कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, November 28, 2011

तुम्हें खोकर, खो दिया सब कुछ!


- चण्डीदत्त शुक्ल

एक डूबता हुआ सूरज
फिर खिल उठा
खुल गए कई बंद रास्ते
न, तुम कहां आए
आई बस ज़रा-सी याद तुम्हारी
और दिन थम गया
रात रुक गई
सांस चलने लगी तेज़, और तेज़
एक तुम्हारी याद इतनी कारसाज़
तो सोचो मुकम्मल तुम,
हो कितनी अपूर्व
अतुलनीय प्रेम की बेमिसाल तस्वीर पूरी की पूरी तुम
इसीलिए इतनी दृढ़?
जानती हो,
ईश का अभिशाप मिला है मुझको
न हो सकूंगा खुश निमिश भर को
इसीलिए,
नहीं आती हो मेरे जीवन में तुम क्षण भर के लिए भी...
है न?
दुनिया के सारे वसंत अपने रुमाल में बांधकर
ओझल हो तुम वसंतलता
मेरे संसार से,
तभी तो,
हर दिन सूरज निकलता है,
रात ढलती है
सांझ होती है
उम्र के कैलेंडर में एक-एक दिन जुड़ता जाता है
और
साथ-साथ घटती जाती है ज़िंदगी मेरी
पर
स्थगित रहता है सावन...
झुंझलाते होंठों और खिन्न आंखों के साथ
बस, कभी-कभार
बहुत दम लगाकर आ जाती है तुम्हारी याद
यह एहसास दिलाने के लिए
हां, मैंने सब कुछ खो दिया है
तुम्हें खोकर
मेरे प्रेम!


<दिल की वीरान बस्ती का एक उदास टापू...>

Sunday, November 20, 2011

रामकुमार सिंह की गिलहरी का फ्री-हैंड रिव्यू

रामकुमार की गिलहरी की फ्री-हैंड समीक्षा
एक अक्सरहा सुना शेर है, कुछ यूं — बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो, चार किताबें पढ़कर वे भी हम जैसे हो जाएंगे। बात एकदम सही है, लेकिन बचपन जैसे ही जवानी तक पहुंचने के आधे रास्ते तक पहुंचकर ठिठकता है, गोया किशोर होता है, उसके मन में बहुतेरी उत्सुकताओं के बवंडर मचलने लगते हैं। अफ़सोस… साधारण-सी उत्सुकता का हल साफतौर पर, सही तरीके से कभी नहीं मिलता। नैतिकता के कितने ही पैबंदों में उलझा जब कोई समाधान सामने आता है, तो उसमें धज्जियों की भरमार ऐन सामने होती है। `वह’, यानी एक गंवई किशोर की कहानी भी इससे ज़ुदा नहीं है। बच्चा जब जानना चाहता है कि उसका जन्म कैसे हुआ, तो पता चलता है — `माँ ने चावल खा लिए थे. रात को उसके पेट में भी दर्द हुआ. अगली सुबह वह खेत पर नहीं जा पाई थी. उस दिन वह पैदा हो गया था’. वह दौर, जब `वह’ ननिहाल में मौजूद भूरे कुत्ते को टहलाता, खिलाता, खिजाता बड़ा हुआ था, इन दिनों 11 साल का होने पर कलिंग की लड़ाई के संदर्भ और लोकसभा की सीटों और विज्ञान की किताब से निकालकर परागण, नर और मादा के भेद को पढ रहा था, तब बच्चे कैसे पैदा होते हैं, इसके जवाब में उसे चावल खा लेने से बच्चा होने की परिभाषाएं समझाई जा रही थीं…हालांकि `ज्योंही स्कूल की छुट्टी होती तो उसके गली के गुरु सक्रिय हो जाते’। इन्हीं दिनों में वह `कई नई बातें सीख रहा था’. घर में आई भाभी `गोरी गोरी-सी. मखमली-से गाल’ वाली। सहपाठी बताते कि ‘तेरा भाई, तेरी भाभी के साथ सोता है.’ और इसी बीच `वह’ जान पाता कि जब दो लोग साथ सोते हैं, तब `इसी से बच्चे पैदा होते हैं’। गली के गुरु उससे उम्र में कुछ महीने बड़े हैं और वह भले ही अब तक सोचता रहा था कि `बच्चे पैदा होने से रोकने हों तो त्योहार के दिनों में चावल नहीं खाने चाहिए’, लेकिन अब उसका ‘पॉइन्ट ऑव व्यू’ भी बदल रहा था। इसी बीच `वह’ एक और ज्ञान प्राप्त करता है कि साथ सोना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि `शिव भगवान और पार्वती ने ऐसा कहा है.’। नई-नई बातों के बीच बकरियों को तंग करते बकरों को देखते हुए साथी बनवारी एक अलग ही समझदारी दिखाता है ‘ओए राजू, आदमी भी स्साला औरतों को इसी तरह परेशान करता है.’ और राजू को वह ये भी बताता है कि `हेमू चाचा दारू पिए हुए थे. चाची के कपड़े खींच रहे थे.’ ‘कभी गौर से देखना, हेमू चाचा की शक्ल इस बकरे से मिलती है.’
… कुछ तो गंदा था इसमें। क्या और कितना, राजू नहीं जानता। इस बीच `उससे उमर में चार पांच साल ही तो बड़ी’ भाभी उसे एक अलग ही प्रदेश में ले जाती हैं। कितनी ही सुप्त कामनाओं, उत्सुकताओं और रोमांच के वर्जित प्रदेश में। एक अलभ्य, बहु-प्रतीक्षित दर्शन-सुख के इस प्रदेश के बाद राजू और बनवारी योजना बनाते हैं– राजू के दिमाग में एक ही बात चलती है — ‘शिवभगवान, पार्वती का आदेश और चिपमचिपा.’ … बात यहीं खत्म नहीं होती। `अगले दिन भाभी की पीठ पर उनका सामूहिक हमला होने वाला था’।
ख़ैर… मैं भटक गया। यह सब एक कहानी का बयान है, शीर्षक है `गिलहरी’, जिसकी पूरी कथा ही मैं सुनाने में अटक गया था। लिखना ये चाहता था कि बहुत अरसे बाद कोई रोचक और अद्भुत कहानी पढ़ी है। जो पहली बार में शुद्धता और नैतिकतावादियों को अश्लील लगेगी। यक़ीनन और पुरज़ोर लगेगी, लेकिन जिन्हें प्रेम, देह, लालसा, उत्सुकता और बचपन की छानबीन खुले दिमाग से करने का मन होगा, वे इस कहानी को सह पाएंगे। कहानी लिखी है रामकुमार सिंह ने। रामकुमार जी से महीने में एक-दो-तीन बार मिलना होता भी है। उनकी कुछ कहानियां पहले भी पढ़ी हैं, लेकिन इस बार भाषा, ट्रीटमेंट और कथ्य की बुनावट के लिहाज से वे पुराने लेखन पर भारी पड़े हैं।
रामकुमार जयपुर में रहते हैं। एक अखबार में काम करते हैं। दो-तीन फिल्मों में कहानियां और गीत का डिपार्टमेंट संभाल चुके हैं….पर यह उनका सामान्य-सा परिचय है। सच तो ये है कि रामकुमार प्रचार और संपर्क जुटाने से कतिपय दूर, एक बेहतरीन लेखक हैं। कहानियों के मामले में कम से कम बहुत बेहतरीन। बाकी का काम भी अच्छा है।
कुछ ज्यादा ही उत्साहित हूं, इसलिए बार-बार भटक रहा हूं। गिलहरी कहानी की भाषा पर कुछ कहने का भी मन है। यह कहानी मुहावरों, शब्द संरचना-चमत्कार-इमेज़री-विज़न-
इफेक्ट्स-कोलाज से दूर है। सीधी-सपाट, शायद इसीलिए सीधा असर करती है। रामकुमार की भाषा में `विट’ है और यह अक्सर हंसाते हुए परेशान भी करता है, तब वे तीखी बातें सीधे-सरल तरीके से कह जाते हैं। इस तथाकथित रिव्यू में इन्वर्टेड कॉमा `’ में शामिल सभी वाक्य कहानी गिलहरी से कॉपी किए गए हैं. प्रमाण सामने है, देख लीजिए।
खास बात एक और बाकी है। गिलहरी यहां प्रतीक है। एक पेड़ की डाल से कूदकर दूसरे पर चढ़ने की कोशिश में कुत्ते के मुंह में समाती हुई गिलहरी। और उसकी जान ख़तरे में इसलिए है, क्योंकि किसी ने उसे बताया था कि गिलहरी के सिर में चवन्नी छुपी होती है। शायद ऐसा ही कुछ। क्या स्त्री का रूप-सौंदर्य-देह भी ऐसी ही है। ऐसा ही आकर्षण? और पुरुष यहां किस रूप में मौजूद है? हो सकता है– रामकुमार ने ऐसा न सोचा हो… और यह मेरा शरारती दिमाग हो…।
कहानी चौंकाती है अपने क्लाइमेक्स के ज़रिए। एक किशोर नहीं जानता कि क्या वर्जनीय है, लेकिन जिस तरह राजू की मृत्यु होती है, वह तो संकेत ही है — अंधेरे गलियारे में ठोकर लगती है। बिना किसी नैतिक शिक्षा के यह कहानी हाजिर है, कई तहों को टटोलती हुई। व्यंग्य, चुटकियां, चिंता के अनेक पुटों के साथ।
गिलहरी में हम ढेरों प्रतीक देखते हैं। कहीं स्पष्ट तो कहीं कथ्य के संग गुंफित। यहां जो गांव है, वह पूरी तरह उन्मुक्त है और ठीक उसी हद तक बंधा हुआ भी। रामकुमार को बधाई इस बात की भी दी जानी चाहिए कि वे बंद निगाह और ठस, जकड़े दिमाग के साथ सबकुछ पवित्र-पवित्र नहीं बताते रहते। गिलहरी बालपन से उबरे, उम्र में बढ़े और दिल से ठहरे हुए बचपन में मन की बहुत-सी परतें खोलती है और उतना ही हमें उलझाती भी है। गिलहरी के कूदने से रोमांचित हुए राजू की दोस्त कोई लड़की हो सकती है या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। प्रश्न ये भी नहीं है कि `नरम और गुनगुना’ और `रुई के फाहों की तरह हवा में तैरते बादलों’ का ज़िक्र दरअस्ल, किन चीजों के लिए किया गया है और ये अश्लील-श्लील के आईने में कितने फिट होते हैं, सवाल बस एक है — नैतिकता के मायने इतने रूढ़ क्यों हैं कि सहज उत्सुकताओं को गिलहरी की मौत मरना पड़ता है।
* रामकुमार शायद हंसेंगे मेरी इस राय पर, लेकिन मेरी नज़र में गिलहरी को सेक्स एजुकेशन की पाठ्य सामग्री में शामिल किया जाना चाहिए।
- बहुत पहले प्रियंवद की कहानी खरगोश पर बनी टेलीफिल्म देखी थी। बेहद उम्दा उस कहानी के बाद रामकुमार की गिलहरी पढ़ना रोमांचक है। दोनों कहानियों में ऐसे ही अनदेखे-छुपे संसार के लिए कौतूहल और नायिकाओं के कदरन समान व्यवहार का हवाला है, लेकिन गिलहरी का अंत और अलग भावभूमि, क्षेत्र और ट्रीटमेंट, खासतौर पर क्लाइमेक्स इसे खरगोश से अलग करता है। यूं, दोनों की तुलना नहीं है। महज ऐसी ही एक कहानी याद आई, इसलिए ज़िक्र किया। मुझे यकीन है कि मेरा नाम जोकर में अपनी टीचर को चाहने वाला ऋषि तो प्रियंवद और रामकुमार के दिमाग में नहीं रहा होगा… क्योंकि ऐसा बचपन तो हम सबका होता है… एक-सा। तमाम दुत्कारों, वर्जनाओं, कल्पित कहानियों के बावज़ूद, कहीं-कुछ टटोल-तलाश लेने की होड़ में भागता और अक्सर बिंधता हुआ।
श्लील-अश्लील के चश्मे पहनने वालों से क्षमा याचना सहित एक सुझाव… गिलहरी ज़रूर पढ़ें। अच्छी कहानी है। मुझे यह कहानी पढ़ते हुए मंटो की मुतरी भी याद आई… क्यों, शायद वहां मूत्रालय में लिखे हुए संवाद भी अतृप्त मन की परतों से बहकर कहीं उभर आए होंगे।

कहानी पढ़ने का मन हो, तो यहां क्लिक करें

Tuesday, November 1, 2011

जब मिले दो दोस्त... अभिषेक मिश्र की कलम से...

एक मुलाकात

- अभिषेक मिश्र
गत शुक्रवार को एक छोटे से एक्सीडेंट से गुजरने के बाद अगले दिन शनिवार की छुट्टी होते हुए भी कमरे में ही पुरे आराम की दुह्साध्य परिस्थिति के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर ही रहा था कि फेसबुक से गुजरते हुए चंडीदत्त शुक्ल जी के स्टेटस पर नजर पड़ गई जो अपनी एक दिवसीय यात्रा पर दिल्ली पधारने वाले थे. चंडीदत्त शुक्ल जी से ऑनलाइन तो मेरा संपर्क कई सालों से रहा जब वो नोएडा में 'दैनिक जागरण' से जुड़े हुए थे. अरुणाचल जाने के बाद मेरा संपर्क इंटरनेट से टूट गया और इन जैसे कई अन्य व्यक्तियों से भी. नेटवर्क जोन में वापसी के बाद इनसे पुनः संपर्क हुआ तो पता चला अब ये जयपुर में हैं और मेरी कुछ पसंदीदा पत्रिकाओं में से एक 'अहा ! ज़िन्दगी' से जुड़ गए हैं. 

पिछले दिनों अपनी अचानक हुई जयपुर यात्रा में मुझे याद भी न रहा कि ये भी यहीं हैं, वर्ना अपनी साईट विजीट में इनके दर्शन को भी ऐड जरुर कर लेता. अब इनके दिल्ली आने के अवसर को मैं छोड़ना नहीं चाहता था, और यह शनिवार को मेरे बाहर निकलने की एकमात्र प्रेरणा थी. 

कला-विज्ञान-संस्कृति से जुड़े लोगों से मिलने या संपर्क का अवसर मैं छोड़ना नहीं चाहता, यह मेरी कुछ कमजोरियों में से एक है. मेरी इस 'प्रवृत्ति' का शिकार कई लोग हो चुके हैं जिनमें ब्लॉग जगत के ही श्री अरविन्द मिश्र, यूनुस खान आदि भी शामिल हैं. इससे पहले केंद्रीय सचिवालय मेट्रो पर ही एक अन्य ब्लौगर नीरज जाट से भी मुलाकात हो चुकी थी, जिसके सन्दर्भ में यहाँ  भी देखा जा सकता है. यही मेट्रो स्टेशन इस दिन फिर हमारी मुलाकात का गवाह बनाने जा रहा था, जहाँ हमारा मिलना नियत हुआ था. 


चंडीदत्त जी एक कमाल के लेखक, कवि और साथ ही ब्लौगर भी हैं. उनका लिखना पाठकों पर जादू सा असर करता है और उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता है. इसका एक उदाहरण मैं उनके फेसबुक पेज से ही दे रहा हूँ, जिसमें उन्होंने इस सामान्य सी मुलाकात को अपने खुबसूरत शब्दों में पिरोकर एक यादगार शक्ल दे दी है - 

कुछ अलसाई सुबहें इस कदर हावी होती हैं कि गुजिश्ता दिन भागते हुए बीतता है और कसम से, ऐसी दोपहरियों के बाद की शामें अक्सर तनहाई की आग से लबरेज़ करते हुए जिस्म को सिहरन से भर देती हैं। 
कुछ ऐसा ही तो मंज़र था उस रात, जब चांद ने सरसराती हवा का आंचल थामकर सांझ को ढलने का इशारा किया और नीले आसमान के दिल के ऐन बीच जा बैठा। ठिठुरती रात ने ओस से कहा-- तुम इतनी सर्द क्यों हो आज...और वो जैसे लजाकर घास के सीने में और गहरे तक दुबक गई। क़दमों के नीचे पत्ते चरमरा रहे थे। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रपति के घर के ठीक बगल सड़क पर खंबों के माथे के ऊपर जगमगाती स्ट्रीटलाइट के नीचे कोई था, जो मेरे इंतज़ार में था और इसी फ़िक्र में मैं भी तो था...ऐन उसी वक्त, इंसानी कारीगरी का बेमिसाल नमूना- दिल्ली मेट्रो के एक शुरुआती डिब्बे में सवार मैं भी बार-बार अपनी घड़ी देखता हुआ वक्त को जैसे रोक लेने की कोशिश में जुटा था...
हर दो-तीन मिनट बाद पीछे छूट जाते प्लेटफॉर्म को अपनी रफ्तार से मुंह चिढ़ाते और जैसे साथ ही फिर मिलने का दिलासा देती मेट्रो जैसे ही मंज़िल तक पहुंची, एस्केलेटर पर मेरे क़दम जम गए और जैसे ही खुद चलती सीढ़ियां रुकीं, बेताब निगाहों ने बाहर झांककर यकीन करना चाहा-- है तो सही, वो शख्स, जिससे मिलना आज मुमकिन हुआ है। नज़रें चेहरा नहीं तलाश पाईं पर फोन के पार एक आवाज़ मौजूद थी--हां जी...आता हूं। रात के सवा नौ बजे, राह को लांघ, वो मेरे सामने था। ये ज़िक्र है--झारखंड के रहने वाले, बनारस में पढ़े, अरुणाचल में नौकरी कर चुके और फिलहाल, फरीदाबाद में सेवारत अभिषेक मिश्र का। ब्लॉगर, पत्रकार, लेखक, संगीतप्रेमी... ये तमगे दरअसल छोटे और नाकाफ़ी हैं अभिषेक का बयान करने के लिए। यकीनन...वो सबसे पहले और सबसे ज्यादा एक स्वीट इंसान हैं। एक दिन पहले ही एक एक्सीडेंट से जूझने और रा-वन देखने की हिम्मत रखने वाले अभिषेक उस रात भी महज मुझसे मिलने फरीदाबाद से चले आए थे। ये बस मोहब्बत थी। बिना किसी काम, बगैर किसी प्रोफेशनल रुचि की। रात ढलती रही, वक्त अब खुद पुरज़ोर सिफारिश कर रहा था कि मुझे गुजरना है पर कुछ तो था, जो गुज़र नहीं पाया। हम दोनों एक कृत्रिम झील के किनारे बैठे, बिना किसी कृत्रिमता के दुनिया-जहान की बातें करते रहे। बहुत देर तक भी नहीं...बमुश्किल, 45-50 मिनट। फिर विदा हुए, फिर मिलने की कोशिश के वादे के साथ..."

इन पंक्तियों से चंडीदत्त जी के शब्द कौशल की संपूर्ण तो नहीं मगर एक छोटी सी झलक जरुर मिल गई होगी. उनके जैसे व्यक्तित्व के साथ बिताये वो चंद लम्हे मेरे भी स्मृति पटल पर संगृहीत रहेंगे और आशा करता हूँ कि वो पत्रकारिता में और भी ऊँचाइयाँ हासिल करते हुए हमें भी गौरवान्वित करते रहेंगे. 
चलते-चलते उन्ही की लिखी कुछ पंक्तियाँ -   

तुम रहना स्त्री, बचा रहे जीवन

हे सुनो न स्त्री
तुम, हां बस तुम ही तो हो
जीने का ज़रिया,
गुनगुनाने की वज़ह.
बहती हो कैसे?
साझा करो हमसे सजनी…
होंठ पर गीत बनकर,
ढलकर आंख में आंसू,
छलकती हो दंतपंक्तियों पर उजास भरी हंसी-सी!
उफ़…
तुम इतनी अगाध, असीम, अछोर
बस…एक गुलाबी भोर!
चांद को छलनी से जब झांकती हो तुम,
देखा है कभी ठीक उसी दौरान उसे?
कितना शरमाया रहता है, मुग्ध, बस आंखें मींचे
हां, कभी-कभी पलक उठाकर…
इश्श! वो देखो, मुए ने झांक लिया तुम्हारा गुलाबी चेहरा…
वसंतलता, जलता है वो मुझसे,
तुमसे,
हम दोनों की गुदगुदाती दोस्ती से…
स्त्री…
तुम न होतीं,
तो सच कहो…
होते क्या ये सब पर्व, त्योहार, हंसी-खुशी के मौके?
उत्सव के ज्वार…
मौसम सब के सब, और ये बहारें?
कहां से लाते हम यूं किसी पर, इस कदर मर-मिटने का जज़्बा?
बेढंगे जीवन के बीच, कभी हम यूं दीवाने हो पाते क्या?
कहो न सखी…
जब कभी औचक तुम्हें कमर से थामकर ढुलक गया हूं संपूर्ण,
तुमने कभी-कहीं नहीं धिक्कारा…
सीने से लगाकर माथा मेरा झुककर चूम ही तो लिया…
स्त्री, सच कहता हूं.
तुम हो, तो जीवन के होने का मतलब है…
है एक भरोसा…
कोई सन्नाटा छीन नहीं सकेगा हमारे प्रेम की तुमुल ध्वनि का मधुर कोलाहल
हमारे चुंबनों की मिठास संसार की सारी कड़वाहटों को यूं ही अमृत-रस में तब्दील करती रहेगी.
तुम रहना स्त्री,
हममें बची रहेगी जीवन की अभिलाषा…
उफ़… तुम्हारे न होने पर हो जाते हैं कैसे शब्दकोश बेमानी
आ जाओ, तुम ठीक अभी…
आज खुलकर, पागलों की तरह, लोटपोट होकर हंसने का मन है