कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Thursday, April 14, 2011

दूसरों की बात छोड़िए, अपनी आत्मा से तो न्याय कीजिए

विचार : समाचार4मीडिया से साभार

- चण्डीदत्त शुक्ल
जिस दौर में पत्रकारिता की मूर्छावस्था और मृत्यु की समीपता तक की बातें कही जा रही हैं, उस समय में नैतिकता के सवाल मायने ही नहीं रखते। सच तो यह है कि ये विधा, जो कभी मिशन थी, फिर प्रोफेशन बनी, अब विश्वसनीयता और जिजीविषा के संकट से घिरी है। हालांकि भयानक नैराश्य के माहौल में भी, इस तथ्य और सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि टीआरपी के विष-बाण से ग्रस्त टेलीविजन पत्रकारिता और पेड न्यूज़ के संक्रमण से ग्रस्त हुई प्रिंट जर्नलिज्म के कर्मचारी लगातार अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे हैं। यही नहीं, अपनी सीमित कोशिशों में वे पत्रकारिता और खुद को बचाने की जद्दोज़हद कर रहे हैं।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि संपादकों के मैनेजर बनते चले जाने की स्थितियां किस हद तक पत्रकारिता को सजीव और सजग बनाए रख सकेंगी। बहुत कम ही हैं, जिनकी भाषा प्रखर हो, इरादा स्पष्ट और जो सचमुच पत्रकार बनने के लिए इस फील्ड में आ रहे हों। वैसे, इस सबको `फ्रस्ट्रेशन’ मानकर आप खारिज़ भी कर सकते हैं, लेकिन फ़िल्म स्टार, आईएएस, नेता या फिर क्लर्क भी ना बन पाने की स्थिति में, चलो पत्रकार ही बन लिया जाए…या कुछ एंकर्स और प्रभावशाली टीवी पत्रकारों की तर्ज पर चुंधियाकर इस फील्ड में आ जाना भी पत्रकारिता को संकट में डाल रहा है।
ठीक इसी तर्ज पर ऐसा करने वाले भी आजीवन अस्तित्व की जद्दोज़हद और इरादा-लक्ष्य ना स्पष्ट होने के भ्रम से जूझते रहते हैं। यूं, आपको यह विषयांतर लगेगा, लेकिन इस पूरी बात के पीछे कारण है। वज़ह यह कि पत्रकारिता के पीछे अगर मन में स्पष्ट तौर पर मिशन जैसी कोई भावना है, तो वह निर्लज्ज और क्रूर समय में संभव नहीं है, वैसे ही पत्रकारिता की आदर्श परिभाषा के मुताबिक, इसे शुद्ध तौर पर प्रोफेशन नहीं बनाया जा सकता। कारण यह भी है कि यदि आप इस पेशे में बिना किसी पूर्व लक्ष्य के आ गए हैं, तो बाकी धंधों की तरह यहां भी कमाई और नाम की दौड़ में लग जाने का ख़तरा भरपूर है।
मुझे लगता है, भले ही पत्रकारिता के आदर्श अब कायम ना रह गए हों और इसे प्रोफेशन की तरह लेते हुए कमाने-खाने की पद्धतियां शुरू हो गई हों, लेकिन यहीं पर स्व-चेतना और यथास्थिति के फ़र्क समझने और स्वयं पर नियंत्रण की ज़रूरत है। सुदामा पांडेय धूमिल की एक कविता को उद्धृत कर रहा हूं… ज़िंदा रहने के पीछे अगर सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेचकर या …दलाली करके रोजी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है। कविता से दो शब्द हटा दिए गए हैं, क्योंकि वह संसदीय भाषा का बहाना लेकर अश्लील बताए जा सकते हैं। ख़ैर, मुद्दा यही कि पत्रकारिता में अगर हम आए हैं, तो हमारे बहुतेरे उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ इस बात का इलहाम, चेतनता, स्पष्टता और इरादा यही होना चाहिए कि ख़बरची बनने के पीछे बिल्डिंग खड़ी करना हमारा काम नहीं है।
निश्चित तौर पर सारी दुनिया के सामने आदर्शों की दुहाई देने वाले पत्रकारों को अपनी संपत्ति का खुलासा करना चाहिए। वैसे भी, खबरगोई रियल एस्टेट, बेकरी और मैट्रिमोनियल साइट से अलग कुछ खास किस्म का काम तो है ही। इसकी इज्जत बचानी है, तो हमें भी ईमानदार होना होगा। महज आदर्श होने का अभिनय करते रहने और खुद में झूठ पालते हुए पत्रकार ना किसी का विश्वास अर्जित कर सकेंगे, ना ही अपनी आत्मा से न्याय कर पाएंगे।
(लेखक चौराहा.इन पोर्टल के संस्थापक संपादक और स्वाभिमान टाइम्स हिंदी दैनिक के वरिष्ठ समाचार संपादक हैं

Monday, April 11, 2011

फिर उगते सूरज को सलाम

# चण्डीदत्त शुक्ल
(लेखक चौराहा के केयर टेकर, यानी मॉडरेटर हैं। पेशा है पत्रकारिता। दिल्ली में डेरा-बसेरा।)
चीनी भाषा के जिम्पोज शब्द से मिला है जापान को अपना नाम, यानी “सूर्य का देश”। खुद को सूर्य की संतान कहने वाले जापानी सुबह की शुरूआत सूर्य दर्शन से करते हैं, लेकिन 11 मार्च को कुदरत उनसे नाराज थी, देश दहल उठा…पर उगते सूरज के देश में जीवन का सूरज फिर उगा, आइए हम हमेशा की तरह उगते सूरज को सलाम करें…

आंसू पोंछते, सिसकते हुए, बार-बार चीखने भी लगा जापान, लेकिन इस बार चीख दुख से ज्यादा जोश से भरी थी। मन में कसक तो बाकी है, टूटे हुए घरौंदों के बचे-खुचे निशान झोली में बांध रखे हैं, लेकिन पूरा जापान जुट गया है पुननिर्माण में। यही है उगते हुए सूरज वंशियों का साहस, जो अपनी जिद के बलबूते पर महाविनाश के बाद महज पंद्रह दिन में मुल्क को फिर संवार देने की जद्दोजहद शुरू कर चुके हैं। एक तरफ है सुनामी के प्रलय का आतंक, अपनों से बिछुड़ जाने की अंतहीन पीड़ा।
सामने है ऎसा रास्ता, जिस पर चलना तो दूर, पांव बढ़ाने की भी हिम्मत नहीं होती, वहीं दूसरी ओर लाखों लोग निकल पड़े हैं राष्ट्र को पुरानी सूरत देने। धन्य है जापान और वहां के लोगों की जद्दोजहद। सच है, जापान इकलौता ऎसा देश है, जहां हम बिना किसी धार्मिक भाव के राष्ट्र की विचारधारा ना सिर्फ समझते हैं, बल्कि कार्यान्वित होते हुए भी देखते हैं।
पिछले दिनों एक जापानी लड़की ने टि्वटर पर ट्वीट किया। लिखा–पापा परमाणु संयंत्र में गए हैं और मां इतना रो रही है, जितनी कभी नहीं रोई। लड़की चिंतित थी, गुहार लगा रही थी–पापा! लौट आओ…बस तुम आ जाओ और उसके पिता फुकुशिमा न्यूक्लियर पावर प्लांट में रेडिएशन कंट्रोल की मुहिम में लगे हुए थे।
पिता का दिल है, धड़कता होगा बच्ची के लिए…बीवी का प्यार उसे भी खींचता होगा…पर वो जुटा रहा, दिन-रात, क्योंकि उसके सामने अपनों के दर्द से कहीं बड़ा था देश का सम्मान और लोगों की जान बचाने का मिशन। “फुकुशिमा फिफ्टी”और “न्यूक्लियर निंजा” जैसे नामों से पुकारे गए ये शूरवीर खुद की जान जोखिम में डालते हुए रेडिएशन से युद्ध में जुटे रहे। 11 मार्च को सुनामी और भूकंप के बाद फुकुशिमा एटमी प्लांट में विस्फोट हुआ और रेडिएशन का खतरा बढ़ गया, लेकिन असली रणबांकुरे तो वही हैं, जो जान की परवाह किए बिना देश की रक्षा में तल्लीन रहे। जापान में बहादुरी के किस्से तमाम हैं। इनका कोई अंत नहीं। मृत्यु सामने थी।उसे स्वीकार कर जापानियों ने ठान लिया, जब तक जिएंगे, मृत्यु से जूझते हुए देश को नया जीवन दे देंगे।
ओशो ने कहा था–उन्होंने जापान के एक पर्वत शिखर पर पच्चीस हजार साल पुरानी डोबू मूर्तियों का समूह देखा था। ये मूर्तियां रहस्यमयी थीं, लेकिन जब अंतरिक्ष में यात्री गए, तब इनका रहस्य खुला। यात्रियों ने बताया, मूर्तियों ने वैसे ही वस्त्र पहने थे, जैसे एस्ट्रोनॉट पहनते हैं। यह मिथक कमोबेश पुष्पक विमान जैसा लगेगा, लेकिन एक बात तो मानने वाली है–जापानी दूर की सोचते हैं।
सामने खतरा सुनामी का था, दस्तक थी परमाणु विकिरण की, जो मुंह खोले निगलने को तैयार था और फिजा में हर तरफ थी हाड़ गला देने वाली ठंड। थरथराते जापानी एक तरफ कुदरत के हमले से जूझ रहे थे, दूसरी ओर ठंड से दो-दो हाथ करते हुए मैदान में थे। सड़कें बनाते हुए, घर खड़े करते हुए। पुल जोड़ते हुए और प्रकृति को शांत करने की तकनीक में दिमाग और दिल सब एकसाथ लगाते हुए। 235 अरब डॉलर का नुकसान हुआ था। पूरा विश्व जानता था यह बात कि जापान खतरे में है, इसलिए सबने मदद की।
भारत ने सबसे पहले कंबल भेजे, स्विटजरलैंड ने नौ खोजी कुत्तों और 25 राहतकर्मियों की एक टीम भेज दी, तो ब्रिटेन ने 63 राहतकर्मियों का एक दल रवाना किया। थाईलैंड, चीन, सिंगापुर…हर जगह से राहत के हाथ जापान की ओर बढ़े। धन्य है जापान…वहां के लोग सहायता और राहत की प्रतीक्षा में रूके नहीं। खुद को बचाते हुए, वो दूसरों को भी बचा रहे थे। सुरक्षित जगहों पर पहुंचा रहे थे।
यह महज जज्बा था, जिसने जापान को नया जीवन दिया। जिंदगी ने रफ्तार पकड़ने में वषोंü का समय नहीं लगाया। यहां हफ्ते भर में ही जीवन लौट आया। तीन सौ से ज्यादा झटकों के बाद भी सांसों की गर्माहट बाकी थी। शुरूआती दौर में ही 9,452 लोगों के मरने की की पुष्टि हो गई थी, जबकि 14,715 लोग लापता थे। अकेले मियागी में दस हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे पर बचे-खुचे लोग शहर को पुरानी शक्ल देने में जुट गए थे। हर बार मृत्यु से जूझकर जापान ने जीवन की नई परिभाषा लिखी है, वही इस बार भी हुआ…यह बात प्रशंसा से मुग्ध होकर नहीं कही जा रही।
जापानियों ने इसे साबित कर दिखाया है। जापान में जिंदगी गुजर कर रहे बहुतेरे भारतीयों ने भी अपने दोस्तों की मदद करने के लिए स्वदेश वापसी से इनकार कर जुनून और सहधर्मिता साबित की। आप भूले नहीं होंगे, जापान में मौजूद भारतीय दूत आलोक प्रसाद ने बताया था कि जापान में रह रहे बहुत से भारतीयों ने राष्ट्र छोड़ने से इनकार कर दिया था। समुद्री तूफान में दम नहीं कि जापान को खाक कर दे, क्योंकि वहां के लोग जानते हैं कि किस तरह बरबादी के बाद गुलशन रचा जा सकता है।
ऎसी ही एक सोच जापानी कथाकार साक्यो कोमात्सु के उपन्यास “निप्पॉन चिम्बोत्सु” में नजर आती है, जिसमें उन्होंने धरती की विशाल प्लेटें खिसकने से आए भूकंप के बाद भीषण जल प्रलय का ब्यौरा पेश किया था। साफ तौर पर जापानियों के लिए भूकंप नया नहीं है। वो हरदम इससे जूझते हैं और नई लड़ाई के लिए खड़े हो जाते हैं। वहां आपाधापी नहीं है, आपदा से लड़ने का अभ्यास है, यही वजह है कि सुनामी के बाद जापान के लोग जितने बदहवास थे, उतने ही संयत भी।
त्रासदी गुजर गई, उसके निशान बाकी हैं। तबाह हुए बहुत-से कस्बे और शहर वैसे तो शायद पांच-सात साल में हो पाएं, लेकिन जिंदगी लौट आई है और इसका सारा श्रेय जापानियों की हिम्मत को जाता है। वो जानते हैं-जीवन क्या है और कैसे जिया जाता है। जापानी मृत्यु से लड़ना जानते हैं, वो समूह की शक्ति पहचानते हैं, हरदम कहते हैं-”मदादायो”, यानी अभी नहीं।
जापानी सिनेमा के महान हस्ताक्षर अकीरा कुरासोवा की फिल्म “मदादायो” में इस दृढ़ता की साफ झलक दिखती है, वो मौत के सामने खड़े होकर, दुख भुलाकर अट्टहास करने का साहस रखते हैं। एक वजह तो सदैव संकट से लड़ने का जज्बा है ही, साथ ही है समूह का विश्वास। जापान की संस्कृति में सामूहिकता की भावना अद्भुत ढंग से भरी हुई है।
विडंबनापूर्ण सत्य है कि जापान को वही स्वरूप हासिल करने में तकरीबन 309 अरब डॉलर खर्च करने होंगे। अर्थशास्त्र चौपट हो चुका है, रिश्ते-नातेदार-घर-कारोबार-परिवार। सबका अभाव ज्यादातर लोगों के सामने है, विश्व बैंक के विशेषज्ञ बताते हैं कि बुनियादी ढांचा चरमरा गया है, उसे सही करने में कम से कम पांच साल लगेंगे पर जापानी ना थके हैं, ना पलायन करने को तैयार हैं। वो पूरी दुनिया को बता रहे हैं- हम लड़ेंगे साथी।
(जयपुर के हिंदी अखबार डेली न्यूज़ के रविवारीय सप्लिमेंट हमलोग में प्रकाशित)