चीख जैसा घोल दिया था,
कान में,
तीखा-लाल मिर्च सरीखा स्वाद,
कहकर –
अब के बाद हर साल बस इंतज़ार करोगे!

Wednesday, February 27, 2013

यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं

- चण्डीदत्त शुक्ल

मेरे शहर का नाम गोंडा है। धुंध, धूल, हंसी, उदासी, ठंड नारेबाज़ी और सरोकार – हर मौसम, हर एहसास, अपनी पूरी बुलंदी पर। सुना है – एक-दो मॉल खुल गए हैं – देखा नहीं। सोचता हूं – दिल्ली-बंबई की तरह वहां कार्ड से पेमेंट होता होगा, बैरे को टिप दी जाती होगी या फिर पुराने वक्त के हिसाब से बारगेनिंग, यानी `थोड़ा और कम करो' की कवायद जारी होगी? खैर, बयान यहां गोंडा का करना नहीं था, ये सब बताने की गरज बस इतनी थी कि मेरा शहर कुछ-कुछ कस्बाई है, जो जितना बिल्डिंगों में बना और सड़कों पर बढ़ा है, कदरन उतना ही दिलों में भी बसा है। बात उन दिनों की करनी थी, जब मैं किशोर से ज्यादा और नौजवान से कुछ कम था, बीए फर्स्ट ईयर के दौर की या उससे भी पहले की बात होगी।
जगन्नाथ त्रिपाठी जी, भाषाविद् और साहित्यकार

कहते हैं – जवानी की डगर पर पहले-पहले कुछ क़दम रखते वक्त मोहल्ले की सब लड़कियां हसीन लगती हैं और जगजीत सिंह की ग़ज़लें मीठी – ऐसे समय में डायरी लिखने की आदत पड़ जाती है, सो ग़म-ए-रोजगार इश्क था, कुछ-कुछ रोजगार की तलाश थी पर डायरी में कवितानुमा पता नहीं क्या लिखने का चस्का लग चुका था। शहर तब भी ऐसा ही था, जैसा कम-ओ-बेश अब है... साहित्य को लेकर सनक, उन्माद, जुनून इसी तरह का था, ज्यूं इस दिन तक है, जब आप ये यादनामा पढ़ रहे हैं। परंपरागत कविताई, यानी छंद, तुक से तुक मिलाने की होड़, ऐसी कविताएं – जो सांस्कृतिक पहचान हैं – मंचों पर  वीर रस का वमन, या चुटकुलेबाजी तब भी थे, लेकिन कुल-मिलाकर बात बस इतनी कि हवा में परंपरा की खुशबू ज्यादा थी। मुझे मुगालता था अपनी उम्र से आगे का होने का, सो तुक से अलग, बेतुकी बोले तो फ्री-वर्स कविताएं गढ़ने लगा था।

उन्हीं दिनों मिले थे डीएफओ साहब।
सेवानिवृत्त हो चुके थे। पर हम सबके लिए डीएफओ साहब ही थे... जगन्नाथ त्रिपाठी जी। दिखने में बेहद बुलंद, सेहतमंद, सुंदर। मेरी मसें भीग रही थीं, मूंछ हल्की-हल्की ही आई थी और वे भरे-पूरे बुजुर्ग थे। बोलते और मुंह से मिसरी फूटती – ये उपमा ग़लत नहीं है, एकदम सटीक और सही है। वे उन दिनों `पलाश' शीर्षक से एक प्रतिनिधि संकलन या कि कहें पत्रिका प्रकाशित करने की जद्दोज़हद में थे। प्रकाशन कितना दुष्कर और तकरीबन `थैंकलेस’ होता है - इसका पहले-पहला एहसास तभी हुआ था। एक गोष्ठी में मिले या फिर किसी कवि परिचित के साथ उनके घर गया था – ठीक-ठीक याद नहीं आता – पर मिलना हो गया था। बेहद आत्मीयता के साथ हाथ मिलाया था। पूछते हुए, कुछ-कुछ चुटकी लेते हुए, हंसकर - कविता लिखते हैं आप...? तो फिर सुनाइए। मुक्तछंद कविताएं याद तो रहती नहीं हैं, सो एक तुक वाली ही सुना दी थी – ज़िगर जिगर में बसे इस तरह, जिगर से उनकी याद न जाती। वो हंसे नहीं थे, पर स्मित हास्य होंठों पर था।

कविता से अलग, कविता की सारी बातें बता दी थीं उन्होंने उस शाम। कौन-सा शब्द कहां हो, क्यों हो, कितना हो, उसके भाव क्या हैं, अर्थ क्या हैं, जरूरत क्या है, परंपरा क्या है, इतिहास क्या है... पहली बार सुनी थी इतनी अंतरंगता से कही गई, बयां हुई भाषा की बात।

लिखने-पढ़ने वाली, मेरी उम्र की पीढ़ी त्रिपाठी जी को भाषाविद् के रूप में ज्यादा पहचानती है पर मैं उन्हें देखकर सोचता रह गया - इस उम्र में भी स्टूडेंट की तरह हैं ये तो! हर शब्द को लेकर उनकी उत्सुकता, इच्छा, कौतूहल, उसके आदि से अब तक के परिवर्तनों पर निगाह – इतनी सुरुचि, ऐसी तल्लीनता बिरले ही दिखती है। कृष्णनंदन तिवारी नंदन बेहद सौम्य-सरल और उतने ही मधुर कवि हैं। त्रिपाठी जी और वे देर तक चर्चा करते। इस बीच शिवाकांत मिश्र विद्रोही, झंझट जी आदि विभिन्न कवियों का जमावड़ा उनके जेल रोड के पास वाले घर में होता रहता।

मैं भी अक्सर पहुंचता। कुछ दिन बाद अघोषित तौर पर मैं `पलाश’ का सहयोगी हो गया था। नेह-दुलार और अच्छा-सा चाय-नाश्ता, जो उन दिनों बड़े आकर्षण का केंद्र था – गटकते हुए कविताओं से सजी-सुलझी शाम गुजरती जाती। ये दौर बहुत लंबा नहीं था। बाद के दिनों में मेरी पढ़ाई-लिखाई लुढ़कती-बढ़ती रही और फिर रिज़क कमाने के वास्ते शहर ही छूट गया। डीएफओ साहब ने `पलाश’ प्रकाशित कर दिया। बहुत-से लोगों ने तारीफ की। उनने भी, जो पहले इस काम में निंदा-रस के चटखारे लेते रहते थे। सुना कि त्रिपाठी जी पलाश को नियमित करने में जुटे थे। बाद में ख़बर नहीं मिली कि क्या हुआ!

वे दोस्त नहीं थे। रिश्तेदार भी नहीं। कम-अज-कम मैंने ब्राह्मणों वाली परंपरा में घुसकर किसी रक्त-संबंध की टोह-बीन नहीं की। त्रिपाठी जी हम उम्र भी नहीं थे, पर इतने अजीज लगे थे कि उन शामों का स्वाद अरसे बाद भी नहीं भूल सका हूं। आज के दौर में, जब लिखना-पढ़ना कारोबार हुआ जाता है, उदास रात के साए में खुशग़वार बना वो घर बहुत याद आता है। वहां सचमुच शब्द अर्थवान थे। त्रिपाठी जी कितने अच्छे कवि, लेखक थे – इस बारे में टिप्पणी समय देगा, पर वे एक बेहद सुंदर, सजग, कई बार अडिग भाषाप्रेमी और साहित्य के आशिक जरूर थे... और उससे भी आगे एक मुकम्मल इंसान भी। कभी, किसी वक्त, जब भाषा को लेकर बहसें करता हूं, तो वे याद आते हैं – कहते हुए, शब्द सीमित हैं। इन्हें सोच-समझ कर काम में लाइए। परंपरा है कि कोई न रहे तो उसकी इज्जत की जाती है, डीएफओ साहब के बारे में ऐसा सोच पाना भी मेरे लिए मुमकिन नहीं है। मैं उन्हें कोई श्रद्धांजलि दे ही नहीं पाऊंगा। लगता है, कुछ समस्या हुई, कोई बात-कोई शब्द-कोई एहसास समझ न आएगा तो उनके पास जाऊंगा, वे हंसते हुए अर्थों की झड़ी लगा देंगे। पर उससे भी पहले पूछेंगे – कुछ खाएंगे? चाय पी लेते है, फिर साहित्य चर्चा करेंगे। वे कहीं गए नहीं, इसीलिए यह संस्मरण नहीं, वे अब भी हैं साथ ही कहीं...।


Tuesday, December 18, 2012

मेरे पास मां है!

मेरा लिखा पहला नाटक, जिसका मंचन गोंडा में एक स्कूल के बच्चों ने कल किया... अच्छा लग रहा है :)

नाटककार – चण्डीदत्त शुक्ल

दृश्य-1

    एक मध्यवर्गीय परिवार के घर का ड्राइंगरूम... दीवारों पर कुछ वॉल पेंटिंग्स लगी हैं। कमरे में खाना खाने का भी इंतज़ाम है। एक तरफ टेबल रखी है, जिसके आसपास चार कुर्सियां लगी हैं। मेज पर कप, प्लेट्स और बाकी क्रॉकरी व कटलरी मौजूद है। कुर्सियां खाली पड़ी हैं। दाहिनी तरफ की विंग से एक शख्स की एंट्री। उम्र यही कोई 50 साल। फेल्ट हैट लगा रखी है। कोट, पैंट, टाई पहने हुए। होंठों में सिगार दबी है, पर जली नहीं। धीरे-धीरे चलते हुए वह मंच के बीचोबीच रुक जाता है। लाइट्स ऑफ। स्पॉट लाइट चेहरे पर पड़ती है। सिगार हाथ में लेता है।

व्यक्ति - क्या बेवकूफी है साहब। बल्कि यूं कहिए कि इससे बड़ी बेवकूफी और कुछ हो ही नहीं सकती। दस बजने को आए। दफ्तर जाने का वक्त हो गया और अब तक ड्राइवर नहीं आया। अजी, इसकी बात ही क्या करें। जैसी सरकार निकम्मी, वैसी ही पब्लिक भी...

    ड्राइवर की एंट्री...कास्ट्यूम ह्वाइट ड्रेस, ह्वाइट पैंट

ड्राइवर - नहीं सरकार। कहना ही है तो कहिए कि पब्लिक निकम्मी है, इसीलिए सरकार भी निकम्मी है। (एनाउंसमेंट वाली स्टाइल में), जरा सोचिए — जितनी मेहनत हम लोग टीवी के आगे रिमोट पर करते हैं, इतनी वोट वाले दिन कर दें तो क्या तमाम निकम्मे लोग हमारे नेता बनेंगे?

-- बैकग्राउंड से गाना बजता है...
मेरा गधा, गधों का लीडर…
(फिल्म - मेहरबान)।

    गाना चालीस सेकेंड्स तक चलता है, तभी एक मॉडर्न लेडी बाईं विंग से एंट्री लेती हैं। गाउन पहने हुए। एक हाथ में लिपस्टिक लिए हुए... हाथ से चेहरे पर पावडर सही करने की कोशिश कर रही हैं। मंच के बीचोबीच आकर रुकती हैं, फिर लिपिस्टिक लगाना शुरू करती हैं, तभी पहले से मौजूद व्यक्ति और ड्राइवर को देखकर –

लेडी - अरे महेंद्र, तुम यहां क्या कर रहे हो? पक्की बात है – पॉलिटिक्स-पॉलिटिक्स खेल रहे होगे। मेरी तो किस्मत ही फूट गई है।
(यह सुनकर ड्राइवर और महेंद्र, दोनों के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान तैरने लगती है। दोनों एक-दूसरे को देखकर कुछ बुदबुदाते हैं)
लेडी – पहले पॉलिटिक्स, फिर ऑफिस, वहां से निकलकर घोड़ों पर दांव लगाने चले जाते हो और घर लौटते ही शेयर बाज़ार। कभी सोचा है कि मेरे भी कुछ अरमान हैं...

बैकग्राउंड से गाना बजता है...
हाय मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया
(फिल्म - संगम)।
    गाना चालीस सेकेंड्स तक चलता है... फिर fadeout हो जाता है। इस बीच महेंद्र कुछ बोलता है, जो भिनभिनाहट की तरह सुनाई देता है। कुछ भी क्लियर नहीं होता। गाना खत्म होते-होते महेंद्र की आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगती है...

महेंद्र (दर्शकों से मुखातिब होकर) — इनसे मिलिए, ये हैं सुश्री, सौभाग्यवती, कलावती, सुशील महिला यानी लीलावती। अब लीला नाम कुछ-कुछ पौराणिक लगता है, पुराना दिखता है न, सो इन्होंने जस्ट चेंज के लिए रख लिया है – एलवी। और मैं भी इनके पति, महेंद्र पति से एमपी हो गया हूं। हा हा हा. (नकली हंसी हंसता है.)। खैर, एक बात तो बताइए, मुझसे मिलकर आपको कैसा लगा... मुझे तो आप सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।

    सभी पात्र जब संवाद बोल रहे होंगे, तब मंच पर मौजूद अन्य लोग फ्रीज रहेंगे...। अपने संवाद बोलकर एमपी सेंटर में लौट जाएगा, बिना मुड़े। कदम-दर-कदम बैक होकर। नाटक में यह ध्यान रखना होगा कि दर्शकों को पीठ कभी न दिखाई जाए। बीच में जाकर वह एबाउट टर्न पोजीशन में ड्राइवर की ओर मुंह करेगा, सिगार तोड़कर फेंक देगा, तभी एलवी एक्टिव होती हैं, सेंटर में आकर खड़ी हो जाती हैं –

एलवी (दर्शकों से) – ये साहब मेरे पति हैं। ऐसे पति से निपत्ती रहना ठीक है। हां जी, निपूती वाला मुहावरा पुराना हुआ। ये पति तो चाय की पत्ती से भी गए गुजरे हैं। कितना भी उबाल लो, रंग नहीं छोड़ते। बस उबलते रहते हैं। दूध-आग-मेहनत सब बरबाद करो... स्वाद नहीं आने वाला। मेरी सोशल सर्विसेज को किटी पार्टी कहकर खुश होते रहते हैं। अब आप लोग ही बताइए – दो-चार सखियां कहीं मिलेंगी तो क्या बातें नहीं करेंगी? अजी, सुख-दुख, हाल-चाल। (वाल्यूम धीरे करते हुए) जब बात करेंगी तो थोड़ी कहानियां, किस्से होते ही हैं जी। कौन-कहां बिज़ी है... किसका कहां कैसा चक्कर है... खुद ही सोचिए – हम लोग दिन भर बोर होती हैं, कुछ गॉसिप न करें तो कैसे चले?

-- एलवी का डायलॉग पूरा होने से पहले ही एमपी और ड्राइवर परेड की स्टाइल में वहां से एक्जिट करने लगते हैं, तभी राइट विंग से किसी लड़की की आवाज़ आती है –

पापा, पापा... प्लीज़, रुकिए। मुझे आपसे कुछ डिस्कस करना है।

    एमपी और ड्राइवर एलवी के पास लौट आते हैं, एबाउट टर्न लेकर। अब तीनों बातें कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज़ें नहीं सुनाई दे रही हैं। बैकग्राउंड से आवाज़ आती है, एक लड़के और एक लड़की की। यानी कैरेक्टर मंच पर दूसरे हैं और डायलॉग किसी और के --

लड़का – ओ नो, पापा फिर चले गए। अब तुम क्या करोगे स्वीटी?
लड़की – तुम्हें क्या? तुम तो पैसे मांगते हो तो पूरा एटीएम ही थमा देते हैं। मुझे पापा चाहिए, पैसे नहीं।

    ये दोनों संवाद तीन-चार बार रिपीट किए जाएं।

    बैकग्राउंड स्कोर – सात समंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से... नन्ही सी गुड़िया लाना, चाहे गुड़िया न लाना, पापा जल्दी घर आना। 40 सेकेंड बजेगा। फेडआउट होता है, या फिर परदा गिरता है।

दृश्य-2

    परदा उठता है या फेडइन। कुर्सी-मेज हट चुकी है। एक आरामकुर्सी पर एक लड़की, अठारह साल उम्र, सिर नीचा किए रो रही है। बैकग्राउंड म्यूज़िक में शहनाई बजा सकती हैं। रोने की आवाज़ न आए तो अच्छा है। उसके ठीक पीछे एक लड़का, तकरीबन चौदह साल का, उसका सिर सहला रहा है।


लड़की – रोते हुए – नोज़ल साउंड – ब्रो, टेल मी. क्या मैं बुरी हूं?
लड़का – नो स्वीटी, यू आर सो गुड।
स्वीटी – देन ब्रो, पापा मुझे हग क्यों नहीं करते, ह्वाई ही आलवेज इग्नोरिंग मी... वो कभी पूछते तक नहीं कि स्वीटी बेटा, ह्वाट यू डूइंग नाउडेज़?
लड़का – सिस, सेम सिचुएशन हियर। तुमने कभी देखा है कि पापा ने दो मिनट भी मेरे साथ गुजारे हों। ही आलवेज बार्किंग... नो टीवी एनीमोर। बस... । हां, पैसे ज़रूर दे देते हैं, जितने मांगो, उतने।
स्वीटी – रमेश ... ये घर मुझे नर्क की तरह लगता है।
रमेश – स्वीटी सिस, प्लीज़, थिंक एबाउट मी। मैं तो आपसे चार साल छोटा हूं। आई वांट एक्स्ट्रा अटेंशन, एक्स्ट्रा केयर... पर न डैडी, न मॉम... किसी के पास मेरे लिए टाइम नहीं है।

    रमेश की बात सुनकर स्वीटी हंस पड़ती है –

स्वीटी – हां! तू तो न्यू बोर्न बेबी है न. डायपर पहनता है।

    दोनों हंसने लगते हैं। धीरे-धीरे हंसी की आवाज़ घुंघरुओं की खनखनाहट में बदल जाती है। पर्दा गिरता है।

दृश्य-3

    कमरे की साज-सज्जा बदल जाती है। अब कमरा रमेश का बेडरूम है। रमेश कुर्सी पर बैठा है और टेबल पर लैपटॉप रखकर मूवी देख रहा है। मंच पर काफी कम रोशनी है। लैपटॉप की लाइट में रमेश के फेसियल एक्सप्रेशन दिखाई देते हैं। वह कभी चौंक रहा है, कभी तनाव में है। रहस्यमयी म्यूज़िक बजेगा... हॉरर... और थ्रिलर...। एमपी की एंट्री। वह चुपचाप जाकर रमेश के बगल खड़ा हो जाता है और चिल्लाता है

एम पी – रमेश...रमेश...रमेश...

    आवाज़ कई बार गूंजती है। इसके साथ ही लाइट्स जल जाती हैं। तबले की गड़गड़ाहट, धीरे से तेज होती हुई। रमेश हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता है।

एम पी – चिल्लाते हुए –  मैंने तुम पर भरोसा किया नालायक और तुमने ये सिला दिया। मैं और तुम्हारी मॉम सोचते हैं कि तुम पढ़ाई कर रहे होगे और तुम लैपटॉप पर...

    रमेश चुपचाप खड़ा है। माहौल में टेंशन क्रिएट करने वाला म्यूज़िक। बत्तियां लगातार जलने-बुझने लगती हैं। तकरीबन आठ सेकेंड। यकायक, फिर से सारी बत्तियां जल जाती हैं।

रमेश – पापा, आज आप मुझ पर तोहमतें लगा रहे हैं। मुझे भला-बुरा कह रहे हैं। आखिर, मैंने गलत क्या किया है? बस अपनी ज़िंदगी ही तो जीने की कोशिश कर रहा हूं। आप मुझसे बहुत सारे सवाल पूछ चुके हैं। मैंने अब तक आपसे कोई क्वेश्चन नहीं किया। क्या आप मेरे सवालों के जवाब देंगे?

    रमेश और एमपी फ्रीज हो जाएंगे। बाकी सभी कैरेक्टर्स की एंट्री होगी। रमेश और एमपी एक-दूसरे को देखते हुए खड़े हैं और बाकी सब कैरेक्टर्स रमेश व एमपी के डायलॉग बोल रहे हैं।

रमेश – आप तब कहां थे, जब मैं साइकिलिंग करते हुए गिर गया था और मुझे फ्रैक्चर हो गया था
एम पी – तब मैं मीटिंग्स अटेंड कर रहा था
रमेश – आप तब कहां थे पापा, जब मुझे आपकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी?
एम पी – तब मैं शेयर मार्केट में इन्वेस्टमेंट कर रहा था
रमेश – रोते हुए – पापा, आप तब कहां थे, जब मैं फ़ेल हो गया था?
एम पी – तब मैं रेसकोर्स में था। हां, बाद में मैंने तुम्हें डांटा तो था...

    रमेश और एमपी के अलावा, बाकी कलाकार संवाद दोहराते हुए तेज़ गति से मंच से बाहर हो जाएंगे। रमेश और एमपी अब चिल्ला रहे हैं। दोनों के संवाद साफ नहीं सुनाई दे रहे हैं। यकायक, एमपी चिल्लाते हुए –

एम पी – अगर तुम्हें मनमानापन करना है तो मेरे घर से बाहर निकल जाओ। मैं तुम्हें अपनी पूरी जायदाद से बेदखल करता हूं।

    बैकग्राउंड में मदर इंडिया का गीत बजेगा – पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली... ये केवल सेटायर के लिए है। 40 सेकेंड तक प्ले। एक तरफ रमेश एक्जिट कर रहा है और वह मंच की पूरी परिक्रमा करते हुए बाहर निकलेगा। मंच के बीचोबीच एम पी अकेले खड़ा है, तभी उसे कई लोग आकर घेर लेते हैं। कोई शेयर के दस्तावेज लिए है, किसी के हाथ में ब्रीफकेस है। थोड़ी देर बात करने के बाद वे विपरीत दिशा से एक्जिट कर जाते हैं और रमेश दूसरी ओर से। जब सब निकल जाते हैं तो तेज गति से स्वीटी मंच पर आती है और भइया-भइया, ब्रो...लिसेन...लिसेन...डोंट गो अवे कहती हुई वह भी एक्जिट कर जाती है।

दृश्य-4

    मंच खाली पड़ा है। कोई कुर्सी-मेज भी नहीं। एक तरफ की लाइट जल रही है। शेष मंच पर अंधेरा है। एक अधेड़ इंसान एंट्री करता है। उसका ड्रेसअप इंट्रेस्टिंग है। ऊपर कोट, नीचे धोती। कोट में टाई लगा रखी है और गले में गमछा डाल रखा है, जो थोड़ा नीचे बंधा होगा, ताकि टाई दिखती रहे। ये नाटक का सूत्रधार है

सूत्रधार – नमस्ते, हाय हैलो, सलाम, प्रणाम। फ्रेंड्स मैं हूं राम के. राम यानी राम, और के से कन्हाई। मैं वैसा ही हूं, जैसा कि है आपका मध्यवर्ग, यानी बीच की दुनिया। न ऊंचे हैं पैसे से, न निचले स्तर पर हैं। न ज्यादा पढ़े, न अनपढ़। खोखली सोच, खोखली उड़ान वाले लोग। हम सब बीच के लोग हैं, जिनके पास बहुत-से सपने हैं, लेकिन उनके लिए ज़मीन नहीं... हम सनक की हद तक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने में जुट जाते हैं... और ये सोचते ही नहीं कि उन बच्चों को मां-बाप का थोड़ा-सा वक्त चाहिए, थोड़ी-सी गाइडेंस चाहिए।

    इतना संवाद बोलकर सूत्रधार मंच के एक कोने में रुक जाता है। फ्रीज।
    दूसरी विंग से एलवी की एंट्री होती है। उनके साथ उनके ही एज ग्रुप की तीन महिलाएं और हैं। एक महिला न्यूज़पेपर से खुद को पंखा कर रही है।

महिला -1 – उफ़, ओ गॉड. कितनी गर्मी है। पसीना रुक ही नहीं रहा। सुबह को डियो लगाओ, शाम तक सब गायब हो जाता है।
महिला – 2 – ऊपर से ये कमली तो डेंगू मच्छर हो गई है। सिर्फ खून चूसती है। हफ्ते में तीन दिन आती है और चार दिन गायब। अब सुबह-सुबह उठकर बर्तन धुलो...
महिला – 3 – ओ हो नाज़ुक कली... मिसेज सॉफ्टी. डिश वॉशर से बर्तन धुलने में भी आपकी कमर लचक जाती है।
एल वी – यार आप लोग न झगड़ो नहीं... रमेश पता नहीं कहां है, मुझे टेंशन हो रही है, लेकिन आप लोगों से कमिट किया था किटी के लिए, सो मैं प्रेजेंट हूं। देखिए, आज ही प्लान कर लीजिए कि न्यू इयर कैसे सेलिब्रेट करेंगे। मैं तो कहती हूं कि सोनू निगम को ही मेन सिंगर बुलाते हैं पार्टी में...

    मंच के कोने से सूत्रधार बीच में आ जाता है। एलवी और उनकी सहेलियां फ्रीज हो चुकी हैं। सूत्रधार आगे कहता है –

सूत्रधार – ये रमेश की मां हैं। सोशल वर्कर। हरदम बिज़ी रहती हैं। अपने जैसी महिलाओं का दुख दूर करने में। इनका सबसे बड़ा दुख है कि वेट बढ़ गया है और इनके हबी... ओ-ओ- आप समझे नहीं... हस्बैंड, इनका ध्यान नहीं रखते, अटेंशन नहीं देते। इन्हें बच्चों की चिंता नहीं है। वे क्या कर रहे हैं, लिख-पढ़ रहे हैं, कहां हैं और कहां नहीं। इन्हें कैसे बताएं कि हरे-भरे खेत सबको अच्छे लगते हैं, लेकिन पहले उनकी जुताई करनी पड़ती है, बीज रोपना होता है और फिर करनी होती है सिंचाई।

    पार्श्व से आवाज़ आती है – सभी कैरेक्टर्स की आवाज़ में...
बीज रोपना पड़ता है... करनी होती है सिंचाई
ये लाइन तीन-चार बार रिपीट होती है।

सूत्रधार – प्यारे दर्शकों, रमेश की मां को चिंता नहीं है कि उनका बेटा कहां होगा। उनके पापा भी बहुत बिज़ी हैं... आपके पास तो वक्त है न... आइए, आपको लिए चलते हैं रमेश के पास।

    लाइट्स आफ होती हैं... पर्दा गिरता है...

दृश्य-5

    एक टूटी खाट बिछी है। खाट के अगल-बगल बोरे लटके हैं। लकड़ी के स्टैंड पर। यहीं रमेश मैली चादर ओढ़कर बैठा है। वह सर्दी से कांप रहा है। एक किनारे ज़मीन पर मैली-कुचैली कमीज पहने एक बूढ़ा बीड़ी जलाने की कोशिश कर रहा है। बार-बार बीड़ी जलाता है। धुआं खींचता है और फिर खांसता है। बीड़ी जली नहीं है। आखिरकार झल्लाकर बीड़ी फेंक देता है...

बूढ़ा – ये ससुरी बीड़ी भी किस्मत की तरह है। जब चाहो, तब नहीं जलती। बाकी टाइम धुकधुकाती रहती है। तू क्यों कांप रहा है रे बेटा। सर्दी लग रही है क्या?

    एक विंग से बुढ़िया की एंट्री। शक्ल से ही झगड़ालू लग रही है। धोती पहने है।

बूढ़िया – अरे नासपीटे, तू न मरेगा, न घर खाली करेगा। जब देखो, तब बैठा-बैठा बीड़ी पीता रहता है। यह भी नहीं होता कि चार गट्ठर घास ही काट लाए। कम से कम एक जून की रोटी का तो जुगाड़ हो।

बूढ़ा – अरे चुड़ैल, चुप कर। जब देखो, गिटर-पिटर करती रहती है। कभी तो एक घड़ी शांति से बैठ जाया कर। सारी ज़िंदगी तुझे झेलते हुए बीत गई। अंतिम दिन तो भगवान का नाम लेने दे।

बुढ़िया – हां, बीड़ी में भगवान छिपे हैं न.... कहते-कहते रमेश की ओर देखती है – अरे, बबुआ के तो सर्दी लग रही है... जल्दी जाओ ... कुछ दवा-दारू लेकर आओ।

    बूढ़ा अपनी कमीज की सब जेबें झाड़कर देखता है, फिर उदासी के साथ बुढ़िया को देखता है। उसे कुछ कहता न पाकर थके कदमों से बाहर निकल जाता है। बुढ़िया और रमेश फ्रीज हो जाते हैं। सूत्रधार की एंट्री –

सूत्रधार – नहीं साहब, आप लोग परेशान न होइए। ये रमेश ही है, बस आप इसे पहचान नहीं पा रहे। भूख-थकान और चिंता का बोझ किसे नहीं मार देता है। नाज़ुक रमेश भी रोटी और तकलीफ का बोझ नहीं उठा पाया... बीच रास्ते में गिर गया ... ये तो भला कहिए बूढ़े रामधनी का, जो इसे अपने घर उठा लाया। दो दिन तक रमेश ने ज़ुबान न खोली, आज ही होश में आया है। रामधनी और उसकी बुढ़िया के पास दो वक्त की रोटी खाने के लिए पैसे नहीं हैं, अब एक पराए इंसान के लिए वो दवा कहां से लाए... ख़ैर, सुना है कि रमेश के पापा उसे ढूंढते हुए इधर ही आने वाले हैं... देखते हैं, आगे क्या होता है?

Lights off


दृश्य-6

    रामधनी का वही घर। रमेश और बुढ़िया कुछ बातें कर रहे हैं। आवाज़ सुनाई नहीं देती। तभी एक विंग से रामधनी की एंट्री होती है। रामधनी चारपाई के पास पहुंचता है। बुढ़िया को दवाइयां देता है और खुद चक्कर खाकर चारपाई पर लुढ़क जाता है। बुढ़िया चीखती है –

बुढ़िया – तुम दवाई कहां से लाए?  तुम्हारे पास तो पैसे थे ही नहीं। क्या फिर से अपना खून बेच दिया?

बूढ़ा – रामधनी, इंसान ज़िंदा रहेगा तो और खून बना लेगा। देख रही हो, ये छोटा-सा बच्चा बुखार में तप रहा है। पता नहीं किसकी फुलवारी का फूल है। बेचारा सड़क पर पड़ा तड़प रहा था। बेहोश था। पापा-पापा बुलाता हुआ। कोई न आगे, न पीछे। मुझसे रहा नहीं गया। मैं इसे उठा लाया। मैं निपूता था अब तक, तू भी निपूती। देख, हमें बच्चा मिल गया। हम इसे पालेंगे-पोसेंगे, बड़ा करेंगे। ब्याह करेंगे इसका। तू सास बनेगी...

बुढ़िया ... सिसकते हुए ... तुम ख्वाब बहुत देखते हो... बुढ़ा गए पर अकल न आई। कभी किसी और का बच्चा अपना हुआ है क्या? हां, हम अपना फर्ज पूरा करेंगे... पर हमारी किस्मत में औलाद कहां। होती तो भगवान न देता क्या?

रमेश उन्हें आंखें फाड़कर देख रहा है। वह चीख पड़ता है –

रमेश – बापू, बापू... ये तुमने क्या किया? न कोई जान, न पहचान, मुझे बचाने के लिए अपना खून बेच डाला... उफ़, आपको ये क्या हो गया।
(मुड़कर बुढ़िया से)
मां... तुम मेरी मां हो, मेरे पास मां है। मैं अकेला नहीं हूं...।


    दूसरी विंग से एमपी व एलवी की एंट्री...

एल वी – रमेश, तुम पागल हो गए हो क्या... ये बुढ़िया तुम्हारी मां नहीं है। मैं हूं तुम्हारी मॉम...।

रमेश – हां, आप मॉम हैं और ये मेरी मां।

एम पी – मेरे पास क्या नहीं है। मोटर है, बंगला है, गाड़ी है... इसके पास क्या है...?


    बैकग्राउंड से दीवार फ़िल्म का डायलॉग गूंजता है – मेरे पास बंगला है, मोटर है, गाड़ी है...

रमेश – इस बूढ़े, लाचार, गरीब इंसान को देखकर रहे हैं मिस्टर महेंद्र पति। इसके पास दिल है। जीने का जज्बा है। किसी इंसान के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली सोच है। ये पैसों के पीछे नहीं भागता। इसके लिए सबसे ज़रूरी प्यार है और इसके लिए ये अपना खून तक बेच देता है। और मॉम, आप इस देवी को बुढ़िया कहकर अपमानित कर रही हैं, सुनिए... हज़ारों रुपए की क्रीम लगाकर भी आपके चेहरे की चमक नहीं लौट सकती, लेकिन गौर से देखिएगा... इस औरत के चेहरे पर प्यार की कैसी आभा चमक रही है। मॉम ये मां है... किसी पराए इंसान के बच्चे को भी अपने गले से लगा लेती है... पापा, ये दौलत इन लोगों के पास है और आप जानना चाहते हैं, मेरे पास क्या है? – मेरे पास मां है... मेरे पास मां है...।

पर्दा गिरता है।



Saturday, December 8, 2012

हे आमिर! उल्लू नहीं है पब्लिक

ज़रूरी सलाह बनाम खीझ

- चण्डीदत्त शुक्ल

आमिर खान साहेब नहीं आए। बुड़बक पब्लिक उन्हें `तलाश' करती रही। सिर्फ पब्लिक नहीं, बांग्ला मिजाज़ में कहें तो भद्रजन भी। पुलिसवाले और लौंडे-लपाड़ियों के अलावा, शॉर्ट सर्विस कमीशन टाइप पत्रकार, रिक्शा-साइकिल-मोटरसाइकिल स्टैंड वाले भी। चौंकिएगा नहीं, शॉर्ट सर्विस बोले तो कभी-कभार ये धंधा कर लेने वाले। एक यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग पढ़ने वाले तमाम सत्रह-अठारह साल के छोरे-छोरियां पूरा का पूरा विश्वविद्यालय बंक करके उस भुतहा बस्ती में बिचर रहे थे। पहले उछलते-कूदते, फिर एक ग्लास पानी के लिए छुछुआते हुए। जयपुर से कुल जमा सौ किलोमीटर के इर्द-गिर्द ही पड़ता है भानगढ़। इंटरनेट पर सर्च को रिसर्च नाम देने वाले जानते ही होंगे कि इस कसबे को लेकर तरह-तरह की अफवाहें जोर-शोर से सामने आई हैं, इतनी ज्यादा, जितने `भूत' न रामसे ब्रदर्स की फिल्मों में होंगे, न कहानियों में। चुनांचे, बात बस इतनी भानगढ़ को लेकर दो बातें सबसे ज्यादा चलन में हैं, पहली – एक तांत्रिक की बद्दुआ से भानगढ़ उजड़ गया और दूसरी ये कि सांझ ढलते ही यहां भूतों का बसेरा हो जाता है, इसलिए उजड़े हुए कसबे के गेट बंद कर दिए जाते हैं। परिंदा और जानवर भले हाथ-पैर-मुंह मारें, पर जीता-जागता आदमी चौहद्दी में कदम नहीं रख सकता।

ख़ैर, आप भी सोच रहे होंगे, ये आदमी अक्ल से पैदल है क्या, बात शुरू की थी आमिर खान साहेब से और लौंडे-लपाड़ियों का जिक्र करते हुए भूतों तक जा पहुंचा, तो साहबान सिरा यहीं जुड़ता है, वह इसलिए कि इसी भानगढ़ की `विजिट' करने का दावा आमिर, या कि उनके प्रचारकों ने किया था और ये बात पब्लिसिस्टों से होती हुई ख़बरचियों और फिर अख़बारों तक जा पहुंची, सो भानगढ़ में पब्लिक जुटनी लाजिम थी, लेकिन न आना था उन्हें और न आए वो, यानी अपने आमिर! अब ख़बर पढ़कर आमिर का इंटरव्यू करने की ख़्वाहिश से जो हम सब दल-बल समेत भुतहा बस्ती में हाजिर हुए तो आमिर न मिले पर मिले केवड़े के पेड़, काले मुंह वाले बंदर और कई ऐसे किस्से, जो बता रहे थे कि भानगढ़ में कुछ और हो न हो, भूत तो एक भी नहीं हैं। हां, जितनी ज़ुबान, उतने अफसाने भी, सो यह समझाने वाले भी कई निकले कि उनने भूत तो देखा है, लेकिन लेडीज़, यानी चुड़ैल।

हालांकि भूत और भानगढ़ और वहां की घुमाई-टहलाई के यात्रा वृत्तांत, संस्मरण और यादनामा तो फिर कभी लिखा जाएगा, आज का सवाल ज्यादा इंप्वार्टेंट है, जिसे हल करने पर केबीसी की ईनामी राशि भले न मिले पर एक बात तो जोर-शोर से समझ में आएगी ही कि आमिर ज्यादा सयाने हैं, या पब्लिक (जिसमें हम भी शामिल हैं) अधिक बुड़बक है? सब जानते हैं कि आमिर अपनी फ़िल्मों के प्रमोशन-पब्लिसिटी के लिए सारे करम कर डालते हैं। हमारे इलाके की भाषा में कहें तो ... से घोड़ा खोल देते हैं (इस ट्रिपल डॉट ... में देह के एक विशेष अंग का नाम नहीं भरा गया है। सयाने लोग खुदै बूझ लें)। जितनी बार, जिस-जिस किस्म की फ़िल्म बना ली, उसे रिलीज़ करने से पहले और बाद में तरह-तरह के भेष बनाकर घूमे। हर बार चैलेंज किया -- है किसी में दम तो पकड़ के दिखावे। नकद ईनाम देंगे। फोटू-शोटू साथ में खिंचवाएंगे और, और भी किसिम-किसिम की बात, पर कोई पकड़ न पाया। भांप न पाया कि दाढ़ी बढ़ाए, अचकन संभालते बगल से जो फट्ट से निकले, वो मुल्ला जी और कउनो नहीं, अपने आमिर खान हैं। आमिर न हुए, डॉन हो गए, जिसे पता नहीं कितने तो मुल्कों की पुलिस भी पकड़ नहीं पाती। अब वही खान साहेब जब हो-हल्ला करके, ख़बर छपवाके भी भानगढ़ नहीं आए तो फिर से समझ में आया कि कहीं हाजिर होके तो कहीं गैर-हाज़िर रहके उल्लू बनाना खान साहेब का शौक नहीं, एक और पब्लिसिटी स्टंट है।

आमिर साहेब, आपसे बस कहनी एक बात है कि पुलिस-पत्रकार-पब्लिक – सबसे आपने अपनी तलाश तो करवा ली, लेकिन ये सब ज्यादा काम आता नहीं है। हो सके तो कहानी सेलेक्शन, एक्टिंग और डायरेक्शन – जिसके लिए बेसिक तौर पर आपकी पहचान होती रही है – पर ही ज्यादा ज़ोर लगाइए, मैनुपुलेट करके मार्केटिंग के चक्कर में अगर आप पब्लिक को ऐसे उल्लू बनाते रहे तो देखिएगा – एक दिन आप सनीमा हाल में बैठे रह जाएंगे और पब्लिक आपकी ही तरह फुर्र हो जाएगी, फिर बजाते रहिएगा हरमुनिया।


Sunday, December 2, 2012

इस सदी की निहायत अश्लील कविता


- चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345

*

जरूरी नहीं है कि,
आप पढ़ें
इस सदी की, यह निहायत अश्लील कविता
और एकदम संस्कारित होते हुए भी,
देने को विवश हो जाएं हजारों-हजार गालियां।
आप, जो कभी भी रंगे हाथ धरे नहीं गए,
वेश्यालयों से दबे पांव, मुंह छिपाए हुए निकलते समय,
तब क्यों जरूरी है कि आप पढ़ें अश्लील रचना?
यूं भी,
जिस तरह आपके संस्कार जरूरी नहीं हैं मेरे लिए,
वैसे ही,
आपका इसका पाठक होना
और फिर
लेखक को दुत्कारना भी नियत नहीं किया गया है,
साहित्य के किसी संविधान में।
यह दीगर बात है कि,
हमेशा यौनोत्तेजना के समय नहीं लिखी जातीं
अश्लील कविताएं!
न ही पोर्न साइट्स के पेजेज़ डाउनलोड करते हैं,
स्खलित पुरुषों के थके हाथ।
कई बार,
भूख से बोझिल लोग,
पीते हैं एक अदद सिगरेट
और दुख से हारे मन,
खोजते हैं शराब में शांति।
ऐसे ही,
बहुत पहले बताया था,
धर्म के एक पुराने जादूगर ने,
संभोग में छिपे हैं
शांति और समाधि के मंत्र।
उन तपते होंठों में,
फंसाकर अपने प्यासे लब,
`वह' भी तो हर बार नहीं तलाशता,
काम का करतब।
कभी-कभी कुछ नम, कुछ उदास,
थके हुए थोड़े से वे होंठ,
ले जाते हैं मेडिटेशन-मुद्रा में।
मंथर, बस मुंह से मुंह जोड़े
कुछ चलते, कुछ फिरते अधर...।
कोई प्रेमी क्यों चूमता है अपनी प्रेयसी को?
प्रेयसियां आंखें मूंद उस मीठे हमले की क्यों करती हैं प्रतीक्षा?
इन कौतूहलों के बीच, सत्य है निष्ठुर --
पुरुष का सहज अभयारण्य है स्त्री की देह
और
मैथुन स्वर्गिक,
तब तक,
जिस वक्त से पहले मादा न कह दे,
तुम अब नर नहीं रहे
या कि
मुझे और कोई पुरुष अच्छा लगता है!
एक पहेली हल करने के लिए ज़िलाबदर हो गए हैं विक्रमादित्य
और तड़ीपार है बेताल,
जिसे दुत्कारते हैं तमाम पंडित
नर्क का द्वार कहकर,
उसमें प्रवेश की खातिर,
किसलिए लगा देते हैं,
सब हुनर-करतब और यत्न?
औरत की देह जब आनंदखोह है
तब
वह क्यों हैं इस कदर आपकी आंख में अश्लील?


*

कलाकृति - Jose Rivas

Thursday, August 16, 2012

मन की मौज में न भूलें आजादी के मायने

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

चण्डीदत्त शुक्ल | Aug 15, 2012, 00:10AM IST
  गांव के एक काका की याद आ रही है। रिश्तेदारी का ख्याल नहीं। शायद पुरखों की पट्टीदारी का कोई छोर जुड़ता होगा उनसे, पर हम सब उन्हें काका, यानी बड़े चाचा के बतौर ही जानते-पहचानते और मान देते। काका का असल नाम भी याद नहीं पड़ता। बच्चे-बड़े सब उन्हें मनमौजी कहते। मनमौजी का मतलब मस्त-मौला होने से नहीं था।

काका निर्द्वद्व, नियंत्रण के बिना, इधर-उधर घूमने वाले, दिन भर ऊंघने और शाम को चौपाल में बैठकर नई पीढ़ी को गालियां देने वाले सनकी बुजुर्ग थे। यानी मौज की खातिर जीने वाले। कोई कहता- काका! कुछ काम-धाम करो। तो वह टोकने वाले पर ही पिल पड़ते, 'तुम्हारी तरह थोड़े हैं कि घर में खाने को ठीक नहीं है। बाप-दादा कमाकर रख गए हैं। हम तो मौज उड़ाएंगे। घर में काकी भी ऐसी मिल गईं, जो कुछ कहती-सुनती नहीं थीं। उम्र के आखिरी दिनों में जरूर काका को सद्गति प्राप्त होने से ऐन पहले सद्ज्ञान मिल गया था। बहुत बीमार थे। अक्सर समझाते - बेटवा, पढ़-लिख लो। ये जो आजाद घूमते रहते हो, यह सब काम नहीं आएगा। विद्या और संस्कार ही आगे तक साथ देते हैं।

अब मनमौजी काका तो रहे नहीं। वे कोई बड़े सूरमा-खलीफा या सेलिब्रिटी भी नहीं कि उनकी चर्चा की जाए, सो आप सोचेंगे कि इतनी जगह उनके बयान में बर्बाद क्यों की गई। बहरहाल, इसकी भी वजह है। मनमौजी दरअसल, एक आदमी का नाम भर नहीं है। यह स्थिति अपनी जिम्मेदारी भुलाकर सिर्फ मस्त रहने, अपने मन का करने की प्रवृत्ति भी हो जाती है और तभी इसके खतरे सामने आते हैं। आज आजादी का दिन है। स्वाधीनता दिवस को हम एक और छुट्टी मान बैठते हैं, तो क्या हम भी मनमौजी काका ही नहीं बनते जा रहे? शायद हम भूल गए हैं कि आजादी का एक पर्याय स्वतंत्रता भी है, यानी अपने लिए, अपना तंत्र। एक अनुशासन, जो बताता है कि अगर हमें कुछ अधिकार मिले हैं तो उनके बरक्स कुछ जिम्मेदारियां भी हैं।

बचपन में जश्न-ए-आजादी मनाने के लिए हम सब बच्चे गांवभर में घूम-घूमकर चंदा इकट्ठा करते। छोटे-छोटे डंडों पर झंडे लगाकर भारत माता की जय के नारे लगाते। यह अहसास अंदर से होता था कि देश आजाद है और उसका उत्सव महज रस्म-अदायगी नहीं है। होली-दिवाली की तरह जरूरी है। पर अब क्या? एक अदद छुट्टी, स्कूलों में लड्डू और सभागारों में कुछ और नारे.. बस!

तीन रोज पहले की बात है। भोपाल में आयोजित एक मीडिया चौपाल में शामिल होने पहुंचा था। इसमें आजादी को अधिकार मान लेने और कोई तंत्र न विकसित करने की बात यकायक शुरू हो गई। बात छोटी-सी है, पर उसके मायने बड़े हैं। एक साथी ने कहा 'सोशल कम्युनिटीज पर जिसका, जो मन करता है, वह लिख देता है।' कुछ ब्लॉगर चिढ़ भी गए, पर बात तो सही है। अगर आपको एक प्लेटफॉर्म मिला है तो उसका इस्तेमाल करते समय दूसरों के हितों, भावनाओं और अपनी बात की गरिमा की चिंता करनी ही चाहिए।

यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। पहलू हजार हैं और सबके सब विचारणीय। देश बदलने की बात तो बड़ी है, लेकिन गौर कीजिए, क्या हम सब अपने आपमें मनमौजी बनते नहीं जा रहे हैं? बहुत पुराना शेर है- हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। हम इस बात को समझें कि आजादी हमें बैठे-बिठाए नहीं मिल गई। हमारे पास अपना तंत्र तो है, लेकिन क्या उसके लिए जरूरी सम्मान और हां, आवश्यक प्रयास हमारे अंदर हैं? क्या हम देश की अस्मिता बढ़ाने के लिए कुछ करते हैं? बात थोड़ी कड़वी है, लेकिन बेहद जरूरी है, समझने वाली है।

Tuesday, July 24, 2012

एक उदास कविता

एक उदास कविता

सबसे बुरा है
उस हंसी का मर जाना
जो जाग गई थी
तुम्हारी एक मुस्कान से.

जमा हुआ दुख
पिघला,
आंख से आंसू बनकर,
तुमने समेट ली थी
पीड़ा की बूंद
अंगुली की पोर पर.

वह सब मन का तरल गरल
व्यर्थ है अब,
जैसे लैबोरेट्री की किसी शीशी में रखा हो
थोड़ा-सा निस्तेज वीर्य, ठंडा गाढ़ा काला खून
या देह का कोई और निष्कार्य अवयव।

खिड़कियों के बाहर
कुछ दरके हुए यकीन लटके हैं
चमगादड़ों की तरह बेआवाज़
शोर करते हैं
झूठे वादे।

कविताएं सिर्फ गूंज पैदा करती हैं
नहीं बदलतीं किस्मत
जैसे कि
प्रेम का लंगड़ा होना
उससे पहले से तय होता है,
जब पहली बार वह भरता है,
दो डग हंसी की ओर।

चलती रहती है
इश्क की सांस
तब
मन के उदर में पलता है कविता का भ्रूण
और खा जाता है एक दिन
वही कोमल एहसास
इच्छा का राक्षस।

ढल जाता है साथ देखा गया ठंडा चांद
गमलों के इर्द-गिर्द उगती रचनाएं
कुम्हलाई पत्तियों की राख में हैं पैबस्त
एक उदास आदमी चीखता हुआ कोसता है खुद को
कहते हुए,
क्यों नहीं है मेरे प्रेम में ताकत?
कैसे घुल-सी गई एक बार फिर
`सुनो, मेरी आवाज़ सुनो' की पुकार!

कौन बताए,
प्रेम का सूरज अस्त होने के लिए ही उगता है
कभी नहीं रुकता कोई
सिर्फ प्रेम के लिए,
प्रेम के सहारे।

प्रेम की कहानियां
इच्छाओं के लोक में
बेसुरी फुसफुसाहट से ज्यादा औकात नहीं रखतीं।

विरह मिलन से बड़ा सत्य है
और बेहद खरी गारंटी भी
जिसके साथ धोखे की रस्सी से बुने कार्ड पर लिखा है-
टूटेगा मन, जो जोड़ने की कोशिश की।

बहुत पहले,
नाज़ुक हाथों को थामकर
लिखी थी एक गुननुगाहट,
पाखंड के
साइक्लोन ने
ढहा दिया रेत का महल।

समंदर किनारे प्रेम की कब्र बनती है,
ताजमहल हमेशा नवाबों के हिस्से आते हैं।
आज राजा
अंग्रेजी बोलते हैं,
चमकते अपार्टमेंट्स में होता है उनका ठिकाना
वहीं ऊंची बिल्डिंगों के बाहर,
कूड़ेदान के पास पॉलीथीन में लिपटे रहते हैं
कुछ सच्चे चुंबन, चंद गाढ़े आलिंगन और हज़ारों काल्पनिक वादे!


निर्लज्ज हंसी और बेबस आंसुओं
अपने लिए गढ़े नए नियमों,
दुत्कारों और आरोपों,
गाढ़े धूसर रंग की शिकायतों
और इन सबके साथ हुए असीम पछतावे के साथ
सब कुछ भले लौट आए
पर नहीं वापस आता,
राह भटका हुआ विश्वास।
छलिया आकाश ने निगल लिया है
एक गहरा साथ!
लुप्त हुई नेह की एक और आकाशगंगा,
प्रेम से फिर बड़ा साबित हुआ,
उन्माद का ब्लैकहोल!

प्रेम की अकाल मृत्यु पर आओ,
खिलखिलाकर हंसें।
हमारे काल का सबसे शर्मनाक सत्य है
मन की अटूट प्रतीक्षा से बार-बार बलात्कार।
कहने को प्रतीक्षा भी स्त्रीलिंग है,
लेकिन उससे हुए दुष्कर्म की सुनवाई महिला आयोग नहीं करता।