कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Sunday, December 6, 2009

...मैं अयोध्या हूं!




मैं अयोध्या हूं...। राजा राम की राजधानी अयोध्या...। यहीं राम के पिता दशरथ ने राज किया...यहीं पर सीता जी राजा जनक के घर से विदा होकर आईं। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ...। यहीं बहती है सरयू.... लेकिन अब नदी की मस्ती भी कुछ बदल-सी गई है...। कहां तो कल तक वो कल-कल कर बहती थी और आज, जैसे धारा भी सहमी-सहमी है...धीरे-धीरे बहती है। पता नहीं, किस कदर सरयू प्रदूषित हो गई है...कुछ तो कूड़े-कचरे से और उससे भी कहीं ज्यादा...सियासत की गंदगी से। सच कहती हूं... आज से सत्रह साल पहले मेरा, अयोध्या का कुछ लोगों ने दिल छलनी कर दिया...वो मेरी मिट्टी में अपने-अपने हिस्से का खुदा तलाश करने आए थे...।







ऐसा पहली बार नहीं हुआ था...सैकड़ों साल से मज़हबों के नाम पर कभी हिंदुओं के नेता आते हैं, तो कभी मुसलमानों के अगुआ आ धमकते हैं...वो ज़ोश से भरी तक़रीरे देते हैं...अपने-अपने लोगों को भड़काते हैं और फिर सब मिलकर मेरे सीने पर घाव बना जाते हैं...। कभी हर-हर महादेव की गूंज होती है, तो कभी अल्ला-हो-अकबर...की आवाज़ें आती हैं....

लेकिन ये आवाज़ें, नारा-ए-तकबीर जैसे नारे अपने ईश्वर को याद करने के लिए लगाए जाते हैं...। पता नहीं...ये तो ऊंची-ऊंची आवाज़ों में भगवान को याद करने वाले जानें, लेकिन मैंने, अयोध्या ने तो देखा है... अक्सर भगवान का नाम पुकारते हुए तमाम लोगों ने खून की होलियां खेली हैं...और हमारे लोगों के घरों से मोहब्बत लूट ले गए हैं...। जिन गलियों में रामधुन होती थी...जहां ईद की सेवइयां खाने हर घर से लोग जमा होते थे...वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है...वहां नफ़रतों का कारोबार होता है।

किसी को मंदिर मिला, किसी को मसज़िद मिली...हमारे पास थी मोहब्बत की दौलत, घर को लौटे, तो तिज़ोरी खाली मिली...।

छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ...हो गया...पर वो सारा मंज़र अब तक याद आता है...और जब याद आता है, तो थर्रा देता है...। धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़े, उनकी छातियां चौड़ी हो जाती हैं...कोई शौर्य दिवस मनाता है, कोई कलंक दिवस, लेकिन अयोध्या के आम लोगों से पूछो...वो क्या मनाते हैं...क्या सोचते हैं...बाकी मुल्क के बाशिंदे क्या जानते हैं...क्या चाहते हैं...। वो तो आज से सत्रह साल पहले का छह दिसंबर याद भी नहीं करना चाहते, जब एक विवादित ढांचे को कुछ लोगों ने धराशायी कर दिया था।
हिंदुओं का विश्वास है कि विवादित स्थल पर रामलला का मंदिर था...। वहां पर बनेगा तो राम का मंदिर ही बनेगा...। मुसलिमों को यकीन है कि वहां मसज़िद थी...।

जिन्हें दंगे करने थे, उन्होंने घर जलाए...जिन्हें लूटना था, वो सड़कों पर हथियार लेकर दौड़े चले आए...नफरतों का कारोबार उन्होंने किया...और बदनाम हो गई  अयोध्या...मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का?

मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पांच जैन तीर्थंकर यहां जन्मे...इनके मंदिर भी तो बने हैं यहां. वो लोग भला क्यों नहीं झगड़ते। नहीं...मैं नहीं चाहती...कि वो भी अपने मज़हब के नाम पर लड़ाइयां लड़ें...लेकिन मंदिर और मसजिद के नाम पर तो कितनी बड़ी लड़ाई छिड़ गई है।
आज...रात के इस पहर...जैसे फिर वो मंज़र आंख के सामने उभर आया है...एक मां के सीने में दबे जख्म हरे हो गए हैं...कल फिर सारे मुल्क में लोग अयोध्या का नाम लेंगे...कहेंगे..इसी जगह मज़हब के नाम पर नफ़रत का तमाशा देखने को मिला था।

हमारे नेता तरह-तरह के बयान देते हैं। मुझे कभी हंसी आती है...अपने नेताओं की बात सुनकर...तो कई बार मन करता है...अपना ही सिर धुन लूं। एक नेता कहती हैं—विवादित स्थल पर कभी मस्जिद नहीं थी...इसीलिए हम चाहते हैं कि वहां एक भव्य मंदिर बने। वो इसे जनता के आक्रोश का नाम देती हैं। उमा भारती ने साफ़ कहा है कि वो ढांचा गिराने को लेकर माफ़ी नहीं मांगेंगी...चाहे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
सियासतदानों की ज़ुबान के क्या मायने हैं...वही जानें...वही समझें...ना अयोध्या समझ पाती है...ना उसके मासूम बच्चे। राम के मंदिर के सामने टोकरियों में फूल बेचते मुसलमानों के बच्चे नहीं जानते कि दशरथ के बेटे का मज़हब क्या था, ना ही सेवइयों का कारोबार करने वाले हिंदू हलवाइयों को मतलब होता है इस बात से कि बाबर के वशंजों से उन्हें कौन-सा रिश्ता रखना है और कौन-सा नहीं। वो तो बस एक ही संबंध जानते हैं—मोहब्बत का!


खुदा ही इंसाफ़ करेगा उन सियासतदानों का...जो मेरे घर, मेरे आंगन में नफ़रत की फसल बोकर चले गए? मैं देखती हूं...मेरी बहनें...दिल्ली, पटना, काशी, लखनऊ...सबकी छाती ज़ख्मी है। 

एक नेता कहती हैं—जैसे 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली थी और कत्ल-ए-आम हुए थे, वैसे ही तो छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया ....अयोध्या में मौजूद कुछ लोग जनविस्फोट को कैसे रोक पाते?
वो बताएं....सड़कों पर निकले हुए लोग एक-दूसरे को देखकर गले लगाने को क्यों नहीं मचल पड़ते...क्यों नहीं उनके मन में आता...सामने वाले को जादू की झप्पी देनी है...। क्या नफ़रतों के सैलाब ही उमड़ते हैं? बसपा की नेता, उप्र की मुख्यमंत्री मायावती कांग्रेस को दोष देती हैं...कांग्रेस वाले बीजेपी पर आरोप मढ़ते हैं...बाला साहब ठाकरे कहते हैं...1992 में हिंदुत्ववादी ताकतें एक झंडे के तले नहीं आईं...नहीं तो मैं भी अयोध्या आता।

 मुझ पर, अयोध्या पे शायद ही इतने पन्ने किसी ने रंगे हों, लेकिन हाय री मेरी किस्मत...मेरी मिट्टी पर छह दिसंबर, 1992 को जो खून बरसा, उसके छींटों की स्याही से हज़ारों ख़बरें बुन दी गईं। किसने घर जलाया, किसके हाथ में आग थी...मुझको नहीं पता...हां एक बात ज़रूर पता है...मेरे जेहन में है...खयाल में है...विवादित ढांचे की ज़मीन पर कब्जे को लेकर सालों से पांच मुक़दमे चल रहे हैं...। 

पहला मुक़दमा तो 52 साल भी ज्यादा समय से लड़ा जा रहा है, यानी तब से, जब जंग-ए-आज़ादी के जुनून में पूरा मुल्क मतवाला हुआ था...। अफ़सोस...मज़हब का जुनून भी देशप्रेम पर भारी पड़ गया। मुझे पता चला है कि कई मामले 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने से जुड़े हैं। क्या कहूं...या कुछ ना कहूं...चुप रहूं, तो भी कैसे? मां हूं...मुझसे अपनी ऐसी बेइज़्ज़ती देखी नहीं जाती। कहते हैं—23 दिसंबर 1949 को विवादित ढांचे का दरवाज़ा खोलने पर वहां रामलला की मूर्ति रखी मिली थी। मुसलिमों ने आरोप लगाया था--रात में किसी ने चुपचाप ये मूर्ति वहां रख दी थीं.

किसे सच कहूं और किसे झूठा बता दूं...दोनों तेरे लाल हैं...चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान...मैं बस इतना जानना चाहती हूं कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?

23 दिसंबर 1949 को ढांचे के सामने हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए. यहां के डीएम ने यहां ताला लगा दिया। मैंने सोचा—कुछ दिन में हालात काबू में आ जाएंगे...लेकिन वो आग जो भड़की, वो फिर शांत नहीं हुई। अब तक सुलगती जा रही है...और मेरे सीने में कितने ही छाले बनाती जा रही है...। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद, दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अर्ज़ी दी कि रामलला के दर्शन की इजाज़त मिले। अदालत ने उनकी बात मान ली...और फिर यहां दर्शन-पूजा का सिलसिला शुरू हो गया। एक फ़रवरी 1986 को यहां ताले खोल दिए गए और इबादत का सिलसिला ढांचे के अंदर ही शुरू हो गया।

हे राम!  क्या कहूं...अयोध्या ने कब सोचा था...कि उसकी मिट्टी पर ऐसे-ऐसे कारनामे होंगे। 11 नवंबर 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने यहीं पास में ज़मीन पर गड्ढे खोदकर शिला पूजन किया। अब तक अलग-अलग चल रहे मुक़दमे एक ही जगह जोड़कर हाईकोर्ट में एकसाथ सुने जाएं। किसी और ने मांग की—विवादित ढांचे को मंदिर घोषित कर दिया जाए। 10 नवंबर 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ और 6 दिसंबर 1992 को वो सबकुछ हो गया...जो मैंने कभी नहीं सोचा था...। कुछ दीवानों ने वो ढांचा ही गिरा दिया...जिसे किसी ने मसज़िद का नाम दिया, तो किसी ने मंदिर बताया। मैं तो मां हूं...क्या कहूं...वो क्या है...। क्या इबादतगाहों के भी अलग-अलग नाम होते हैं? इन सत्रह सालों में क्या-क्या नहीं देखा...क्या-क्या नहीं सुना...क्या-क्या नहीं सहा मैंने...। मैं अपनी भीगी आंखें लेकर बस सूनी राह निहार रही हूं...क्या कभी मुझे भी इंसाफ़  मिलेगा? क्या कभी मज़हब की लड़ाइयों से अलग एक मां को उसका सुकून लौटाने की कोशिश भी होगी?

1993 में यूपी सरकार ने विवादित ढांचे के पास की 67 एकड़ ज़मीन एक संगठन को सौंप दी..। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला रद्द कर दिया। अदालत ने ध्यान तो दिया था मेरे दिल का...मेरे जज़्बात का...इंसाफ़ के पुजारियों ने साफ़ कहा था... मालिकाना हक का फ़ैसला होने से पहले इस ज़मीन के अविवादित हिस्सों को भी किसी एक समुदाय को सौंपना "धर्मनिरपेक्षता की भावना" के अनुकूल नहीं होगा। इसी बीच पता चला कि उत्तर प्रदेश सचिवालय से अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 फा़इलें ग़ायब हो गईं। क्या-क्या बताऊं...!  मज़हब को लेकर फैलाई जा रही नफ़रत मैं बरसों-बरस से झेल रही हूं। 1528 में यहां एक मसज़िद बनाई गई। 1853 में पहली बार यहां सांप्रदायिक दंगे हुए।
1859 में अंग्रेजों ने बाड़ लगवा दी। मुसलिमों से कहा...वो अंदर इबादत करें और हिंदुओं को बाहरी हिस्से में पूजा करने को कहा। हाय रे...क्यों किए थे अंग्रेजों ने इस क़दर हिस्से?  ये कैसा बंटवारा था...उन्होंने जो दीवार खींची...वो जैसे दिलों के बीच खिंच गई। 1984 में कहा गया...यहां राम जन्मे थे और इस जगह को मुक्त कराना है...।  हिंदुओं ने एक समिति बनाई और मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति गठित कर डाली। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ कर दिया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव डाल दी। 1990 में  भी विवादित ढांचे के पास थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ की गई थी। 1992 में छह दिसंबर का दिन...मेरे हमेशा के लिए ख़ामोशियों में डूब जाने का दिन...अपने-अपने ख़ुदा की तलाश में कुछ दीवानों ने मुझे शर्मशार कर दिया। विवादित ढांचे को गिरा दिया गया। अब कुछ लोग वहां मंदिर बनाना चाहते हैं...तो कुछ की तमन्ना है मसज़िद बने...। मैं तो चाहती हूं...कि मेरे घर में, मेरे आंगन में मोहब्बत लौट आए।
बीते सत्रह सालों में मैंने बहुत-से ज़ख्म खाए हैं...सारे मुल्क में 2000 लोगों की सांसें हमेशा के लिए बंद हो गईं...कितने ही घरों में खुशियों पर पहरा लग गया। ऐसा भी नहीं था कि दंगों और तोड़फोड़ के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ले। 2001 में भी इसी दिन खूब तनाव बढ़ा...जनवरी 2002 में उस वक्त के पीएम ने अयोध्या समिति गठित की...पर हुआ क्या??? क्या कहूं...!!!  मेरी बहन गोधरा ने भी तो वही घाव झेले हैं...फरवरी, 2002 में वहां कारसेवकों से भरी रेलगाड़ी में आग लगा दी गई। 58 लोग वहां मारे गए।


किसने लगाई ये आग...। अरे!  हलाक़ तो हुए मेरे ज़िगर के टुकड़े ही तो!!  मां के बच्चों का मज़हब क्या होता है?  बस...बच्चा होना!!

अब तक तमाम सियासतदां मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। फरवरी, 2002 में एक पार्टी ने यकायक अयोध्या मुद्दे से हाथ खींच लिया...। जैसे मैं उनके लिए किसी ख़िलौने की तरह थी...। जब तक मन बहलाया, साथ रखा, नहीं चाहा, तो फेंक दिया। आंकड़ों की क्या बात कहूं...कितनी तस्वीरें याद करूं...जो कुछ याद आता है...दिल में और तक़लीफ़ ताज़ा कर देता है। क्या-क्या धोखा नहीं किया...किस-किस ने दग़ा नहीं दी।
अभी-अभी लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट दी है..कुछ लोगों को दंगों का, ढांचा गिराने का ज़िम्मेदार बताया है...सुना है...उन्हें सज़ा देने की सिफ़ारिश नहीं की गई है। गुनाह किसने किया...सज़ा किसे मिलेगी...पता नहीं...पर ये अभागी अयोध्या...अब भी उस राम को तलाश कर रही है...जो उसे इंसाफ़ दिलाए।

कोई कहता है—अगर मेरे खानदान का पीएम होता, तो ढांचा नहीं गिरता...कोई कहता है—अगर मैं नेता होती, तो मंदिर वहीं बनता...कहां है वो...जो कहे...मैं होता तो अयोध्या इस क़दर सिसकती ना रहती...मैं होती, तो मोहब्बत इस तरह रुसवा नहीं होती।

(फोकस टीवी के विशेष कार्यक्रम ``...17 साल ’’ का मूल आलेख, लेखक चैनल के प्रोग्रामिंग विभाग में स्क्रिप्ट राइटर हैं.)