कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Tuesday, April 27, 2010

हर दिन होली...

हे ऐ ऐ ऐ ऐ ऐ....सररररारा सररररारा जोगीरा सररररारा सररररारा...खूब मचाओ धमाल...ना अंग की सुध रहे...ना कपड़ों की...चाहे जींस पहन रखी हो...चाहे बुशर्ट...टी-शर्ट हो या बरमूडा ही सही...आज तो बस गा लो जोगीरा...अरे भाई...होली है...होली है....बुरा ना मानो आज होली है...ठंडे पानी से भरी बालटी लाए हो! साथ में अबीर है क्या? एक चुटकी अबीर...। फाग क्यों नहीं गा रहे भाई?  नहीं आता...तो `रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ की तान ही छेड़ दो। कोई ना छूटे घर में, ना ही बचे कोई गलियन में...राह किनारे, बगियन में...जहां मिले कोई, पकड़ो...धर लो...रंग दो...और रंग जाओ।
क्या कहा? कैसा बेवकूफाना सवाल है ये?  बिना होली के ही होली मनाने की बात कर रहे हो...। ना जी...होली ही है आज...और आज ही क्यों...कल क्यों नहीं थी...कल क्यों ना होगी...परसों क्यों नहीं...पूरे महीने के 28, 30 या 31 दिन तक क्यों नहीं...सनडे, मनडे...हर डे फ़न डे क्यों ना हो! यानी हर दिन मन किसी का क्यों ना हो ले...और खेले होली!
मन का भी तो संविधान होना चाहिए...दिल का भी तो एक विधान होना चाहिए...विधान बिना किसी बाधा के बस उड़ जाने का...नाचने, गाने और मगन होने का। हर दिन रंगों भरा रहे मन...यही तो हो हमारा संविधान...जिसका हर पन्ना बस दिल लिखे...दिल पढ़े और दिल कहे...राष्ट्रगान हो—आओ खेलें होली...। ऐसी होली, जिसमें हमारा बुरा मन अपने ही चेहरे पर कालिख पोत ले और साथी के चेहरे को कर दे गुलाबी।
कहते हैं—रंग मानव जीवन पर असर डालते हैं...ऐसा असर, जो कभी धूमिल नहीं होता, फिर मन क्यों मैला किए बैठो हो भाई! किसी को नौकरी की चिंता, किसी को छोकरी की फ़िकर...किसी को जायदाद मारे डालती है, तो किसी के मन में हरदम रंज़िश का ज़िकर। ऐसे कैसे मनेगी होली...ऐसे कैसे जिओगे बबुआ।
चलो बात करते हैं मौसम की...सुबह अपने साथ चांदी के तार लेकर आती है...धुंध की चांदी...अब दूसरा रंग...अमीरों, जवानों और नेताओं के लिए गुलाबी ठंड...तो गरीबों के लिए काली है ये।
टीवी पर आजकल एक शो आता है...उसमें सितारे अपना सबसे बड़ा फ़ैन तलाशते हैं...वो फ़ैन अपने सितारों के लिए क्या-क्या नहीं करते...मुझे नहीं पता...ये क्या है और क्यों है...पर इस प्रोग्राम में एक राहत देने वाला पहलू ज़रूर है...वो ये कि कार्यक्रम में किसी ज़रूरतमंद को कुछ लाख रुपये दे दिए जाते हैं...कभी देखी है उस गरीब के चेहरे की लाली!
रंगों की अजब ही ज़ुबान है...हया की लाली अलग है...गुस्से की अलग...ज्यादा पी ली तो आंखें अलग तरह से लाल होती हैं और खूब सोने के बाद अलग...चाहत गाढ़ी हो जाए, तो एक और ही ललछाईं झलक जाती है।
गुस्से का कालापन अलग है और भूख के बाद पलकों के नीचे की ज़मीन का कालापन अलग है...। फले-फूले खेतों का हरापन और पीला रंग देखिए और बंजर पड़ी मिट्टी का पीलापन...। अब कौन-सा रंग चुनेंगे आप?
खुशी हाट-बाज़ार नहीं बिकती...कागज़ों के मोल नहीं मिलती...ये मन से ही उपजती है...होंठों से छलकती है...और आखर में सनकर सब तक पहुंचती है। खुशी, उमंग और जुनून के रंग संजोने का वक्त है...हर दिन उम्मीदों के रंग जुटाने के पल हैं...अच्छा...ज्यादा खिलखिलाकर मैं क्रेडिट क्यों लूं...अपने चेहरे का गुलाबीपना कुछ थामता हूं  और बता देता हूं...ये कॉन्सेप्ट ओशो का है...मेरा नहीं!
तो पक्का मनाएंगे ना आज के दिन से अब हर लम्हा हो-ली...तो लीजिए रेजोल्यूशन और दोहराइए मेरे संग-संग...
पलकें खुलते ही / और सुर्ख हो जाते हैं / आंखों के डोरे /  याद आती हैं सुबहें / तुम्हारी चाहतों के लाल रंग में रंगी हुई / पता नहीं, कहां से आती है / तुम्हारे हाथ की पकी रोटियों की सोंधी महक/ हर तरफ गूंजती है तुम्हारी हंसी की खनक / बार-बार / तुमने ही क्यों संजोकर रखीं मेरी चिल्लाहटें / मेरी किलकन के कुछ क़तरे / `क्लचर’ की जगह बांध लिए होते जूड़े के साथ....
अब ये मत कहिएगा इन पंक्तियों में रंग कहां हैं? तलाशिए...मिल जाएंगे...।
 
जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित
 

Sunday, April 25, 2010

फिर गूंजे चाहत संगीत


तुम मेरे लिए नहीं थे पड़ाव भर
ना ही किसी तृष्णा की तुष्टि का साध्य
फिर क्यों
कुंठाओं की धरती पर बलिदान हुआ हमारा प्रेम
पूछता है मेरे प्रेम का ज़िद्दी राग, मुझसे ही जोर-जोर से
हृदय अब भी चाहता है...
बना रहे राग
पर
रात भर, मंद-मंद कर रिसता है
कानों में
कुहुक नहीं,
कसक बन
काश!
थम जाए ये कोलाहल
और फिर गूंजे
चाहत-संगीत

सरगम के समंदर में बहती मिठास

सरगम...इन चार अक्षरों में समाया है वैसा ही जादू, जैसा ढाई अक्षर वाले प्यार की नस-नस में बहता है। प्यार करो या संगीत सुनो...एक ही बात है...और संगीत से प्यार हो जाए, तब? फिर तो मज़ा ही कुछ और आता है। साज़ जगे और जाग गई ज़िंदगी...रग-रग में लहू बनकर तैरने लगी आवाज़, उम्मीद से भर गया दिल का खालीपन, बोझ से भारी सांसें हलकी हुईं और बाजों की मिठास पहुंच गई धड़कन-धड़कन तक। सरज़मीन-ए-हिंदुस्तान के लोग इस बात पर नाज़ कर सकते हैं कि उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी संगीत की विरासत मिली है। संगीत भी अनूठा-दैवीय, शांत करने, शांति देने और मस्ताना-दीवाना बना देने वाला। मंदिरों से महफ़िलों तक, मंचों से मूवीज़ तक संगीत ने कितने ही रूप बदले हैं, रंग पाए हैं, लेकिन इसके असर में कमी कभी नहीं आई। संगीत को लेकर भारतवासियों की दीवानगी भी कमाल की है, इसके चलते कई म्यूज़िकल बैंड मशहूर हुए हैं। इनमें से ही एक है—इंडियन ओशन।
फ़र्क बस इतना है कि इंडियन ओशन की शुरुआत दो दशक पहले हुई, जब म्यूज़िकल बैंड का नाम-ओ-निशान तक किसी के जेहन में नहीं था। कहानी दिलचस्प है...हुआ यूं कि 80 के दशक में एक दोस्त के घर पार्टी में दो कलाकार—सुष्मित सेन और अशीम चक्रवर्ती मिले। सुष्मित ने अशीम को गिटार पर कुछ  कंपोजिशन सुनाईं, जो उनको भा गईं। अशीम सात साल की उम्र से ही तबला बजाते थे। मन्ना डे तक के साथ काम कर चुके थे। मन में ख्वाब था, कुछ खास करने का। सुष्मित से मिले, तो लगा—ऐसा ही तो साथी मैं तलाश रहा था। फिर क्या, दोनों साथ ही काम करने लगे। बाद में बैंड भी बना।
बैंड की शुरुआत के समय अशीम विज्ञापन एजेंसी में क्रिएटिव डायरेक्टर थे और सुष्मित मैनेजमेंट की फ़ील्ड में काम करहे थे, लेकिन दोनों को संगीत का नशा ऐसा चढ़ा कि बाकी सारी दुनिया ही बेगानी लगने लगी। 1990 में बैंड की शुरुआत के बाद 1991 में राहुल राम टीम में आए और 1994 में अमित किलम...।
बैंड का अनूठापन ये भी है कि पुराने दिनों में इसकी पेशकश साज़, यानी कंपोजिशन के इर्द-गिर्द ही घूमती थी, बाद में इसमें गायकी शामिल की गई। वैसे, मूल आधार अब भी वाद्य-संरचनाएं ही हैं...। बैंड के फ़नकारों को जब लगता है कि किसी कंपोजिशन के लिए बोल की ज़रूरत है, तभी गीत लिखे जाते हैं। हौले-हौले, सब्र के साथ, सुंदर काम... इंडियन ओशन ने यही मूलमंत्र अपनाया।
बीस साल से भी ज्यादा वक्त और सिर्फ तीस गाने...मतलब साफ है—कुछ भी, अधकचरा पेश कर देने वाले कॉमर्शियल रुझान से ये कलाकार समझौता नहीं करते।
फ़िल्म `ब्लैक फ्राइडे’ का एक गीत बहुत मशहूर हुआ... ' अरे रुक जा रे बंदे,  अरे थम जा रे बंदे'। ये गीत इंडियन ओशन की उपज ही है। पीयूष मिश्रा की पंक्तियां अरसे तक नौजवानों की ज़ुबान पर रची-बसी रहीं!  इंडियन ओशन का संगीत अनूठा है, इतना कह देने भर से काम नहीं चलेगा। धुन और सुर समझने-महसूसने के लिए शब्दों का सहारा लेना नाकाफी होगा। जब मंच पर गीत के बोलों में अल्हड़ भारत की उमंगें मचलती हैं और अनुभवी कलाकार पूरे माहौल को साज़ और आवाज़ से सजा देते हैं, तब वहां जो समां बनता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, बयान नहीं!
वैसे तो, इंडियन ओशन का संगीत रॉक फ्लेवर का है, यहां फ्यूज़न का मज़ा भी है, लेकिन असल मायने में पूरे भारत की ज़िंदगी का हर रंग इसके सुरों में सना है, सिमटा है। तरीका अलग है, तेवर अलग हैं पर गिटार, ड्रम और शास्त्रीय आलाप के तालमेल के सहारे बैंड के कलाकार मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ज़िंदगी जैसे ठहर जाती है, कहती है—अब यहां से कहीं नहीं जाना! हर पीर पिघला देने वाले संगीत का असल जादू यहीं पता चलता है, सिर चढ़कर बोलता है।
हाल में इस बैंड के कलाकारों की ज़िंदगी, उनकी जद्दोजहद, सपने, कोशिशें और कामयाबी बयां करने वाली एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म `लीविंग होम— द लाइफ एंड म्युज़िक ऑफ इंडियन ओशन’ रिलीज़ हुई। फ़िल्म के डायरेक्टर जयदीप वर्मा अनोखा रिकॉर्ड बनाने में सफल रहे।
हां! लीविंग होम पहली ऐसी नॉन फ़िक्शन फ़िल्म बन गई, जिसे थिएटर में रिलीज़ किया गया। (हम बता दें कि जुम्मा-चुम्मा इन लंदन और फ़िल्म्स डिवीज़न, पीएसबीटी वगैरह की फ़िल्में इस दायरे में नहीं शामिल की जा सकतीं, क्योंकि उनका कंटेंट अलग होता है और अंतराल भी!)। वैसे, फ़िल्म रिलीज़ होने के लम्हे तक पहुंचने के लिए जयदीप को वर्षों लंबे इंतज़ार से जूझना पड़ा, लोगों को समझाना पड़ा—इंडियन ओशन पर फ़िल्म बनाने की ज़रूरत क्या है और खुद को भी हर वक्त ताज़ा, हौसलामंद और सब्रदार बनाए रखना पड़ा।
फ़िल्म बन जाने से इंडियन ओशन की महानता नहीं बढ़ती, लेकिन इसमें कई ऐसे लम्हे ज़रूर संजोए गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इस संगीत-दल के गठन के पीछे क्या ख्वाब थे और इसकी शुरुआत में सदस्यों के हालात ने कैसा रोल अदा किया। मसलन—अशीम कभी नहीं भूल पाए कि उनके घर से कोई बैंड का कार्यक्रम देखने नहीं आया।
किसी का ज़रा-भी नाम हो जाए, सफलता मिल जाए, तो उसका अगला ठिकाना होता है बॉलीवुड, लेकिन इस अनूठे दल ने मुंबई जाने की जगह मन की बात मानने पर ज्यादा ज़ोर दिया।
कलाकारों ने ब्लैक फ्राइडे को संगीत से सजाया। इसके अलावा, मुंबई कटिंग और भूमि जैसी फ़िल्मों के लिए संगीत रचा, लेकिन बाज़ारू संगीत की बाढ़ नहीं लगाई। इसे भी एक मज़ेदार संयोग ही कहा जाएगा कि फ़िल्में करने के मामले में बेहद चूजी आमिर खान की अगली फ़िल्म के तीन गीतों का संगीत भी इंडियन ओशन के फ़नकार ही दे रहे हैं। इसे कहते हैं—एक जैसी रुचि वालों का साथ आना।
इंडियन ओशन अपने अनूठेपन, अलमस्ती और सीधी, अपनत्व भरी लयात्मक बातचीत के लिए महान है...ज़रूरी है। सुरों के कारवां में बहुत-से लोग जुड़ते रहे, कई बिछड़े भी। बीते साल बैंड के संस्थापक, खास गायक और तबला वादक अशीम चक्रवर्ती भी नहीं रहे...उनसे ज़ुदा होने का दर्द इंडियन ओशन के कलाकारों को हमेशा सालता रहेगा। बावज़ूद इसके सरगम का सफर जारी है। ये फ़नकार जानते हैं—किसी का दर्द मिटाना है, तो अपनी तकलीफ़ भुलानी होगी, हमें अपने गीतों के सहारे सबके होंठों पे मुस्कान सजानी होगी।


जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग http://www.dailynewsnetwork.in/news/18042010/Hum-log/8217.html में प्रकाशित आलेख


Friday, April 23, 2010

मक्खन-सी तुम्हारी याद

नीले-नीले बाल, संतरी रंग का चेहरा, पॉल्का डॉट्स से सजी फ्रॉक...ये लड़की कौन है? कुछ जानी-पहचानी सी है ना! याद आ गया या बता दूं? ये वही तो है—अमूल मक्खन के रैपर पर मुस्कराती, इठलाती किशोरी...जिसकी शक्ल देखते ही दिमाग में कहीं गूंजने लगती है ये लाइन...`अटरली, बटरली, डिलिशस... ‘ और बस मुंह में पानी आ जाता है, लेकिन आज ये लड़की उदास है। इसकी आंख में पानी है...। उदास तो आप भी हो जाएंगे ये जानकर कि मक्खन के खास ब्रैंड के लिए इतनी ख़ूबसूरत और नटखट लड़की की तस्वीर उकेरने वाले ऑस्टेस फर्नांडिस अब इस दुनिया में नहीं रहे...।
फर्नांडिस ने अपने प्रशंसकों को उस दौर में आखिरी सलाम बोला है, जब इस एड कैंपेन को गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में जगह मिलनी तय है। ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि चालीस साल से भी ज्यादा समय पहले इस अभियान की नींव रख दी गई थी। फ़िलहाल, ये भारत में सबसे पुराना और सबसे ज्यादा चलाया गया एड कैंपेन बन चुका है। पता नहीं, ये मक्खन के जायके का कमाल है, या फिर अमूल के विज्ञापनों से सजी होर्डिंग्स पर लिखे वन-लाइनर्स का जादू कि हर सुबह फिगर कॉन्शस लोग भी ताजी-सिंकी ब्रेड पर मक्खन लगाकर खाना नहीं भूलते।
ठीक इसी तरह `मक्खन-गर्ल’ के जनक को भी नहीं भुलाया जा सकता। रेडिएस एडवर्टाइजिंग के डायरेक्टर ऑस्टेस फर्नांडिस ने महज 75 साल की उम्र में दुनिया छोड़ दी है। आज वो नहीं हैं, तब और शिद्दत के साथ उन वन-लाइनर्स की याद आ रही है, जिनका आधार फर्नांडिस ने तैयार किया था। यूं तो, इन विज्ञापनों को दाकुन्हा कम्युनिकेशन के चेयरमैन सेल्वेस्टर दा कुन्हा ने ही मूलरूप में तैयार किया है। वो 1966 से ही अमूल से जुड़े रहे हैं, लेकिन ऑस्टेस और दा कुन्हा की की जोड़ी राजकपूर और मुकेश की तरह है, जैसे—एक ने तस्वीर उकेरी और दूसरे ने रंग भरे!
किसी उत्पाद को कोई क्यों खरीदता है और बार-बार की जाने वाली खरीदारी की क्या वज़ह होती है? ऑस्टेस ये बात जानते थे। वो समझते थे—जब तक आप खरीदार का भरोसा नहीं जीत लेते और उसकी ज़िंदगी में अपने उत्पाद की ज़रूरत स्थापित नहीं कर देते, तब तक वो लगातार वही प्रोडक्ट नहीं खरीदता। यही वजह है कि अमूल गर्ल का स्वरूप तैयार करते समय उन्होंने एकदम पास-पड़ोस जैसी नज़र आने वाली चुलबुली लड़की को दिमाग में रखा।
किसी सुपर कंप्यूटर को भी मात कर देने वाली रफ्तार के मालिक फर्नांडिस पर उम्र कभी कोई असर नहीं डाल सकी। वो जब भी काम करते, तो लोग उनकी स्पीड देखते ही रह जाते। एक नायाब कार्टूनिस्ट और इलस्ट्रेटर के रूप में ऑस्टेस काफी मशहूर हुए। अपने विश्वसनीय सहयोगियों के साथ 1974 में उन्होंने विज्ञापन कंपनी रेडिएस एडवर्टाइजिंग की शुरुआत की। उनकी सहयोगी राधा और ऑस्टेस के नामों के शुरुआती अक्षर मिलाकर ही तो इस कंपनी का नाम रखा गया था, ठीक वैसा ही प्रयोग—जैसा मक्खन विज्ञापन की कैचलाइंस में होता है!
शीतल पेय कंपनी लिम्का के विज्ञापनों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय भी ऑस्टेस को ही जाता है। उन्होंने रंगों और छवियों के तालमेल के साथ शुरुआती दौर में कलाकारों के बिना ऐसे विज्ञापन बनाए, जिन्हें देखते ही कोल्ड ड्रिंक पीने को दिल ललचाने लगे। भारतीय जीवन बीमा निगम की योजनाओं को लोकप्रिय बनाने में भी उनका बड़ा योगदान है। कैसे? जाहिर है—रचनात्मक ढंग से तैयार किए गए विज्ञापनों के ज़रिए!
ऑस्टेस ने व्यवसाय की पारी सफलता के साथ खेली। उनको हंसी का मर्म पता था। वो जानते थे कि एक ग़मज़दा, मुश्किलों के मारे, रोजमर्रा के कामकाज से दबे, घर-दफ्तर की परेशानी से बोझिल इंसान को हंसाकर अपना बनाया जा सकता है। मध्यवर्गीय भारतीयों की इसी सोच को ऑस्टेस ने अपने व्यापार को सफल बनाने के मंत्र के रूप में भी इस्तेमाल किया। हालांकि ये कोशिश भावनात्मक शोषण नहीं थी। ऑस्टेस ने बस वो नब्ज पकड़ ली थी, जिसे छूने भर से आदमी के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। चुभती हुई, गुदगुदाती हुई कुछ लाइनें कानों और आंखों से होकर दिल में उतर जाती हैं और वो गुनगुनाने लगता है...अटरली...बटरली...!

एक लाइन का कमाल
मक्खन के खास ब्रांड `अमूल’ की क्रिएटिव टीम हर बार मस्तमौला अंदाज में समसामयिक विषय पर विज्ञापन तैयार करती रही है। गुजरात में आमिर खान की `फ़ना’ की रिलीज को लेकर दिक्कतें आ रही थीं। हर तरफ गर्मागर्म बहस जारी थी, इसी बीच एक दिन टंग गई एक नई विज्ञापन होर्डिंग...`मना...कभी मना नहीं!’
सौरव गांगुली के ख़राब फॉर्म पर sorrow ganguly  का हास्य हो, या फिर मुगल-ए-आजम रिलीज होते समय फ़िल्म की टाइटिल से तुक मिलाकर लिखी गई लाइन—maskaa-e-aazma...विज्ञापनों की ये शैली अनूठी और यादगार है । ऐसे ही एक वन लाइनर के सहारे महमूद को भी अनूठी श्रद्धांजलि दी गई—हम तेरे तेरे तेरे चाहने वाले हैं।
ओल्ड इज गोल्ड वाले मुंबइया फ़िल्म जगत से लेकर नए दौर के बॉलीवुड तक मक्खन ब्रांड के विज्ञापनों में हर हलचल छाई रही है। नौजवानों की पसंदीदा बनी फ़िल्म दिल चाहता है की रिलीज के मौके पर कैचलाइन थी—डिश चाहता है, तो स्वदेश का स्वागत इस पंक्ति ने किया—स्वाद डिश! महज फ़िल्म जगत की बात नहीं, चर्चा में आया हर विषय मक्खन-विज्ञापन की कैचलाइन के रूप में होर्डिंग्स पर उतर आया है।

जयपुर के हिंदी अख़बार डेली न्यूज़ के सप्लिमेंट हम लोग में प्रकाशित आलेख





Thursday, April 22, 2010

कर देना फिर मेरी चादर सिंदूरी


आज फिर खोली
जंग लगे ताले से बंधी
पुरानी लोहे वाली संदूक
भरभराकर ढहा वर्तमान
किस तरह कस रहा अतीत
जैसे, फिर आईं तुम 
बांह में जकड़ने को भागी-भागी सी...
लौटी भीगी-भीगी शाम
पहली-पहली बारिश की बूंदें लेकर
उतराई आंख के सामने 
हर रात की तस्वीर
झिलमिलाती हुई सही
भीगी पलक में सिमट नहीं रहे लमहे
शुक्रिया संदूक 
तुमने समेटे रखे
पीले-ज़र्द पड़े कुछ खत
धुंधली-फ़ीकी स्याही और चटख तुम्हारी याद...
सुनो
फिर धड़क रहा दिल धक-धक
उस दोपहर
डाकिया पटक गया था
तुम्हारे नाम के हज़ार बैरंग खत
मेरे घर की चौखट पर
हां, मैंने चुकाए थे पैसे
उन बैरंग खतों की एवज में
और 
भर लिए थे जीवन में रंग हज़ार...
सांझ की चादर पर प्रेम-सिंदूर लगाकर
थक कर सो गया उसे ही सिर तक ओढ़कर
रुनझुन-रुनझुन करतीं तुम आईं फिर
पूछा—क्यों लीं मेरे नाम की चिट्ठियां
बांच भी ली होंगी... 
तब से / अब तक / मेरे पास
बंधी रखी हैं / बिना बांची चिट्ठियां तुम्हारी 
आओ...ले लो 
पढ़ लेना तुम्हीं उन्हें
और कर देना फिर मेरी चादर सिंदूरी

Monday, April 19, 2010

अविनाश वाचस्पति रहे पुकार...कहां हो प्यारे टाटा जी




चौराहा पर पहली बार...किसी और की...(नहीं तो, ये अपने ही हैं...) अविनाश वाचस्पति जी की रचना....

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टाटा मोटर्स की इंडिका धोखे से पुराना मॉडल दे दिया गया : खरीदने से अब तक कर रही है लगातार परेशान (माननीय रतन टाटा जी से विनम्र अनुरोध)


मैंने 14 मार्च 2008 को मैसर्स विवेक ऑटोमोबाइल्‍स, करौल बाग से टाटा इंडिका जीएलजी DL 3C AY 5018 की खरीद की थी परन्‍तु मुझे बिना मेरी जानकारी में लाए वर्ष 2007 में निर्मित कार दे दी गई। जिस दिन से कार शो रूम से लेकर चला हूं तभी से तंग कर रही है। विवेक ऑटोमोबाइल्‍स के श्री दिनेश चावला ने कई बार मांगने के बाद भी पूरा भुगतान लेने पर भी ब्‍यौरेवार पूरा विवरण नहीं दिया। कार के साथ नंबर प्‍लेट भी नहीं दी गई जबकि उसके चार्जिस ले लिए गए। मैंने ट्यूबलैस टायर लगवाने के लिए कहा, जिसका अंतर 3000/- रुपये तो लिए गए परन्‍तु उनकी कोई रसीद नहीं दी गई। इस बारे में मैंने कई बार श्री दिनेश चावला को फोन पर भी कहा है और ई मेल भी भेजी हैं परन्‍तु उन्‍होंने आश्‍वासनों के अतिरिक्‍त कुछ नहीं किया। कार की डिलीवरी लेने से एक दिन पहले भी मैंने उन्‍हें ई मेल भेजी थी कि क्‍या इंडिका जीएलजी पेट्रोल वर्जन में सीएनजी किट लगवाने पर समस्‍या आती है तो उन्‍होंने इस संभावना को सिरे से ही नकार दिया। जबकि कार मुझे लेने के दिन से पेट्रोल पर और सीएनजी लगवाने पर (जब तक किट बदलवाकर दूसरी स्‍वीकृत सीक्‍वल किट नहीं लगवाई गई), इसका इंजन भी एक बार बदल चुका है, कभी स्‍टार्टिंग में परेशानी सेल्‍फ संबंधी, कभी सर्विसिंग में लापरवाही (कुल मिलाकर मेरी परेशानियों में दिनोंदिन इजाफा) अब तक बेसाख्‍ता परेशान कर रही है। इस बारे में पूरे इतिहास की आप जांच करवा सकते हैं।
नई कार जिस सुकून और आराम के लिए ली जाती है, वो तो मुझे नसीब ही नहीं हुआ है। बनिस्‍बत इसके मेरे जीवन में इसके आने से परेशानियों का अंबार लग गया है। जिससे राहत के लिए मैंने कई बार टाटा मोटर्स के कस्‍टमर केयर को ई मेल से सूचनाएं दी हैं। कंपनी के अधिकारियों से मिलने पर भी कई बार अनुरोध किया है परन्‍तु नतीजा वही ढाक के तीन पात। आप तक पहुंचने के लिए न तो मुझे ई मेल पता ही दिया गया और न ही मेरी समस्‍या आप तक पहुंच सकी है। मजबूर होकर मुझे सार्वजनिक मंच पर अपनी बात रखनी पड़ी है।
अब इन समस्‍याओं से आजिज आकर मैं अपनी समस्‍या सार्वजनिक कर रहा हूं। जिससे मेरी पुकार आप तक पहुंच सके और मुझे मेरी राशि हर्जाने सहित वापिस मिल सके। मुझे पूरा विश्‍वास है कि आप सत्‍य और न्‍याय पर अमल करते हैं। सफलता हासिल करने के लिए जिन खासियतों की इंसान को जरूरत होती है, वे सब आप में हैं। पूरी जानकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिएगा
माननीय रतन टाटा जी से अनुरोध कि टाटा मोटर्स की इस खराब कार के मामले में हस्‍तक्षेप करने का कष्‍ट करें ?
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