कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Wednesday, February 29, 2012

मत रोओ रामकली की अम्मा

- चण्डीदत्त शुक्ल

मुंह जैसा मुंह नहीं तुम्हारा

फिर क्यों गला फाड़के रोती हो

रामकली की अम्मा?

तुम्हारे रोने से कोई भला नहीं होगा

क्या सोचती हो, हाथी का दिल दहलेगा?

या कि कांपेंगे टेलीविजन और अखबार वाले...।

सब निश्चिंत और नपुंसक हैं, मेरी तरह।

बहुत शोर हुआ तो हाशिए के सिंगल कॉलम में निपटा दी जाएगी तुम्हारी बेटी

और किसी साफ-सुथरी जगह पर रिकॉर्ड पीटूसी में

बाकी एक सौ निन्यानबे लाशें।

दूर, परासपानी में करमा गाते-गाते ठहर गया है बलिराम खरवार उर्फ परगट बाबा

तुम भी चुप हो जाओ।

झारखंड तक लाश भी नहीं लौटेगी रामकली की।

वहीं, कहीं दफना दी गई होगी...।

बिचौलियों से बचेंगे तो कुछ हरे नोट तुम्हें भी मिलेंगे।

रामप्रताप की बीवी देखो न, चुप है।

बड़ा बेटा जानता है, उसे भी यहीं आना होगा,

किसी पहाड़ की छाती चीरकर लाइमस्टोन निकालते, दफ़न होने के लिए।

एक सौ बीस किलोमीटर दूर बनारस के लहरतारा में जब कबीर चुपचाप हैं

तब तुम ही रोकर क्या करोगी रामकली की अम्मा?

पहाड़ गिरने के बाद छींकते-छींकते हाल बुरा है,

कुछ तो उनकी फिक्र करो।

लाशें गिनने आए साहब को गन्ने का रस तो पी लेने दो।

सुना है, दुकानें सजी हैं वहां, अंगूर बिक रहा है।

रात तक अंगूरी भी मिलेगी।

तुम्हारी मंजरी के लिए कोई लोरिक पत्थर का सीना नहीं तोड़ेगा...

वो यहीं कहीं बिकेगी

काम से लौटते हुए बीस, चालीस या हद से हद सौ रुपए में।

खेत में ही नीलाम करेगी अपनी अस्मत।

तुम्हारी ढपाई में खरीदार सिर झुकाकर घुसेंगे तो है नहीं।

एक तो कच्ची बनी है, दूसरे कोई देवी स्थान थोड़े है...

वहां खड़े होना तो दूर, बस लेटा जा सकता है...।

मत रोओ, तुम मज़दूर हो.

ऐसी मौतें हमारे सफेद रजिस्टरों में दर्ज नहीं होतीं।

नेता जी की खादी पर रामप्रताप के खून के छींटे नहीं दिखेंगे, वो ड्राईक्लीन करा लेंगे।

बहुत महंगी मशीन में धुलता है उनका कुरता-पायजामा।

मत रोओ रामकली की अम्मा,

इत्ता शोर काहे करती हो...

सोनभद्र में नक्सली पैदा होते रहेंगे

कुछ जिएंगे मरते हुए,

कुछ मरेंगे फिर जी जाने के लिए।

नेता नोट छापते रहेंगे,

पहाड़ खोदते रहेंगे।

सब कुछ ऐसा ही होगा,

बस बिजलीघर के बगल के गांव में बत्ती नहीं जलेगी।

जंगल से शहर तक आने को पुल नहीं बनेगा।

कई मौतें दवा के इंतज़ार में रास्ते में ही होंगी।

और मैं

अगली बार, सीमेंट फैक्टरी के गेस्टहाउस में मुफ्त की चाय पीते हुए भी शर्मिंदा नहीं होऊंगा...

तुम कोई रानी नहीं हो, जो तुम्हारे महल के डूबने पर मैं कहानियां रचूं

चुप हो जाओ रामरती की अम्मा,

धूल भरे कस्बे में रात हो गई है

और जेसीबी मशीन भी कितनी देर तक रामप्रताप की लाश टांगे रहेगी,

उसे शहर लौटना है...

सुना है, मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है...।


--
सोनभद्र में लाइमस्टोन खनन के दौरान पहाड़ धसकने से कई मज़दूर मारे गए। खबरों में वे या तो हाशिए पर हैं, या फिर वहां से भी गायब। उनके लिए, ये शब्द-श्रद्धा।
0 लोरिक-मंजरी सोनभद्र के प्रेमी हैं, पुरातन कथा चरित्र
0 परगट बाबा जीवित हैं, 94 साल के, कर्मा गायक

Friday, February 17, 2012

सिनेमा की इबारत संजोने वाले चंद जिद्दी ख्वाब

दैनिक भास्कर के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख

भास्कर ब्लॉग.


- चण्डीदत्त शुक्ल * 08824696345

ख्वाब भी क्या खूब होते हैं। कुछ बेहद नाजुक और कुछ ऐसे, जो जागी आंखों से देखे गए..। न पूरे हों तो टूट जाते हैं। सिनेमा ख्वाबों की इसी बारात में शामिल होने की तरह है। सपनों की सिनेमाई रील पर सोए रहते हैं कुछ अरमान। बचपन में यही अरमान हौसले के खाद-पानी से लहलहाए रहते थे।

घर से स्कूल और छुट्टी के बाद फुर्र कर चिड़ियों की तरह वापस उड़ आने के दिनों में ये खबर मिलते ही कि रात को वीडियो लगेगा, थकान और नींद काफूर हो जाती थी। सिनेमा और सपनों की जुगलबंदी अब तक मन में जागती है। पलक जो कहीं झपक भी गई तो ख्वाबों में फिल्म चलती रहती है। ऐसी ही हालत उन हजारों लोगों की है, जो सिनेमा से मोहब्बत करते हैं। कुछ महज देखने तक तो कई अपने मन में ऐसे ख्वाब भी पालते हैं, जिनमें फिल्म बनाने की इबारत लिखी होती है।

कई जुनूनी लोगों के लिए फिल्म मेकिंग वैसी ही है, जैसे चित्रकार के लिए कलाकृति या कवि के लिए कविता। अब फिल्म निर्माण सस्ता काम तो है नहीं कि ख्वाब देखे और झट-से बुनकर साकार भी कर दिए। बावजूद इसके हजारों फिल्में बनती हैं। जानते हैं कैसे? महज हौसले की ताकत से। ये वे फिल्में हैं, जो कैमरे से ज्यादा मन में शूट होती हैं। एडिटिंग टेबल से पहले ख्वाबों का हिस्सा बनती हैं और सिनेमाघरों में रिलीज होने से पहले दोस्तों की महफिल में कई बार दिखाई जा चुकी होती हैं।

कुछ अरसा पहले एक फिल्म रिलीज हुई थी 'आई एम'। इसमें 45 देशों के 400 लोगों ने बतौर निर्माता पैसा लगाया और फंड जुटाने का काम फेसबुक के जरिए हुआ। श्याम बेनेगल भी गुजरात के दूध विक्रेताओं की मदद से 'मंथन' बना चुके हैं, लेकिन अपनी फिल्म बुनने का ख्वाब देखने वाले जुनूनी लोग इनसे जरा-से अलग हैं।

मालेगांव का नाम याद कीजिए। क्या आप जानते हैं कि यहां एक छोटा-सा फिल्म उद्योग भी चलता है, जो वीडियो कैमरे से बनाई फिल्मों के लिए मशहूर है? इसी इंडस्ट्री पर आधारित, महज एक लाख रुपए में बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'मालेगांव का सुपरमैन' अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बटोर चुकी है।
मेरठ के आसपास, हरियाणा और बिहार में ऐसे प्रयास खूब होते हैं। लगे हाथ एक और फिल्म याद कर लें 'श्वास'। ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली यह पहली मराठी फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए बाकायदा एक सहकारी संस्था बनाई गई और निर्माता ने कई लोगों से पैसे उधार लिए।

जयपुर में भी कुछ जुनूनी नौजवानों ने सिनेमा रचने का सपना देखा। उन्होंने एक फिल्म बनाई है 'भोभर'। किसान रेवत और उसके परिवार के संघर्षो के इर्द-गिर्द बुनी गई इस फिल्म के निर्माण की अंतर्कथा सिर्फ और सिर्फ हौसले के जादू-मंतर की कहानी है। गजेंद्र एस. श्रोत्रिय इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं, लेकिन फिल्म बनाने का जुनून इस कदर चढ़ा कि सब कुछ भुलाकर सपना साकार करने में जुट गए। गांव बिरानिया में सेट लगा। दिन-रात शूटिंग हुई। बजट बढ़ न जाए, इसलिए निर्माता से लेखक तक, हर कोई तैयार था कि जरूरत पड़ने पर खुद एक्टिंग कर लेंगे। शूट शुरू होते ही हीरो ने हाथ खड़े कर दिए। आनन-फानन में दूसरा कलाकार तलाशा गया। हीरोइन बनने के लिए जयपुर की रंगमंच कलाकार उत्तरांशी पारीक तैयार हुईं। आखिरकार, फिल्म पूरी हुई और यूनान में इंटरनेशनल प्रीमियर होने के बावजूद वितरण में अड़चन हुई तो खुद ही डिस्ट्रीब्यूशन का जिम्मा संभाला। 'वो तेरे प्यार का गम' जैसे प्रसिद्ध गीत का संगीत देने वाले दिवंगत संगीतकार दान सिंह की धुनों से सजी 'भोभर' आज रिलीज हो रही है।  पहले भी हौसले की मिसाल देती ऐसी फिल्में रिलीज हुई हैं। कुछ चली हैं, कई का नामलेवा भी नहीं बचा। 'भोभर' का भविष्य भी दर्शक तय करेंगे, लेकिन हौसले का जादू-मंतर सिर चढ़कर बोल रहा है। वो बता रहा है 'जुनून' हो तो सब कुछ किया जा सकता है। फिल्म भी बनाई जा सकती है!
 
 

ज़िंदगी हो कलाकृति की तरह, हम बन जाएं कलाकार

-         चण्डीदत्त शुक्ल @ 08824696345

 

ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय... कभी ये हंसाए, कभी ये रुलाए। सच... ज़िंदगी की पहेली हल करना बहुत मुश्किल काम है... लेकिन जीवन को उलझन मान लेने से तो हल निकलेगा नहीं... फिर क्या किया जाए?  क्यों न, जीवन जीने की कला हम सीख ही लें। जान लें, वो अंदाज़, जिससे ज़िंदगी खूबसूरत हो जाती है... खुशनुमा बन जाती है...

सोचिए, ज़िंदगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तस्वीरें अपनी रंगत बिखेरती नज़र आएंगी।

 

ज़िंदगी जीना अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप एक कलाकार की तरह ज़िंदगी को महसूस करें। जीवन का सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में महसूस करें।

एक श्लोक बचपन में सुना था साहित्य संगीत कला विहीन:

साक्षात् पशु: पुच्छ विषाण हीन:। इसमें कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है...।

सत्यम्, शिवम्, सुंदरम का ज्ञान भी यही है। सुंदर और शुभ का बोध कराने वाला... यानी जो सुंदर है, वह शुभ है और वही सत्य है... और यकीनन, ये कला ही तो है। ज़िंदगी को ज़िंदादिली के साथ महसूस करने, उसे आगे बढ़ाने की कला। कोई अच्छी तसवीर देखते हुए नज़रों से होते हुए दिल तक बह चली खुशी की गंगा आखिर कहां से फूटती है? एक सुंदर कलाकृति आखिरकार, सुंदर कब होती है... तभी तो, जब उसमें सच्चाई हो, सुंदरता हो और वह हमारी ज़िंदगियों से जुड़ी हो।

 

जीवन में कला कितनी ज़रूरी है... इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं। राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह कराने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का ज़माना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से अपनी बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता... लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा कि वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी मैं अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पड़ा था।

 

सोचने वाली बात है... हम सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं?  क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए?

और यह बात खुद को खास करने तक ही सीमित नहीं है। सच तो ये है कि जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव बना नहीं रहेगा, हम ज़िंदगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। यूं, ऐसा भी नहीं है कि हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए... जरूरी ये है कि कला-साहित्य और संगीत के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उसे सराहने का भाव पैदा किया जाए।

 

एक बहुत पुराना किस्सा याद आता है... एक बहुत बड़े संगीतकार किसी महफिल में गायन कर रहे थे। कुछ लोग बार-बार वाह-वाह कह रहे थे। उन्होंने गायन बीच में ही बंद कर दिया।  आयोजक ने गायक महोदय से सवाल पूछा कि आपने कार्यक्रम रोक क्यों दिया। गायक ने विनम्रता से कहा गलत जगह पर मिली तारीफ निंदा से कम नहीं होती।

 

अब ये सवाल हमारे लिए है... क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती है?  कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आंख में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं। कोई चित्र देखते समय हम मंत्रमुग्ध हो पाते हैं... अगर हां तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िंदगी हमारे लिए प्यार का गीत है... लेकिन जवाब न में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िंदगी के रास्ते से कला का भाव भटक गया है... ये ज़रूरी है कि हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाएं और ज़िंदगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सीख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी...इसकी चमक कुछ और ही होगी।

 

(जयपुर आकाशवाणी के कार्यक्रम चिंतन के लिए तैयार आलेख का मूल पाठ)

Wednesday, February 15, 2012

मैं माटी का गुड्डा...

- चण्डीदत्त शुक्ल # 8824696345

मिट्टी...! क्या है मिट्टी?
धूल, बालू, पानी का मेल, कुदरत की एक अंगड़ाई... या महज खेल... या फिर करिश्मा है मिट्टी? क्या है इस मिट्टी में, जो इसका नाम सुनने भर से हम झूम उठते हैं। आंखों के सामने उतराने लगते हैं कितने ही खूबसूरत नज़ारे... मिट्टी से खेलना, मिट्टी से बने घरों में रहना, मिट्टी की खुशबू, मिट्टी में रमना और आखिरकार, मिट्टी में मिल जाना... कुछ तो है...। जानना चाहेंगे, क्या है मिट्टी का जादू... मिट्टी और कुछ नहीं... दरअसल, हम खुद हैं मिट्टी। ये तो सब जानते हैं, कोई नई बात नहीं है, बस एक बार फिर दोहरा दूं... पांच तत्वों से बना है हमारा शरीर और इसमें मिट्टी है एक अहम तत्व। तभी तो कहते हैं, मिट्टी का शरीर था, मिट्टी में मिल गया।

हमारे लोक जीवन का एक-एक जर्रा इसी मिट्टी से बना है, बंधा है। मिट्टी की ज़िंदगी से रिश्तेदारी भी अनूठी है, तभी तो एक तरफ पानी बरसता है... मिट्टी गीली होती है... हर तरफ सोंधी महक बिखरती है। एक ओर सूखी धरती की प्यास बुझती है, तो दूसरे किनारे होता है हमारा मन और जैसे सांस के ज़रिए, नस-नस में इसी मिट्टी की खुशबू समा जाती है। मिट्टी की खुशबू कुदरती है। सुबह-सबेरे ओस पड़ते समय कभी मिट्टी से बातें करके देखिएगा। तन-मन और निगाह... सब खिल उठेंगे। सारी दुनिया की सब खुशियां मिट्टी से ही तो जुड़ी हैं। मिट्टी के घर, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी के दीए और मिट्टी वाले खेत... है न मज़ेदार बात।

बचपन के सुनहरे दिन याद आते हैं... आँगन, दालान और छोटे-छोटे कमरों वाले घर में हर जगह मिट्टी नज़र आती थी। तब सीमेंट के फर्श नहीं होते थे। बड़ी-बड़ी टाइल्स वाले छोटे-छोटे, कबूतरों के दड़बों वाले घर... वो दिन कुछ और ही थे, घर भी बड़े-बड़े और आंगन तो कई बार उससे भी बड़ा। पूरे आंगन को मिट्टी से ही लीपते थे सब। बच्चे मिट्टी से सारा बदन रंग लेते। सूखी मिट्टी, गीली मिट्टी। हाथों में और चेहरे पर। कपड़ों में और एक-दूसरे पर मिट्टी का छिड़काव... खेलकूद कर घर लौटते तो मौसम चाहे जाड़े का हो या गरमी का, नहाना ही पड़ता... लेकिन बदन में मिट्टी के निशान और इसकी खुशबू बची ही रह जाती।

दूर तालाब से गीली मिट्टी लाकर कई बार चूल्हा बनाया और घर-गृहस्थी के खेल खेले थे। आंगन के पास कई पौधे रोपे थे। उनमें से कई अब दरख्त बन गए। फल उगा रहे हैं। पीढ़ियों का मुंह मीठा कर रहे हैं। आज मिट्टी की बात करते हुए लोक जीवन के तमाम रंग याद आ रहे हैं। तब कोई संस्कार मिट्टी को मेहमान बनाए बिना पूरा नहीं होता था। शादी-ब्याह में गीली मिट्टी से बनाई गई वेदी और हंसी-ठिठोली के मौके से लेकर होली तक मिट्टी का मेल इतना गहरा था कि उसके रंग अब भी जहन में बाकी हैं। यही दौर था, जब सावन में झूले झूलते हुए हवा से होड़ होती थी और मिट्टी से मिलकर मौसम का हालचाल बताती हुई गांव की मिट्टी बालों में सन जाती थी।

खैर, अब दिन बदल गए हैं। सिनेमा में भी गांव बाकी नहीं बचा है। अब मदर इंडिया के "गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे…" जैसे गीत भी सुनने को कहां मिलते हैं। दीवाली में भी मिट्टी के दीए नहीं जलते। मिट्टी में खेलना, उसकी बातें करना असभ्यता की निशानी समझा जाने लगा है। इस सबके बावजूद एक अच्छी खबर है। सुना है, मध्य प्रदेश के खंडवा में मिट्टी से इत्र बनाया जा रहा है। अच्छी खबर है। चलिए, सेंट की बोतल में ही सही, मिट्टी बाकी तो बचेगी। कैसा हो, जो हम अपनी ज़िंदगी मिट्टी की ये महक बनाए रखें। आप करेंगे न ऐसा?

Sunday, February 5, 2012

एक आंसू गुनगुनाता रहा उम्र भर...

कहानी...

-    चण्डीदत्त शुक्ल


मुस्कान ही हमेशा सब कुछ नहीं कहती। आवाज़ में हर बात बंधी नहीं रहती। एहसास आंसुओं के जरिए भी बयां होते हैं। उनकी भी होती है जुबान। बेहद असरदार। मन को गुदगुदाती खुशी हो या हताशा के पल, आशा की आहट हो या फिर आशंका की धमक – आंखें अक्सर छलक उठने को बेकरार रहती हैं। ऐसी ही है निहारिका, जिसे प्रेम मिला, साथी मिला और फिर सब छूट गया। उसके साथ हर वक्त रहे आंसू, जीवन संगी बनकर और जब वह सबसे ज्यादा निराश थी, भीगी आंखों ने ही समझाया – आने वाला कल होगा बहुत खूबसूरत... बस, आस न छोड़ो... ये एहसास एक बार फिर से उसकी आंखें नम कर गया। हो भी क्यों न, आंसुओं की जुबान बे-आवाज़ बहुत जोर से सुनाई देती है...



रात का दामन ठिठुरा हुआ था। लगातार गूंजने वाली, जागते रहो की आवाज़ कोहरे से डरकर कंबल में कहीं गुम हो गई। दिशाओं ने मुंह पर चुप्पी की पट्टी बांध ली। कड़वाहट भरी नज़रें पलकों में ढकने की कोशिश करते परिंदे अलसाते रहे। हाथों की पहुंच से बहुत दूर, निगाह के नजदीक, माथे के ऊपर तारों की बारात उमड़ने लगी। एक के बाद एक कर, इठलाते तारे आते और फिर छुपन-छुपाई खेलने लगते, मद्धम-सी चमक बिखेरकर। कढ़ाई से सजे किनारे वाली एक सफेद चादर नील में डुबाकर किसी ने आसमान पर उछाल दी। ब्लैक कॉफी से भरे मग की खाली होती सतह देख निहारिका बुदबुदाई – सो जाओ कि रात बहुत गहरी है, काली है... पर नींद का नाम-ओ-निशान तक नहीं था। मॉनिटर भले बंद था, लेकिन सीडी चल रही थी। एसडी बर्मन टीस बिखेरते हुए – मोरे साजन हैं उस पार...मैं इस पार...। तभी मोबाइल चहका – सोईं नहीं अब तक? तुम्हारे कमरे में खुदकुशी के सारे सामान मौजूद हैं न!
मल्हार का संदेश पढ़ निहारिका को गुदगुदी सी हुई। अगरबत्ती सुलगने के आखिरी कगार तक पहुंचकर थम चुकी थी, लेकिन महक ऐसी, ज्यूं बहार ने दरवाजे पर ताजा-ताजा दस्तक दी हो। निहारिका नए-नए प्रेम में थी, अंखुआ ही रहा था उसका और मल्हार का प्रेम। दूसरे दिन की शुरुआत के ऐन पहले, इस पहर, उसके घर से आठ सौ किलोमीटर दूर, किसी और ही शहर में मौजूद है इस वक्त मल्हार, पर दोनों कितने जुड़े हुए हैं — यही सोचते हुए, हंसते-हंसते जाने कैसे छलक उठे निहारिका के नयन। बिना कुछ कहे, भीगी आंखों ने बयां कर दिया सब हाल!

प्यार सबको होता है न कभी-कभार। जब-जब ये आता है, दुनिया में कुछ और बाकी नहीं बचता। दिल की लगी से निकलने के बाद भी कहां कुछ शेष रहता है, लेकिन निहारिका को कहां होश था। रात यूं ही गुजरती रही। मल्हार के संदेश पढ़ते और जवाब में बार-बार कुछ लिखते-मिटाते हुए। कॉफी खत्म हो चुकी थी, लेकिन यादें अंतहीन हैं। एक सिरा टूटता तो दूसरा उभर आता।
`बहुत ब्लैक कॉफी पीती हो तुम, देखना काली हो जाओगी', कभी मल्हार ये कहता तो अगले ही पल ये – `थोड़ी चीनी डाल लो, मुझसे नहीं पी जाती तुम्हारी बदसूरत कॉफी'। निहारिका नाराज होती, इससे पहले ही खिलखिलाहट की घंटियां बजाने लगता – `अच्छा, अच्छा! अब रंगभेद की नीति पर लेक्चर मत शुरू कर देना। सॉरी-सॉरी। याद आ गया, गोरा-काला कुछ नहीं होता... और ये भी कि तुम्हारे प्रिय भगवान कृष्ण श्याम रंग के हैं। चीनी नहीं तो अपनी लंबी अंगुलियां ही कॉफी में घोल दो, मीठी हो जाएंगी।' निहारिका बेसाख्ता हंस पड़ती और साथ ही उंगलियों से पलकों की कोर टटोलने लगती — गीली जो हो गई होतीं तब तक, निगाहें उसकी। मल्हार बोलता – `अपने आंसू जमीन पर मत गिरने देना, ये मोती टूट जाएंगे।' क्या कहती निहारिका, बस इतना सा ही तो – `धत! एकदम फिल्मी!'

ऐसा हरदम ही होता। निहारिका के बैग में दो जोड़ी रुमाल हमेशा मौजूद रहते। पर्मानेंट जुकाम की पेशेंट है वो। आंखें और नाक पोंछती हुई, न...न, रोती नहीं थी, पर मल्हार हंस देता – `इनसे मिलिए, एकता कपूर के सीरियल्स की बड़ी बहू। इनका हंसना-गाना, खाना-पीना, सब आंसुओं के साथ होता है।'
बस, ऐसी ही है निहारिका। जिसकी जो मर्जी, सोच ले। उसको शर्म नहीं आती। बुक्का फाड़कर, मजलिस के बीच भी, क्लास रूम में, जब चाहे, जहां जी करे, रो देने वाली। उसकी समझ में नहीं आता कि हंसना-रोना कौन-सी अभद्रता की बात है, जो उसके लिए `एक्सक्यूज मी, एक्सक्यूज मी' का रट्टा लगाती फिरे, इसलिए `मिस इमोशनल' का तमगा लग जाने से भी वो नहीं डरती।
दिन गुजरते रहे, साल-दर-साल, मल्हार और निहारिका का प्रेम मजबूत होता गया। प्यार में कंट्रोल की स्टियरिंग अपने हाथ में कहां होती है। मेहंदी हसन की आवाज़ में अक्सरहा सुनते हुए ग़ज़ल — प्यार जब हद से बढ़ा सारे तक़ल्लुफ़ मिट गए, आप से फिर तुम हुए फिर तू का उन्वां हो गए,  दोनों नजदीक-दर-नजदीक आते गए।

***
निहारिका ने सीने में दम भर सांस कैद कर ली
और फिर फूंक बाहर निकाली। डायरी पर जमा धूल पूरी तरह बेदखल होकर मेजपोश के कोनों में सिमट गई। कितने ही दिन गुजर गए। निहारिका और मल्हार अब पति-पत्नी हैं, लेकिन दोनों का साथ रहना अब भी मुमकिन नहीं हो पाया है। अलग-अलग शहरों में नौकरियों में ज़िंदगी खर्च करते हुए, बस तनहा रातें हैं और ब्लैक कॉफी के भरते-खाली होते कप। डायरी के पहले ही पन्ने पर मल्हार ने लिख दी थी एक इबारत ...

रोना नहीं, कभी न रोना

यादों की पछुआ हवा निहारिका का तन-मन सिहरा गई। याद आए, वे पल, जब प्रेम पर पढ़ाई-लिखाई का बोझ भारी पड़ने लगा था। रात-रात भर मल्हार संदेश पर संदेश भेजता रहता और उसकी अंगुलियां टेक्स्ट बुक के पन्ने पलटने में मुस्तैद रहतीं। एक्जाम के बाद, बहुत अरसा गुजरने पर जब दोनों मिले तो मल्हार चीखने वाले अंदाज में शिकायतें सुनाता रहा। वो खोई रही, गुमसुम और फिर वही हुआ... उसकी आंखों में पानी ठहरा हुआ था। छलछलाया हुआ... टपक पड़ने को बेकरार। ये देखकर मल्हार हंस दिया – `मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का / उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले'। निहारिका क्या कहती। बोली – `शब्दों में प्रेम करना तो कोई तुम से सीखे मल्हार।'

***
प्रेम के दिन भी कितने गिने-चुने होते हैं। कोटे से मिले राशन की तरह,
खर्च होने की उतावली में। उनकी शादी तो हो गई, लेकिन कितनी ही मुश्किलों से जूझते हुए। मां बचपन में ही रूठकर दुनिया से चली गई थीं। पिता ने नन्ही नीहू को बहुत-से अरमानों के साथ बड़ा किया था। विजातीय लड़के से शादी की बात सुनकर उन्होंने धैर्य की पूंजी खो दी थी। वे गुस्से की कैद में थे। मां के फोटो की रंगत तांबई हो चुकी थी। उदास निहारिका एक बार फिर, आसमान से बिना कुछ कहे, बातें करती चुपचाप लेटी थी, तभी एक तारा टूटा, बेआवाज़। निहारिका ने दुआ के लिए हाथ जोड़ लिए। पलकें बंद थीं और आंखों के आंचल में सिमटा था, वही सदा का साथी – आंसू।

भोर में सबसे पहले पिता का ही स्वर सुनाई दिया। उन्होंने पुकारा – नीहू! उनकी पुकार में गुस्सा न था, बस आशंका और दुख के कुछ निशान थे। आंखों में पूरे बदन का लहू इकट्ठा था, पर मुंह से आवाज़ का कतरा भी न निकला, टपका सिर्फ एक आंसू। निहारिका ने हिम्मत कर उन्हें फिर से मल्हार के बारे में बताया। उसने पिता की हथेलियां कसकर थाम ली थीं। पिता ने सारी बात सुनी और फिर उसके थरथराते हाथों पर एक बूंद आंसू टप से गिरा। निहारिका ने पलकें बंदकर बदले में भी आंसू ही लौटा दिए।

***

डायरी के पन्ने पर एक और रात टंकी थी, लेकिन तारों से भरी नहीं। नहाकर ताजादम हुई एक धुली रात। मल्हार के साथ ज़िंदगी शुरू करने की गवाही देती हुई। बड़ी-बड़ी आंखें खोलकर मल्हार को देखते हुए निहारिका बोली – `ये ख्वाब है या मेरी ख्वाबगाह, जहां मैं आ गई हूं?'  मल्हार ने कहा – `न्यू पिंच' और उसके कंधे पर चुटकी भर ली। ततैया ने डंक मारा हो, ऐसे चिंहुक पड़ी निहारिका और आंख में फिर लहलहा उठी एक नदी।
`गीजर के पानी से नहाकर आई हो क्या, तुम्हारे आंसू बहुत गुनगुने हैं?'
अपने पोरों पर मल्हार की आंख से रिसा हुआ एक आंसू थामती हुई निहारिका गुनगुनाई – `और तुम्हारे आंसू इतने नमकीन क्यों हैं? अरब महासागर का सारा नमक एक ही में सिमट गया लगता है। इसमें ज़िंदगी के सब दुख घोल लिए हैं क्या?
दूर कहीं एक दीवाना रेडियो पर भूले-बिसरे गीत सुन रहा था।

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बस, इतनी-सी थी उनकी कहानी? नहीं... ज़िंदगी बहुत लंबी होती है, सो उन दोनों की भी थी।
कभी साथ रहते हुए, कहीं बरसों तक, बस मिलने की चाह में गुजरती हुई। एक दिन, मल्हार ने हमेशा के लिए निहारिका का साथ छोड़ दिया। किसी तरह की बीमारी का संकेत भी नहीं दिया था उसने। छुट्टियों में घर आया था, तब एक दिन बुखार से बदन तपने लगा। निहारिका अस्पताल ले गई तो पता चला – कैंसर की आखिरी स्टेज है और फिर दोनों बिछड़ गए। वायलिन का उदास सुर अब निहारिका के कानों में अक्सर बजता है और उसे वह अकेले सुनती है। पुरानी डायरी के पन्ने पलटती हुई। दूसरे कमरे में सो रही है गुलाब की पंखुरी-सी बेटी – कोमल!

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`मम्मा! मैंने कल रात ही कहा था कि सुबह कढ़ी-चावल खाऊंगी। बनाया क्या?'
निहारिका बुदबुदाई— `नहीं ! बेसन लाना भूल गई।' कोमल रूठ गई, लेकिन निहारिका को सुध नहीं थी। उसके कानों में कुछ संवाद उभर रहे थे –
मल्हार से वह लड़ रही थी – ` तुम खटाई नहीं लाए। अब कढ़ी कैसे बनाऊं?'
वह बोला – `कढ़ी में खटाई थोड़े ही पड़ती है। इसमें तो तुम अपना गुस्सा ही घोल देना।'
` हां, और की जगह आंसू, है न...!'
और दोनों ठठाकर हंस दिए थे। उनके खिलखिलाते चेहरों पर होली के सब रंग जवान हो गए थे।
निहारिका ने खिड़की के पार देखा। सुबह अब दोपहर से मिलने चल पड़ी थी। एक गड्ढे में जमा पानी में कमर तक डूबी हुई कोमल कुछ ढूंढ रही थी।
निहारिका ने आवाज़ लगाई – `क्या कर रही हो? पानी से बाहर निकलो, ठंड लग जाएगी।'
कोमल घर के अंदर आई। उसके हाथ में एक भीगा हुआ खरगोश था। कांपता हुआ। निहारिका ने कोमल के गुलाब जैसे हाथ अपनी हथेली पर फैला लिए और उसकी लकीरों में कुछ तलाशने लगी। दुख के समुद्र के पार, उम्मीद का एक कल उन सबको पुकार रहा था। निहारिका की आंख में कुछ कांप रहा था, खरगोश की पलकें भी भीगी थीं।



Saturday, February 4, 2012

कहिए डर को अलविदा...

अहा! ज़िंदगी में प्रकाशित, दैनिक भास्कर से साभार

- लेखक - श्री अमिताभ

ज़िन्दगी क्या है और इसके अर्थ क्या हैं? इस सवाल का जवाब तलाशने के क्रम में बहुत से लोगों की ज़िन्दगियां बीत गई हैं। हर बार कोई न कोई नया और अनूठा अर्थ सामने आया है। जिस तरह हाथ की हर अंगुली जुदा होती है, आकार और उपयोग में, वैसे ही हर शख्स के लिए ज़िन्दगी के मायने अलग होते हैं, लेकिन एक बात पर ज्यादातर लोग सहमत हैं कि जिस जीवन का कोई सार न हो, उसका कोई अर्थ नहीं।

अर्थवान जीवन के लिए जरूरी है कि हम वृहद मानव समाज की बेहतरी के लिए काम करें। बेहतर काम के लिए सुंदर सोच होनी चाहिए, लेकिन बात यहीं मुकममल नहीं होती। हममें लाख गुण हों, हौसला हो, राह सामने हो, फिर भी अच्छाई के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ पाते। जरूरी है साहस का होना। जो सोचा है, उस पर खरा साबित होने के लिए हिममत का सहारा पास में होना।

यह सही है कि इरादे नेक हों, मानसिकता स्वस्थ हो, फिर भी साहस नहीं है तो कदम हमेशा डगमगाते रहेंगे। साहस के न होने भर से धैर्य जवाब देने लगेगा, हम अपने बचाव के लिए नए-नए रास्ते चुनते रहेंगे और आखिरकार, बेहतरी का इरादा एक खोखले स्वह्रश्वन में बदलकर रह जाएगा।

प्रश्न उठता है — साहस क्या है? क्या इसे संजोने के लिए बाहरी तत्वों से कोई मदद मिलती है? किताबों ग्रंथों महापुरुषों से जो सीख मिलती है, वह पर्याह्रश्वत है या नहीं? जवाब है — साहस बाहर से आने वाली चीज नहीं। यह वह एहसास नहीं, जिसके लिए बाह्य जगत का सहारा लिया जाए या इसे कहीं से आयातित किया जाए। हिम्मत का जज्बा हमारे अंदर है, जरूरत है उसे पहचानने की।

साहस का भाव दरअसल, भय से मुक्ति है। भय भी हरदम किसी अनदेखे, अनजाने संकट का नहीं होता। अगर हम अपनी 'जो जैसा है, वो ठीक है' की मानसिकता में रमे रहना चाहते हैं और एक लीक से हटने की कोशिश नहीं करते तो वह एक किस्म का भय ही है। 'मैं यह करूंगा तो लोग क्या कहेंगे' और 'ऐसा करने से वैसा हो जाएगा' जैसी सोच डर से उपजती है। जैसे ही हम कुछ नया, बेहतर करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं और फिर किसी भी सोच या परिस्थिति में उससे अलग नहीं हटते, तत्क्षण भय से मुक्त हो जाते हैं। मृत्यु का भय, धन हानि का डर, अपयश का संकट जटिल भय हैं। इनका सामना करने के लिए बड़े साहस की जरूरत है, लेकिन इनसे भिड़ने से पहले छोटे-छोटे डरों से मुक्ति हासिल करनी होगी। एक बार साहस जाग गया तो दुनिया का बड़े से बड़ा खतरा भी व्यक्तित्व में शामिल भय को पुन: सिर नहीं उठाने देगा। हर संकट से बड़ा होगा तब हमारा साहस।

 कई बार हम अपने किए कराए पर पानी फेरते नज़र आते हैं, क्योंकि उस समय बड़े लक्ष्य की तरफ ध्यान देने की जगह खुद से लड़ाई लड़ रहे होते हैं। अक्सर अंतर्द्वद्व की यह स्थिति किसी बड़े गोल को हासिल करने के लिए नहीं होती। हम उस समय महज यह आकलन कर रहे होते हैं कि करने से कितना लाभ होगा और उसके बरक्स नुकसान की मात्रा कितनी होगी। कुछ भी नया करते समय सबसे पहले मन के अंदर से डर की आवाज उभरती है। यही मौका है कि उस पर काबिज होना सीख लें। याद कीजिए — बचपन में साइकिल चलाना सीखते समय आप एक-दो बार सीट से जरूर गिरे होंगे। अगर उसी समय आप साइकिल चलाना सीखने से तौबा कर लेते तो अब तक साइकिल की सवारी महज स्वह्रश्वन होती। गिरना और चोट खाना क्या है? बहुत छोटा सा भय.. एक बार इससे मुक्ति पा ली तो इसके आगे आप बाइक और फिर कार की ड्राइविंग सीखना चाहेंगे।

 यकीनन, जिन लोगों ने बड़े लक्ष्यों को साधा है और आप जिन्हें मंत्रमुग्ध भाव से सराहते हैं, देखते हैं, वे सब के सब कभी न कभी अपने-अपने अभयास में असफल हुए होंगे, चोटिल हुए होंगे। वे हारे नहीं, डरे नहीं, इसलिए शीर्ष तक पहुंचे।

साइकिल से गिरना महज एक प्रतीक है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि शारीरिक चोटों सेन घबराना साहस को जगा लेना है। सच तो यह है कि किसी भी तरह की चोट से न डरना ही साहस का आह्वान करना है। जिस्म का जन्म बहुत जल्दी भर जाता है। मन की चोट भरने में वक्त लगता है। एक छोटे भय से दो-दो हाथ करने के बाद मन पर लगी चोटों का सामना करने का अवसर आता है। किसी भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से पहले यह सोचकर बैठ गए कि असफलता की स्थिति में क्या होगा तो यकीन कीजिए — आप सफल हो ही नहीं सकेंगे। फिर तो हरदम डर की गठरी में दुबके बैठे रहना होगा। हां, आपने यह सोच लिया कि परीक्षा और प्रतियोगिता में कुछ लोग सफल होंगे और कुछ असफल तो प्रयास करने की हिममत बढ़ जाएगी। इस मोड़ पर साहस का जो जज्बा आपके साथ होगा, वही मंजिल तक ले जाएगा। जिस्म की चोट से आप उबर गए हैं।

असफलता का डर आपने मन से निकाल दिया है। बारी है अगले चरण की। अब पूरे व्यक्तित्व को डर से मुक्त कीजिए। सोचिए — जो होगा, वह अच्छा होगा और अच्छा न भी हुआ तो फिर प्रयास करेंगे। निश्चित तौर पर तब आपका व्यक्तित्व इस्पात जैसा होगा। आप भयमुक्त बनेंगे और बड़े संकल्प भी साकार हो सकेंगे। राहें खुली खुली, डर से अलग, मंजिल की तरफ साफ देखने वाली बनेंगी.. तो बताइए जरा.. आप कह रहे हैं न डर को अलविदा? एक बार ऐसा कर सके आप तो जीवन को और नजदीक से समझ सकेंगे और ज़िन्दगी का अर्थ भी तलाश कर पाना सुगम हो जाए।