कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, February 22, 2009

लड़की सिर्फ वसंत नहीं होती...



भाप सी उठीं तुम
आंख सी छलकीं
वसंत सी खिलीं
उमड़ी नस-नस तक
पतझड़ सी बिखरीं रेशा-रेशा
ग्रीष्म सी दहकीं, सुलगीं, धुआं-धुआं हुईं
पिघलीं कतरा-कतरा, बूंद-बूंद
पहले थीं बचपन
मादा या नर भेद से अलग
गुनगुनी धूप में बस्ता राह पर पटक
भटकतीं पानी में हाथ भिगोने
जैसे भिगो लेना हो मन
सब सराबोर करने की इच्छा...
कोमल, सुंदर, अद्भुत, कितना अच्छा
चांद पर घर का सपना
कहां पूरा हुआ छोटा-सा स्वप्न भी
आशा से देखा खेलते बच्चों को,
उनका हिस्सा भी कहां बनीं
सिसकीं तब, जब आंसू पोंछने का हुनर भी नहीं सीखा था
न गले में दबाकर, जीभ से पीकर, नाक में समेटकर आंसुओं को आंख तक न पहुंचने देने का कौशल पाया था

तब, राह चलते एक दिन
बचपन छीन लिया एक भद्दी सी बात ने
कितना गहरा था वो धक्का
यकायक बच्चे का सावन मादा होने के जंगल तक सिमट गया और ले गया साथ तुम्हें

फिर बिखरीं
टूटीं, दरकती रहीं बार-बार
वर्षों लंबे नर्क में
भगवान बनाए
मूर्तियां सजाईं
उन्हें पूजा, पाया धिक्कार का प्रसाद
कहां समझ पाया कोई मन तुम्हारा
मृत्यु मांगी, झटक देनी चाही ज़िंदगी
फिर उबर आईं तुम...हर बार की तरह
कुछ स्वप्न फिर बुने
कुछ क़दम तुम चलीं
बना रहा फिर भी मंज़िलों को लेकर भ्रम
जैसे भगवान टूटे, वैसे ही टूटती रहीं राहें
फिर मैं मिला एक दिन
झूठ और सच के अंतर्द्वंद्व के बीच
कहीं उपजने लगा प्रेम
प्रेम, जिससे सच्चा कुछ नहीं
न तुम, न मैं, न वो काला समय
जिसमें सिर्फ प्रेम की तलाश नहीं थी
थीं कई अंधेरी घाटियां
कई गहरे काले गड्ढे
वो जो नहीं मिला, जो चाहा था, उसका खोखलापन तुमने दबा दिया था गहरे गड्ढे में
पर शंकाएं और सच भारी पड़े प्रेम पर
मैंने कुरेदे गड्ढे, फिर निकालीं सड़ी-गली दफन हुई रातों, दिनों, दोपहरियों की लाशें
तुम टूट गई हो...अविश्वास के अंधेरे से घिरी
मरघट की दुर्गंध से त्रस्त
तुम्हारी आस्था एक बार फिर छिन्न-भिन्न है
तुम जो वसंत थीं, थीं लड़की
आज फिर मादा हो...बार-बार भोगे, नोचे, छले जाने को अभिशप्त मादा
और मैं
सिर्फ नर बनकर रह गया हूं...
प्रेम कहां पाता है कोई नर...पुरुष...मर्द
कहां पाऊंगा मैं भी
तुम्हें अपनी हथेलियों में समेटते हुए
अतीत की कालिमा को ही बार-बार उंगलियों से छुड़ाने की कोशिश करूंगा
और तुम भी अब कहां हो पाओगी
रात भर जागने के बाद जेएनयू के गंगा ढाबे के पास मिली सुबह की तरह सहज...
फिर भी यही चाहता हूं
आवरण उतर जाएं, मुस्कराते हुए कुटिलताएं न करूं
चाहूं तुम्हें तो कहूं, बोलूं तो निभाऊं, चाहूं तो चाहूं
बस तुम्हें...बस तुम्हें...

Saturday, February 21, 2009

क्या आंखें प्यार में नहीं रोतीं


तुम्हें देखने की कोशिश में
अक्सर धुंधला जाती है नज़र
आंसुओं में घुल-ढक जाती रोशनी
बायलोजिकल उपज हैं ये
सच है साथी
कैसे हो सकता है आंसुओं का महिमामंडन
रक्त, कफ और वीर्य की तरह
ये तो पैथालोजी लैब के लिए टेस्ट का सामान भर हैं
किसी कसक से इनका क्या वास्ता
भरोसे दरक जाएं, तो भरोसा नहीं होते
जो चटख जाए, वो प्यार ही कहां भला
याद है वो बारिश, जब एक छतरी फेंककर तुम मुस्कराई थीं
और पानी में सन गए थे हम-तुम
तब भी तो रो दिया था मैं
पर आंसुओं और महिमामंडन का रिश्ता इससे तो नहीं बनता
बुनता रहूं भले ही मैं इनका संबंध
तुम तो जानती हो ना
ये छलने की नई तरकीब भर है, है ना...

Tuesday, February 17, 2009

आज फिर


आज फिर बहुत उदास हूं
आज फिर तुमसे नाराज हुआ
आज फिर एक शाम आई
आज फिर तुमसे दूर हूं
आज फिर तुमसे ही की तुम्हारी शिकायतें
आज फिर मांगी तुमसे सफाइयां
आज फिर नहीं हुआ तुम पर यक़ीन
आज फिर तुम्हें जता दिया अविश्वास
आज फिर तुम पर ही किया भरोसा
आज फिर तुम्हारे ही सीने से टिका दिया सिर
आज फिर तुमसे ही मांगा सहारा
आज फिर कह रहा हूं
आज जैसा आज फिर कभी न आए

Monday, February 2, 2009

लौट आओ, ताकि लौट जाए उदास शाम


आज फिर बस स्टैंड पर उतर आई उदास शाम
मूंगफली के छिलकों का ढेर किसी के पांवों तले चरमराया नहीं
पांच रुपये की 100 ग्राम जलेबियां इंतज़ार करती रहीं अपने ग्राहक का
मच्छर भिनभिनाते रहे
ताज़ा-ताज़ा पटाई गई गर्लफ्रेंड्स के साथ टाइपास ब्वायफ्रेंड एमएमएस देखते-दिखाते रहे
कुछ गे, बेरोजगार, भिखारी और घर से भगाए बूढ़े भी थे बस स्टैंड पर
और थी गहरी खीझ, दुख और प्यार
पर तुम न थे
लौट आओ, ताकि बदल जाए बस स्टैंड
वो गंदगी न दिखेगी
न आसपास का बिखरापन
मूंगफली के छिलकों का चरमराना रहमान सा संगीत लगेगा
जलेबियां छप्पन भोग-सी
गे-ब्वाय-गर्लफ्रेंड अमर प्रेमी, बेरोजगार-भिखारी और निराश्रित बूढ़े करुणा जगाएंगे
आवारा-हांफते कुत्तों को भी पुचकारने का मन करेगा
यक़ीन मानो, धूल भरे बस स्टैंड पर भी लगेगी हवा
सावन को छूकर आई युवती के स्पर्श की तरह।

साथी...कहां हैं वो चित्र


साथी
कहां हैं वो चित्र
जो बुनने थे तुम्हें
भरने थे जिन रेखाओं में रंग
देखता हूं वो उंगलियों से छनकर काग़ज़ों तक उतर नहीं पाईं
मन के काले गड्ढों में गहरी हो रही और कालिख
क्या यही थी रेखाओं की नियति
उलझनों में तब्दील हो जाना
अलमारी पर तह किया रखा रह गया है कैनवॉस
फ्रेम की लकड़ियों पर लग रही दीमक
साथी
मन को तो नहीं लगा घुन
बचाकर रखना ज्वार
उफान मारे तो संजोना
उलटने, छलकने न देना
आंसू बनकर
पता है ना
तुम्हारे रंग छंद बनकर उतरेंगे कविताओं में
शब्द बन बुनेंगे कहानियां
उम्मीद फिर जन्म लेगी
मारेगी किलकारियां
खूब ख़ूबसूरत होगा कल
बस, संभालो अपने आपको
छोटी तुनकमिज़ाजी से कहीं बड़ा है प्यार

फिर चलना उस ओर, जिसका नहीं है पता...


वसंत की वो उदास शाम
रफ़्ता-रफ़्ता रफ़्तार भरती बस पर
ओस से भीगी सड़क देखते हुए
अश्कों से नहाया चेहरा
ज़मीन की ओर झुकाए
यूं चल देना
तय मंज़िल की ओर
पीले चावलों की चाह भर नहीं
कहीं न कहीं पीली पड़ गई हैं
गुलाबी मन की अंखुआई चाहतें
इस भटकन से
नहीं मिलेगी राह, न मंजिल
अच्छा हो
फिर कटाएं उस बस का टिकट
जिसके बोर्ड पर नहीं पढ़े
गंतव्य के निशाँ
नहीं जानते
कहां रुकना, कहां है उतरना
बस में न हो जब राह
तभी तो है चलने का मतलब
तब नहीं पड़ता पीला मन
बच पाता है मन का अंखुआयापन
खिला रहता है
दिल का गुलाब

बस इतना ही
बाकी उस बस में
जो अब तक राह से दूर है
चलेंगे फिर उसमें
कालीबंगा, या फिर ऋषिकेश की अधूरी यात्राओं पर
नहीं...
तय कैसे हो सकती है
उस प्रेम की मंज़िल
जिसकी सचमुच कोई नियति नहीं होती
न अधूरा रहना, न पूरा

फिर चलेंगे
एक अनजाने सफर पर
इसलिए
लौट आओ
वही अकुलाता मन लेकर
जिसमें उसकी तलाश है
जिसका पता नहीं