कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, August 10, 2011

चंडीदत्त शुक्ल की कविताएँ

काश…हम होते…उंगलियां एक हाथ की!

काश! तुम होते
गर्म चाय से लबालब कप
हर लम्हा निकलती तुम्हारे अरमानों की भाप…
दिल होता मिठास से भरा
काश!
मैं होती
तुम्हारी आंख पर चढ़ा चश्मा..
सोचो, वो भाप बार-बार धुंधला देती तुम्हारी नज़र
काश! मैं होती रुमाल…
और तुम पोंछते उससे आंख…
हौले-से ठहर जाती पलक के पास कहीं
झुंझलाते तुम…
काश, होती जीभ मैं तुम्हारी
गोल होकर फूंक देती…आंख में…।
काश,
हम दोनों होते एक ही हाथ में
उंगलियां बनकर साथ-साथ
रहते हरदम संग,
वही
गर्म चाय से लबालब कप पकड़ते हुए
छू लेते एक-दूसरे को, सहला लेते…
काश, मैं होती तेज़ हवा,
उड़ाती अपने संग धूल
बंद हो जाती सबकी नज़र, पल भर को ही सही
जब तुम छूते मुझे
कोई देख भी ना पाता..

प्यार का प्रूफ पढ़ते हुए…

अक्सर,
प्रूफ पढ़ने वालों की
आंखों में होता है
धुंध का बसेरा
एक अक्षर से दूसरे अक्षर की ओर बढ़ते हुए
वर्तनी की गलतियों को टांकते
अर्धविराम और पूर्णविराम को आंकते
वे झुंझलाते नहीं
मूल से नया पाठ मिलाते हुए
प्रूफ पढ़ने वाले
रेखांकित करते हैं त्रुटियां
और भर लेते हैं
अपने चेहरे की झुर्रियों में
कितने ही थके, छूटे शब्द
यूं ही मैं
तु्म्हारी यादों के निशान टटोलता हूं
पढ़ने की कोशिश करता हूं
कि मूल में क्या होगा
और नए पाठ से उसका ताल्लुक कैसे बिठाऊं
सहज नहीं होता हर बार
सही-सही थाम पाना गलत और सही शब्द का छोर
तभी तो
तुम्हारी मुस्कान में प्रेम के चिह्न ढूंढता हूं
और बाद में पता चलता है
यहां वितृष्णा और व्यंग्य की हंसी थी
अब, जब तुम भी नहीं साथ हो
गुज़रे वक्त और आज के दिन में
कुछ वीक सिग्नल्स की तरह
गुजरे प्रेम के बिंदु जोड़ पाना
नहीं रह गया है आसान
माफ़ करना, मैं ठीक नहीं हूं
प्रेम की प्रूफ रीडिंग के मामले में

प्रेम के रफू–बीच

उंगलियों के पोरों बीच
एक पतली सुई की पूंछ थामे
चुभन को नसों में बहते देखकर भी
एक बार को सी नहीं करता रफूगर
धागा-दर-धागा
फटी-ख़राब-वीभत्स आकृतियों को
एकरंग करता जाता है
उस की तर्ज पर जब-जब मैंने सोचा
उधड़े हुए प्रेम को भी सिल लूंगा
सुई यकायक चुभ गई
और छलछला उठा पोरों में खून
रंग लाल ही था इस खून का
तुम्हारे प्रेम की तरह
पर कहां वह उन्माद
वैसा लगाव
वहां के घाव मरहम की मानिंद थे
और अब ये जख्म
चुभता है
तुम, घायल उंगलियों को जीभ से गर्म तो करोगी नहीं?
मैं जानता हूं
जीवन भर रहूंगा प्रेम के रफूकार की प्रतीक्षा में
और वो कभी नहीं आएगा
मेरे जख्म सिलने के लिए

सब हो गए बेवफ़ा

आज गायब है गंध
किवाम से
modern_art_gallery_-contemporary_galleries_of_modern_art_paintings_merello__mujer_caobaज़र्द है ज़र्दा
चूना भी नहीं काटता जीभ
देखो… सब हो गए बेवफा- बेअसर
तुम भी तो सी-सी करती
नहीं काटती अपने ही दांतों से अपनी जीभ
ना ही पोंछ देती हो
कथियाई उँगलियों को रुमाल समझकर
मेरी शर्ट की बांह से
उफनाता नहीं है कल्पना में कोई झरना
सूखते सब स्रोत
तुमने भी तो छोड़ दिया रियाज़ करने से पहले
गला तर करके कुल्ली करना
और कहीं, रुक गयी है बयार
अब तुम ही कहाँ भरती हो
संसार की दशा पर `उफ़’ कहती हुई निश्वास
नहीं हो तुम
तो रुकी है
पूरी पृथ्वी
तुम हंस दो अब खिलखिलाकर
ताकि खिल जाएँ सब फूल
और लौट आये जीवन भरपूर-भरापूरा

- साभार, परिकल्पना...