कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, July 27, 2010

बेहतरी के लिए बड़ा बदलाव

400 से ज्यादा विश्वविद्यालय भारत में दे रहे उच्च शिक्षा  
* आईआईटी और आईआईएम में ही मिलती है क्वालिटी एजुकेशन 
* बेहतर पढ़ाई के लिए विदेश जाना ही है छात्रों की प्राथमिकता 
* 1.5 लाख भारतीय छात्र हर साल चाहते हैं विदेश जाना 
* 30 हजार है ब्रिटेन जाने वालों की संख्या 
* 2009 में अमेरिका जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या एक लाख के पार 
* अमेरिका के अलावा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा व सिंगापुर हैं पसंदीदा 
* ऑस्ट्रेलिया के चार लाख से ज्यादा छात्रों का पांचवां हिस्सा भारतीय हैं
* इटली, पोलैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड व स्वीडन भी हैं हॉट डेस्टिनेशन 
* 1.60 लाख भारतीय दूसरे देशों में पढ़ रहे  
* 25000 डॉलर हर साल, प्रति छात्र है औसत खर्च  
* 400 करोड़ डॉलर एक साल में खर्च करते हैं भारतीय छात्र  


फिल्म "नाम" के चर्चित गीत चिट्ठी आई है की आखिरी पंक्तियां हैं—तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया/पंछी पिंजरा तोड़ के आ जा, देश पराया छोड़ के आ जा.. लेकिन क्या सिर्फ पैसा ही वतन की मिट्टी छुड़ाकर सात समंदर पार जाने को मजबूर करता है? क्या तड़क-भड़क की चाहत और बेहतर जीवन स्थितियों की वजह से लोग परदेस जाते हैं...क्या सचमुच भारत में अच्छी पढ़ाई नहीं होती, इसलिए छात्र-छात्राएं विदेशी शिक्षण संस्थानों का रूख करते हैं? इन सवालों के सीधे और सटीक जवाब तलाशने मुश्किल हैं, क्योंकि विदेश जाने, वहां बसने और प्रतिभा पलायन की वजहें बहुत-सी हैं और अलग-अलग हैं... 


विदेशी स्कूल में पढ़ाई-लिखाई
पढ़ाई-लिखाई के लिए परदेस का रूख करने की आम वजह यही बताई जाती है कि विदेश में क्वालिटी एजुकेशन मिलती है, जबकि भारत में महंगी फीस के बावजूद गुणवत्ता वाली शिक्षा से छात्र-छात्राएं महरूम ही रहते हैं। यही कारण है कि उच्चवर्ग ही नहीं, मध्यवर्गीय परिवारों की भी यही इच्छा होती है कि उनके बच्चे विदेश पढ़ने जाएं। चार सौ से अधिक विश्वविद्यालयों के बावजूद जब क्वालिटी एजुकेशन की बात आती है, तो आईआईटी और आईआईएम के अलावा कोई नाम नहीं दिखता। चूंकि, एजुकेशन लोन और स्कॉलरशिप हासिल करना अब मुश्किल नहीं रह गया है, इसलिए भी उच्च शिक्षा की इच्छा रखने वाले विदेशी संस्थानों की ओर मुड़ रहे हैं।

यूं, परदेस में पढ़ने की वजह महज क्वालिटी एजुकेशन ही नहीं है। यहां पढ़ने के बाद छात्रों को एक्सपोजर भी मिलता है, जिसकी वजह से कारपोरेट वल्र्ड में प्रवेश पाना आसान हो जाता है। इसके उलट, देश में शिक्षा की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। ज्यादा समय नहीं हुआ, जब राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति ने स्वीकार किया था कि विश्वविद्यालय का स्तर बहुत गिर चुका है। उन्होंने थोड़ी निराशा के साथ ये तक कहा था कि विश्व स्तर के दर्जे की बात छोड़ ही दें...अगर विश्वविद्यालय साठ के दशक वाली ख्याति पुन: पा ले, तो बड़ी बात होगी। कुलपति महोदय की स्वीकारोक्ति जैसी स्थितियों के बीच छात्रों का पलायन स्वाभाविक नहीं है क्या।

इस परिदृश्य में राहत की बात ये है कि पंद्रह साल की जद्दोजहद के बाद भारत सरकार ने विदेशी शिक्षा संस्थान (प्रवेश नियमन एवं परिचालन, गुणवत्ता बरकरार रखना और व्यावसायीकरण पर रोक) विधेयक को हरी झंडी दे दी है...इसके बाद विदेशी विश्वविद्यालय देश में अपने परिसर आसानी से खोल सकेंगे...वैसे, सरकार वर्ष 2000 में ही शिक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को मंजूरी दे चुकी है, लेकिन कानून से बंधे होने की वजह से विदेशी विश्वविद्यालय यहां के छात्रों को डिग्री नहीं दे सकते थे। अब चूंकि, विदेशी शिक्षा संस्थानों की शाखाएं देश में ही खुलेंगी, तो निश्चित तौर पर भारतीय छात्रों का विदेश जाना रूकेगा...।

मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को उम्मीद है कि ये फैसला शिक्षा क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा और इससे पठन-पाठन संसार में विकल्प, प्रतिस्पर्धा के साथ ही बेहतर गुणवत्ता की शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा। उन्होंने इसे दूरसंचार क्षेत्र में आई क्रांति से भी बड़ी बात बताया है...। बेशक, सिब्बल की आशा सकारात्मक है, लेकिन उन्हें कई मोर्चो पर विचार करना होगा। देश के करोड़ों रूपए बचाने के लिए उठाए गए इस कदम से ही समस्या का हल नहीं होने वाला। 

वैश्विक मंदी की वजह से बहुत-से छात्रों का विदेश पलायन रूका था, लेकिन इसकी वजह देशप्रेम नहीं, बल्कि मौजूदा परिस्थिति थीं... भारतीय छात्र परदेसी संस्थानों का रूख करना तब तक बंद नहीं करेंगे, जब तक उन्हें हर राह पर सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जाएंगी। ये तो माना कि पठन-पाठन का स्तर सुधर जाएगा, क्वालिटी एजुकेशन का सपना पूरा होगा, लेकिन क्या मार्केटिंग, अवसर और एक्सपोजर की बुनियादी शर्तो पर हमारी सरकार खरी उतर पाएगी? राष्ट्र से प्रेम जरूरी है, लेकिन अंध राष्ट्रवाद खतरनाक भी है। अगर छात्रों का विदेश पलायन रोकना हो, तो देश में सहूलियतें बढ़ानी ही होंगी।

चर्चित ब्लॉगर घुघूती बासूती कहती हैं, कई प्रतिभाओं ने भारत में ही रहना पसन्द किया, वे अपने निर्णय के कारण सिर धुनते मिल जाएंगे...। यही वो समय है, जब घुघूती की इस खिन्नता को समझा जाए। ये बात भी सही है कि किसी को देश छोड़ने का शौक नहीं होता। आज एनआरआई हमारे लिए पैसे, श्रम और बुद्धि का एक बड़ा स्त्रोत हैं, तो परदेस जाने, पढ़ने या बसने में भी कोई समस्या नहीं है। हां, ऎसा गुलामी की मानसिकता के तहत किया जा रहा है या फिर सुविधाओं-संसाधनों की कमी की वजह से लोग विदेश की ओर मुड़ रहे हैं...इसका सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाना जरूरी है।

परदेस प्रेम की वजहें समझनी हैं जरूरी
परदेस-प्रेम की वजह सिर्फ भौतिक ही नहीं, मानसिक भी है। गुलामी की मानसिकता से उबरने, खुद को अंग्रेजों के बराबर दिखाने की इच्छा भी विदेशी चमक-दमक की तरफ खींचती है। ऎसा नहीं कि विदेश में बस जाने की अकुलाहट की वजह अपनी मिट्टी से प्यार ना होना है, लेकिन कहीं ना कहीं खुद को ऊंचा बना पाने की इच्छा इसके कारणों में शामिल है।

चाहे विचारक हों, या फिर अध्यापक-डॉक्टर...ज्यादातर के मन के किसी ना किसी कोने में ये लालसा दबी होती है कि विदेश में बस जाएं, वहां नौकरी करें, या फिर देश लौट भी आएं तो फॉरन रिटर्न कहलाएं। कौन मानेगा कि भौतिकी में शोध के लिए साल 2008 के नोबेल पुरस्कार विजेता जापानी वैज्ञानिक तोशिहिदे मस्कावा के पास कुछ अरसा पहले तक पासपोर्ट तक नहीं था, लेकिन अपने मुल्क में चाहे दूर-दूर तक विदेश जाने की संभावना और मौका ना हो, पासपोर्ट तो सब बनवा ही लेते हैं।

वैसे, लोभ से कहीं ज्यादा सुविधाओं की कमी यहां भी पलायन की वजह है। जहां एक तरफ अमेरिका, कनाडा, यूरोप, आस्ट्रेलिया और जापान जैसे धनी देशों की मुद्रा का मूल्य ज्यादा है, वहीं रूपया अक्सर लड़खड़ाता रहता है। विदेशी संस्थाएं शोध और अध्ययन कार्यो को बढ़ावा देती हैं...इनमें शामिल विद्वानों को मौका और सम्मान देती हैं, ऎसे में उनका परदेस पलायन किस तरह असामान्य कहा जाए? बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, बाजार का दबाव इसके पीछे की बड़ी वजह है। एक तरफ तो हम विदेशी संस्थाओं पर पैसे की ताकत के बल पर हमारी प्रतिभाओं को हाईजैक करने का आरोप लगाते हैं और दूसरी तरफ ये भूल जाते हैं कि लालफीताशाही के चलते भारत की सरकारी संस्थाओं में किस तरह भ्रष्टाचार है। एक और जरूरी तथ्य हम भुला देते हैं कि ईष्र्या, टांग खींचने, नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जितनी ज्यादा हमारे यहां है, उतनी विदेशों में नहीं। इसके अलावा, परदेस में जीवन जीने की स्थितियां बेहतर हैं, कम से कम हमारे गांवों और कस्बों जैसी नहीं, जहां एक बारिश के बाद बाढ़ जैसी हालात हो जाते हैं।

मैं जानता हूं कि ये पंक्तियां पढ़ते समय पाठक लेखक को राष्ट्रद्रोही जैसा कुछ मानने को मजबूर हो जाएंगे और कुछ लोग ये भी दोहराएंगे कि पिंजरा चाहे सोने का ही हो, किसी आजाद परिंदे को अच्छा नहीं लगता। बेशक! यही वो स्पिरिट है, जिसके जागने की जरूरत मैं समझ रहा हूं और हम सबको इसे ही आगे लाना होगा। देश की व्यवस्था को उस तरह बदलना होगा कि प्रतिभाओं का पलायन रूक सके। हम अगर चाहते हैं कि देश से ब्रेन ड्रेन ना हो, तो उसका सम्मान तो किया जाए! प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ब्रेन गेन नीति का वादा किया था...अब मौका इसी वादे पर खरे उतरने का है। सरकार को चाहिए कि राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा परिषद के गठन और विनियामक संस्थाओं में सुधार का संकल्प क्रियान्वित करके दिखाएं, ऎसा होने पर ही रिवर्स ब्रेन ड्रेन का सपना पूरा हो पाएगा। वैश्विक मंदी के बाद लाखों अनिवासी भारतीय भारत लौट आए हैं, वो भी तभी रूके रहेंगे, जब देश में उन्हें सम्मान और अवसर मुहैया कराया जा सकेगा।
इस बीच अच्छी खबर ये है कि भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद (आईआईएम-ए) में पढ़ने के लिए आए बहुत-से विदेशी विद्यार्थी भारत में ही नौकरी करने के इच्छुक हैं। उदारीकरण के बाद ये एक सकारात्मक संकेत 
है।
खबर अच्छी लगी...हां, तब और भी अच्छी खबरें मिलने लगेंगी, जब अपने मुल्क में ढांचागत विकास होगा। जीने-पढ़ने-आगे बढ़ने की सुविधाएं बढ़ेंगी, तो स्वदेश के हीरो की तरह विदेश गए अपने लोग अपने गांव लौटेंगे और बिजली पैदा करने के नुस्खे भी तलाशेंगे।

जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ की रविवारीय परिशिष्ट हम लोग  (http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/25072010/Humlog-Article/14972.html
में प्रकाशित कवर स्टोरी

Monday, July 19, 2010

अरबों डॉलर की मालकिन वेबसाइट्स



फोर्ब्स हर साल देश के चुनिंदा अमीर लोगों की सूची छापता है...इनमें ज्यादातर आईटी वाले होते हैं। उनके पास इतना धन है, जो आंखें चुंधिया देता है...लेकिन उनसे भी ज्यादा कमाई करती हैं वेबसाइट्स। हाल में आई टॉप 30 वेबसाइट्स की लिस्‍ट में कुछ साइट्स की सालाना कमाई तो इतनी ज्यादा है, जितना एक देश का कुल बजट नहीं होता। अफ़सोस की बात बस इतनी है कि इन वेबसाइट्स में अपने देश से एक भी नहीं है। इनमें अव्वल नंबर पर है—गूगल और आख़िरी पायदान पर एनवाई टाइम्स मौजूद है। वर्चुअल वर्ल्ड का हीरो नंबर एक गूगल हर सेकेंड 691.27 डॉलर अपनी तिज़ोरी में कैद कर लेता है, जबकि इसकी सालाना आय है 21 अरब 80 करोड़ डॉलर...रुपये में इसे पचास से गुणा करने पर कितनी रकम सामने आएगी?  रहने दीजिए, आंखें खुली रह जाएंगी और गिनती करते-करते अंगुलियां थक जाएंगी... लैरी पेज और सेर्जी ब्रिन की ओर से शुरू किए गए गूगल के बाद अगला नंबर है Amazon का, इसकी वार्षिक आय है 19,166,000,000। उफ!  इतने ज़ीरो! तीसवीं पायदान पर है—हेनरी जेर्विस रेमंड का एनवाई टाइम्स। प्रति सेकेंड इसकी आय है महज 5.55 डॉलर, जबकि सालाना इसके खाते में भी 175,000,000 डॉलर आ जाते हैं। इस सूची में याहू, ई बे, एमएसएन लाइव, पे पल, आई ट्यून्स, रायटर्स, प्राइसलाइन, एक्सपेडिया, नेट फ्लिक्स, ट्रैवलोसिटी, जैपोज़, होटल्स.कॉम, एओएल, ओर्बिज, ओवरस्टॉक, माई स्पेस, स्काइप, सोहू, Buy.com, रॉब ब्रोक, स्टबहब, अलीबाबा, ब्ल्यू नाइक और ट्राइपाडवाइजर, गेटी इमेजेज और बिड्ज जैसी साइट्स शामिल हैं। नहीं...नहीं, हैरान होने की ज़रूरत नहीं। फेसबुक और यू ट्यूब जैसी हर दिल अजीज वेबसाइट्स भी इस सूची का हिस्सा हैं, लेकिन वो काफी निचली पायदान पर हैं। जैसे 24 वीं सीढ़ी पर मौजूद चेहरों की किताब, बोले तो—फेसबुक हर सेकेंड महज 9.51 डॉलर की कमाई करती है, वहीं यू ट्यूब की सालाना आय 300,000,000 डॉलर है।
(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के साप्ताहिक सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख... मूल है यहां... http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/18072010/Humlog-Article/14417.html)

Thursday, July 15, 2010

शौर्य की गवाही

एक और पुस्तक समीक्षा...

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की नगरी अयोध्या के बगल बसा है उत्तर प्रदेश का शहर फैजाबाद। यहीं पर 1933 में लेफ्टिनेंट जनरल यशवंत मांडे जन्मे। शिव की नगरी बनारस और सांस्कृतिक नगर गोरखपुर में पढ़ाई-लिखाई हुई। 16 साल के थे, तो राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश मिला। कमीशन के बाद 1962 में चीन के खिलाफ, 65 में पाक के विरुद्ध और 1971 में बांग्लादेश से लड़ाई में हिस्सा लिया। 99 में कारगिल और 2001 में ऑपरेशन पराक्रम का भी मांडे हिस्सा बने।
 नहीं..हम किसी सैन्य अधिकारी का बायोडाटा उलट-पुलटकर नहीं लिख रहे। ये एक लेखक का ही परिचय है। अंतर बस इतना है कि उसके बदन पर खाकी वर्दी है। दिल में देशभक्ति का बारूद है। हां, दिमाग में भावना से सने शब्दों की मस्ती भी भरपूर है। मांडे का फौजी-रूप दरअसल, उनके अंदर के साहित्यकार को भी सहारा देता है। मांडे सेवानिवृत्त हुए, तो कहानियां लिखने लगे। अब इन्हीं कथाओं के अनुवाद हिंदीभाषी पाठकों की अदालत में हाजिर हो रहे हैं। कहानियों का पहला संग्रह श्रेष्ठ सैनिक कहानियां शौर्य-गाथा की गवाही देता है। मांडे का लेखन हमें विवेकी राय की याद ताजा कराता है। विवेकी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है मंगल भवन। उसमें कथानायक मास्टर अपने फौजी शिष्य को लड़ाइयों की कहानियां सुनाता है और उससे भी सुनता है शौर्य-गाथाएं।
  ऐसे ही सूत्रधार हैं मांडे। उनके कथा संकलन की पहली कहानी जाट बलवान : जय भगवान यूं तो जाति विशेष की अलमस्ती और वीरता के ब्योरों से भरपूर है, लेकिन इसका अंत खास संदेश के साथ होता है..मिलके रहने की कोशिश करें, तो मन में बसी खटास भी खत्म हो जाती है। कथा नायक हैं जागे और मांगेराम, जो कृत्रिम अंग केंद्र के कमांडेंट के शब्दों में बड़े जिद्दी, अक्खड़ और मोटे दिमाग के हैं। पहले पहल सीमा पर घायल और अपाहिज होने के बाद अस्पताल आए जागे-मांगे एक-दूसरे से बात तक नहीं करते पर कर्नल सबनिस उनके दिल में मोहब्बत की ऐसी तासीर पैदा करते हैं कि वे नफरत भुलाकर आपस में जुड़ जाते हैं। मांडे सैनिक रहे हैं, इसलिए उनकी कहानियां बनावटी नहीं हैं और बुनियादी सच्चाई सामने लेकर आती हैं। लोंगेवाल, जयसिंह और विक्रांत जैसी कहानियों में लेखक स्वयं को ही दोहराते हैं। वैसे, ज्यादातर कहानियों में देश को लेकर अटूट जज्बा, घर की याद, दुश्मन को खत्म कर देने की ललक स्पष्ट है। देशभक्ति के सकारात्मक संदेश के साथ मांडे ये भी बताते हैं कि कोई लड़ाई कितने घरों, ख्वाबों और मुल्कों को किस कदर निढाल भी कर देती है।



पृष्ठ : 183
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

दैनिक जागरण के स्तंभ चर्चा में किताब में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा

Saturday, July 10, 2010

एक कविता



ज़मीन बिछी / क़दमों तले / तब / तलाशता रहा / खड्डे / छलने के निशान 
अब / धरती पपड़ा गई / और मैं / गिड़गिड़ा रहा--
पुरखों की मिट्टी / ना बिके  / सजावटी गमले / बनकर 
लाल ना होने दो / सुरमई शामें / आंख रखते ही / वहां / आ जाती थी नींद
डरा हूं / कहीं / चोरी ना हो जाए/ रात के नयनों का काजल
गीली मिट्टी / सन जाती थी / दांतों के साथ / चुभलाता रहा / दरदरी-सी जीभ / अपनी ही 
ना सूखने पाए / उस सुधा का रस / भंवरे / चूस ना लें / अमृत-स्रोत
ना ढहें / मेरे हिस्से के पहाड़ / इनमें कमंद फंसाकर/ नापी थी ऊंचाई /जाना जीवन सुख / हरारत भरे होंठों में भर ली/ बर्फीली ठंडक 
देखता हूं / पिघल रही / क़तरा-क़तरा बर्फ / बची रहने दो पहाड़ी / जहां फूटता है / ममता का सोता / जो भर देता है / भूख भरा पेट / अंदर के शिशु का 
सलामत है नदी / मुंह लगाते ही / बुझी हर बार / प्यास की आग / 
बनी रहने देना ज़िंदगी...















Thursday, July 8, 2010

गूगल बज़ से साभार


कुछ पंक्तियां...., जो बज़ पर आईं सीधे



बरसती थीं जब अथाह तुम / समेटे रहा अपनी अंजुरी मैं / तरसता हूं अब एक बूंद की छुअन को / मन पठार में कितनी प्यास समेटे...Edit
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बहुत दिन बाद हुई बारिश / लबालब हुए हम दोनों / फिर भीगे, मन भरकर / एक मैं था / और एक तुम्हारी याद....Edit
Sheelu Ji - awesome sir ji, awesome....2:23 am
shikha varshney - oye hoye ..beautiful..2:48 am
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तेरी याद भी पाज़ी है / मुझे बहुत रुलाती है /
अंखियां भर आती हैं / हां नींद ना आती है...
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3 people liked this - Sheelu Jishikha varshney and पवन कुमार

प्रतिक्रियाओं के लिए धन्यवाद...वैसे,  डिज़ाइन कॉपी करने का आइडिया कैसा रहा?




Sunday, July 4, 2010

आते हैं तुम्हें मौत के बहाने बहुत, ज़िंदगी से जरा-सी मोहब्बत कर लो!



प्यार में पागल जोड़े जब गुनगुनाते हैं—चैन से जीना अगर है,  मुझ पे ज़रा मर ले / आ खुशी से खुदकुशी कर ले…तब बात समझ में आती है, लेकिन कोई सबकुछ छोड़, ज़िंदगी को पीठ दिखा, जान देने पर उतारू हो जाए, तो उसकी झुंझलाहट गले नहीं उतरती। यूं भी, बहुत मुश्किल से मिलती है ज़िंदगी, हज़ार नियामतें लेकर आती है...फिर भला क्यों कोई अपने ही हाथों अपनी सांसें बंद कर देना चाहे? इससे बड़ी कायरता कुछ नहीं हो सकती, ये हर कोई जानता है। सभी मज़हब आत्महत्या के ख़िलाफ़ हैं...फिर भी ये तथ्य निरी कल्पना नहीं...ये परेशान करने वाला सच है। दरअसल, बहुत-से लोगों को लगता है—ज़िंदगी से भाग जाना मुश्किलों का हल है!  वज़हें अपनी-अपनी हैं, बहाने अपने-अपने हैं  और खुदकुशियों के बढ़ते आंकड़े भी सामने हैं। कोई दिल हारकर जान देता है, तो कोई भूख से जूझते हुए।
किसी को रिश्तों की उलझन ले डूबती है, तो किसी को काम-कारोबार और प्यार में नाकामयाबी। हैरत तो तब होती है, जब ग्लैमर वर्ल्ड की कोई चर्चित हस्ती ज़हर खाकर, नींद की गोलियां निगलकर, फंदे से लटककर जान दे देती है। जहां हर राह में सितारे जड़े कालीन हैं, शोहरत है, दौलत है, दोस्त हैं, भीड़ है, कैमरों की फ्लैशलाइट्स हैं, वहां मौत और मातम क्या काम? फिर भला कोई क्यों जान देता है? 
हाल में ही कामसूत्र विज्ञापन से फ़ेमस हुईं विवेका बालाजी की आत्महत्या ने ये सवाल फिर गर्मा दिया है। कहते हैं—विवेका अकेली थीं, रिश्तों में धोखे से टूटी हुई थीं, इसलिए दुनिया से जाने में ही उन्होंने बेहतरी समझी। 
यूं, विवेका चमक-दमक से भरी मॉडलिंग, फैशन, टीवी और सिनेमा की दुनिया की इकलौती स्टार नहीं हैं, जिन्होंने आत्महत्या कर ली। कई सितारे असमय ही अपनी चमक खोकर खो गए। वज़ह—वही अकेलापन! धोखा, असुरक्षा का डर और खोखले होते जाने का अहसास। माना कि दिल टूटने की आवाज़ सुनाई देती है ताज़िंदगी, फिर भी जीने का हुनर सीख लेते तो अच्छा होता...। वैसे, ये बात उन सितारों की समझ में नहीं आई, जिन्होंने आत्महत्या कर लेने को ही हर मुसीबत का हल समझा।
9 जुलाई, 1925 को जन्मे गुरुदत्त ने भी जान दे दी थी। लड़की पसंद की थी, फिर शादी बनाई, लेकिन दिल नहीं लगा, सो घुटते रहे। मोहब्बत की कोशिश की, वहां साथ नहीं मिला...फिर भी जिए और क्या खूब जिए। ऐसा काम किया, जिसे अब तक सराहा जाता है। चौदहवीं का चांद, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम, काग़ज़ के फूल...एक से एक नायाब नगीने। एक शाम, दिल डूबा। निराशा उभर आई। पता नहीं, प्यार में हार जाने की खीझ बड़ी लगी या कारोबारी झटके...10 अक्टूबर, 1964 की सुबह पता चला—गुरु की बेज़ान देह बिस्तर पर पड़ी है। बाद में लोगों ने बताया, उस रात गुरु ने बहुतों को फ़ोन कर अपने पास बुलाया था, लेकिन कोई नहीं आया, जो उनका दुख बांट ले, उनसे हंस ले, बतिया ले। 
•   ग़ज़ल सिंगर चित्रा सिंह की बेटी मोनिका चौधरी ने जान दे दी, तो इसकी वज़ह भी था—तनाव, बेचैनी और अवसाद।
•  जुलाई, 2004 में कामयाब मॉडल, एक्ट्रेस, वीजे और पूर्व मिस इंडिया यूनिवर्स नफीसा जोसेफ ने आत्महत्या कर ली, वजह—मंगेतर से रिश्ता टूट जाना।



•  टीवी धारावाहिक कैट्स की एक्ट्रेस कुलजीत रंधावा ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि बतौर मॉडल उन्हें अपना कैरियर डूबता हुआ लग रहा था।


•   अप्रैल, 1993 में एक दिन सारा देश स्तब्ध रह गया था, जब पांच मंज़िला इमारत से छलांग लगाकर एक्ट्रेस दिव्या भारती ने जान दे दी थी। कहते हैं—माफिया की धमकी से परेशान होकर दिव्या ने ये क़दम उठाया था।




• 1996 का सितबंर महीना। भारत की मर्लिन मुनरो कहलाने वाली दक्षिण भारतीय अभिनेत्री 
सिल्क स्मिता ने चेन्नई स्थित अपार्टमेंट में फांसी लगा ली। कारण बनीं आर्थिक दिक्कतें और प्यार में मिला धोखा...। पहले स्मिता ने शराब में डूबकर हर गम भुलाने की कोशिश की और जब कहीं राहत नहीं मिली, तो जान दे दी।
•  फरवरी, 2002 में तमिल अभिनेत्री प्रत्यूषा ने ज़हर खा लिया। प्रेमी से वादा किया था, तुम्हारे बिना संसार में नहीं रहूंगी और बस इसलिए खुद को खत्म कर लिया।
•   नवीन निश्चल सबके पसंदीदा अभिनेता हैं, लेकिन उनकी अपनी ज़िंदगी उलझावों से घिरी है। अप्रैल, 2006 में पत्नी गीतांजलि निश्चल ने खुदकुशी की, तो इसका ज़िम्मेदार नवीन को ही बताया।
•  2009 में ब्यूटिशियन शहनाज हुसैन के पुत्र और फ़ेमस रैप सिंगर समीर हुसैन ने आत्महत्या कर ली। ख़राब आर्थिक हालात ही इसका कारण थे।
•  शारान्या भारद्वाज, एक्टर कुणाल सिंह, आशा भोंसले की पत्रकार बेटी वर्षा…ऐसे सैकड़ों नाम हैं, जिन्होंने असमय ही संसार का साथ छोड़ दिया। 
जन्म-जन्म तक साथ निभाने की लिए की गई शादी का टूट जाना, दोस्तों से मिले कारोबारी और भावनात्मक धोखे, कैरियर बरबाद होने का वहम और कई बार ऐसी परिस्थितियों का बनना...यही वो वज़हें हैं, जिनसे जूझते हुए ग्लैमर इंडस्ट्री के लोग जान दे देने का फ़ैसला कर लेते हैं। लेकिन क्या कोई भी नाकामयाबी इतनी बड़ी हो सकती है, क्या कोई धोखा इतना तोड़ सकता है कि सांसों की सौगात को सुलगा देने का फैसला कर लिया जाए?


सिनेमा के संसार की 
सुपर सितारा मीनाकुमारी के हवाले से एक बात...मीना के लिए भी ज़िंदगी बहुत मुश्किल थी। अपनी डायरी में एक जगह वो लिखती हैं—तारीखों ने बदलना छोड़ दिया है, क्या कहूं अब?...मीना के लिए समय ठहर गया था। अरमान झुलस चुके थे। वो मानती थीं—`अचानक आ गई हो वक्त को मौत जैसे / मुझे ज़िंदगी से हमेशा झूठ ही क्यों मिला? क्या मैं किसी सच के काबिल नहीं थी!’ बहुत-से सवाल जहन में थे। कोई आस ना थी, फिर भी मीना जीती रहीं। संसार से तब गईं, जब आखिरी बुलावा आया। 
जीना इसी का नाम है। आखिरी सांस तक लड़ना। मोहब्बत में धोखा मिला, तो क्या? उसकी याद ही सही...और फिर प्रेम का इंतज़ार भी क्या कम है? कैरियर डूब रहा है फिर भी हौसला तो यही होना चाहिए ना कि लड़ेंगे, फिर से सूरज की तरफ बढ़ेंगे। जीना इसी का नाम है। 
बनावट भरी ज़िंदगी जीते समय अगर कुछ वक़्त रिश्तों को संजोए रखने के लिए निकाल पाएं, तो फिर हमारे प्यारे सितारे हमें छोड़कर खुदकुशी की राह नहीं चुनेंगे। ऐसा होगा ना? आमीन!
  
पलायनवादी नायक...
सारे संसार में साहित्य, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में दिग्गज माने जाने वाले बहुत-से नायकों ने आत्महत्या की राह पकड़कर पलायनवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। दुनिया भर को बदलाव के लिए उत्साहित करने वाले कानू सान्याल ने हाल में ही व्यवस्था से परेशान होकर जान दे दी। खूबसूरत, प्रेरणादायक कविताएं लिखने वाले गोरख पांडेय ने नौजवानों को दिशा दिखाई पर खुद ऐसे टूटे कि 1989 में आत्महत्या कर ली। मलयालम की युवा लेखिका टीए राजलक्ष्मी 35 साल की थीं, तो दुनिया छोड़कर चली गईं। 
अर्नेस्ट हेमिंग्वे को 1954 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला और सात साल बाद 1961 में उन्होंने खुदकुशी कर ली। विंसेंट वान गॉग ने सैकड़ों चित्र और ड्राइंग बनाईं, लेकिन 37 साल के थे, तभी खुद को गोली मार ली। अमेरिकी रचनाकार जॉन बेरीमैन ने ‘ द ड्रीम सांग्स’ सरीखी कालजयी कविता लिखी, फिर ये संसार अपनी मर्जी से छोड़ दिया। स में येजनीन ने तीस साल तक ही जीना पसंद किया। और तो और, सारे संसार की मानसिक उलझन का हल तलाशने वाले मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने भी खुदकुशी की कोशिश की थी।
उलझाव, दुख, हताशा...कारण चाहे जो भी हो, इन नायकों ने युवाओं को पलायन का रास्ता दिखाकर सही नहीं किया। यक़ीनन वो भी जब आसमां से इस जहां की ओर देखते होंगे, तो कहते होंगे...हमने हिम्मत छोड़ दी थी, तुम सब लड़ते रहना।


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