कौन-सी थी वो ज़ुबान / जो तुम्हारे कंधे उचकाते ही / बन जाती थी / मेरी भाषा / अब क्यों नहीं खुलती / होंठों की सिलाई / कितने ही रटे गए ग्रंथ / नहीं उचार पाते / सिर्फ तीन शब्द

मुसाफ़िर...

Monday, June 28, 2010

कामयाबी का जायका : पैट्रिका नारायण




आमतौर पर रेहड़ी-पटरी वाले क्या बेचते हैं? यही—चाय या फिर सिगरेट!  लेकिन 21 जून, 1982 को चेन्नई के मैरीना बीच में पैट्रिका नारायण की रेहड़ी पर सबकुछ हाज़िर था—कटलेट, समोसा, जूस, चाय और कॉफी। वो चाहती थीं—इतनी कमाई हो जाए, जिससे घर चल निकले। दिल में ज़रूर कामयाब होने का इरादा पल रहा था, लेकिन ये ख़्वाब पलकों के तले आंखों में सहमा हुआ, सिमटा ही था। पैट्रिका के पास आसमान छूने जैसे बड़े सपने देखने की हिम्मत नहीं थी…तो पहले दिन महज पचास पैसे का बिज़नेस हुआ। यही वो रकम थी, जिसके एवज में पैट्रिका ने ग्राहक को एक कप कॉफी बेची और छोटा-सा कारोबार शुरू कर दिया। घर लौटकर पैट्रिका रोने लगीं, लेकिन मां ने समझाया—कोई भी शुरुआत ऐसे ही होती है। छोटी, लेकिन भविष्य के लिए बड़ी। पैट्रिका फिर रेहड़ी के साथ मैरिना बीच पर लौट आईं। अगले दिन ही सात सौ रुपये की कमाई हुई। फिर तो ठेले पर आइसक्रीम, सैंडविच, फ्रेंच फ्राई भी आ गया। 2003 तक तो हर दिन पच्चीस हज़ार रुपये की बिक्री होने लगी थी। फिर स्लम क्लियरेंस बोर्ड ने उन्हें कैंटीन चलाने का ऑफर दिया। एक और क़दम फिर...कामयाबी ही कामयाबी।
और अब?  आज सारी बाधाएं पैट्रिका की हिम्मत के आगे सिर झुका चुकी हैं। उन्हें `फिक्की वुमेन एंटरप्रेन्योर’ अवार्ड मिला है और वो `संदीपा’ नाम की रेस्टोरेंट चेन की मालकिन हैं। हालांकि कामयाबी का ये जायका उन्हें आसानी से नहीं हासिल हुआ। तकरीबन तीस साल पहले मैरीना बीच पर जब पैट्रिका ठेला लेकर निकलीं, तो उस पर खाने-पीने का बहुत-सा सामान था। केतली में उबलती हुई चाय उनके मन में धधकती हुई शंकाएं, अविश्वास, दु:ख, डर और परेशानी। शादीशुदा ज़िंदगी वीरान थी।
नशेड़ी पति और दो बच्चों की ज़िम्मेदारी उठा रहीं पैट्रिका ने कारोबारी बनने के बारे में सपने में भी नहीं सोचा था। उन्होंने रेहड़ी लगाने का फैसला भी घर की ज़िम्मेदारियां पूरी करने की वज़ह से ही लिया था। हां, एक और वज़ह ये थी कि पैट्रिका को नए-नए व्यंजन बनाने और लोगों को खिलाने का शौक था।
अब मीडिया से बात करते समय पैट्रिका बीता वक्त धीमी हंसी के साथ जैसे उड़ा देना चाहती हैं, `हमारी शादी ने ही मुझे कामयाब बनाया। पहले पूरी तरह तोड़ दिया और अब आसमान तक पहुंचा दिया है। ना शादी होती, ना मैं इतनी परेशान होती और ना ही व्यवसाय शुरू करती। वो ब्राह्मण थे और मैं क्रिश्चियन। घर के लोग नहीं चाहते थे कि हमारी शादी हो, लेकिन मैं अड़ी रही। आख़िरकार, हम सात फेरों में तो बंध गए, लेकिन विवाह असफल रहा। वो तमाम तरह के नशों से घिरे थे। ड्रग्स, अल्कोहल और पता नहीं क्या-क्या! शुरुआत में मैंने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन फिर हार मान ली। क्या करती, जब कोई समझना ही ना चाहे।‘
पिता ने भी पैट्रिका को कोई मदद नहीं दी। अब वो दो बच्चों के साथ सड़क पर थीं। भूख मिटाने की ज़द्दोज़हद थी, सिर छुपाने के लिए एक अदद छत की तलाश थी। ख़ैर, किसी तरह रहने का ठिकाना मिला और फिर पैट्रिका ने सोच लिया—ग़रीबी को ऐसा जवाब देंगी कि वो लौटकर उनके घर में आने की हिम्मत भी नहीं करेगी। मां से सौ रुपये उधार लेकर उन्होंने अचार, स्क्वैश और जैम बनाने का काम शुरू किया। सारा दिन अचार सप्लाई करने के लिए जातीं और फिर रात भर अचार बनातीं। कुछ पैसा आया, तो हिम्मत भी बढ़ी। इस बीच पैट्रिका के पिता के एक दोस्त ने उन्हें रेहड़ी दिला दी। उनकी शर्त भी लाज़वाब थी—पैट्रिका उनके उस स्कूल के दो बच्चों को काम दें। रेहड़ी लेकर पैट्रिका मैरिना बीच की तरफ निकल पड़ीं और फिर तो उनकी किस्मत की गाड़ी भी चल निकली। पैट्रिका ने एक साल तक ये अनुमति पाने के लिए संघर्ष किया कि मैरिना बीच के सेंटर प्वाइंट में वो रेहड़ी लगा सकें। आख़िरकार, उन्हें इजाज़त मिली और फिर क्या था...उनके व्यंजनों का जायका लोगों की ज़ुबान पर इस तरह चढ़कर बोला कि नोट बरसने लगे, गरीबी भाग गई और अब पैट्रिका बुलंदी के सातवें आसमान पर हैं... तो है ना ग़ज़ब की प्रेरणादायक कहानी। अब कभी किसी रेहड़ी पर चाय पीते समय उसके मालिक-मालकिन को गौर से देखिएगा, हो सकता है—आप भविष्य की किसी और पैट्रिका के पास खड़े हों।

जयपुर के हिंदी अख़बार डेली न्यूज़ की रविवारीय परिशिष्ट हमलोग http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/27062010/humlog-article/13012.html में प्रकाशित आलेख

Friday, June 25, 2010

और झुकने को तैयार नहीं औरत : चर्चा हमारा




और आज, बहुत दिनों बाद...चौराहा पर एक पुस्तक समीक्षा

बेबस, मज़बूर, ढकी-छुपी, सिसकती, विचारहीन, कमनीय और समर्पितऐसी स्त्री के बारे में सुनते ही पुरुषों की ज़ुबान से यही तो निकलता हैवाह! और अगर यही औरत अपने मन में विचार पाल ले, उसे आकार दे, तो? तो वो कुलटा हो जाती है, चरित्रहीन, भटकी हुई, संस्कार विहीन, आधुनिकता के नाम पर अंधी!
`चर्चा हमारामें मैत्रेयी पुष्पा आधी आबादी की इसी जमात को स्वर देती हैं, जो सोच सकती है, सोचना चाहती है, उसका साहस रखती है, जो अघाई नहीं है, जिसने अपने विचारों को, आकांक्षाओं को दफन नहीं होने दिया, जो शुचिता और समर्पण के नाम पर हर शोषण सहने के लिए तैयार नहीं है।
मैत्रेयी के लिखे हुए को युवा पत्रकार प्रतिभा कटियार ने एक खास आकार दिया है...। दरअसल, मैत्रेयी के कुछ लेखों, साक्षात्कारों और विचारों के अनगढ़ भंडार को प्रतिभा ने छाना और फिर एक बेबाक संकलन सामने आया। ये स्त्री-विमर्श की वो आंधी है, जिसमें वायु और इंद्र देवता के आशीर्वाद से पुत्र जन्म लेने की कहानियां उड़ जाती हैं। लेखिका सवाल करती हैंसंसर्ग के बिना पुत्र जन्म की कहानियां क्यों? उनके लेखन में मिथकों की आड़ में स्त्री को या तो देवी या फिर भोग्या बनाए जाने पर भरपूर कटाक्ष है।
बेवज़ह बुने गए शिल्प की आड़ मैत्रेयी नहीं लेतीं, उनके विचार स्पष्ट और तीखे हैं। पैरा-दर-पैरा मैत्रेयी की भाषा में व्यंग्य का ज़बर्दस्त प्रभाव नज़र आता है और उन लोगों को चोटिल भी करता है, जिन्होंने अपनी बुद्धि को अंधेरे कुएं में धकेल रखा है, विवेक की धार पर रोशन नहीं होने दिया। वो प्रश्न करती हैंपुरुष जितने चाहे संबंध बना सकता है और स्त्री एक भी रिश्ता कायम कर ले, तो सारे परिवार का अस्तित्व खतरे में कैसे पड़ सकता है।
मर्द बुरा है, शोषक है और घृणित हैऐसी राय रखने वाले स्त्री-विमर्शकारों से इतर मैत्रेयी मानती हैंवो स्त्री का साथी है, प्रेमी है, लेकिन तभी, जब वो औरत का मन समझे।
वो प्रेम को सबसे बड़ी ताकत बताती हैं और अपने लेखन में ये तथ्य भी उजागर करती हैं, समाज को भय था कि प्रेम स्थापित ना होने पाए, इसलिए उसने प्रेम किससे हो, कितना हो, जैसी शर्तें लगाईं और उसे कुचलने की कोशिश की।
बेहतरीन कथाकार होने की वज़ह से उदाहरणों और आख्यानों की मात्रा उनके लेखों में भरपूर है। स्त्री-चिंतक के रूप में अपनी नज़र और अंदाज़-ए-बयां से वो महत्वपूर्ण दर्जा हासिल करती हैं। अगर बाजार स्त्री की ताकत है, तो वो उसे सिर्फ उत्पाद कैसे बना रहा है? ये एक बड़ा सवाल है, जिसे अक्सर पुरुषवादी लेखक सामने लाते हैं। मैत्रेयी की दृष्टि यहां चौंकाने वाली है—'कभी सोचा है मर्द क्यों विज्ञापनों में आने पर गर्व करता है? उसका वहां कैसा इस्तेमाल हो रहा हैइस ब्यौरे को कौन खोलेगा? बात तो यही है न कि आप औरत के क्रियाकलापों को उसके शरीर से जोड़कर देखने का चस्का पाले हुए हैं। (करवट ले रही है अब औरतों की ताकत)'
कुछ जगहों पर पाठक (खासकर पुरुष पाठकों) को लग सकता है कि मैत्रेयी अतिरेकी हो जाती हैं, लेकिन सदियों की पीड़ा, कुंठा, क्षोभ और नैराश्य झेल चुकी स्त्रियां समझ सकती हैं कि लेखिका यहां कितनी सच्ची और ज़रूरी बातें कर रही हैं। उद्वेग और उद्वेलन का मिला-जुला अहसास मैत्रेयी की लिखावट में स्याही की जगह ले चुका है। यहां कई बार संवेदनाओं का आवेग तर्क के आधार से भी बड़ा है, लेकिन जो कुछ है, जितना है, सच्चा और ज़रूरी है।
'श्लीलता की रक्षा के लिए जिंदगी को तबाह कर दूं  ऐसे दबाव से इंकार करती हूं।ऐसी बातें कहते हुए मैत्रेयी फट पड़ने की कगार पर खड़ी स्त्री का गुस्सा ही सामने लाती हैं, जो जड़ मानस लिए फिर रहे पुरुष के लिए चुनौती है। लेखिका स्पष्ट करती हैं कि आदर्शों, परंपराओं, संस्कारों और मर्यादाओं के नाम पर स्त्री को गुलाम बनाए रखने की साज़िश लगातार रची जाती रही है और पुरुष नहीं चाहते कि वो खुलकर सांस भी ले सके। जब मिले, सिर्फ घुटने टेके हुए, बिना सवालों के मिले।
अपने एक लेख में मैत्रेयी बताती हैं कि जब स्त्री चाहती है कि वो अखबार पढ़े, तो उसे वो पन्ना थमा दिया जाता है, जिसमें पुरुष को रिझाने के गुर बताए गए हैं...लेकिन अब उसकी रुचियां बदलने लगी हैं। स्त्री चाय थमाने के साथ चर्चा भी करना चाहती है। वो चाहती हैं कि पुरुष ही सबकुछ जानने-समझने का दावा करना छोड़ें। मैत्रेयी गार्गी नामकी विदुषी की चर्चा करते हुए कहती हैं कि ऐसे नाम रखने से महिलाओं का भला नहीं होने वाला।
जिन महिलाओं पर वेदपाठ ना करने की पाबंदी लगाई गई थी, वो अब चिंतन और शास्त्र के क्षेत्र में दखल करना चाहती हैं। चर्चा हमारा में मैत्रेयी ने महिला आरक्षण, स्त्री की नैतिकता, उसकी देह, सेरोगेट मदर और नैतिकता के खोखले प्रश्नों को गंभीरता के साथ उठाया है।  स्त्री-देह को दुनिया की सबसे बड़ी समस्या बताने के अलावा, मैत्रेयी ने शादी की उम्र तय करने का अधिकार लड़की को मिलने की वकालत भी की है। संग्रह का सबसे विचारोत्तेजक लेख हैलड़कियों में प्रेम करने का रोग नहीं, साहस होता है। मैत्रेयी के इस संग्रह की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसे पढ़कर आप स्त्री की नज़र से संसार को देखने के लिए मज़बूर होते हैं और ये भी समझ पाते हैं कि सहमी रहने वाली, अब तक ठगी गई औरत अब और झुकने को तैयार नहीं है।

पुस्तक : चर्चा हमारा
लेखिका : मैत्रेयी पुष्पा
प्रस्तुति : प्रतिभा कटियार
मूल्य : 300 रुपये
प्रकाशन : सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
                            

दैनिक हरिभूमि की साप्ताहिक परिशिष्ट में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा


(चौराहा की ये पोस्ट सृजनगाथा http://www.srijangatha.com/bloggatha-60_2k10 पर भी है)

Wednesday, June 23, 2010

हंसकर गुज़ारी तनहा ज़िंदगी : गैरी कोलमैन

कहते हैं-जिंदगी क्या-क्या रंग दिखाती है हमें...और गैरी कोलमैन ने तो ये बात ता-जिंदगी महसूस की। कभी शोहरत की बुलंदी पर पहुंचे तो कभी अपनो से ही जूझते रहे। बचपन में स्टारडम का मजा मिला तो बड़े होकर अकेलापन और उदासी। हाल ही हुई उनकी मौत के बाद भी उनकी संपत्ति को लेकर खासा विवाद गहराया हुआ है...

फरवरी, 1968 को गैरी कोलमैन जिओनअमेरिका में जन्मे। 42 साल की उम्र में ब्रेन स्ट्रोक के बाद उन्होंने आखिरी सांस ली। एक बीमारीजिसने उन्हें कभी बड़ा नहीं होने दिया और आखिरकारमस्तिष्क आघातजो उनकी सांसें ही निगल गया। 1978 से लेकर 2010 तक गैरी दर्शकों के दिलों पर छाए रहेलेकिन उनका दिल हरदम वीरान रहा। 


पेशे से नर्स एडमोनिया स्यू और लिफ्ट ऑपरेटर डब्ल्यूजी कोलमैन के दत्तक पुत्र गैरी की शादीशुदा जिंदगी अच्छी नहीं रही। 2006 में कॉमेडी फिल्म चर्च बेल के सेट पर वो शैनन प्राइस से मिले। दोनों की आंखें चार हुई। पांच महीने तक एक-दूसरे को परखने के बाद 2007 में शादी कर ली। हालांकि ये रिश्ता महज दो साल चला। साथ छूटने का दर्द तो और बात हैगैरी की सेहत भी अक्सर खराब रही।
1978 से 1986 तक उन्होंने अमेरिकी टेलिविजन धारावाहिक "डिफरेंट स्ट्रोक्स" में बाल कलाकार के रूप में जादुई अभिनय किया। अर्नोल्ड जैक्सन के किरदार में गैरी ने अपनी अदाकारी से सभी को दीवाना बना दिया। कई फिल्मों में काम कियाकुछ टेलीफिल्में बनाईएनिमेटेड सीरीज़ में किरदार निभाए। 1982 में उनके नाम से तैयार किया गया कार्यक्रम गैरी कोलमैन शो भी खूब मशहूर हुआ। और तो औरवीडियो गेम द क्रूज ऑफ मंकी आइसलैंड और पोस्टल में भी गैरी ने बच्चों को खूब लुभाया। लेकिन खुशियां उनके खाते में कम ही थीं। 1989 में गैरी को अभिभावकों और व्यापार सलाहकार से लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। ये बात दीगर है कि मुश्किल दौर में भी गैरी हारे नहीं। आखिरकारउन्होंने अपने हक की जंग जीत ली। अफसोस की बात यही है कि पैसों के लिए लड़ी गई लड़ाई में तो वो जीत गएलेकिन सेहत की जंग में थके हुए सैनिक की तरह ही नजर आए। किडनी से जुड़ी एक बीमारी से गैरी लगातार जूझते रहे।
जिंदगी की जंग में वो कई बार डगमगाए। 1993 में एक टेलिविजन शो में गैरी ने कबूल किया कि उन्होंने दो बार ढेर सारी दवाइयां खाकर जान देने की कोशिश की थीलेकिन ऎन मौके पर जीने की तमन्ना जाग गई या फिर लोगों ने उन्हें बचा लिया। ये जीवन को जैसा हैवैसे ही कबूल करने की जिद थी। गैरी का रोग इतना बढ़ा कि उनका विकास ही अवरूद्ध हो गया। जवान होने के बाद भी वो एक छोटे-से बच्चे की तरह दिखते थे। जीवन में घटी इस त्रासदी से गैरी को एक कलाकार के रूप में लाभ मिला और वो डिफरेंट स्ट्रोक्स में प्रभावी भूमिका निभा सकेलेकिन हर दिन डायलिसिस कराने पर मजबूर गैरी की हर सांस बोझ से दबी होगी...इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। गैरी को दो बारपहले 1973 में और फिर 1984 में किडनी ट्रांसप्लांट भी करानी पड़ी। हां! मुश्किलें क्या करेंजो हौसला बुलंद हो। यही वजह है कि वीएच-ने जब टेलीविजन के 100 महानतम सितारों की सूची तैयार कीतो गैरी का नाम काफी ऊपर था। इसे कहते हैंकुदरत के सितम का हंसकर जवाब देना!
डिफरेंट स्ट्रोक्स की कामयाबी ने गैरी को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। इसके हर एपिसोड के लिए उन्हें लाखों रूपये मिलते थे। अभिभावकोंवकीलोंसलाहकारों का हिस्सा और वेतन बांटने के बाद गैरी कर चुकाते थेफिर भी उनके दोनों हाथ पैसों से भरे रहते थे और दिल एकदम खाली! बीमारीअपनों से मिला धोखा और अकेलापन...ये सब गैरी के दुश्मन थेलेकिन महज चार फिटआठ इंच के इस शख्स के अंदर पहाड़ जैसा हौसला पलता था। हर परेशानी को मुंहतोड़ जवाब देते हुए गैरी ने तय कर लिया कि सियासत में कदम रखेंगे। 2003 में वो कैलिफोर्निया के गर्वनर के चुनाव में उम्मीदवार भी बने। वैसेसमीकरण कुछ ऎसे बदले कि गैरी को राजनीति से अरूचि हो गई। उन्होंने चुनाव में खास दिलचस्पी नहीं दिखाईइसके बावजूद हर दिल अजीज गैरी को 135 उम्मीदवारों में आठवीं जगह मिली और कुल चौदह हजार दो सौ बयालिस वोट हिस्से में आए। 2005 में कोलमैन उताह चले गए और आखिरी सांस तक वहीं रहे।
खैरगैरी अब इस दुनिया में नहीं हैंलेकिन जब भी वो धरती की ओर देखते होंगेतो आठ-आठ आंसू बहाते होंगे। कोलमैन की मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार के अधिकार को लेकर भी विवाद गहराया रहा। इस सवाल का जवाब गैरी जरूर जानना चाहते होंगेसितारों की जिंदगी इतनी रंगीन नजर आती है तो ऎसी वीरान क्यों होती है भला?

(जयपुर के हिंदी अख़बार डेली न्यूज़ के रविवारीय सप्लिमेंट हम लोग http://www.dailynewsnetwork.in/news/humlog/20062010/Humlog-Article/12549.html में प्रकाशित)

Thursday, June 10, 2010

काम का भी कोई बहाना बना लो...


एक पुराना सेटायर...

आबिदा परवीन की गाई एक गजल का शेर आज याद आ रहा है, 'मिलना चाहा तो किए तुमने बहाने क्या-क्या, अब किसी रोज न मिलने के बहाने आओ..। यकीन मानिए, बहानों का बहुत महत्व है। पीने वाले तो बहाने बनाने में महारत रखते हैं। पहले 'आज गम गलत करना है, इसलिए पी ली' कहते हैं फिर 'गम नहीं है, खुश हूं इसलिए पी ली' बताते हैं। खैर, आज बात करनी है छुट्टियों की खातिर बहाने बनाने वालों की, इसलिए गुफ्तगू का रुख थोड़ा मोड़ लेते हैं। 
भगवान न करे, कोई कभी बीमार हो पर खब्ती दिमाग का क्या करें, जो काम न करने के बहाने तलाशता रहता है और इसमें सबसे सॉलिड बहाना बनती है बीमारी। इससे पक्का जुगाड़ शायद ही कोई और हो। ये दीगर बात है कि बीमारी कोई बहाना होती नहीं। काम करने वाले छोटी-मोटी नजला-जुकाम जैसी बीमारी से नहीं घबराते। नोट करें : इस सूची में निखट्टू शामिल नहीं हैं। खैर, बीमारी के बहाने छुट्टी लेने की वजहें भी गजब-गजब की हैं। कोई एक दिन की 'सीएल' लेने की वजह बताता है, बुखार आ गया था। कोई कहता है, पत्नी को ट्रेन पर बिठाना था, तो कहीं और नया बहाना गढ़ लिया जाता है।
बीमारी के बहाने ली गई छुट्टियों की वजह दरअसल, बीमारी ही नहीं होती, और कुछ भले हो। कई तो नई फिल्म का पहला शो देखने पहुंच जाते हैं, तो कुछ नई नौकरी के लिए टेस्ट देने। वैसे, अगर टेस्ट या इंटरव्यू में शामिल होने दफ्तर का ही कोई दूसरा आदमी आ जाए, या मल्टीप्लेक्स के सामने मिल जाए तो सारे ख्वाब धरे के धरे रह जाते हैं। हालांकि ऐसे में दोनों मिलकर कोई नया बहाना तलाशते हैं, या फिर छुट्टी के आवेदन में एक जैसा कारण लिखते हैं।
खैर, 'सिक लीव' का फंडा अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला क्योंकि यह बात छुपी नहीं है कि 'सिक लीव' का सिकनेस से कोई वास्ता नहीं रह गया है। ये तो बॉसेज का रहम है कि वे सिक लीव को लेकर कोई पॉलिसी नहीं बना रहे। शायद इसलिए कि जो आज बॉस हैं, कभी वे इंप्लाई रहे होंगे और उन्होंने भी सिक लीव ली होगी। ऐसा न होता, तो सिक लीव का बहाना फ्यूज हो गया होता। जरा सोचिए, अक्सर ली जाने वाली छुट्टियों के बारे में कोई पॉलिसी बन जाए, तो उसका फॉर्मेट क्या होगा? एक वेबसाइट से उड़ाया गया प्रारूप आप भी देख सकते हैं :
पर्मानेंट रोगियों 
बीमार होना बंद कीजिए। अब आपके दोस्त कम डॉक्टर का फर्जी बीमारी सर्टिफिकेट स्वीकार नहीं किया जाएगा। कंपनी समझ सकती है कि आप बीमारी की हालत में घर से दूर एक डॉक्टर के क्लीनिक तक जाकर लंबी लाइन लगाकर अपना चेकअप करा सकते हैं, तो दफ्तर ऑकर ड्यूटी भी कर सकते हैं।
ऑपरेशन भी बहाना है, बस काम पे आना है
हम हर चार माह में एक नए रोग के नाम पर ऑपरेशन कराने की अनुमति नहीं दे सकते। वैसे भी, कोई बीमारी है तो उसे टालते रहिए। काम में मन लगाएंगे, तो ऑपरेशन की नौबत नहीं आएगी। हम नहीं चाहते कि आप ऑपरेशन कराएं और कंपनी एक जिम्मेदार कर्मचारी को खो दे, या फिर आप काम पर लौटें तो आधे-अधूरे!
जो गया, उसे भूल जा
प्रभु क्षमा करें, कुछ लोग अक्सर किसी नजदीकी रिश्तेदार की मृत्यु होने की बात कहकर छुट्टïी ले लेते हैं। उनसे हम कहना चाहेंगे, 'काम से राहत पाने का ये बहाना ठीक नहीं। ये एक ऐसी स्थिति है, जिसमें आप कुछ भी नहीं कर सकते। न कुछ जोड़ सकते हैं, न घटा पाना आपके बस की बात है, इसलिए जो गया, उसे भूल जाएं। अगर अंतिम संस्कार में जाना है, तो लंच के समय जाएं और ज्यादा से ज्यादा एक घंटे विलंब से द तर वापस आ जाएं।'
ईश्वर न करे, अगर आप खुद ही...
अगर आपको लगता है कि कुछ दिन में आप खुद हमें छोड़कर दूसरे संसार की यात्रा पर जा सकते हैं, तो कम से कम दो सप्ताह पहले सूचित कर दें, ताकि हम वैकल्पिक व्यवस्था कर सकें।
ताजा हो ले
हमें पता चला है कि कुछ लोग दिन में पांच-छह बार कैंटीन चाय पीने के लिए निकल लेते हैं। वे कृपया ध्यान दें : कृपया नए नियम के अनुसार ही चाय पीने निकलें। मसलन-चाय का समय होगा सुबह 9.30 से 9.35। दफ्तर आने से ठीक 25 मिनट पहले। इसी तरह सभी लोग अपनी शिफ्ट पर पहुंचने से 10 मिनट पहले ही चाय पीकर तरोताजा हो लें।
खैर, ये तो हंसी की बात थी। यकीन मानिए, तरक्की का तरीका बस काम है और कुछ भी नहीं, इसलिए बीमार होना छोडि़ए और काम पर जुट जाइए। चर्चित संस्कृतिकर्मी और टेलीफिल्म 'नींद आने तक' के निर्देशक विनय प्रकाश सिंह कहते हैं, 'कॉरपोरेट जगत में बहानेबाजी का कोई स्थान नहीं, क्योंकि समय पर और निष्ठा के साथ किया गया काम ही आपको ऊंचाई तक ले जाता है, इसलिए बीमारी के बहाने बनाना छोड़कर काम करने का बहाना तलाशना चाहिए।'

दैनिक जागरण की गृह पत्रिका टीम जागरण में प्रकाशित

Wednesday, June 2, 2010

छलना...कब तक छलती रहोगी तुम...


छलना!
मुझको छलती रही है तू
सदियों से
माना जिसको
सदैव समर्पित हुआ
ठीक उसी से, बता...
अरे! मैं क्यों तिरस्कृत हुआ...?
तिल-तिल, घुट-घुटकर
जिसका दु:ख अब तक अपना समझा...
माना अपना
नहीं परायाबोध रहा जिसको लेकर
उसने सारे भाव दरश, समझा
संज्ञा दी--नाटकीयता की...
क्यों होता है ऐसा?
जान नहीं पाया हूं अब तक.
हूं असामाजिक क्यूं इस जग में?
दुर्गम में या सुंदर मग में...
या फिर किसी बंद कमरे तक
जहां कहीं भी रहा अस्तित्व मेरा...
मेरा! अपना! अपनेपन!! का...
झूठा नेह नहीं बिखेरा मैंने...
फिर भी तिरस्कृत होता हूं...
क्यों होता है ऐसा...
जान नहीं पाया हूं अब तक!

गोंडा, 1997 की कोई रात

Tuesday, June 1, 2010

`दहशत में दम नहीं, जो ठहरे सरगम के आगे'






सलमान अहमद

1990 में सामने आए बैंड जुनून के कुछ साल पहले तक तीन करोड़ रिकॉड्र्स बिक चुके थे, ऎसे में कहना बेमानी होगा कि जुनून और सलमान बेहद मशहूर हैं, हर दिल अजीज हैं। कामयाबी, शोहरत, पैसा...दुनिया की हर खुशी से मालामाल सलमान ने अब दहशतगर्दी के खिलाफ लड़ाई लड़ने में सरगम का सहारा लिया है।
जुनून...गाने का, गुनगुनाने का...दिल से निकली बातें दिल तक पहुंचाने का...। पाकिस्तान के मशहूर म्यूजिकल बैंड जुनून की पहचान मन खुश कर देने वाले अनूठे संगीत के लिए होती है और इसके संस्थापक सलमान अहमद की? सलमान एक बेमिसाल लड़ाकू हैं...वो आतंक के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं और हथियार है संगीत...।
1990 में सामने आए बैंड जुनून के कुछ साल पहले तक तीन करोड़ रिकॉड्र्स बिक चुके थे, ऎसे में कहना बेमानी होगा कि जुनून और सलमान बेहद मशहूर हैं, हर दिल अजीज हैं। कामयाबी, शोहरत, पैसा...दुनिया की हर खुशी से मालामाल सलमान ने अब दहशतगर्दी के खिलाफ लड़ाई लड़ने में सरगम का सहारा लिया है। दक्षिण एशिया में यू2 नाम से मशहूर सलमान जानते हैं—नौजवान उनके संगीत के मुरीद हैं। वो कहते हैं, आतंकवाद के पहरेदार युवाओं को धर्म के नाम पर भड़काकर अपने साथ ले लेते हैं। जब दहशतगर्द ऎसा कर सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? आखिरकार, संगीत में लोगों को साथ करने की ताकत है। वैसे भी, मेरा लक्ष्य खूबसूरत है, मैं अमन का पैरोकार हूं और मुझे उम्मीद है कि युवा पीढ़ी मेरा साथ देगी।" सलमान की आत्मकथा है—रॉक एंड रोल जिहाद। वो जिहाद की सुंदर परिभाषा देते हैं—जिहाद, यानी बेहतरी, और सवाल भी उठाते हैं, हम अपनी भाषा और संस्कृति को दहशतगर्दो के हाथों अगवा क्यों होने दें?

पेशे से डॉक्टर सलमान अब भी लोगों के घावों पर मरहम लगाने का काम कर रहे हैं, बस तरीका बदल गया है। ये घाव हैं मन के और मरहम है सरगम का। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया उल हक के समय वहां गाने-बजाने पर पाबंदी लगा दी गई थी, लेकिन चंद हौसलामंद नौजवानों ने एक टैलेंट हंट का आयोजन किया। सलमान भी वहां पहुंचे। वो जैसे ही मंच पर पहुंचे, कुछ लोगों ने उनका गिटार तोड़ दिया। उन्हें धमकी दी गई—दोबारा गिटार थामा भी, तो जान ले लेंगे।

खैर, मौसिकी के दीवानों को कौन डरा सकता है, सो सलमान ने फिर गिटार उठाया और उठाया ही नहीं बल्कि अपने सुर और साज के जरिए दुनिया भर में छा गए। यूं वो पाकिस्तान में नहीं रहते, सलमान ने अमेरिका में ही आशियाना बना लिया है। ऎसा होना लाजिमी भी है, क्योंकि जब सियासी करप्शन के बारे में उन्होंने एक गीत लिखा, तो पाकिस्तान में सलमान और जुनून दोनों पर पाबंदी लगा दी गई। सलमान नहीं मानते कि इस्लाम को मानने वाले कट्टर हैं। वो कहते हैं, सारे संसार में डेढ़ अरब से ज्यादा मुसलमान संगीत, कविता, हास्य और नृत्य को पसंद करते हैं...अगर वो इतने कट्टर होते, तो जुनून के तीन करोड़ रिकॉड्र्स कैसे बिकते?

आतंकवाद ही नहीं, एचआईवी और एड्स को लेकर भी उन्होंने जागरूकता फैलाई है। वो संयुक्त राष्ट्रसंघ के गुडविल एंबेसडर रहे, बीबीसी के साथ दो डॉक्यूमेंट्री भी बनाई। वे चाहते हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच नफरत ना फैले। उन्होंने दोनों पड़ोसी देशों के बीच संबंध सुधारने की मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। यूं तो, सलमान ने के साथ म्यूजिक करिअर शुरू किया था, लेकिन डेब्यू एलबम के बाद ही वो इससे अलग हो गए। 1990 में अली अजमत के साथ जुनून की स्थापना करने के बाद फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अक्टूबर, 2005 में पाकिस्तान में भूकंप आया...नेताओं-फनकारों ने हाय-तौबा की, शोक जताया, लेकिन सलमान उनमें से एक थे, जिन्होंने घर-घर जाकर भूकंप पीडितों की तकलीफदूर करने के लिए झोली फैलाई। ऎसी कामयाबी यूं ही नहीं मिलती। सोचिए, दहशतगर्दो से डरकर अगर ये डॉक्टर फिर गिटार ना पकड़ता, तो सरगम की ऎसी मिठास से हम महरूम ना रह जाते? सलमान गाते रहना...तुम्हारा संगीत है, तो दहशतगर्दो की हिम्मत जवाब दे जाती है...तुम ना होते, तो हममें आतंक से युद्ध का जज्बा कैसे बना रहता?

जयपुर के हिंदी अख़बार डेली न्यूज़ की रविवारीय परिशिष्ट  हमलोग  http://www.dailynewsnetwork.in/print/11118.html में प्रकाशित आलेख 

सयंमी होने का एकांतवास


क्यों झेल रहे तुम
संयमी होने का एकांतवास...
प्रिय,
क्या ना जानूं मैं
तुम्हारे अपनेपन का उद्वेलन?
गुंजित होता है हर पल
तेरे अंतर्मन का ये मंथन...
कैसा यह जटिल चक्र रचने का मोह...
भाव बोध से विरक्ति प्रदर्शन कैसा...
और..
ये दर्शाना कि तरंगित होता तन
उठती नहीं उमंगें मन में...
भावहीन मुख से एक अच्छे अभिनेता का
करा सकते हो आभास...
लेकिन सपाटपन का मेकअप उतारने के बाद
देख लीं हैं मैंने सपने देखतीं पनीली आंखें...
अब ना करो, बहाने बनाओ या खिन्नता का करो प्रदर्शन.
पहले मैं बोलूं, झुकूं...
ये प्रत्यंचा शैली तो जड़ पुरुषों के ही खाते लिखी गई है...
मंगलगायन वाले स्वर क्यों बोल रहे हैं...
परेड का कॉशन!
नारी तो भावुकता का द्रवित संगम है...
इतने मत तानो तार प्रिय
कि टूट जाए झनककर मन का सितार...
कितना रोकोगे खुद को-
कहीं बिखर गए तब...?
इसलिए हो जाओ समर्पित...
और हो जाने दो.
समर्पण के क्रम से ही-
तो होगी एक नव अनुभूति,
हठ और इनकार के अतिरिक्त
खोल सकेंगे भावनेत्र हम...
साकार कर सकेंगे...
प्रेमाकाश में मुक्त पांखी बन बिचरने का
सब से दूर, सबकुछ बिसरने का
स्वप्न


गोंडा, रात के 4.30 बजे, 1997