कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, May 7, 2012

हां, है न `बहुत कुछ'!

- चण्डीदत्त शुक्ल

जाते हुए,
हंसे बगैर
एकदम उस तरह,
जैसे कोई गैर
अगर तुम यह कहकर निवृत्त हुईं
`और कुछ?'
और मैं नहीं कह सका,
`हां, है बहुत...!'
तो इसके मायने यह नहीं
कि नहीं है तुमसे पहले जैसा प्रेम।
विदा के समय,
बिछु़ड़ते लम्हों में जैसे हमने छोड़ दिया
एक पुराना साथ
यूं ही, ज़ुबान से शब्द अलग हुए
तो उन्हें क्या दोष दूं, बोलो?
कोई, कहां कह पाता है
एक बार में, एक साथ, सब कुछ,
वह, जो कहना संभव ही नहीं होता
महज शब्दों में।
थरथराए होंठ जब सन्निपात का शिकार बन लज्जित हो जाते हैं
आंख तो कहती है कुछ धीरे-से, सकुचाते हुए,
सुनो न उनकी बात।
बताऊं तुम्हें कुछ, सुनोगी, सह सकोगी क्या,
क्या है कुछ कहने को बाकी मेरे मन में,
सुनो वसंत
कुछ अधूरी शामें तुम अपने क्लचर में बांधकर जो गुमशुदा हुई हो,
यह बात ठीक नहीं।
चांद नंगे बदन सारी रात ठिठुरता है
समोसे की शक्ल में तारे ऐंठे हैं
पसीने से भीगे हों जैसे सारी शाम तुम्हारे इंतज़ार में
और तुम भूल गईं आंसुओं का मोयन लगाना.
कुछ अधजली रोटियां बिना खाए छूट गई हैं
लेमन सोडा बेचने वाला भी जान लेता है पूछ-पूछकर
कहां है तुम्हारी दोस्त मियां, बड़े अकेले-अकेले रहते हो!
हैं कुछ बकाए भी,
एक तो उस बंद हो गए सिनेमाघर का,
जहां हमें और भी फिल्में देखनी थीं।
एक वादा था तुम्हारा, एक ऐसे चुंबन का,
जिसके बाद मैं अंतिम सांस लूं।
उस परदेसी फिल्म की तरह,
जिसमें एक बूढ़ा शिशु होकर प्रेयसी की गोद में
लेता है आखिरी हिचकी,
तुम मरने दोगी अपनी बांह में।
पर सब स्वप्न कहां सच होते हैं,
सो यह भी घुल जाने दो
लेकिन सुनो,
सौ ग्राम हरी मिर्च खाने के बाद,
मेरी सी-सी पर कराह उठने वाली तुम,
बताओ तो,
आज वहां फिर क्यों नहीं लौटीं,
जहां से बेदर्द होकर घुमा ले गई थीं गाड़ी।
जानते हुए भी कि तुम नहीं आओगी,
आदत से मज़बूर मैं गया था वापस,
अपने टूटे हृदय को एक और धक्का देने।
कहना तो है तुमसे बहुत कुछ
है न `और कुछ'
पर जानता हूं,
न तुम सुन सकोगी
न मैं कह सकूंगा,
हम दोनों
निकल चुके हैं
बहुत दूर,
कहने-सुनने और उसके असर से,
इसलिए अब मौन हूं।
सुना था,
शब्दों में जब कविता तैरती है
तो पहाड़ हिल उठते हैं
दिशाएं थमती हैं
यात्राएं नए रास्ते चुनती हैं
और मरा हुआ प्रेम फिर ज़िंदा होता है।
यही सोचकर
हर दिन बुनता रहा हूं एक नया मंत्र।
जैसे, वेद की ऋचाएं धर रही हों देह
हवनकुंड में सुलगती लकड़ियों के बीच मुझे राख कर
देने को नया जन्म।
मंत्रों में गुंफित है तुम्हारा नाम सदैव
लेकिन जो कुछ भी बाकी है,
वह शेष ही रहेगा शायद सदैव
जब मेरी एक भी कविता तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं जगा पाती
नहीं चलती हो एक भी कदम नींद से बाहर
तो यह सब मंत्र हुए व्यर्थ
नष्ट सब कविताएं
इनका नाद बहुत धीमा है
और तुम्हारा गुस्सा कुंभकर्णी नींद के हथियार से लैस है।
सोच रहा हूं, बंद कर दूं कुछ भी लिखना
अगर यह सब इतना ही असमर्थ है,
जितना कातर मेरा प्रेम,
तो कविता के न होने से क्या थमा रह जाएगा,
यूं भी, शब्दों में कहां ढोई जा सकी है प्रीति
न ही क़तरा भर भी नफरत।
घृणा ही जी ली होती मुकम्मल
तो क्षणांश को ही सही,मुझसे मिलना जारी क्यों रखतीं
और प्रेम बचा रह गया होता अक्षरों की दीवार में
तब, यह रोती हुई कविता किसी भी तरह शरीर कैसे पाती।
हरदम कविता को जन्म देना प्रेम को वापस नहीं लाता
फिर भी,
इस जन्म में संभव नहीं है,
तुम्हें विस्मृत कर पाना
मेरी कविताओं का जन्म तुम्हारे गर्भ से ही तो हुआ है,
मेरी वसंत।